कीर्तन-भजन हमारा समाज कब से कर रहा है यह ठीक-ठीक बताना मुश्किल है।भजन के लिए पवित्र मंत्र चाहिए।जबकि कीर्तन के लिए संगीत और लय चाहिए।भजन अकेले की साधना है ,जबकि कीर्तन सामूहिक आनंद है।कीर्तन बुनियादी तौर पर शास्त्रीय संगीत का विकल्प है।शास्त्रीय संगीत में गायक प्रमुख है। जबकि कीर्तन एकल नहीं सामूहिक होता है।शास्त्रीय संगीत में गायक-श्रोता आमने-सामने होते हैं। उनमें विभाजन या अंतराल बना रहता है।जबकि कीर्तन में श्रोता की भिन्न स्थिति नहीं होती।बल्कि कीर्तन में वह शामिल होता है।गायक-श्रोता का वर्गीकरण कीर्तन के लिए बेमानी है।
शब्द का अपना इतिहास होता है,मंशा होती है और उससे जुड़ी राजनीति भी होती है।मजदूरों की बस्ती में जब कीर्तन होता है तो उसका लक्ष्य वही नहीं रहता जो मन्दिर में होने वाले कीर्तन का है।कईबार दंगों के पहले कीर्तन का आयोजन करके दंगों के लिए माहौलबनाया गया है।अपराधी लोग अपने को पुण्यात्मा के रूप में स्वीकृति दिलाने के लिए कीर्तन कराते हैं।इस नजरिए से देखें तो कीर्तन का अर्थ संदर्भ और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।फलतःकीर्तन भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न अर्थ की सृष्टि करता है।नए विमर्शों को जन्म देता है।
हिन्दीभाषी क्षेत्रों से लेकर पश्चिम बंगाल और उत्तरपूर्व के राज्यों तक कीर्तन के अनेक रूप प्रचलन में हैं।कीर्तन की विशेषता है किसी मंत्र विशेष का संकीर्तन।जैसे-हरे राम हरे राम ,राम राम हरे हरे,हरे कृष्णा हरे कृष्णा,कृष्णा-कृष्णा हरे हरे।यह वैष्णव सम्प्रदाय का जनप्रिय कीर्तन है।इन दिनों इस कीर्तन में पश्चिम और पूर्व का सम्मिश्रण खूब हो रहा है।हरे राम हरे कृष्णा सम्प्रदाय से लेकर श्रीश्री रविशंकर आदि तमाम धार्मिक गुरूओं के यहां कीर्तन के सम्मिश्रित रूपों को आसानी से देखा जा सकता है। कीर्तन में मंत्र,शरीर, और संगीत लय इस कदर गुंथे होते हैं कि उनसे निकलकर सोचना असंभव होता है।
कीर्तन में नाद का आनंद और उन्माद अंतर्ग्रथित है।अंतमें शिरकत करने वाले के पास कीर्तन की स्मृति मात्र रह जाती है।कीर्तन ने संगीत प्रस्तुति के प्रभुत्वशाली रूपों को चुनौती दी है और शिरकत के भावबोध को जन्म दिया है। कीर्तन में हर कोई शिरकत कर सकता है।इस अर्थ में कीर्तन सेकुलर है। प्रिफॉर्मर और श्रोता के बीच के भेद को कीर्तन खत्म कर देता है।कीर्तन में हर कोई अपनी लय,भाव,भाषा और भंगिमा के साथ शिरकत करता है।कीर्तन में कोई भी गीत या मंत्र बार-बार दोहराया जाता है और पुनरावृत्ति के क्रम में ही संगीत की लय में एकता और आनंद की सृष्टि होती है।पुनरावृत्ति समर्पण और धर्मनिरपेक्ष भावबोध निर्मित करती है।इस अर्थ में कीर्तन धर्मनिरपेक्षीकरण का महत्वपूर्ण औजार है। कीर्तन में शरीर,शब्द और गीतात्मक ये तीनों मिलकर नए परिवेश और अनुभूति की सृष्टि करते हैं।यह प्रक्रिया अशिक्षित-शिक्षित में अंतर्क्रियाओं को जन्म देती है,ध्वनि और शब्द की अंतर्क्रियाओं को जन्म देती है।इसमें अंतर्निहित द्वयार्थात्मकता भी अपना खतरनाक खेल खेलती है।अभी तक हम मानते रहे हैं कि शब्द सबसे ताकतवर होता है,हठात कीर्तन हमें यह बोध देता है लय और नाद ताकतवर होते हैं। वेद की ऋचाओं के पाठ के जरिए नाद की जो परंपरा आरंभ हुई वह सचेत रूप से कीर्तन में चली आई है,उसी तरह वैदिक ऋचाओं का पाठ जिस नाद की सृष्टि करता है वह ऋचाओं में निहित अर्थ को छिपाने का काम करता है।यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां पर हमें सोचना चाहिए और सवाल उठाना चाहिए कि कीर्तन की मंशा क्या है ॽ विचारधारा क्या है ॽविचारधारा का संबंध मंशा से है।आयोजक कौन है और किसलिए आयोजन किया जा रहा है ॽऔर किस स्थान पर आयोजन किया जा रहा हैॽ ये सवाल कीर्तन से गहरे जुड़े हैं,इनके आधार पर कीर्तन की विचारधारा को रेखांकित करने में मदद मिल सकती है।
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