आरएसएस के हिन्दी बटुक अहर्निश हिन्दी-हिन्दी कहते नहीं अघाते। वे हिन्दी –हिन्दी क्यों करते हैं ॽ यह मैं आज तक नहीं समझ पाया। इन लोगों के हिन्दीप्रेम का आलम है कि ये अभी तक इंटरनेट पर रोमनलिपि में हिन्दी लिखते हैं,मेरे अनेक दोस्त हैं जो रोमनलिपि में हिन्दी लिखते हैं,मेरी उनसे कोई तकरार नहीं है,मेरी आरएसएस भक्तों के अंग्रेजी लिपि या फॉण्ट में हिन्दी लेखन को लेकर भी कोई आपत्ति नहीं है।भाषा को मैं स्वैच्छिक मानता हूँ,जिसकी जैसी रूचि हो,जिस तरह लिखना चाहे लिखे,भाषा में मन का स्वभाव या लिखने की आदत या बोलने की आदत की बहुत बड़ी भूमिका होती है।इसके अलावा मिश्रण का भी भाषा पर असर होता है।
फासिज्म के भाषाई जंजाल में जीने वाले आरएसएसवाले हिन्दी को शुद्ध करने की जब मुहिम चलाते हैं तो हंसी आती है,वे शुद्धभाषा,शुद्ध हिन्दी के प्रयोग पर बल देते हैं।लेकिन खुद कम से कम लिखते हैं। पर उपदेश का यह आदर्श नमूना है।हिन्दी को जनप्रिय बनाना है तो खूब लिखो,लेकिन ट्विटर पोस्ट से अधिक तो संघी लोग लिखते नहीं हैं ! इतने कम शब्दों से हिन्दी बचने से रही !
हिन्दी या कोई भी भाषा लेखन और शिक्षा से बचती है,नारेबाजी से नहीं।हिन्दी को जनप्रिय बनाना है तो सबसे पहले आरएसएस वालों को अपने अनुयायी दुकानदारों को बोलना होगा कि माल की बिक्री करते समय जो बिल बनाएं वह हिन्दी में बनाएं।बाजार में भाषा का प्रयोग नहीं होगा तो भाषा में ताकत नहीं आएगी।इस समय बाजार की खरीद-फरोख्त अंग्रेजी में होती है।कम से कम हिन्दीभाषी दुकानदारों और खासकर आरएसएस से जुड़े दुकानदारों को हिन्दी को बचाने के लिए इसकी पहल करनी चाहिए।
फेसबुक –ट्विटर पर हिन्दी पारायण करने से हिन्दी बचने वाली नहीं है। खड़ी बोली हिन्दी दिल्ली के खत्री व्यापारियों की भाषा थी और उसका बाजार से गहरा संबंध था जिसके कारण वह आधुनिककाल में तेजी से साझा संचार की भाषा के रूप में फैली।लेकिन इन दिनों हिन्दीभाषी दुकानदारों ने अपने बही खाते की भाषा हिन्दी नहीं रखी,वस्तु के क्रय-विक्रय की भाषा हिन्दी नहीं रखी।मात्र विज्ञापनों और मुंबईया फिल्मों के जरिए हिन्दी को नहीं बचा सकते।
भाषा मीडियम है और मीडियम से मीडियम नहीं बचता।मीडियम का प्रसार होता है।मीडियम बचता है पठन-पाठन और आचरण से। आरएसएस वालों के लिए हिन्दी कभी आचरण की भाषा नहीं रही है।बल्कि सामाजिक टकराव और वर्चस्व का औजार रही है। इससे भाषा कमजोर हुई है।हिन्दीभाषा बढ़े इसके लिए जरूरी है इसके साथ जुड़ी धर्मनिरपेक्ष भाषिक-सांस्कृतिक परंपराओं को आरएसएस वाले आचरण में लाएं।यह संभव नहीं है कि हिन्दी और उसकी विचारधारा हिन्दुत्व हो।हिन्दी की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा परंपरा है।हिन्दी साझे सामाजिक संघर्ष का परिणाम है।हिन्दी बचानी है तो धर्मनिरपेक्ष परंपराओं और आदतों को बचाना होगा।
भाषा कोई शाब्दिक कार्य-व्यापार नहीं है,वह एक वैचारिक कार्य-व्यापार भी है।आरएसएस के लोग जब धर्मनिरपेक्षता पर हमला करते हैं तो वे देश को कमजोर करते हैं,साथ ही हिन्दी को भी असहाय बनाते हैं।यह विलक्षण सच्चाई है कि विगत तीस सालों में आरएसएस ताकतवर बना दूसरी ओर और हिन्दी कमजोर हुई। भाषा को समृद्ध करने के लिए धर्मनिपेक्षता के सामने बिना शर्त आरएसएस को समर्पण करना होगा।उसे धर्मनिरपेक्षता के साथ तदर्थवादी-अवसरवादी रवैय्या त्यागना होगा। मसलन्, आरएसएस के लोग जब भाजपा के मंच से चुनाव लड़ेंगे तो धर्मनिरपेक्षता की औपचारिक शपथ लेंगे लेकिन आचरण और विचारधारा के रूप में धर्मनिरपेक्षता की बजाय हिन्दुत्व पर जोर देंगे।यह असल में हिन्दी की कब्र खोदने वाला काम है।
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