फेसबुक पर स्टीरियोटाइप लेखन खूब है।जाति ,धर्म,राजनीति और लिंगाधारित स्टीरियोटाइप ने समूचे संचार को घेरा हुआ है,हम उससे भिन्न संचार की कभी चर्चा ही नहीं करते।जो जिस पर लगा है वह उसी पर लगा है।इसने संचार में रूढ़िबद्धता को जन्म दिया है।संप्रेषण के मामले में हमें स्टीरियोटाइप बनाया है। जो मोदी विरोधी हैं वे मोदी विरोध पर ही केन्द्रित हैं,जो साहित्य पर केन्द्रित हैं वे लगातार साहित्य पर लिख रहे हैं,जो दलित केन्द्रित हैं वे हमेशा दलितों के सवालों पर ही लिख रहे हैं,जो मोदी भक्त हैं वे मोदीभक्ति में ही हमेशा डूबे रहते हैं।जो समलैंगिक हैं वे उसी मसले पर चिपके पड़े हैं,जो जेएनयू केन्द्रित हैं वे सिर्फ जेएनयू के मसले पर ही ध्यान लगाए बैठे हैं।कायदे से संप्रेषण में इस तरह के रूढ़िबद्ध दायरे टूटने चाहिए लेकिन हो उल्टा रहा है।रूढ़िबद्धता बढ़ रही है।इससे वैचारिक तौर पर फंडामेंटलिज्म को मदद मिलती है।विकल्प की राजनीति के विकास में बाधाएं पैदा होती हैं। रूढिबद्ध संप्रेषण वस्तुतःनिरर्थक संप्रेषण है,वह विकल्प के रूपों के बारे में सोचने ही नहीं देता।फेसबुक सेलेकर मीडिया तक रूढिबद्धता का फलक इतना व्यापक है कि हम भिन्न चीजों पर सोचना बंद कर देते हैं। प्रचलित रूढिबद्ध विषयों पर लिखकर हम सब जाने- अनजाने सर्जनात्मकता विरोधी संचार करते हैं।एक अवस्था के बाद इसके गर्भ से कु-कम्युनिकेशन जन्म लेता है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
शनिवार, 14 मई 2016
स्टीरियोटाइप से निकलकर देखो
फेसबुक पर स्टीरियोटाइप लेखन खूब है।जाति ,धर्म,राजनीति और लिंगाधारित स्टीरियोटाइप ने समूचे संचार को घेरा हुआ है,हम उससे भिन्न संचार की कभी चर्चा ही नहीं करते।जो जिस पर लगा है वह उसी पर लगा है।इसने संचार में रूढ़िबद्धता को जन्म दिया है।संप्रेषण के मामले में हमें स्टीरियोटाइप बनाया है। जो मोदी विरोधी हैं वे मोदी विरोध पर ही केन्द्रित हैं,जो साहित्य पर केन्द्रित हैं वे लगातार साहित्य पर लिख रहे हैं,जो दलित केन्द्रित हैं वे हमेशा दलितों के सवालों पर ही लिख रहे हैं,जो मोदी भक्त हैं वे मोदीभक्ति में ही हमेशा डूबे रहते हैं।जो समलैंगिक हैं वे उसी मसले पर चिपके पड़े हैं,जो जेएनयू केन्द्रित हैं वे सिर्फ जेएनयू के मसले पर ही ध्यान लगाए बैठे हैं।कायदे से संप्रेषण में इस तरह के रूढ़िबद्ध दायरे टूटने चाहिए लेकिन हो उल्टा रहा है।रूढ़िबद्धता बढ़ रही है।इससे वैचारिक तौर पर फंडामेंटलिज्म को मदद मिलती है।विकल्प की राजनीति के विकास में बाधाएं पैदा होती हैं। रूढिबद्ध संप्रेषण वस्तुतःनिरर्थक संप्रेषण है,वह विकल्प के रूपों के बारे में सोचने ही नहीं देता।फेसबुक सेलेकर मीडिया तक रूढिबद्धता का फलक इतना व्यापक है कि हम भिन्न चीजों पर सोचना बंद कर देते हैं। प्रचलित रूढिबद्ध विषयों पर लिखकर हम सब जाने- अनजाने सर्जनात्मकता विरोधी संचार करते हैं।एक अवस्था के बाद इसके गर्भ से कु-कम्युनिकेशन जन्म लेता है।
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