नामवर सिंह के स्वभाव को जो लोग जानते हैं उनको पता है कि वे बात के पक्के हैं, यदि किसी कार्यक्रम के लिए हाँ कर दी है तो जरुर जाते हैं लेकिन इसबार पुरुषोत्तम अग्रवाल की षष्ठिपूर्ति के कार्यक्रम में वे नहीं गए, असल कारण तो नामवरजी जानें, हम इतना जानते हैं कि जिस समय पुरुषोत्तम अग्रवाल जेएनयू से रिटायर हुए तो उस समय उनके विदाई समारोह में भी नामवरजी शामिल नहीं हुए वे उस समय शिलांग में थे। उनका सचेत फ़ैसला था कि वे पुरुषोत्तम के विदाई समारोह शामिल नहीं होंगे, संयोग की बात थी उस समय मैं उनके पास था और उन्होंने अपने मन की अनेक कड़वी मीठी यादें बतायीं उस समय उनका जो रुप मैंने देखा वह काबिलेतारीफ था। नामवरजी का पुरुषोत्तम की षष्ठिपूर्ति में न जाना उनके शिलांग में व्यक्त किए गए नीतिगत रुख़ की संगति में उठाया गया क़दम है। उनके फ़ैसले से उनके आलोचनात्मक रुख़ के प्रति विश्वास और पुख़्ता हुआ है।
पुरुषोत्तम अग्रवाल साठ के हुए , हम चाहेंगे वे सौ साल जिएँ , उनको हम सामाजिक जीवन में हमेशा सक्रिय देखकर ख़ुश होते हैं। लेकिन सामाजिक भूमिका, सरकारी भूमिका और साहित्यिक भूमिकाओं के बीच घल्लुघारे से बचना चाहिए।
एक व्यक्ति के नाते नामवरजी को लोकतांत्रिक हक़ है कि वे कहाँ जाएँ या कहाँ न जाएँ यह वे तय करें। नामवरजी के किसी के जन्मदिन कार्यक्रम में जाने से कार्यक्रम की शोभा बढ़ सकती है लेकिन नामवरजी के किसी को महान कहने से वह व्यक्ति महान नहीं बन सकता। नामवरजी की प्रशंसा अमूमन बोगस होती या फिर मन रखने के लिए या मौक़े की नज़ाकत को ध्यान में रखकर होती है। इसलिए उनके जाने या न जाने से किसी भी कार्यक्रम में चार चाँद नहीं लग सकते, यदि कोई नामवरजी के सहारे साहित्य की वैतरणी पार करना चाहता हो तो यह भी संभव नहीं है। इसका प्रधान कारण है स्वयं नामवरजी का आलोचनात्मक आचरण और व्यक्तित्व। वे अपने आचरण और वक्तव्य से अपने बनाए मिथों को बार -बार तोड़ते रहे हैं।
नामवरजी के अनेक छात्र उनसे जल्दी जल्दी मिलते हैं, मुझे वह सौभाग्य नहीं मिला। एक तो दूर रहता हूँ, दूसरा मेरे पास कोई ऐसा गुण नहीं जो उनको पसंद हो। एक बार कलकत्ता में राहुल सांकृत्यायन के समारोह के दौरान उन्होंने कहा था कि तुम एक बात जान लो शिष्य मेरे ही कहलाओगे, यही सबसे बड़ा उपहार था , मेरे लिए ।
नामवरजी मेरे लिए बहुत बड़े लेखक - बुद्धिजीवी और शिक्षक हैं। मैं हमेशा उनके प्रति क्रिटिकल रहकर ही सोचता हूँ और यह चीज मुझे उनसे ही सीखने को मिली है।अफ़सोस यह है कि जो नामवरजी के शिष्य हैं या उनकी तथाकथित विरासत के वारिस बनना चाहते हैं वे नामवरजी से आलोचना और आत्मालोचना नहीं सीख पाए हैं।
नामवरजी के लिए यह सबसे खराब ख़बर होगी कि उनका कोई बेहतर शिष्य अध्यापन का काम त्यागकर और किसी धंधे मे चला जाय। मैंने निजी तौर पर उनसे पूछा था कि अध्यापन छोड़कर कुछ और काम कर लेता हूँ, कलकत्ता में असुविधा हो रही है, बोले अध्यापन मत छोड़ना , यह हमारी शक्ति और सामाजिक भूमिका का बेहतरीन आधार है।
मैंने यह महसूस किया कि मैं जब भी कक्षा में जाता हूँ तो अपने शिक्षकों को बार बार महसूस करता हूँ। मुझे रह रहकर अपने प्रिय शिक्षक याद आते हैं उनका लिखा याद आता है, उनसे ज्ञान मुठभेड़ करना याद आता है। जब किताब लिखता हूँ तो यह मानकर लिखता हूँ कि उन विषयों पर लिखो जिन पर मेरे शिक्षक नहीं लिख पाए। वह अधूरा काम है उसे आगे बढ़ाओ ।
एक अन्य बात जो बेहद जरुरी है, कोई शिक्षक टीवी या मीडिया में उपस्थिति दर्ज करके बड़ा शिक्षक या बुद्धिजीवी नहीं बन सकता। मीडिया में रहकर पब्लिक इंटेलेक्चुअल भी नहीं बन सकता। यदि ऐसा होता तो रोमिला थापर,इरफ़ान हबीब आदि का तो समाज में कोई नाम ही नहीं होता, ये लोग कभी टीवी टॉक शो में नज़र नहीं आते ,दैनिक अख़बारों में कॉलम नहीं लिखते। एक शिक्षक की जगह कक्षा है ,रिसर्च है , वहाँ वह जितना समर्पित होगा , अकादमिक योगदान करेगा वहीं से वह अपना क़द ऊँचा बनाएगा।
बुद्धिजीवी का क़द सरकारी पद से ऊँचा नहीं बनता । सरकारी नेताओं की चमचागिरी से क़द ऊँचा नहीं बनता.हां नेताओं की चमचागिरी से सरकारी पद जरुर मिल जाते हैं। केन्द्र से लेकर राज्य स्तर तक चलने वाले सभी लोकसेवा आयोगों में जितने सदस्य रखे जाते हैं वे राजनीतिक सिफ़ारिश पर रखे जाते हैं। यही वजह है कि इन आयोगों में कभी स्वतंत्रचेता लोग नहीं रखे गए।
हिन्दी की सचाई है कि यहाँ कोई पब्लिक इंटेलेक्चुअल नहीं है। यहाँ किसी में नॉम चोम्स्की या एडवर्ड सईद जैसे गुण नहीं हैं। इन दोनों बुद्धिजीवियों की अमेरिकी मीडिया पूरी तरह उपेक्षा करता रहा है, सईद गुज़र गए हैं। चोम्स्की ज़िंदा हैं, वे अपने सामाजिक - राजनीतिक -अकादमिक सरोकारों के प्रति गंभीर लगाव के कारण जाने जाते हैं।
उनको कभी किसी बड़े अमेरिकी चैनल ने टॉक शो के लिये नहीं बुलाया, किसी बड़े अख़बार ने उनको नहीं छापा।इसके बावजूद वे अमेरिका की जंगजू जनता के ही नहीं सारी दुनिया के प्रिय बुद्धिजीवी हैं। हमारे यहाँ तो उलटा मामला है टीवी टॉक शो से बुलावे बंद हो जाएँ , अख़बारों में नाम न दिखे तो हिन्दी के स्वनाम धन्य लोगों को नींद नहीं आती। यह मासकल्चर का मीडियापीलिया है , यह पब्लिक इंटेलेक्चुअल का गुण नहीं है।
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