बच्चों को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन बच्चों को जिस नज़रिए से प्रेमचंद देखते हैं वह अपने आपमें मूल्यवान है । सामान्य तौर पर प्रेमचंद के बच्चों से संबंधित नज़रिए पर कभी किसी ने ध्यान ही नहीं दिया ।प्रेमचंद ने जो बातें बच्चों के लिए कही हैं उनका बहुत गहरा संबंध युवाओं से भी है ।
बच्चों के बारे में बातें करते ही एक ही चीज ज़ेहन में आती है कि बच्चों को आज्ञाकारी होना चाहिए। बच्चों को आज्ञापालन सिखाओ , बड़ों का सम्मान करना सिखाओ , संयम से जीना सिखाओ। तक़रीबन सभी के मन में यह धारणा है , प्रेमचंद ने व्यंग्य करते लिखा , "बच्चों को स्वाधीन बनाना तो ऐसा ही है जैसे आग पर तेल छिड़कना।" एक वर्ग यह भी मानता है कि बच्चे आज पूरी तरह स्वतंत्र हैं उनको कुछ भी सिखाने की ज़रूरत नहीं है, वे सब कुछ मीडिया से सीख रहे हैं। टीवी, इंटरनेट,सोशलमीडिया और विज्ञापनों से सीख रहे हैं। इस प्रसंग में यही कहना चाहते हैं कि मीडिया से बच्चे वस्तु ख़रीदना सीख रहे हैं, उपभोक्ता बनने के गुर सीख रहे हैं, वस्तुओं के उपभोग को सीखना स्वाधीन होना नहीं है। यदि कोई बच्चा गायक बनना चाहता है तो उसे गायन सीखना पड़ेगा,इसी तरह बच्चा स्वाधीन भाव से लैस हो इसके लिए ज़रूरी है कि उसे "जीवन की रक्षा स्वयं करने की शिक्षा दी जाय" ।
प्रेमचन्द ने लिखा है , " मोटरकार, सिनेमा और समाचारपत्र सब स्वाधीनता की प्रवृत्ति को मज़बूत करते हैं।" यह भी लिखा कि " युवकों के सामने आज जो परिस्थिति है उसमें अदब और नम्रता का इतना महत्व नहीं है, जितना व्यक्तिगत विचारों और कामों की स्वाधीनता का । "
प्रेमचंद ने आधुनिक शिक्षा के दायरे से आगे बढ़कर सोचने पर ज़ोर देते हुए लिखा , " इस नयी शिक्षा का आशय क्या है ? आज्ञा-पालन हमारे जीवन का एक अंग है और हमेशा रहेगा । अगर हर एक आदमी अपने मन की करने लगे , तो समाज का शिराजा बिखर जायगा । अवश्य हर एक घर में जीवन के इस मौलिक तत्व की रक्षा होनी चाहिए , लेकिन इसके साथ ही माता- पिता की यह भी कोशिश होनी चाहिए , कि उनके बालक उन्हें पत्थर की मूर्ति या पहेली न समझें। चतुर माता-पिता बालकों के प्रति अपने व्यवहार को जितना स्वाभाविक बना सकें , उतना बनाना चाहिए , क्योंकि बालक के जीवन का उद्देश्य कार्य-क्षेत्र में आना है , केवल आज्ञा मानना नहीं ।वास्तव में जो बालक इस तरह की शिक्षा पाते हैं , उनमें आत्म- विश्वास का लोप हो जाता है । वे हमेशा किसी की आज्ञा का इंतज़ार करते हैं। हम समझते हैं कि आज कोई बाप अपने लड़के को ऐसी आदत डालनेवाली शिक्षा न देगा। "
प्रेमचंद ने लिखा " दूसरा सिद्धांत यह है कि माता- पिता को कोई बात ख़ुद न तय करनी चाहिए , बल्कि लड़कों पर छोड़ देनी चाहिए। " " तीसरा सिद्धांत यह है कि गृहस्थी को जनतन्त्र के क़ायदों पर चलाना चाहिए ।तजुर्बे से यह बात मालूम होती है , कि हम जनतन्त्र पर चाहे कितना ही विश्वास रक्खें , हमारे घरों में स्वेच्छाचार का ही राज्य है । घर का मालिक मुसोलिनी या कैसर की तरह डटा हुआ जिस रास्ते चाहता है, ले जाता है और कभी इसका उलटा दिखायी देता है। घर में न कोई क़ायदा है न कोई क़ानून । जो जिसके जी में आता है , करता है , जैसे चाहता है ,रहता है ; कोई किसी की ख़बर नहीं लेता।लड़के अपनी राह जाते हैं, जवान अपनी राह और बूढ़े अपनी राह। दोनों ही तरीके जनतन्त्र से कोसों दूर हैं - पहले तरीके में स्वतन्त्रता का नाम नहीं , दूसरे तरीके में ज़िम्मेदारी का। यह दोनों ही तरीके लड़कों की शिक्षा की दृष्टि से अनुचित हैं । करना यह चाहिए कि घर के मसलों पर बच्चों से शुरु ही से राय ली जाय। "
बच्चों को दैनन्दिन कामों की ज़िम्मेदारी देकर और घरेलू समस्याओं पर उनकी राय लेकर उनके मन में यह भाव पैदा किया जा सकता है कि परिवार में उनका भी महत्व है। बचपन में ही उनके अंदर आने और पैसे के फ़र्क़ की समझ पैदा की जाय , उनका हाथ ख़र्च तय कर दिया जाय। साथ ही उनको कोई न कोई काम ज़रूर दिया जाय। लडके अपने काम खुद करें इससे उनके आत्मविश्वास में इज़ाफ़ा होगा, परतन्त्रता बोध से मुक्ति मिलेगी । हम अमूमन लड़कों के हाथ में कोई नई चीज देखकर घबड़ा जाते हैं। मसलन् , घड़ी छू रहा है कहीं तोड़ न डाले । आश्चर्य तब होता है कि जिन व्यक्तियों ने सारी ज़िन्दगी संघर्ष किया वे भी बच्चों को पारिवारिक कामों से बचाते हैं।
प्रेमचंद ने लिखा " हम यहाँ यह बतला देना चाहते हैं कि स्वाधीनता से हमारा मतलब क्या है ? इसका यह मतलब नहीं है कि हम बिला रोक-टोक जो कुछ चाहें करें और जो कुछ चाहें न करें। इसका मतलब यह है कि बाहरी दबाव की जगह हम में आत्म- संयम का उदय हो। सच्चा स्वाधीन आदमी वही है , जिसका जीवन आत्मा के शासन से संयमित हो जाता है, जिसे किसी बाहरी दबाव की ज़रूरत नहीं पड़ती। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे हर एक काम के गुण- दोष को भीतर की आँखों से देखें।"
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