आदमी की निगाह का निर्धारक तत्व है वर्तमान। वह जब भी कोई चीज़,वस्तु,घटना , परंपरा,इतिहास या लिंग को देखता है तो वर्तमान के नज़रिएसे देखता है। सवाल यह है इंटरनेट या सूचना तकनीकी युग में औरत कोकैसे देखें ? इंटरनेट में लिंगबोध या लिंग जैसी कोई चीज़ नहीं होती। लिंगकी पहचान या स्त्री अस्मिता मूलत:प्रेस क्रांति के परिप्रेक्ष्य में निर्मित अवधारणा है। प्रेस क्रांति को ज्यों ज्यों अपदस्थ करते जाएँगे लिंगरहित अवस्था से जुड़ी समस्याओं में गुजरते जाएँगे। सवाल उठता है इंटरनेट युग या ऑनलाइन युगमें अस्मिता कैसेनिर्मित होती है ? हमारा आज भी अधिकांश समाज ग़ैर-इंटरनेट अवस्थामें जी रहा है, वहाँ ठीक से प्रेसक्रांति भी नहीं पहुँची है ऐसे में हमारे समाज में एक औरत में कई औरतों की इमेज और भाव-भंगिमाएँ सहज रूप मेंदेखी जा सकती हैं। मसलन्,जो लड़की इंटरनेट यूज़र है वह अतीत के स्त्रीमूल्यों से बुरी तरह बंधी है। जो पश्चिमी मूल्यों की क़ायल है वह दिमाग़ सेदहेज और संपत्ति के मोह में डूबी हुई है।तमाम क़िस्म के सामाजिकपरवर्जन में डूबी है।इसी तरह जो लड़की सूचना तकनीक का जमकरउपयोग कर रही है उनमें से अधिकांश की सामयिक राजनीति औरसमकालीन समस्याओं में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसी तरह नए बदलेमाहौल ने एक बड़ा परिवर्तन यह किया है कि उसने शिक्षित -अशिक्षितसभी क़िस्म की महिलाओं को मोबाइल से जोड़ दिया है।कम्युनिकेशन केलिहाज़ से यह लंबी छलाँग है। मोबाइल कम्युनिकेशन ने स्त्रीभेद औरउम्रभेद को एक ही झटके में ख़त्म कर दिया है। इसके कारण स्त्री के निजी और सार्वजनिक रूपों , बातों और संस्कारों में मूलगामी परिवर्तन हुआ है।
पहले स्त्री की कायिक मौजूदगी केन्द्र में थी लेकिन इंटरनेट-मोबाइल-एसएमएस ने स्त्री की भाषिक मौजूदगी को प्रमुख बना दिया है ।अब स्त्रीभाषा में मिलती है।पहले स्त्री के शरीर पर बहुत बातें हुई हैं, समूचाश्रृंगाररस स्त्री शरीर के ऊपर केन्द्रित है। लेकिन स्त्री की कायिक सत्ताका रीतिकाल के समापन के साथ पूँजीवाद ने नवीकरण किया है। पहलेसाहित्य में श्रृंगाररस थी जीवन में नहीं था । पूँजीवाद ने श्रृंगार कोवायवीयता बियावान से निकालकर भौतिक बनाया है ।
रैनेसां में स्त्री शरीर के सवाल केन्द्र में आते हैं।मध्यकाल में कविता में औरत का शरीर है जबकि रैनेसां में गद्य में औरत के शरीर कोरखा गया , कम्युनिकेशन और व्यापार के केन्द्र में स्त्री शरीर को रखा।यानी आधुनिककाल आते ही औरत को घर की चहारदीवारी से बाहरनिकाला गया।पहले की तुलना में औरत ने व्यापक सामाजिक स्थानबनाया । उसका बहुआयामी शोषण हुआ। नए श्रम विभाजन में औरत नेअपनी जगह बनायी। नए कम्युनिकेशन , नए सामाजिक बदलाव में औरतने सक्रिय भूमिका निभायी।ख़ासकर राजनीति और राजनीतिक अर्थशास्त्रके निर्माण महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। दिलचस्प बात यह है श्रृंगारऔरत करती थी लेकिन तय व्यवस्था ने किया। किसी महिला ने श्रृंगाररस पर नहीं लिखा। पुरूषों ने लिखा। इसी तरह सेक्स और उसका संबंधकैसा हो यह भी पुरूषों ने लिखा।कामसूत्र और श्रृंगार रस पर लिखा समूचाशास्त्र पुरूषों ने रचा। पुरूष माने व्यवस्था यह धारणा कई हज़ार सालों मेंनिर्मित हुई है। अब यह आदत बन गयी है। औरतों ने इन विषयों पर क्योंनहीं लिखा यह रहस्य बना हुआ है।जबकि उस ज़माने में औरतें जमकरलिख रही थीं।इसी तरह रैनेसां में स्त्री के सवाल केन्द्र में हैं लेकिन औरतेंचुप हैं ।औरतों की इस चुप्पी को जितना खोला जाएगा भिन्न क़िस्म केसवाल जन्म लेंगे।
मध्यकाल और रैनेसां में स्त्री को बाँधने, नियमित और नियंत्रित करनेके शास्त्र रचे गए।यह काम इकतरफ़ा और स्टीरियोटाइप ढंग से हुआफलत:स्त्री के तन,मन और अनुभूति को समाज सीमित रूप में ही जानपाया।औरत को इस क्रम में वैविध्यपूर्ण और मानवीय बनाने की बजायवायवीय-मिथकीय- रहस्यात्मक बना दिया।सच यह है मध्यकाल में पुरूष,औरत को बहुत कम जानता था।लेकिन आधुनिककाल में स्त्री के शरीर कीबजाय उसके सामाजिक अस्तित्व के सवाल जब उठे तो स्त्रीशरीर औरपुरूष के नज़रिए से मुक्ति का मार्ग निकला। स्त्री के बारे में , उसके मन,तन और सामाजिक कार्य व्यापार के बारे में सामाजिक सचेतनता बढी।कहने का आशय यह है कि तन के परे स्त्री के सामाजिक अस्तित्व केसवाल समाज और मीडिया में जितना स्थान घेरेंगे उतना ही स्त्रीताक़तवर बनेगी। स्त्री देह के सवाल पुरुष वर्चस्व को बनाए रखते हैं।जबकि स्त्री के सामाजिक अस्तित्व के सवालों पर संवाद और विमर्श सेमहिला सशक्तिकरण में इज़ाफ़ा होता है।
विगत चार दशकों के दौरान स्त्री अस्मिता की राजनीति साहित्यविमर्श के केन्द्र में है। क़ायदे से स्त्री अस्मिता को स्थिर अवधारणा के रूपमें देखने से बचना चाहिए। हिन्दी में अधिकांश लेखन स्त्री अस्मिता केस्थिर रूप से जुड़ा है। जबकि स्त्री अस्मिता को रूपान्तरित अवधारणा केरूप में देखना चाहिए। मसलन् एक स्त्री की अस्मिता सिर्फ़ स्त्री केविभिन्न रूपों में ही रूपान्तरित नहीं होती बल्कि अनेकबार वहलिंगातिक्रमण भी कर जाती है। मसलन् स्त्री अस्मिता या अस्मिता केस्थिर रूप के ज़रिए समलैंगिक या लेस्बियन अस्मिता को समझ ही नहींसकते। इसी तरह यदि मायावती-ममता -जयललिता आदि स्त्रियाँ जब राजनीति करती हैं तो वे मात्र स्त्री नहीं रह जातीं बल्कि उनकी राजनेता कीअस्मिता बन जाती है। यह वस्तुत: स्त्री अस्मिता का रूपान्तरित रूप है जोबेहद महत्वपूर्ण है। इसी तरह स्त्री और उच्च तकनीक के अन्तस्संबंधों सेजिस अस्मिता का निर्माण होता है वह स्त्री अस्मिता से भिन्न है। डोना हर्वेके अनुसार उच्च तकनीक के पैराडाइम में स्त्री या पुरूष का लिंगभेद ग़ायबहो जाता है, ऊँच -नीच, छोटेबडे का भेद ग़ायब हो जाता है। यहाँ पर तोज्ञान और राजनीति के परिप्रेक्ष्य में पहचान बनती है। हम डोना केनज़रिए से असहमत हैं,अंत: वे सही हैं,यह स्थिति नेट के प्रसंग में कम है, लेकिन कम्प्यूटर के संदर्भ में ज़्यादा है। नेट पर बडे पैमाने परस्त्रीविरोधी सामग्री है, बेवसाइट हैं।अभी तक सोशलमीडिया लेकर बेवसाइट तक स्त्री के लिए सुरक्षित स्थान नहीं है।वर्चुअल स्त्री के लिए समाज की ज़रूरत नहीं है लेकिन वास्तव औरत की दुनिया को समाज या समुदाय के बिना निर्मित नहीं कर सकते।वर्चुअल स्पेस में औरत नहीं उसकी इमेज मात्र रहती है। यह वास्तव स्त्री नहीं है।
रेमण्ड विलियम्स ने लिखा है मानवीय सांस्कृतिक गतिविधियों पर विचार करते समय सबसे बाधा यह है कि हम तात्कालिक और नियमित अनुभवों को निष्पन्न विचारों के साथ जोड़ देते हैं।इस क्रम में सारवान अतीत की ओर जाते हैं साथ ही सामयिक जीवन की ओर भी जाते हैं।इसमें संबंधो,संस्थानों और उन रूपों की ओर जाते हैं जिनमें सक्रिय हैं और रूपान्तरित कर रहे हैं,इस प्रक्रिया को निर्माण प्रक्रिया न कहकर समग्र कहना समीचीन होगा। इस नजरिए से देखें तो रोमांस,नौकरी ,शादी ,शिक्षा आदि कोई भी चीज जो अस्मिता को बनाती है वह तात्कालिक सामाजिक संरचनाओं और रूपों से निर्मित नहीं होती।मनुष्य सिर्फ तात्कालिक चीजों से ही नहीं बनता।बल्कि उसके निर्माण की प्रक्रिया सामाजिक अभ्यासों पर निर्भर है।सामाजिक अभ्यासों का निर्माण दीर्घकालिंक प्रक्रिया में होता है।इसलिए अस्मिता पर विचार करते समय इस पर सोचें कि उसके निर्माण के उपकरण कौन से हैं ॽ
सारी दुनिया में अस्मिता की अवधारणा को जनप्रिय बनाने और स्थापित करने में अमेरिकी समाजविज्ञानी-मनोशास्त्री जी.एच.मीड की बहुत बड़ी भूमिका है।भारत में अस्मिता के जिन उपकरणों का जो लोग इस्तेमाल करते हैं उनमें मीड के नजरिए के उपकरण जाने-अनजाने चले आए हैं।मसलन्, अस्मिता को व्यक्ति की सहजजात क्षमताओं को सामाजिक जीवन,आत्म-चेतना और आत्म-अभिव्यंजनाओं के साथ जोड़कर सामाजिक इतिहास का उत्पाद बनाकर पेश किया गया।इस तरह की वस्तुगत प्रस्तुतियों को संवेदनाओं के साथ जोड़कर पेश किया गया और यही अस्मिता का बुनियादी आधार है। सामान्यतौर पर अस्मिता की अवधारणा सामाजिक संबंधों और सांस्कृतिक रूपों के साथ निजी जगत की अभिव्यंजना है। मेरे लेखे अस्मिता निजी जीवन की भूमिकाओं सामाजिक परिणाम है।इसलिए अस्मिता को सामाजिक आचार-व्यवहार और अभ्यासों के जरिए ही समझा जा सकता है।अस्मिता का एक छोर जिस तरह सामाजिक अभ्यासों से जुड़ा है वहीं दूसरा छोर मनोजगत की संरचनाओं से जुड़ा है।मसलन् व्यक्ति अपनी देखभाल कैसे करता है,उसके प्रेरक कौन हैं,उसके इर्द-गिर्द जो घट रहा है उसके प्रति उसका किस तरह का रूख है,वह करीबी यथार्थ की कितनी देखभाल करता है।क्योंकि इन सबसे मिलकर ही मानवीय गतिविधियों का निर्माण होता है।मसलन्, निज के संदर्भ में अस्मिता नजर आती है,उसके हक नजर आते हैं ,जबकि अन्य के प्रति हम बेगाने बने रहते हैं तो इसे अस्मिता की अनुभूति नहीं कहेंगे।अस्मिता बनती है निजी और सामाजिक सरोकारों के साथ जुड़ने से।इसमें निजी जितना महत्वपूर्ण है,सामाजिक भी उतना ही महत्वपूर्ण है।हमें निजी तौर पर प्रभुत्व जितनी पीड़ित करता है सामाजिक तौर पर भी वह उतना ही पीड़ादायक होता है।इसलिए प्रभुत्व के सवाल निजी और सामाजिक दोनों ही धरातल पर हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं।अस्मिता सिर्फ निज की मुक्ति का प्रकल्प नहीं है बल्कि सामाजिक मुक्ति का प्रकल्प भी है।अस्मिता बनाम प्रभुत्व का अन्तर्विरोध एकायामी नहीं है बल्कि बहुआयामी है।अमूमन हिन्दी में अस्मिता एकायामी दिशा में गतिशील है इसलिए सामाजिक स्तर पर प्रभावहीन है।अस्मिता के सवाल सुविधा,आरक्षण आदि के ही सवाल नहीं हैं बल्कि अस्मिता के सवाल दीर्घकालिक अभ्यासों और सांस्थानिक रूपों को चुनौती देने के सवाल भी हैं।
सन् 1977 के बाद से अस्मिता विमर्श पर जितना लिखा गया है उतना किसी अन्य विषय पर नहीं लिखा गया है।यह स्थिति भारत की ही नहीं सारी दुनिया की है।भारत के संदर्भ में आपातकाल मूल रूप से पैराडाइम बदलता है। आपातकाल के बाद लोकतंत्र की रक्षा का सवाल सबसे बड़ा सवाल बन गया,लोकतंत्र हमारे देश की अस्मिता के पहचान का सबसे बड़ा रूप है,बाकी सारी अस्मिताएं इसके अधीन हैं या मातहत हैं। अस्मिता के सवाल लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में उठाए जाने चाहिए। आपातकाल के बाद सबसे बड़ा परिवर्तन यही आया कि उसने पहले से चले आ रहे बहस के मुद्दों को सामाजिक क्षितिज से ठेलकर हाशिए पर डाल दिया और उन मुद्दों को केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया जो लोकतंत्र से सीधे जुड़े हुए थे।लोकतंत्र बचेगा तो देश बचेगा,तमाम किस्म की अस्मिताएं भी बचेंगी।यही वह मूल प्रस्थान बिंदु है जिसके कारण विभिन्न क्षेत्रों में अस्मिता के सवाल उठे और उन पर व्यापकतौर पर लिखा गया।हिन्दी में दलित और स्त्री के संदर्भ में अस्मिता के सवाल ज्यादा उठे।
अस्मिता का कोई न मित्र है न शत्रु । अस्मिता की सारी आपत्तियां 'अन्याय' के खिलाफ हैं। 'अन्याय' के खिलाफ सामाजिक लामबंदी का उपकरण है अस्मिता। सवाल यह है अंत में अस्मिता किस बिंदु पर पहुँचती है ? क्या पुन: लौटकर अस्मिता की ओर लौटते हैं अथवा मानवता की ओर पहुँचते हैं।अस्मिता मूलत: राजनीतिक मंशा की देन है। अस्मिता पर राजनीति के बिना चर्चा संभव नहीं है। अस्मिता में निहित व्यक्तिगत और सामाजिक इच्छाओं को अभिव्यक्त किया है।अस्मिता विमर्श का इतिहास से गहरा संबंध है। इतिहास में जाए बिना इसका चित्रण और विवेचन संभव नहीं है।
अस्मिता विकल्प है। वह कभी स्वाभाविक नहीं होती। वह सामाजिक निर्मिति है।अस्मिता की धुरी है मनुष्य और मानवता।वह प्रतिस्पर्धी और बहुरूपी है। उसका दूसरा तत्व है भावुकता और सामाजिक तनाव। तीसरा , आत्महीनता। चौथा ,अस्मिता का सम-सामयिक फ्रेमवर्क । पांचवां , अस्मिता की राजनीति। अस्मिता विमर्श का सत्ता विमर्श के साथ गहरा संबंध है । छठा, अस्मिता विमर्श व्यक्तिवादी विमर्श है।अस्मिता विमर्श का इन दिनों जो रूप देखने में आ रहा है उसके दो प्रमुख आयाम है पहला है 'अन्याय' और दूसरा है ' इच्छापूर्त्ति'। सामाजिक-सांस्कृतिक रूपों में इन दो रूपों में अस्मिता का व्यापक उपभोग हो रहा है। अस्मिता विमर्श मूलत: उत्पादक है। सामाजिक शिरकत को बढ़ावा देती है। ध्यान रहे जाति,लिंग,नस्ल,त्वचा,धर्म आदि पर आधारित अस्मिता की सीमित भूमिका होती है। अस्मिता का मूलाधार है मानवता। मनुष्य ही प्रधान अस्मिता है। बाकी इसके मुखौटे हैं।
अस्मिता के फ्रेमवर्क में इन दिनों अनेक लेखक-लेखिकाओं की आत्मकथाएं आई हैं। अतः आत्मकथा के प्रमुख तत्वों को जानना बेहद जरूरी है।आत्मकथा का पहला तत्व है व्यक्तिगत अस्मिता और निर्वैयक्तिकता। आत्मकथा का दूसरा तत्व है उपस्थिति,वर्तमान और प्रस्तुति। रोलां बार्थ के शब्दों में आत्मकथा को उपन्यास के चरित्रों के माध्यम से व्यक्त होना चाहिए।आत्मकथा लिखते समय चिर-परिचित क्षेत्र हमेशा परेशान करते हैं। चिर-परिचित वातावरण समस्या पैदा करता है।दलितों की आत्मकथा को ही लें।इन आत्मकथाओं में चिर-परिचित यथार्थ है भारत की जाति समस्या। जाति समस्या लेखक को परेशान और उत्तेजित दोनों ही करती है। जातिप्रथा को करीब से जानने के कारण लेखक को इसके बारे में सटीक वर्णन ,विवरण और ब्यौरे तैयार करने में मदद मिली है। लेखक को जातिप्रथा की अनेक 'दरारें' नजर आती हैं। आत्मकथा में 'दरारों' की केन्द्रीय भूमिका होती है। 'दरारें' पुराने व्यक्तित्व की जगह नए व्यक्तित्व को सामने लाने का काम करती हैं। लेखक की जाति उत्पीड़न की पीड़ाएं जितनी बार व्यक्त होती हैं उतनी ही बार उसका नया रूप सामने आता है। पुराना रूप बदल जाता है। लेखक कहीं पर भी पुराने रूप को स्थापित करने का प्रयास नहीं करता। हमेशा नए रूप को सामने लाता है। पुराने रूप के साथ सामंजस्य बिठाने की बजाय 'दरारों' और 'अंतरालों' के बीच में से नए रूप में लेखक सामने आता है। रोलां बार्थ ने आत्मकथा के बारे में लिखा है आत्मकथा में आप स्वयं को नहीं देखते बल्कि इमेज को देखते हैं। अपनी आंखों को नहीं देखते। आत्मकथा लेखन हमेशा विचलनभरा होता है। विचलन के ऊबड़ खाबड़ पैरामीटर सर्किल बनाते हैं। इन रास्तों से गुजरने के बाद एक ही संदेश संप्रेषित होता है कि जिंदगी अर्थपूर्ण है।
आत्मकथा का केन्द्र बिंदु कौन सा है ? यह खोजने की जरूरत है।आत्मकथा में विश्वास सबसे बड़ी चीज है। आस्था के साथ लिखी आत्मकथा इमेज बनाती है। आत्मकथा में चित्रण के लिए चित्रण नहीं होता बल्कि प्रस्तुति पर जोर रहता है। आत्मकथा चिर-परिचित यथार्थ की प्रस्तुति होती है। प्रस्तुति में अंतराल ज्यादा साफ नजर आते हैं। क्योंकि आत्मकथा में समग्रता के तत्व का पालन नहीं होता।आत्मकथा में न्यूनतम अनुकरण, उद्धाटन ,विवरण और आख्यान होता है। आत्मकथा में नामों का जिक्र और नामों के साथ जुड़े अनुभवों का वर्णन होता है। फलत: आत्मकथा के दायरे में अनेक मील के पत्थर और पैरामीटर होते है। आत्मकथा भाषा प्रमुख है।वही आत्मकथा है। भाषा का संसार ही है जिसके कारण वह अपील करती है। आत्मकथा की भाषा में प्रस्तुति 'मैं' के अंत की घोषणा है। ''मैं'' संकेत मात्र होकर रह जाता है। भाषा सामूहिक प्रयासों से बनती है। आत्मकथा के 'मैं' का राजनीतिक - दार्शनिक चीजों में लोप हो जाता है। भाषाविज्ञान में लोप हो जाता है। आत्मकथा में '' मैं'' हमेशा घुला मिला होता है। आत्मकथा में जैसे 'तुम','वह','हम' होते हैं वैसे ही 'मैं' भी होता है। आत्मकथा में सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट दोनों एक हो जाते हैं। वक्ता और विषय एक हो जाते हैं।आत्मकथा का तीसरा प्रमुख तत्व है सुसंगत अनुभूति। जीवन के तथ्यों को सीधे बगैर किसी लाग-लपेट के अनुभूतियों के साथ पेश करना इसकी खूबी है। यहां तथ्यों को बगैर चासनी के पेश किया जाता है। बगैर किसी कृत्रिमता के पेश किया है। तथ्यों को अकृत्रिम भाव से पेश करना आत्मकथा का उत्तर आधुनिक फिनोमिना है। उत्तर आधुनिक आत्मकथा में अनिश्चितता,विचलन आदि को सहज ही देख सकते हैं। इसमें भाषा और विमर्श प्रभावशाली होते हैं।
आत्मकथा का पांचवां तत्व है छवि,काल्पनिक छवि और कल्पना। वाल्टर वूगीमैन के अनुसार '' वैध ज्ञान की पद्धति, कल्पना का अंत है।'' कहानी में शब्द,भाषा और भाषण चेतना निर्मित करते हैं। यथार्थ परिभाषित करते हैं। कल्पना के जरिए रूढिबद्धता से अपने को मुक्त करते हैं। अन्य किस्म का व्यक्तित्व निर्मित करते हैं। कल्पना के जरिए ही सामाजिक-साहित्यिक रूढियों को खारिज करने में मदद मिलती है। मनुष्य का रूपान्तरण होता है। यह रूपान्तरण सामंजस्य बिठाकर नहीं होता। व्यक्ति क्या है और व्यक्ति की क्या छवि बन रही है इन दोनों पर लेखक की नजर होती है,इसकी प्रस्तुति के दौरान लेखक रूढिबद्धता से बचने की कोशिश करता है। पूर्ण स्वतंत्रता और कल्पना का इस्तेमाल करता है। स्वतंत्रता और कल्पना के प्रयोग के कारण ही आत्मकथा ऊर्जा से भरी होती है। पढ़ने वालों के मन में ऊर्जा का संचार करती है। साहस और आस्था के साथ जोखिम उठाने की प्रेरणा देती है।
आत्मकथा का छठा तत्व है विमर्श,उद्धाटन और समापन। आत्मकथा में आत्म को उद्धाटित करने के लिए साहस की जरूरत होती है। अनेक लेखकों में साहस का अभाव होता है। आत्मविश्वास और साहस के बिना आत्मकथा लिखना संभव नहीं है। जो लेखन में जोखिम उठाते हैं और अपनी बात कहते हैं। वे अपना बोझ हलका करते हैं साथ ही समाज को भी खुली हवा में सांस लेने का मौका देते हैं।आत्म के बहाने लेखक लंबे समय से बंद कमरों को खोलता है। आत्मकथा में उद्धाटित करते समय लेखक डरता है, डरता है कि कहीं पकड़ा न जाऊँ ? अन्य के सामने नंगे खड़े होने का डर रहता है। यह शर्म और डर कहां से आता है ? असल में जो बौनेपन के शिकार होते हैं वे शर्माते हैं, डरते हैं। औसत बुद्धि के लेखक शर्माते और डरते हैं। इनमें से ज्यादातर रूढियों में जीते और तयशुदा मार्ग पर चलते हैं। 'क्लीचे' में जीते और बातें करते हैं।मजेदार बात यह है आत्मकथा में आत्म को बताना तो बहुत दूर की बात है लोग कहां जा रहे हैं यह तक साफतौर पर नहीं बताते। वे सामान्य सी चीज को बताने में डरते हैं, शरमाते हैं। उन्हें डर लगता है यदि अपनी बात बता देंगे तो पता नहीं क्या हो जाएगा। अमूमन हमें न बताने की आदत है। छिपाने की आदत है। छिपाना हमारी प्रकृत्ति है। जो छिपाया जा रहा है वह जितना महत्वपूर्ण है उतना ही वह भी महत्वपूर्ण है जो बताया जा रहा है। आत्मकथा को लिखने का मकसद होता है बंद अनुभूतियों को खोलना। छिपे हुए को सामने लाना। आत्मकथा के वातावरण को विभिन्न परिप्रेक्ष्य में देखना । निष्कर्ष निकालने से बचना।निष्कर्ष आत्मकथा को बंद गली में ले जाते हैं।आत्मकथा का मार्ग खुला होता है उसे निष्कर्ष के बहाने बंद करना आत्मकथा के मानकों की अवहेलना है। लेखन को इस बात से आंकना चाहिए कि आप कितना भूलते हैं और कितना क्षमा करते हैं। लेखन में अनुभवों की संभावनाओं का कभी अंत नहीं होता।
पहले स्त्री की कायिक मौजूदगी केन्द्र में थी लेकिन इंटरनेट-मोबाइल-एसएमएस ने स्त्री की भाषिक मौजूदगी को प्रमुख बना दिया है ।अब स्त्रीभाषा में मिलती है।पहले स्त्री के शरीर पर बहुत बातें हुई हैं, समूचाश्रृंगाररस स्त्री शरीर के ऊपर केन्द्रित है। लेकिन स्त्री की कायिक सत्ताका रीतिकाल के समापन के साथ पूँजीवाद ने नवीकरण किया है। पहलेसाहित्य में श्रृंगाररस थी जीवन में नहीं था । पूँजीवाद ने श्रृंगार कोवायवीयता बियावान से निकालकर भौतिक बनाया है ।
रैनेसां में स्त्री शरीर के सवाल केन्द्र में आते हैं।मध्यकाल में कविता में औरत का शरीर है जबकि रैनेसां में गद्य में औरत के शरीर कोरखा गया , कम्युनिकेशन और व्यापार के केन्द्र में स्त्री शरीर को रखा।यानी आधुनिककाल आते ही औरत को घर की चहारदीवारी से बाहरनिकाला गया।पहले की तुलना में औरत ने व्यापक सामाजिक स्थानबनाया । उसका बहुआयामी शोषण हुआ। नए श्रम विभाजन में औरत नेअपनी जगह बनायी। नए कम्युनिकेशन , नए सामाजिक बदलाव में औरतने सक्रिय भूमिका निभायी।ख़ासकर राजनीति और राजनीतिक अर्थशास्त्रके निर्माण महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। दिलचस्प बात यह है श्रृंगारऔरत करती थी लेकिन तय व्यवस्था ने किया। किसी महिला ने श्रृंगाररस पर नहीं लिखा। पुरूषों ने लिखा। इसी तरह सेक्स और उसका संबंधकैसा हो यह भी पुरूषों ने लिखा।कामसूत्र और श्रृंगार रस पर लिखा समूचाशास्त्र पुरूषों ने रचा। पुरूष माने व्यवस्था यह धारणा कई हज़ार सालों मेंनिर्मित हुई है। अब यह आदत बन गयी है। औरतों ने इन विषयों पर क्योंनहीं लिखा यह रहस्य बना हुआ है।जबकि उस ज़माने में औरतें जमकरलिख रही थीं।इसी तरह रैनेसां में स्त्री के सवाल केन्द्र में हैं लेकिन औरतेंचुप हैं ।औरतों की इस चुप्पी को जितना खोला जाएगा भिन्न क़िस्म केसवाल जन्म लेंगे।
मध्यकाल और रैनेसां में स्त्री को बाँधने, नियमित और नियंत्रित करनेके शास्त्र रचे गए।यह काम इकतरफ़ा और स्टीरियोटाइप ढंग से हुआफलत:स्त्री के तन,मन और अनुभूति को समाज सीमित रूप में ही जानपाया।औरत को इस क्रम में वैविध्यपूर्ण और मानवीय बनाने की बजायवायवीय-मिथकीय- रहस्यात्मक बना दिया।सच यह है मध्यकाल में पुरूष,औरत को बहुत कम जानता था।लेकिन आधुनिककाल में स्त्री के शरीर कीबजाय उसके सामाजिक अस्तित्व के सवाल जब उठे तो स्त्रीशरीर औरपुरूष के नज़रिए से मुक्ति का मार्ग निकला। स्त्री के बारे में , उसके मन,तन और सामाजिक कार्य व्यापार के बारे में सामाजिक सचेतनता बढी।कहने का आशय यह है कि तन के परे स्त्री के सामाजिक अस्तित्व केसवाल समाज और मीडिया में जितना स्थान घेरेंगे उतना ही स्त्रीताक़तवर बनेगी। स्त्री देह के सवाल पुरुष वर्चस्व को बनाए रखते हैं।जबकि स्त्री के सामाजिक अस्तित्व के सवालों पर संवाद और विमर्श सेमहिला सशक्तिकरण में इज़ाफ़ा होता है।
विगत चार दशकों के दौरान स्त्री अस्मिता की राजनीति साहित्यविमर्श के केन्द्र में है। क़ायदे से स्त्री अस्मिता को स्थिर अवधारणा के रूपमें देखने से बचना चाहिए। हिन्दी में अधिकांश लेखन स्त्री अस्मिता केस्थिर रूप से जुड़ा है। जबकि स्त्री अस्मिता को रूपान्तरित अवधारणा केरूप में देखना चाहिए। मसलन् एक स्त्री की अस्मिता सिर्फ़ स्त्री केविभिन्न रूपों में ही रूपान्तरित नहीं होती बल्कि अनेकबार वहलिंगातिक्रमण भी कर जाती है। मसलन् स्त्री अस्मिता या अस्मिता केस्थिर रूप के ज़रिए समलैंगिक या लेस्बियन अस्मिता को समझ ही नहींसकते। इसी तरह यदि मायावती-ममता -जयललिता आदि स्त्रियाँ जब राजनीति करती हैं तो वे मात्र स्त्री नहीं रह जातीं बल्कि उनकी राजनेता कीअस्मिता बन जाती है। यह वस्तुत: स्त्री अस्मिता का रूपान्तरित रूप है जोबेहद महत्वपूर्ण है। इसी तरह स्त्री और उच्च तकनीक के अन्तस्संबंधों सेजिस अस्मिता का निर्माण होता है वह स्त्री अस्मिता से भिन्न है। डोना हर्वेके अनुसार उच्च तकनीक के पैराडाइम में स्त्री या पुरूष का लिंगभेद ग़ायबहो जाता है, ऊँच -नीच, छोटेबडे का भेद ग़ायब हो जाता है। यहाँ पर तोज्ञान और राजनीति के परिप्रेक्ष्य में पहचान बनती है। हम डोना केनज़रिए से असहमत हैं,अंत: वे सही हैं,यह स्थिति नेट के प्रसंग में कम है, लेकिन कम्प्यूटर के संदर्भ में ज़्यादा है। नेट पर बडे पैमाने परस्त्रीविरोधी सामग्री है, बेवसाइट हैं।अभी तक सोशलमीडिया लेकर बेवसाइट तक स्त्री के लिए सुरक्षित स्थान नहीं है।वर्चुअल स्त्री के लिए समाज की ज़रूरत नहीं है लेकिन वास्तव औरत की दुनिया को समाज या समुदाय के बिना निर्मित नहीं कर सकते।वर्चुअल स्पेस में औरत नहीं उसकी इमेज मात्र रहती है। यह वास्तव स्त्री नहीं है।
रेमण्ड विलियम्स ने लिखा है मानवीय सांस्कृतिक गतिविधियों पर विचार करते समय सबसे बाधा यह है कि हम तात्कालिक और नियमित अनुभवों को निष्पन्न विचारों के साथ जोड़ देते हैं।इस क्रम में सारवान अतीत की ओर जाते हैं साथ ही सामयिक जीवन की ओर भी जाते हैं।इसमें संबंधो,संस्थानों और उन रूपों की ओर जाते हैं जिनमें सक्रिय हैं और रूपान्तरित कर रहे हैं,इस प्रक्रिया को निर्माण प्रक्रिया न कहकर समग्र कहना समीचीन होगा। इस नजरिए से देखें तो रोमांस,नौकरी ,शादी ,शिक्षा आदि कोई भी चीज जो अस्मिता को बनाती है वह तात्कालिक सामाजिक संरचनाओं और रूपों से निर्मित नहीं होती।मनुष्य सिर्फ तात्कालिक चीजों से ही नहीं बनता।बल्कि उसके निर्माण की प्रक्रिया सामाजिक अभ्यासों पर निर्भर है।सामाजिक अभ्यासों का निर्माण दीर्घकालिंक प्रक्रिया में होता है।इसलिए अस्मिता पर विचार करते समय इस पर सोचें कि उसके निर्माण के उपकरण कौन से हैं ॽ
सारी दुनिया में अस्मिता की अवधारणा को जनप्रिय बनाने और स्थापित करने में अमेरिकी समाजविज्ञानी-मनोशास्त्री जी.एच.मीड की बहुत बड़ी भूमिका है।भारत में अस्मिता के जिन उपकरणों का जो लोग इस्तेमाल करते हैं उनमें मीड के नजरिए के उपकरण जाने-अनजाने चले आए हैं।मसलन्, अस्मिता को व्यक्ति की सहजजात क्षमताओं को सामाजिक जीवन,आत्म-चेतना और आत्म-अभिव्यंजनाओं के साथ जोड़कर सामाजिक इतिहास का उत्पाद बनाकर पेश किया गया।इस तरह की वस्तुगत प्रस्तुतियों को संवेदनाओं के साथ जोड़कर पेश किया गया और यही अस्मिता का बुनियादी आधार है। सामान्यतौर पर अस्मिता की अवधारणा सामाजिक संबंधों और सांस्कृतिक रूपों के साथ निजी जगत की अभिव्यंजना है। मेरे लेखे अस्मिता निजी जीवन की भूमिकाओं सामाजिक परिणाम है।इसलिए अस्मिता को सामाजिक आचार-व्यवहार और अभ्यासों के जरिए ही समझा जा सकता है।अस्मिता का एक छोर जिस तरह सामाजिक अभ्यासों से जुड़ा है वहीं दूसरा छोर मनोजगत की संरचनाओं से जुड़ा है।मसलन् व्यक्ति अपनी देखभाल कैसे करता है,उसके प्रेरक कौन हैं,उसके इर्द-गिर्द जो घट रहा है उसके प्रति उसका किस तरह का रूख है,वह करीबी यथार्थ की कितनी देखभाल करता है।क्योंकि इन सबसे मिलकर ही मानवीय गतिविधियों का निर्माण होता है।मसलन्, निज के संदर्भ में अस्मिता नजर आती है,उसके हक नजर आते हैं ,जबकि अन्य के प्रति हम बेगाने बने रहते हैं तो इसे अस्मिता की अनुभूति नहीं कहेंगे।अस्मिता बनती है निजी और सामाजिक सरोकारों के साथ जुड़ने से।इसमें निजी जितना महत्वपूर्ण है,सामाजिक भी उतना ही महत्वपूर्ण है।हमें निजी तौर पर प्रभुत्व जितनी पीड़ित करता है सामाजिक तौर पर भी वह उतना ही पीड़ादायक होता है।इसलिए प्रभुत्व के सवाल निजी और सामाजिक दोनों ही धरातल पर हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं।अस्मिता सिर्फ निज की मुक्ति का प्रकल्प नहीं है बल्कि सामाजिक मुक्ति का प्रकल्प भी है।अस्मिता बनाम प्रभुत्व का अन्तर्विरोध एकायामी नहीं है बल्कि बहुआयामी है।अमूमन हिन्दी में अस्मिता एकायामी दिशा में गतिशील है इसलिए सामाजिक स्तर पर प्रभावहीन है।अस्मिता के सवाल सुविधा,आरक्षण आदि के ही सवाल नहीं हैं बल्कि अस्मिता के सवाल दीर्घकालिक अभ्यासों और सांस्थानिक रूपों को चुनौती देने के सवाल भी हैं।
सन् 1977 के बाद से अस्मिता विमर्श पर जितना लिखा गया है उतना किसी अन्य विषय पर नहीं लिखा गया है।यह स्थिति भारत की ही नहीं सारी दुनिया की है।भारत के संदर्भ में आपातकाल मूल रूप से पैराडाइम बदलता है। आपातकाल के बाद लोकतंत्र की रक्षा का सवाल सबसे बड़ा सवाल बन गया,लोकतंत्र हमारे देश की अस्मिता के पहचान का सबसे बड़ा रूप है,बाकी सारी अस्मिताएं इसके अधीन हैं या मातहत हैं। अस्मिता के सवाल लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में उठाए जाने चाहिए। आपातकाल के बाद सबसे बड़ा परिवर्तन यही आया कि उसने पहले से चले आ रहे बहस के मुद्दों को सामाजिक क्षितिज से ठेलकर हाशिए पर डाल दिया और उन मुद्दों को केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया जो लोकतंत्र से सीधे जुड़े हुए थे।लोकतंत्र बचेगा तो देश बचेगा,तमाम किस्म की अस्मिताएं भी बचेंगी।यही वह मूल प्रस्थान बिंदु है जिसके कारण विभिन्न क्षेत्रों में अस्मिता के सवाल उठे और उन पर व्यापकतौर पर लिखा गया।हिन्दी में दलित और स्त्री के संदर्भ में अस्मिता के सवाल ज्यादा उठे।
अस्मिता का कोई न मित्र है न शत्रु । अस्मिता की सारी आपत्तियां 'अन्याय' के खिलाफ हैं। 'अन्याय' के खिलाफ सामाजिक लामबंदी का उपकरण है अस्मिता। सवाल यह है अंत में अस्मिता किस बिंदु पर पहुँचती है ? क्या पुन: लौटकर अस्मिता की ओर लौटते हैं अथवा मानवता की ओर पहुँचते हैं।अस्मिता मूलत: राजनीतिक मंशा की देन है। अस्मिता पर राजनीति के बिना चर्चा संभव नहीं है। अस्मिता में निहित व्यक्तिगत और सामाजिक इच्छाओं को अभिव्यक्त किया है।अस्मिता विमर्श का इतिहास से गहरा संबंध है। इतिहास में जाए बिना इसका चित्रण और विवेचन संभव नहीं है।
अस्मिता विकल्प है। वह कभी स्वाभाविक नहीं होती। वह सामाजिक निर्मिति है।अस्मिता की धुरी है मनुष्य और मानवता।वह प्रतिस्पर्धी और बहुरूपी है। उसका दूसरा तत्व है भावुकता और सामाजिक तनाव। तीसरा , आत्महीनता। चौथा ,अस्मिता का सम-सामयिक फ्रेमवर्क । पांचवां , अस्मिता की राजनीति। अस्मिता विमर्श का सत्ता विमर्श के साथ गहरा संबंध है । छठा, अस्मिता विमर्श व्यक्तिवादी विमर्श है।अस्मिता विमर्श का इन दिनों जो रूप देखने में आ रहा है उसके दो प्रमुख आयाम है पहला है 'अन्याय' और दूसरा है ' इच्छापूर्त्ति'। सामाजिक-सांस्कृतिक रूपों में इन दो रूपों में अस्मिता का व्यापक उपभोग हो रहा है। अस्मिता विमर्श मूलत: उत्पादक है। सामाजिक शिरकत को बढ़ावा देती है। ध्यान रहे जाति,लिंग,नस्ल,त्वचा,धर्म आदि पर आधारित अस्मिता की सीमित भूमिका होती है। अस्मिता का मूलाधार है मानवता। मनुष्य ही प्रधान अस्मिता है। बाकी इसके मुखौटे हैं।
अस्मिता के फ्रेमवर्क में इन दिनों अनेक लेखक-लेखिकाओं की आत्मकथाएं आई हैं। अतः आत्मकथा के प्रमुख तत्वों को जानना बेहद जरूरी है।आत्मकथा का पहला तत्व है व्यक्तिगत अस्मिता और निर्वैयक्तिकता। आत्मकथा का दूसरा तत्व है उपस्थिति,वर्तमान और प्रस्तुति। रोलां बार्थ के शब्दों में आत्मकथा को उपन्यास के चरित्रों के माध्यम से व्यक्त होना चाहिए।आत्मकथा लिखते समय चिर-परिचित क्षेत्र हमेशा परेशान करते हैं। चिर-परिचित वातावरण समस्या पैदा करता है।दलितों की आत्मकथा को ही लें।इन आत्मकथाओं में चिर-परिचित यथार्थ है भारत की जाति समस्या। जाति समस्या लेखक को परेशान और उत्तेजित दोनों ही करती है। जातिप्रथा को करीब से जानने के कारण लेखक को इसके बारे में सटीक वर्णन ,विवरण और ब्यौरे तैयार करने में मदद मिली है। लेखक को जातिप्रथा की अनेक 'दरारें' नजर आती हैं। आत्मकथा में 'दरारों' की केन्द्रीय भूमिका होती है। 'दरारें' पुराने व्यक्तित्व की जगह नए व्यक्तित्व को सामने लाने का काम करती हैं। लेखक की जाति उत्पीड़न की पीड़ाएं जितनी बार व्यक्त होती हैं उतनी ही बार उसका नया रूप सामने आता है। पुराना रूप बदल जाता है। लेखक कहीं पर भी पुराने रूप को स्थापित करने का प्रयास नहीं करता। हमेशा नए रूप को सामने लाता है। पुराने रूप के साथ सामंजस्य बिठाने की बजाय 'दरारों' और 'अंतरालों' के बीच में से नए रूप में लेखक सामने आता है। रोलां बार्थ ने आत्मकथा के बारे में लिखा है आत्मकथा में आप स्वयं को नहीं देखते बल्कि इमेज को देखते हैं। अपनी आंखों को नहीं देखते। आत्मकथा लेखन हमेशा विचलनभरा होता है। विचलन के ऊबड़ खाबड़ पैरामीटर सर्किल बनाते हैं। इन रास्तों से गुजरने के बाद एक ही संदेश संप्रेषित होता है कि जिंदगी अर्थपूर्ण है।
आत्मकथा का केन्द्र बिंदु कौन सा है ? यह खोजने की जरूरत है।आत्मकथा में विश्वास सबसे बड़ी चीज है। आस्था के साथ लिखी आत्मकथा इमेज बनाती है। आत्मकथा में चित्रण के लिए चित्रण नहीं होता बल्कि प्रस्तुति पर जोर रहता है। आत्मकथा चिर-परिचित यथार्थ की प्रस्तुति होती है। प्रस्तुति में अंतराल ज्यादा साफ नजर आते हैं। क्योंकि आत्मकथा में समग्रता के तत्व का पालन नहीं होता।आत्मकथा में न्यूनतम अनुकरण, उद्धाटन ,विवरण और आख्यान होता है। आत्मकथा में नामों का जिक्र और नामों के साथ जुड़े अनुभवों का वर्णन होता है। फलत: आत्मकथा के दायरे में अनेक मील के पत्थर और पैरामीटर होते है। आत्मकथा भाषा प्रमुख है।वही आत्मकथा है। भाषा का संसार ही है जिसके कारण वह अपील करती है। आत्मकथा की भाषा में प्रस्तुति 'मैं' के अंत की घोषणा है। ''मैं'' संकेत मात्र होकर रह जाता है। भाषा सामूहिक प्रयासों से बनती है। आत्मकथा के 'मैं' का राजनीतिक - दार्शनिक चीजों में लोप हो जाता है। भाषाविज्ञान में लोप हो जाता है। आत्मकथा में '' मैं'' हमेशा घुला मिला होता है। आत्मकथा में जैसे 'तुम','वह','हम' होते हैं वैसे ही 'मैं' भी होता है। आत्मकथा में सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट दोनों एक हो जाते हैं। वक्ता और विषय एक हो जाते हैं।आत्मकथा का तीसरा प्रमुख तत्व है सुसंगत अनुभूति। जीवन के तथ्यों को सीधे बगैर किसी लाग-लपेट के अनुभूतियों के साथ पेश करना इसकी खूबी है। यहां तथ्यों को बगैर चासनी के पेश किया जाता है। बगैर किसी कृत्रिमता के पेश किया है। तथ्यों को अकृत्रिम भाव से पेश करना आत्मकथा का उत्तर आधुनिक फिनोमिना है। उत्तर आधुनिक आत्मकथा में अनिश्चितता,विचलन आदि को सहज ही देख सकते हैं। इसमें भाषा और विमर्श प्रभावशाली होते हैं।
आत्मकथा का पांचवां तत्व है छवि,काल्पनिक छवि और कल्पना। वाल्टर वूगीमैन के अनुसार '' वैध ज्ञान की पद्धति, कल्पना का अंत है।'' कहानी में शब्द,भाषा और भाषण चेतना निर्मित करते हैं। यथार्थ परिभाषित करते हैं। कल्पना के जरिए रूढिबद्धता से अपने को मुक्त करते हैं। अन्य किस्म का व्यक्तित्व निर्मित करते हैं। कल्पना के जरिए ही सामाजिक-साहित्यिक रूढियों को खारिज करने में मदद मिलती है। मनुष्य का रूपान्तरण होता है। यह रूपान्तरण सामंजस्य बिठाकर नहीं होता। व्यक्ति क्या है और व्यक्ति की क्या छवि बन रही है इन दोनों पर लेखक की नजर होती है,इसकी प्रस्तुति के दौरान लेखक रूढिबद्धता से बचने की कोशिश करता है। पूर्ण स्वतंत्रता और कल्पना का इस्तेमाल करता है। स्वतंत्रता और कल्पना के प्रयोग के कारण ही आत्मकथा ऊर्जा से भरी होती है। पढ़ने वालों के मन में ऊर्जा का संचार करती है। साहस और आस्था के साथ जोखिम उठाने की प्रेरणा देती है।
आत्मकथा का छठा तत्व है विमर्श,उद्धाटन और समापन। आत्मकथा में आत्म को उद्धाटित करने के लिए साहस की जरूरत होती है। अनेक लेखकों में साहस का अभाव होता है। आत्मविश्वास और साहस के बिना आत्मकथा लिखना संभव नहीं है। जो लेखन में जोखिम उठाते हैं और अपनी बात कहते हैं। वे अपना बोझ हलका करते हैं साथ ही समाज को भी खुली हवा में सांस लेने का मौका देते हैं।आत्म के बहाने लेखक लंबे समय से बंद कमरों को खोलता है। आत्मकथा में उद्धाटित करते समय लेखक डरता है, डरता है कि कहीं पकड़ा न जाऊँ ? अन्य के सामने नंगे खड़े होने का डर रहता है। यह शर्म और डर कहां से आता है ? असल में जो बौनेपन के शिकार होते हैं वे शर्माते हैं, डरते हैं। औसत बुद्धि के लेखक शर्माते और डरते हैं। इनमें से ज्यादातर रूढियों में जीते और तयशुदा मार्ग पर चलते हैं। 'क्लीचे' में जीते और बातें करते हैं।मजेदार बात यह है आत्मकथा में आत्म को बताना तो बहुत दूर की बात है लोग कहां जा रहे हैं यह तक साफतौर पर नहीं बताते। वे सामान्य सी चीज को बताने में डरते हैं, शरमाते हैं। उन्हें डर लगता है यदि अपनी बात बता देंगे तो पता नहीं क्या हो जाएगा। अमूमन हमें न बताने की आदत है। छिपाने की आदत है। छिपाना हमारी प्रकृत्ति है। जो छिपाया जा रहा है वह जितना महत्वपूर्ण है उतना ही वह भी महत्वपूर्ण है जो बताया जा रहा है। आत्मकथा को लिखने का मकसद होता है बंद अनुभूतियों को खोलना। छिपे हुए को सामने लाना। आत्मकथा के वातावरण को विभिन्न परिप्रेक्ष्य में देखना । निष्कर्ष निकालने से बचना।निष्कर्ष आत्मकथा को बंद गली में ले जाते हैं।आत्मकथा का मार्ग खुला होता है उसे निष्कर्ष के बहाने बंद करना आत्मकथा के मानकों की अवहेलना है। लेखन को इस बात से आंकना चाहिए कि आप कितना भूलते हैं और कितना क्षमा करते हैं। लेखन में अनुभवों की संभावनाओं का कभी अंत नहीं होता।