आरक्षण फिल्म रिलीज हो गयी। तीन राज्यों उत्तरप्रदेश,पंजाब और आंध्र ने इसके प्रदर्शन पर रोक लगायी हुई है। आंध्र में कांग्रेस ,यू.पी. में बहुजन समाज पार्टी और पंजाब में अकाली-भाजपा की राज्य सरकार है। यह संकेत है कला और राजनीति के अन्तर्विरोध का। सुप्रीम कोर्ट और बॉम्बे हाईकोर्ट में मामला विचाराधीन है। इस फिल्म का सारा हंगामा इसके प्रोमो को देखकर आरंभ हुआ। उसके आधार पर शिकायतें की गयीं। बाद में फिल्म देखकर एससी-एसटी कमीशन ने आपत्तियां व्यक्त कीं। इससे यह तथ्य भी सामने आया कि हमारे राजनेता अभी कलाबोध से कोसों दूर हैं। राजनीतिज्ञों को कलाविद भी होना चाहिए। कलाविहीन राजनेता फासिस्ट होते हैं।
फिल्म के संदर्भ में संवैधानिक संस्थाओं में किसकी मानें ? मसलन फिल्मों के मामले में सेंसरबोर्ड ,मुख्यमंत्री ,एससी-एसटी कमीशन,अदालत आदि में कौन है निर्धारण करने वाली संस्था ? बॉम्बे हाईकोर्ट ने सेंसरबोर्ड को ही अंतिम फैसला लेने वाली संस्था कहा है। यदि ऐसा है तो फिर आरक्षण पर तीन राज्यों ने रोक क्यों लगायी ? क्या यह अदालत और सेंसरबोर्ड का अपमान है ?
भारत में फिल्म और राजनीति का अन्तर्विरोध पुराना है। राजनेता किसी भी माध्यम से उतना नहीं डरते जितना फिल्म से डरते हैं। यही वजह है कि वे आए दिन किसी न किसी फिल्म पर प्रतिवाद और हंगामा करते हैं। नीतिगत मामले में पश्चिम की नकल करने वाले राजनेता और राजनीतिकदल कम से कम पश्चिमी देशों से इस मामले में बहुत कुछ सीख सकते हैं। पश्चिम में नेतागण किसी फिल्म पर इस तरह गुलगपाड़ा नहीं मचाते। राजनेता और उनके छुटभैय्ये भूल जाते हैं कि फिल्म से वोट नहीं कटते और न वोटों में इजाफा होता है। फिल्म भी अन्य कलारूपों की तरह संचार का प्रभावशाली कलारूप है।
हैडलाइन टुडे चैनल पर एससी-एसटी कमीशन के चेयरमैन से आरक्षण फिल्म के संदर्भ में फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप ने पूछा कि आपको किसने शिकायत की ? बिना फिल्म देखे उस व्यक्ति ने कैसे शिकायत की ?आपने उस व्यक्ति को यह क्यों नहीं कहा कि फिल्म जब रिलीज ही नहीं हुई है तो उसके बारे में आपत्तियां कैसी ? बिना फिल्म देखे आपने उसकी आपत्तियों को विचारयोग्य कैसे मान लिया ? चेयरमैन साहब अंत तक जबाब नहीं दे पाए। कायदे से बिना देखे ,जाने और समझे कलाओं के बारे में सवाल नहीं उठाने चाहिए। यदि सवाल भी उठें तो वे प्रतिबंध की शर्त के साथ नहीं।
इन दिनों टीवी के साथ सांठगांठ करके छुटभैय्ये नेता किसी भी मसले पर बाइटस की बमबारी आरंभ कर देते हैं। टीवी चैनल बगैर किसी नीति के चल रहे हैं और हर विवाद पर बहस चला देते हैं और अंत में टीवी कार्यक्रमों को दबाब की राजनीति के अंग के रूप में प्रशासन पर प्रभाव पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। आरक्षण फिल्म के बारे में यही हुआ है। बाइटस की बमबारी को हम आम जनता का प्रतिवाद समझने लगते हैं। इस चक्कर में टीवी वीले अपने को जनता के प्रतिबिम्ब के रूप में पेश करते हैं।यह टीवी वालों का विभ्रम है। टीवी बाइटस विभ्रम पैदा करती है। वह सत्य और तथ्य के बीच में मेनीपुलेशन है। उसे आम जनता की राय,तथ्यपूर्ण राय,सत्य आदि कहना सही नहीं है।
सेंसरबोर्ड की चेयर पर्सन ने हैडलाइन टुडे से कहा यदि इस फिल्म का नाम आरक्षण न होता तो इतना हंगामा न होता। यह बात एक हद तक सच है। फिल्ममेकर अनुराग कश्यप ने कहा आरक्षण फिल्म वस्तुतः आरक्षण का पक्ष लेती है। उन्होंने एससी-एसटी कमीशन के अध्यक्ष से सवाल किया फिल्म देखने के बाद क्या महसूस होता है ? क्या यह फिल्म आरक्षण विरोधी संदेश देती है ? इस सवाल का वे सीधे जबाब नहीं दे पाए।
असल बात यह है फिल्म या कलाएं आनंद देती हैं, घृणा का प्रचार नहीं करतीं । सर्जकों के नजरिए की अभिव्यक्ति हैं। अनुराग कश्यप ने सुझाव दिया है राजनेताओं के लिए फिल्मों का एक फिल्म एप्रिशियेसन का कोर्स पढ़ाया जाना चाहिए । उनका दूसरा सुझाव है फिल्मों के बहाने हो रही सुपरसेंसरशिप बंद होनी चाहिए और समूचे फिल्म जगत को इसका एकजुट होकर विरोध करना चाहिए। सेंसरबोर्ड ने एस-एसटी अध्यक्ष की आपत्तियों की कानूनी हैसियत जानने के लिए भारत सरकार के महाधिवक्ता की राय मांगी है।
मुश्किल यह है फिल्म कला है तो व्यापार भी है। व्यापार में व्यापारियों में एकजुटता का होना विरल घटना है। बॉम्बे फिल्म उद्योग में कलाकार हैं,कला उत्पादन होता है लेकिन कलाओं के संसार के मालिक पूंजीपति भी हैं जो बाजार की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में लगे हैं।
फिल्मों को लेकर उठे विवाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यापार की स्वतंत्रता के विवाद हैं। इन मसलों पर प्रत्येक फिल्ममेकर को निजी जंग लड़नी होगी। सामूहिक जंग हो यह बेहतर स्थिति है, लेकिन व्यापार की प्रतिस्पर्धा कभी एकजुट नहीं रखती। वरना जावेद अख्तर को यह बयान देने की क्या जरूरत थी कि जब फना पर पाबंदी लगी तो लोग क्यों नहीं बोले ? जावेद साहब न बोलने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन उनका यह कहना कि फना पर या अन्य किसी फिल्म पर पाबंदी के समय फिल्मजगत क्यों नहीं बोला ? एक लेखक के मुँह से इस तरह के बयान शोभा नहीं देते। फना हो या आरक्षण हो ,कोई भी फिल्म हो ,फिल्ममेकर को सेंसरबोर्ड के अलावा किसी के दबाब में नहीं आना चाहिए। खासकर राजनेताओं के दबाब में आकर फिल्म में अंश निकालने का काम कभी नहीं करना चाहिए। हिन्दी सिनेमा का यह दुर्भाग्य है मणिरत्नम की फिल्म बॉम्बे से लेकर अमिताभ बच्चन की फिल्मों तक यह राजनीतिक दबाब में आकर कट करने का सिलसिला चला आ रहा है। फिल्मों के मालिक एकबार पैसा लगा देने के बाद येन-केन प्रकारेण पैसा निकलना चाहते हैं और कलाकारों पर दबाब पैदा करते है।
फिल्मवालों को ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए कि कोई उपन्यासकार-कहानीकार किसी भी राजनीतिक दबाब के आगे झुककर अपनी कृति से विवादित अंश नहीं निकालता। इस तरह की दृढ़ता फिल्ममेकरों और फिल्म कलाकारों में क्यों नहीं है ? सलमान रूशदी ने सारी दुनिया में विवाद उठने कस बाबजूद सैटेनिक वर्शेज को वापस नहीं लिया,विवादित अंश नहीं निकाले और वे मजे में सारी धमकियों के बाबजूद जिंदा हैं। फिल्ममेकरों को अपनी कला से प्यार है तो फिल्मों की कटिंग या सुपरसेंसरशिप से बचना होगा। मकबूल फिदा हुसैन देश छोड़कर चले गए लेकिन अपनी कलाकृतियों को लेकर फंडामेंटलिस्टों के सामने घुटने नहीं टेके। जब तक यह दृढ़ता फिल्ममेकर में नहीं आती वह बार -बार मार खाएगा और कट करने के लिए बाध्य किया जाएगा।
आरक्षण फिल्म के खिलाफ समुदाय की राजनीति और कारपोरेट मीडिया फासिज्म वस एक-दूसरे के पूरक की भूमिका अदा की हैं।टीवी ने इसके पक्ष-विपक्ष में बहस आयोजित करके प्रेशर की फासिस्ट राजनीति को हवा दी है। कायदे से सुप्रीम कोर्ट को संज्ञान लेकर सेंसरबोर्ड से पास फिल्मों के प्रदर्शन को सुनिश्चित बनाने के लिए राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार को आदेश देना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी पर बहस नहीं की जा सकती। जो लोग आरक्षण फिल्म पर बहस करा रहे हैं वे वस्तुतः फासिज्म की सेवा कर रहे हैं। आरक्षण फिल्म के प्रसारण का सवाल अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है। यह फिल्म आरक्षण का सिद्धान्ततः विरोध नहीं है। इसके बावजूद हमारे देश में आरक्षण का विरोध करने की राजनीतिक स्वतंत्रता है। जो लोग यह सोच रहे हैं कि आरक्षण संवैधानिक है ,तो वे जानते हैं कि इस देश का एक बड़ा राजनीतिक समुदाय आरक्षण का विरोध करता रहा है। वे लोग संसद से लेकर सड़कों तक भाषण करते रहे हैं। कोई अधिकार संवैधानिक है तो उस पर बात नहीं की जा सकती,मतभिन्नता का प्रदर्शन नहीं किया जा सकता,यह मान्यता स्वयं में फासिस्ट मनोवृत्ति को व्यक्त करती है। दुर्भाग्य से हमारे कुछ अच्छे दलित नेताओं ने आरक्षण फिल्म को इसी नजरिए से देखा है ।
आरक्षण फिल्म के खिलाफ जिस तरह की 'समुदाय' की दबाब की राजनीति हो रही है यह भारत के भावी खतरनाक भविष्य का संकेत भी है।हम एक ऐसे युग में हैं जहां कलाविहीन लोग कलाओं पर फैसले सुना रहे हैं।यह वैसे ही है जैसे बीमार की चिकित्सा के लिए डाक्टर को बुलाने की बजाय झाड़-फूंकवाले ढ़ोंगी बाबा से इलाज कराया जाए।
आरक्षण फिल्म को सेंसरबोर्ड की अनुमति मिल जाने के बाद उसे प्रदर्शन से रोकना अन्याय है। यू.पी.पंजाब , आंध्र आदि राज्य सरकारों ने कभी भी दलित और पिछड़वर्ग के लोगों के सामाजिक सवालों और दलित महापुरूषों पर कोई फिल्म नहीं बनायी। वे कभी कोशिश नहीं करते कि दलितों में अच्छे सिनेमा का प्रचार प्रसार हो,वे कभी दलितों के लिए फिल्म शो आयोजित नहीं करते। वे दलितों में राजनीतिक प्रचार करते हैं कलाओं का प्रचार नहीं करते। दलित विचारकों को यह सवाल दलितनेताओं से पूछना चाहिए कि दलितों में कलाओं के प्रचार-प्रसार के लिए राज्य सरकारों ने क्या किया ? कितने फिल्म क्लब या फिल्म सोसायटी बनायी गयीं? कितनी कला प्रदर्शनियां दलितों के इलाकों में आयोजित की गयीं ? कितने दलितलेखकों की रचनाओं को खरीदकर राज्य सरकारों ने दलितों को मुफ्त में मुहैय्या कराया ? मेरे कहने का आशय है कि राजनेताओं और उनके कलमघिस्सुओं का दलितप्रेम नकली और निहित स्वार्थी है,उसमें दलितों को कला सम्पन्न बनाने की न तो पीड़ा है और न पहलकदमी ही है।
किसी फिल्ममेकर को घेरना आसान है लेकिन दलितों के लिए नियमित मुफ्त फिल्म प्रदर्शन आयोजित करना,साहित्य गोष्ठियां आयोजित करना,कला प्रदर्शनी आयोजित करना मुश्किल है। किसी टीवी चैनल में दलितों की हिमायत में बोलना जितना जरूरी है उतना ही दलितों के बीच में कलाओं और पापुलरकल्चर को संगठित ढ़ंग से ले जाना भी जरूरी है। यह सवाल भी उठा है कि दलितहितों की रक्षक सरकारों ने दलित महापुरूषों या सामान्य दलित जीवन के विभिन्न प्रसंगों पर केन्द्रित कितनी फिल्में और सीरियल बनाए हैं ? कितनी स्क्रिप्ट लिखीं हैं ? किसने रोका है दलितों को सिनेमा-फिल्मों में आगे आने से ? कम से कम फिल्म निर्माण में तो ये लोग अपना भाग्य आजमा सकते हैं।
साहित्य में दलित लिख रहे हैं तो लोग उनका लोहा मान रहे हैं। यदि वे फिल्में भी बनाने लगेंगे तो हो सकता है वहां भी लोग लोहा मानने लगें। यह दुख की बात है कि दलितनेताओं को दलितों के कलात्मक उत्थान की कोई चिंता नहीं है। दलितों को कला,फिल्म,सीरियल आदि कौन देगा ? क्या दलित विचारक,एससी-एसटी कमीशन इस ओर कोई ठोस कदम उठाएंगे ? दलितों का मंदिर प्रवेश निषेध अपराध है लेकिन दलितों के बीच में कलाओं का न पहुँचना उससे भी भयानक अपराध है। दलितों को मंदिर तक पहुँचाने की चिंता करने वालों को उनके पास कलाओं को ले जाने का काम करना चाहिए। कलाओं से दलितों की दूरी खत्म की जानी चाहिए। दलितों को भगवान से ज्यादा कलाओं की जरूरत है।