गुरुवार, 11 अगस्त 2011

माओवाद-ममता -महाश्वेता की दोगली राजनीति


    माओवाद और कारपोरेट मीडिया का रोमैंटिक संबंध है। भारतीय बुर्जुआजी और माओवाद में सतह पर वर्गयुद्ध दिखाई देता है लेकिन व्यवहार में माओवादी संगठन और उनकी विचारधारा बुर्जुआजी की सेवा करते हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि माओवादी क्रांतिकारी हैं और क्रांति के बिना नहीं रह सकते , वेमुगालते में हैं। माओवादियों का क्रांति, समाजसुधार और सामाजिक परिवर्तन जैसे कामों से कोई संबंध नहीं है।
    इन दिनों कारपोरेट मीडिया के लिए माओवादी खबर नहीं हैं। माओवादी कहां चले गए ? वे इन दिनों क्या कर रहे हैं ? उनकी गतिविधियों के बारे में विगत विधानसभा चुनावों के पहले खासकर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के पहले इतना फोकस क्यों था ? ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद अचानक माओवाद प्रभावित लालगढ़ की खबरें आनी बंद क्यों हो गयीं? क्या पश्चिम बंगाल के माओवाद प्रभावित इलाकों में अमन-चैन लौट आया है ? ये कुछ सवाल हैं जिन पर गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है।
        ममता सरकार आने के बाद माओवादियों ने लालगढ़ इलाके में अपना वर्चस्व पुनःस्थापित कर लिया है।  लालगढ़ इलाके में माओवादियों के खिलाफ सशस्त्रबलों का ऑपरेशन मूलतः ठंडा कर दिया गया है। ममता सरकार ने 100 के करीब राजनीतिक बंदियों को रिहा किया है उसमें कई माओवादी नेता भी हैं। 13 जुलाई को लालगढ़ इलाके में ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री बनने के बाद सभा की है और अनेक लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा की है। लेकिन इन योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए जमीनी स्तर पर कोई काम राज्य सरकार ने आरंभ नहीं किया है।
  दूसरी ओर नए सिरे माओवादियों के संरक्षण में चलने वाली 'पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी' ने लालगढ़ और आसपास के इलाकों में अपना दखल कायम कर लिया है। सभी दलों के काम करने पर अघोषित पाबंदी है। यहां तक तृणमूल काग्रेस का विधायक अपने इलाके में घुस नहीं सकता। माकपा के सैंकड़ों लोग इलाका छोड़ने के लिए मजबूर हुए हैं। लालगढ़ के 12 पुलिसथानों के तहत आने वाले इलाकों और पड़ोसी राज्यों से लगने वाले कोरीडोर पर माओवादियों ने फिर से कब्जा जमा लिया है।
मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता बनर्जी ने 13जुलाई 2011 को लालगढ़ में जो रैली की थी उसमें उसने एक गलत मिसाल कायम की। 3नवम्बर 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के जिंदल के कारखाने के उद्घाटन के बाद लौटते समय माओवादियों ने जो लैण्डमाइन धमाका किया था उसके बाद पुलिस ने अपराधियों की धरपकड़ के लिए जो छापे मारे थे उनमें पुलिस से कुछ ज्यादतियां भी हुई थीं  । ममता बनर्जी ने अपनी रैली में उस पुलिस छापे में परेशान किए गए लोगों के लिए आर्थिक सहायता राशि की घोषणा की। सवाल यह है कि मुख्यमंत्री और केन्द्रीय मंत्री के कार काफिले पर लैण्डमाइन से हमला करने वालों की पुलिस छानबीन करेगी या नहीं ? छानबीन के दौरान जिन लोगों से कसकर पूछताछ की गई है या पुलिस ने परेशान किया है तो क्या उसके लिए राज्य सरकार कम्पसेशन देगी ? क्या मुख्यमंत्री के काफिले पर किया गया हमला माओवादी साजिश नहीं थी ? क्या माओवादियों ने लैण्डमाइन विस्फोट के लिए माफी मांगी ? मुख्यमंत्री के काफिले पर लैण्डमाइन बिछाकर किया गया हमला एक निंदनीय अपराध है और उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
   मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उस मीटिंग में एक और महत्वपूर्ण बात कही कि लालगढ़ के लोगों को पुलिस से डरने की जरूरत नहीं है। पुलिस तो उनकी मदद के लिए है। ममता का कम्पशेसन पैकेज और यह घोषणा अपने आपमें माओवादियों के खिलाफ पुलिस और अन्य प्रशासनिक ईकाइयों को संदेश है कि माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन ठंडा करो।
  उल्लेखनीय है जिंदल ग्रुप ने लालगढ़ के सालबनी इलाके में इस्पात का कारखाना लगाने के लिए राज्य वाम मोर्चा सरकार से पांच हजार एकड़ जमीन ली थी। इसमें ज्यादातर बंजर जमीन है। माओवादियों ने इसका विरोध किया था और एक जमाने में ममता बनर्जी ने उनके आंदोलन का समर्थन भी किया था। जिंदल ग्रुप को आदिवासियों की  जमीन दिए जाने पर पश्चिम बंगाल के तमाम रेडीकल कहलाने वाले बुद्धिजीवियों महाश्वेता देवी आदि को भी गंभीर आपत्ति थी। लालगढ़ की समूची समस्या इस प्रकल्प को जमीन दिए जाने के बाद आरंभ हुई और ममता ने विपक्ष में रहते हुए इसे बढ़ावा दिया जिसके कारण अंततः केन्द्र सरकार की मदद से लालगढ़ में राज्य सरकार को 25 हजार से ज्यादा सशस्त्रबल लगाने पड़े।
    मजेदार बात यह है कि ममता बनर्जी सरकार बनने के साथ ही जिंदल के कारखाने के खिलाफ माओवादियों और रेडीकल लेखकों का आंदोलन गायब हो गया है । उलटे ममता सरकार में उद्योगमंत्री पार्थ चटर्जी ने जिंदल ग्रुप के लोगों को बुलाकर बात की है और यह इच्छा व्यक्त की है कि जल्दी ही इस कारखाने के अधूरे कामों को पूरा किया जाए। सवाल यह है  सालबनी इस्पात कारखाने को लेकर ममता सरकार का आज जो नरम रूख है वह विपक्ष में रहते हुए क्यों नहीं था ?
    आज माओवादी चुप हैं ,उनकी चुप्पी संकेत है कि वे चाहते हैं कि कारखाना लगे। इसका अर्थ यह भी है कि वाममोर्चा सरकार का जिंदल के इस्पात कारखाने को लेकर लिया गया फैसला सही था। उस कारखाने को लेकर ममता बनर्जी ,माओवादियों और महाश्वेता देवी लेखकों की आपत्तियां पूर्वाग्रह से प्रेरित थीं। पहले जो अशांति और आतंक के वातावरण की सृष्टि की गई थी वो भी गलत था ।
   सालबनी के जिंदल इस्पात कारखाने को लेकर महश्वेता देवी और अन्य रेडीकल लेखकों का दोगला चरित्र भी सामने आ गया है। वे पहले लालगढ़ में आम लोगों को जिंदल ग्रुप के बारे में भड़का रहे थे,जो बुनियादी रूप से गलत था। अब ये ही लेखक-बुद्धिजीवी ममता सरकार के प्रत्येक कदम का समर्थन कर रहे हैं। चूंकि ममता सरकार जिंदल कारखाने के पक्ष में है तो महाश्वेता देवी और माओवादी भी इसके पक्ष में हैं। सवाल यह है ये ही लोग बुद्धदेव सरकार और वाममोर्चे का लालगढ़-सालबनी में फिर किस बात के लिए विरोध कर रहे थे ?

































1 टिप्पणी:

  1. सही कहा...इसका अर्थ सीधे-सीधे यह निकलता है कि विपक्ष केवल विरोध के लिए विरोध कर रहा था याकि इससे भी कहीं गहरे स्तर पर यह सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया जिसके लिए लेखकों से लेकर माओवादियों तक से सांठगांठ की गयी.

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