ये जनाब मुकदमेबाज हैं। संघ की नई रणनीति के तहत ये शिक्षाजगत में संघ के मुखौटे हैं । अब तक का राजनीतिक अनुभव रहा है कि संघ पहले वैचारिक हमले करता है , फिर राजनीतिक हमले ,उसके बाद शारीरिक और अंत में क़ानूनी आतंकवाद का सहारा लेता है और फिर विजय दुंदुभि बजने लगती है !
उदार आधुनिक लोकतांत्रिक , वैज्ञानिक और संवैधानिक वैविध्यपूर्ण विचारों और किताबों पर प्रतिबंध लगाना फंडामेंटलिज्म है । इस फंडामेंटलिज्म को हमेशा शिक्षा की रक्षा के नाम पर सक्रिय देखा गया है ।
सवाल यह है कि बत्रापंडित जैसे पोंगापंथियों के मुखौटे की संघ को ज़रुरत क्यों पड़ी ? संघ और उससे जुड़ा राजनीतिक दल इस काम को अपने नाम से सीधे क्यों नहीं करता ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि केन्द्र या राज्य में जहाँ पर बत्रापंडित को मौक़ा मिलता है वे शिक्षा पर ही मेहरबानी क्यों करते हैं ?
आधुनिककाल में शिक्षा को राजनीति के बाद सबसे बड़ा विचारधारात्मक जंग का मैदान माना जाता है और यही वजह है कि संघ और उनके मुखौटे राजनीति और शिक्षा पर सबसे ज़्यादा हमले करते हैं।
संघ के बजरबट्टुओं की वैचारिक जंग का तीसरा बड़ा क्षेत्र है हमारा संविधान । वे आए दिन संविधान की मूल धारणाओं और भावनाओं की पिछड़े नज़रिए से आलोचनाएँ करते हैं ।
संविधान ,शिक्षा या राजनीति इसमें कोई चीज़ स्थायी नहीं है , इनमें निरंतर संशोधन, परिवर्द्धन और मूलगामी परिवर्तनों की ज़रुरत रहती है। इन क्षेत्रों में बदलाव यदि आगे की ओर ले जाने वाले हों तो समाज में अमनचैन स्थापित होता है लेकिन बदलाव अतीतोन्मुखी हों तो समाज , राजनीति, शिक्षा, न्यायपालिका , संस्कृति आदि के क्षेत्र में नए क़िस्म का रुढिवाद और फंडामेंटलिज्म पैदा होने की संभावनाएँ होती हैं।
संयोग की बात है कि बत्रापंडित जो सुझाव दे रहे हैं उनमें अतीतोन्मुखी जीवनशैली पर ज़ोर है। अतीतोन्मुखी जीवनशैली मूलत: भारतीय परंपरा का निषेध है और उदार सामाजिक संरचनाओं के निर्माण में बाधक है ।
बत्रापंडित अपने को किताबों के 'सामाजिक संपादक 'के पद पर नियुक्त कर चुके हैं। ये साहब नहीं जानते कि भारतीय परंपरा में किताबों के 'सामाजिक संपादक 'की कभी किसी हिन्दू या ग़ैर हिन्दू उदार या अनुदार विचारक, दार्शनिक, संत, कवि आदि ने वकालत नहीं की ।
भारतीय समाज को कभी ' किताबों के सामाजिक संपादक ( सोशल आॅडिटर) ' की ज़रुरत नहीं पड़ी । भारतीय परंपरा में दर्शन से लेकर जीवनशैली तक, धर्म से लेकर शिक्षा तक किताबों की दुनिया प्राचीनकाल , मध्यकाल और आधुनिककाल तक वैविध्यपूर्ण और सहिष्णु रही है ।
ब्रिटिश शासनकाल में पहली बार किताबें ज़ब्त हुईं.विचारों पर क़ानूनी पाबंदियाँ लगायी गयीं । ब्रिटिशशासन से हमें विचारों पर पाबंदी की क़ानूनी हिदायतें देखने को मिलती हैं ।
बत्रापंडित की अवैज्ञानिक और काल्पनिक धारणाओं के आधार पर हमने देश की एकता और अखंडता का निर्माण नहीं किया है । हमारे देश में संविधान निर्माण की प्रक्रिया से लेकर आज तक ठोस वैज्ञानिक और उदार विचारों के आधार पर विविधता को हर क्षेत्र में स्वीकृति दी गयी और विविधता को जीवनशैली, शिक्षा, अभिव्यक्ति की आज़ादी, राजनीति आदि के क्षेत्र में महत्वपूर्ण मानकर क़ानूनी व्यवस्थाओं और वैध संरचनाओं का निर्माण किया गया।
मसलन हमारे संविधान के तहत आप पोंगापंथ का प्रचार कर सकते हैं ,लेकिन कोई वैज्ञानिक नज़रिए से प्रचार करना चाहे तो उसे भी हमारा संविधान और क़ानून मान्यता देता है ।
आप जादू - टोने के पक्ष में किताबें लिख सकते हैं और वैज्ञानिकचेतना पर भी किताबें लिख सकते हैं । लेकिन बत्रापंडित का सारा ज़ोर इस वैविध्य को नष्ट करने पर है वे वाद -विवाद में विश्वास नहीं करते ,वे जबरिया मनवाने में विश्वास करते हैं और इसके लिए सभी गैर-ज्ञानपरक हथकंडे अपनाते हैं ।
वे दिल जीतने में विश्वास नहीं करते वे दिल को क़ैद करने में विश्वास करते हैं । ' सामाजिक संपादक' के नाम पर उनके निशाने पर विज्ञानसम्मत शिक्षा है। वे कभी सामाजिक रुढियों , अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों ,भूत-प्रेत-पिशाच-डाकिनी-पिशाचिनी आदि के ख़िलाफ़ मुहिम नहीं चलाते ।
वे कभी उपभोक्तावाद, सभी रंगत के कठमुल्लापन, जातिप्रथा , दहेजप्रथा आदि के ख़िलाफ़ बिगुल नहीं बजाते ।
बत्रापंडित ने ' स्वच्छंदता' के ख़िलाफ़ मुहिम के नाम पर अतीतोन्मुखी जीवनशैली और मूल्यों की हिमायत को प्रमुखता से पेश किया है यह असल में अतीतोन्मुखी फ़ंडामेंटलिस्ट स्वच्छंदता है जिसका भारत की विविधता और संविधान की मूल मान्यताओं से बैर है । वे इसके जरिए ' सांस्कृतिक आतंक' पैदा करना चाहते हैं ।
बत्रापंडित एक गैर पेशेवर संघी कार्यकर्ता है ,जिसके जरिए संघ अपना सांस्कृतिक काम करता रहा है । यह व्यक्ति अपने गैर- पेशेवर कामों मेंकानून के चोर दरवाज़ों का बड़े ही कौशल के साथ इस्तेमाल करता रहा है । स्थिति यह हैकि वह सीधे मंत्री से लेकर प्रकाशक तक सीधे आदेश की भाषा में बोलता है ।
बत्रापंडित की मान्यता है ' मेरी मानो वरना मुकदमे झेलो' , यह रणनीति किसी भी प्रकाशक को ठंडा करने के लिए काफ़ी है, क्योंकि कोई भी प्रकाशक मुकदमेबाजी से डरता है । इस रणनीति का बत्रापंडित को लाभ भी मिला है और कई प्रकाशक उनके दबाव में आ गए हैं , संघ नियंत्रित सरकारें उनकी किताबें ख़रीद रही हैं और अब ये जनाब राष्ट्रीय स्तर पर बड़े सांस्कृतिक संकट को पैदा करने की मुहिम में लग गए हैं ।
हमारी अपील है कि बत्रापंडित के पोंगापंथ के सामने केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री समर्पण न करें । यदि वे उनके दबाव में आती हैं तो इससे संविधान की मूल भावनाओं और अकादमिक स्वायत्तता का हनन होगा ।