मंगलवार, 1 जुलाई 2014

कोलकाता में गाली,हिंसा और बम


     कल मैं बंगला टीवी चैनल पर टीएमसी सांसद और अभिनेता तापस पाल को हिंसक भाषा में भाषण देते हुए देख रहा था तो मन में सोच रहा था कि बंगाली जाति के कितने बुरे दिन आ गए हैं कि उनके आइकॉन आम जनता में  हिंसक भाषा में बोल रहे हैं और दर्शक तालियां बजा रहे हैं।
     बंगाली जाति मधुरभाषी,सांस्कृतिकतौर पर सभ्यजाति है। इसमें हिंसकभाषा कहां से आई ? बंगाली जाति के नेता भारत में सभ्यता और राजनीति के सिरमौर रहे हैं और देश उनको बड़े ही सम्मान की नजर से देखता रहा है। लेकिन अब ऐसा नहीं है।
   सांसद तापस पाल की भाषा इतनी खराब और दबंगई से भरी थी कि ममता सरकार में शिक्षामंत्री पार्थ चटर्जी तक ने इस तरह की भाषा के इस्तेमाल पर आपत्ति प्रकट की। नेता हो या नागरिक , गाली और हिंसा की भाषा में बोलना तो अपराध है, असभ्यकर्म है।
      प.बंगाल में गाली,हिंसा और बम की राजनीति में गहरा संबंध है ।  हिंसा हमेशा गाली की भाषा के दरवाजे से ही दाखिल होती है। राजनीति में गाली की भाषा कब आती है और कब वह हिंसा में तब्दील हो जाती है इसका ठीक से अध्ययन तो हमारे समाज में नहीं हुआ लेकिन यह सच है कि गाली और हिंसा जुड़वां बहनें हैं। ये दोनों बहनें तब जन्म लेती हैं जब समाज में कर्मसंस्कृति का क्षय होता है।परजीवी और पराजित मनोदशा में गाली और हिंसा जन्म लेती है।
     पश्चिम बंगाल में जिसे नक्सलबाडी आंदोलन कहते हैं वह इस राज्य के सांस्कृतिक-राजनीतिक पतन का प्रस्थान बिंदु है। पश्चिम बंगाल में हिंसाचार का श्रीगणेश यहीं से होता है। धमकी,गाली,बम,क्रांति की गजब खिचडी इस बीच पकी है। इसमें बौद्धिकों ने सुविधानुसार क्रांति और वाम राजनीति को पॉजिटिव तत्व के रुप में छांट लिया लेकिन अन्य चीजों को छोड़ दिया।
     क्रांति या वामराजनीति में गाली,घृणा (पूंजीपति और सामंती तत्त्वों के प्रति घृणा) को इस हद तक विकसित किया गया कि उसने सामाजिक-राजनीतिक संतुलन में बदलाव की प्रक्रिया को तेज कर दिया। हमारे अनेक वामपंथी मित्र यह पढ़कर नाराज भी हो सकते हैं लेकिन सच तो यही है कि लोकतंत्र में घृणा का कोई स्थान नहीं है। आप अपने वर्गशत्रु से भी नफरत नहीं कर सकते। लोकतंत्र में सबके लिए स्थान है।अमीर के लिए भी और गरीब के लिए भी। पूंजीपति और बड़े जमींदारों के खिलाफ घृणा का सिलसिला अंततःगाली के मार्ग से गुजरते हुए हिंसा और बम के मार्ग तक गया। इसके कारण पहले निजी हिंसा को वैध बनाया गया,बाद राजनीतिक हिंसा भी वैध हो गयी,फिर पुलिस हिंसा भी वैध मान ली गयी।
    हमलोग अपनी सुविधा से हिंसा में अंतर करने लगे, तेरी हिंसा और मेरी हिंसा में पाप-पुण्य खोजने लगे। अपने दल की हिंसा को हिंसा न मानकर आत्मरक्षा में उठाया कदम मानने लगे।
    जबकि हिंसा तो हिंसा है और वह लोकतंत्र का विलोम है। इसी तरह घृणा तो घृणा है वह सभ्यता और लोकतंत्र का विलोम है। वर्गीय घृणा पैदा करके वोट जुटाए जा सकते हैं, सीटें जीती जा सकती हैं। सत्ता पा सकते हो लेकिन सभ्यता के क्षय को नहीं रोक सकते।
   वाममोर्चा निरंतर अपार बहुमत हासिल करके भी हिंसा को नहीं रोक पाया। इसका प्रधान कारण वही है जिसका मैंने जिक्र किया है। लोकतंत्र में हिंसा,गाली और घृणा की कोई जगह नहीं है। यदि लोकतंत्र के सारथी  हिंसा,गाली और घृणा के रथ पर सवार होकर आएंगे तो लोकतंत्र में सभ्यता के क्षय और हिंसा के विस्तार को रोक नहीं सकते। पश्चिम बंगाल में वस्तुतः यही हुआ है।
    हिंसा को हर दल ने वैध बनाया,हिंसा की मदद ली और राजनीतिक वैभव का विस्तार किया। यह विलक्षण संयोग है कि नक्सली हिंसा के दमन के नाम पर कांग्रेस ने कुछ साल शासन किया लेकिन हिंसा का कांग्रेस को जो चस्का लगा वह उसे आपातकाल तक ले गया और कांग्रेस में धीरे धीरे अपराधीकरण एक स्वाभाविक फिनोमिना बन गया।
    नक्सलबाड़ी आंदोलन के पहले कांग्रेस के शासकों को हिंसा की राजनीति करते नहीं देखा गया। तेलंगाना आंदोलन अपवाद है। यह भी कह सकते हैं राजनीतिक हिंसाचार की जो परंपरा कांग्रेस ने तेलंगाना आंदोलन (1946-48) ने डाली, वह नक्सलबाडी आंदोलन के दौर में तरुणाई में पहुँची और आपातकाल में पूर्ण यौवन को प्राप्त हुई। इस समूची प्रक्रिया में पश्चिम बंगाल के भद्रसमाज में हिंसा और असभ्यता की दीमक प्रवेश कर गयी और आज उससे पूरा राज्य प्रभावित है।
    दुखद बात यह है कि वामदलों ने सभ्यता के क्षय की प्रक्रियाओं की हमेशा अनदेखी की। हिंसा को हिंसा से खत्म करने की रणनीति अपनायी, गाली का जबाव गाली से देने की पद्धति इजाद की,जो साथ नहीं वह वर्गशत्रु। जो साथ छोड़ गया वह वर्गशत्रु। इस रणनीति के परिणाम सामने हैं। इसका सबसे बड़ा परिणाम है सामाजिक अलगाव।  
  वामराजनीति के विकास के दौर में हिंसा कम नहीं हुई बल्कि बढी । बंगाली समाज और ज्यादा असभ्य बना।  वाम,नक्सल,कांग्रेस, टीएमसी आदि सब भूल गए हैं कि कीचड़ से कीचड़ साफ नहीं होती। कीचड़ को साफ करने के लिए साफ-स्वच्छ जल चाहिए। हिंसा से हिंसा खत्म नहीं होती, गाली से सभ्यता विकसित नहीं होती। हिंसा को शांति से खत्म किया जा सकता है। गाली को गाली से खत्म नहीं कर सकते,बल्कि सभ्य आचरण से खत्म किया जा सकता है।
  लोकतंत्र में सभ्यता के विकास के लिए लोकतांत्रिक सभ्य पैमानों को अपनाने की जरुरत है। गाली ,हिंसा और बम तो वर्चस्व और हताशा के पैमाने हैं। ये पैमाने लोकतंत्र में अपनाए जाएंगे तो असभ्यता का विकास होगा,समाज और भी जंगलीपन की ओर भागेगा। हम तय करें कि लोकतंत्र में कैसे जीना चाहते हैं ? सभ्यता के पैमानों के आधार जीना चाहते हैं या असभ्यता के पैमानों के आधार पर जीना चाहते हैं?        


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...