दुनिया में अनेक देश हैं जहां आज भी बर्बरता का महिमामंडन होता है,इस तरह के देशों में भारत अग्रणी है। जलीकट्टु हमारे देश की बर्बर प्रथाओं में से एक है।इस तरह की प्रथाओं का हमारे समाज में बचे रहना इस बात का प्रतीक है कि बर्बरता को हमारे समाज की स्वीकृति और वैधता हासिल है, हम बर्बरता देखकर दुखी नहीं होते ,गुस्सा नहीं करते, इसके विपरीत हमें बर्बरता के नजारे में मजा आता है,हमारे समाज की तमाशेखोरी की जड़ में इस बर्बरता की भी भूमिका है।
जलीकट्टु की प्रथा का तमिल पहचान से कोई संबंध नहीं है।तमिल पहचान का मतलब यदि बैल और आदमी का युद्ध है तो निश्चित तौर पर इस प्रथा को बहुत पहले ही बंद हो जाना चाहिए।
संयोग की बात है हमारे देश में देवता पूजा है,पशु पूजा है,लेकिन संवेदनाओं की पूजा अर्चना नहीं होती,संवेदनाओं की अनुभूति के मामले में आज भी प्राचीनकाल में पड़े हुए हैं,हमारी संवेदनाएं आज भी आधुनिक नहीं हो पायी हैं,कहने के लिए तमिलनाडु भारत का सबसे विकसित राज्य है लेकिन उसमें नागरिकों में आज भी एक बड़ा वर्ग है जिसके पास आधुनिक संवेदनाएं नहीं हैं।
जल्लीकट्टु पर जो लोग हंगामा कर रहे हैं वे असल में आदिम संवेदनाओं की हिमायत में हंगामा कर रहे हैं।आदिम संवेदनाओं का बचे रहना और मौका पाते ही आदिम वातावरण में जीने की लालसा रखना अपने आपमें समस्यामूलक है।
कायदे से आधुनिककाल में हमें आदिम संवेदनाओं में जीना चाहिए ।लेकिन जलीकट्टु की हिमायत में खड़े युवा और शिक्षित समूह आदिम संवेदनाओं की हिमायत में खड़े हैं। आधुनिक संवेदना की धुरी है न्यायबोध,न कि परंपरा।
भारत में प्रकृति,पशु,मनुष्य आदि के बारे में आज भी आधुनिक संवेदनाएं, न्यायबोध आदि का शिक्षितों में अभाव है,वे आए दिन अपने अतीतप्रेम को विभिन्न रूपों में व्यक्त करते हैं।हमारे समाज में अतीत के रूपों और संवेदनाओं को बचाए रखने में परंपराएं सबसे बड़े रक्षाकवच का काम करती रही हैं।परंपराओं की जरूरत उसी व्यक्ति को होती है जिसके पास वर्तमान का सही ज्ञान नहीं होता और जो न्यायबोध से पलायन करना चाहता है।
असल में जलीकट्टु के नाम पर न्यायबोध से पलायन का चरमोत्कर्ष ही सामने आया है।हमने एक ऐसा मध्यवर्ग तैयार किया है जिसके पास सब कुछ है लेकिन न्यायबोध नहीं है।बिना न्यायबोध के आधुनिकता मूलतःबर्बर होती है,इसे हम खुलेआम अपने जीवन में महसूस करते हैं।
जली कट्टु की प्रथा का विरोध2004 से हो रहा है और इस पर भारत सरकार के पशु कल्याण बोर्ड ने सही कदम उठाते हुए इस प्रथा पर पाबंदी लगाने की मांग करते हुए जो पहल की थी वह एक सही कदम था,कई उतार-चढाव के बाद भी सुप्रीमकोर्ट ने इस प्रथा पर प्रतिबंध जारी रखकर सही काम किया है।यह प्रथा हर हालत में बंद होनी चाहिए।जो लोग इस प्रथा की मांग कर रहे हैं वे अपने लिए वर्चुअल जलीकट्टु खेल बना सकते हैं और घर में बैठकर खेल सकते हैं।
भारत की आयरनी यह है कि यहां पर कोई भी समाजसुधार कानूनी दवाब के बिना लागू नहीं हुआ है,जलीकट्टु पर पाबंदी मूलतः समाजसुधार है।
उल्लेखनीय है समाजसुधार जब भी लागू करने गए हैं तब ही आम जनता के बृहत्तर हिस्सों ने प्रतिवाद किया है,हमारे देश की जनता समाज सुधारों से डरती है,जड़ता में अमरता का आनंद लेती है। जड़ता,परंपरा ये सब आधुनिक विकास के रोड़े हैं इनको हटाना हम सबकी जिम्मेदारी है।
जलीकट्टु की प्रथा का तमिल पहचान से कोई संबंध नहीं है।तमिल पहचान का मतलब यदि बैल और आदमी का युद्ध है तो निश्चित तौर पर इस प्रथा को बहुत पहले ही बंद हो जाना चाहिए।
संयोग की बात है हमारे देश में देवता पूजा है,पशु पूजा है,लेकिन संवेदनाओं की पूजा अर्चना नहीं होती,संवेदनाओं की अनुभूति के मामले में आज भी प्राचीनकाल में पड़े हुए हैं,हमारी संवेदनाएं आज भी आधुनिक नहीं हो पायी हैं,कहने के लिए तमिलनाडु भारत का सबसे विकसित राज्य है लेकिन उसमें नागरिकों में आज भी एक बड़ा वर्ग है जिसके पास आधुनिक संवेदनाएं नहीं हैं।
जल्लीकट्टु पर जो लोग हंगामा कर रहे हैं वे असल में आदिम संवेदनाओं की हिमायत में हंगामा कर रहे हैं।आदिम संवेदनाओं का बचे रहना और मौका पाते ही आदिम वातावरण में जीने की लालसा रखना अपने आपमें समस्यामूलक है।
कायदे से आधुनिककाल में हमें आदिम संवेदनाओं में जीना चाहिए ।लेकिन जलीकट्टु की हिमायत में खड़े युवा और शिक्षित समूह आदिम संवेदनाओं की हिमायत में खड़े हैं। आधुनिक संवेदना की धुरी है न्यायबोध,न कि परंपरा।
भारत में प्रकृति,पशु,मनुष्य आदि के बारे में आज भी आधुनिक संवेदनाएं, न्यायबोध आदि का शिक्षितों में अभाव है,वे आए दिन अपने अतीतप्रेम को विभिन्न रूपों में व्यक्त करते हैं।हमारे समाज में अतीत के रूपों और संवेदनाओं को बचाए रखने में परंपराएं सबसे बड़े रक्षाकवच का काम करती रही हैं।परंपराओं की जरूरत उसी व्यक्ति को होती है जिसके पास वर्तमान का सही ज्ञान नहीं होता और जो न्यायबोध से पलायन करना चाहता है।
असल में जलीकट्टु के नाम पर न्यायबोध से पलायन का चरमोत्कर्ष ही सामने आया है।हमने एक ऐसा मध्यवर्ग तैयार किया है जिसके पास सब कुछ है लेकिन न्यायबोध नहीं है।बिना न्यायबोध के आधुनिकता मूलतःबर्बर होती है,इसे हम खुलेआम अपने जीवन में महसूस करते हैं।
जली कट्टु की प्रथा का विरोध2004 से हो रहा है और इस पर भारत सरकार के पशु कल्याण बोर्ड ने सही कदम उठाते हुए इस प्रथा पर पाबंदी लगाने की मांग करते हुए जो पहल की थी वह एक सही कदम था,कई उतार-चढाव के बाद भी सुप्रीमकोर्ट ने इस प्रथा पर प्रतिबंध जारी रखकर सही काम किया है।यह प्रथा हर हालत में बंद होनी चाहिए।जो लोग इस प्रथा की मांग कर रहे हैं वे अपने लिए वर्चुअल जलीकट्टु खेल बना सकते हैं और घर में बैठकर खेल सकते हैं।
भारत की आयरनी यह है कि यहां पर कोई भी समाजसुधार कानूनी दवाब के बिना लागू नहीं हुआ है,जलीकट्टु पर पाबंदी मूलतः समाजसुधार है।
उल्लेखनीय है समाजसुधार जब भी लागू करने गए हैं तब ही आम जनता के बृहत्तर हिस्सों ने प्रतिवाद किया है,हमारे देश की जनता समाज सुधारों से डरती है,जड़ता में अमरता का आनंद लेती है। जड़ता,परंपरा ये सब आधुनिक विकास के रोड़े हैं इनको हटाना हम सबकी जिम्मेदारी है।