शनिवार, 31 अक्टूबर 2009

मीडि‍या सर्वे : भारतीय पाठक आगे हैं नेट यूजर से

      इंटरनेट के चालीस साल हो चुके हैं। इंटरनेट जब आया था तो लोग कह रहे थे कि‍ अब अखबार के दि‍न लद गए। लोग अखबार नहीं पढेंगे। टीवी क्रांति‍ हुई तो हल्‍ला शुरू हो गया कि‍ अखबार के दि‍न लद गए। लेकि‍न अखबार अभी भी जिंदा है। भारत में अखबार के पाठकों की संख्‍या तेजी से बढ रही है। अखबारों का प्रकाशन बढ रहा है। कल तक जो अखबार की मौत पर शोक प्रस्‍ताव पढ रहे थे वे आज  प्रेस क्रांति‍ देखकर अवाक हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि‍ आखि‍रकार भारत में प्रिंट क्रांति‍ का रहस्‍य क्‍या है ।
      प्रेस क्रांति‍ के कारण भारत में सन् 2007  में  दैनि‍क अखबारों के पाठकों की संख्‍या 150 मि‍लि‍यन का आंकडा पार गयी। इसकी तुलना में अमेरि‍का में दैनि‍क अखबार के 97 मि‍लि‍यन पाठक हैं। जर्मनी में 48 मि‍लि‍यन पाठक हैं। इसके वि‍परीत भारत में अखबारों का सर्कुलेशन छलांग लगा रहा है। अखबारों की आय में बढोतरी हुई है। वि‍ज्ञापनों में इजाफा हुआ है। सन् 2007 में वि‍ज्ञापनों से होने वाली आय में 15 फीसद की बढोतरी हुई। अकेले दि‍ल्‍ली से 15 भाषाओं में अखबार प्रकाशि‍त होते हैं। इनमें अंग्रेजी और हि‍न्‍दी के अखबारों का क्षेत्रीय रूझान है। जैसे तेलुगू भाषी अखबारों का होता है। दि‍ल्‍ली में एक ऐसी दुकान भी है जि‍स पर आपको 117 भारतीय दैनि‍क अखबार मि‍ल जाएंगे।
       अखबार वालों का मानना है कि‍ भारत में अभी भी व्‍यापक पाठक समुदाय है जि‍स तक अखबार को पहुँचना है और इसी चीज को ध्‍यान में रखकर आए दि‍न नए संस्‍करण और नए अखबार प्रकाशि‍त हो रहे हैं। खासकर छोटे शहरों,कस्‍बों और गांवों के पाठकों तक पहुँचने की होड़ मची हुई है। भारत में कम्‍प्‍यूटर तकनीक का महि‍मागान होनेके बावजूद सन् 2007 में 8.5 मि‍लि‍यन लोग ही इंटरनेट का इस्‍तेमाल कर रहे थे।
      सरकारी आंकडे बताते हैं कि‍ जो लोग कम्‍प्‍यूटर का इस्‍तेमाल करते हैं उनमें एक बडा हि‍स्‍सा है ऐसे लोगों का भी है जो इंटरनेट का इस्‍तेमाल नहीं करता। भारत में जि‍स समय प्रेस क्रांति‍ घट रही थी और वि‍ज्ञापनों में उछाल आ रहा था उस समय अमेरि‍की प्रेस में (सन् 2006)  गि‍रावट दर्ज की गयी। उल्‍लेखनीय है यह मंदी का साल नहीं था।
       भारत के अखबार 35 प्रति‍शत वयस्‍कों तक पहुँच चुके हैं। वर्ल्‍ड न्‍यूज एसोशि‍एशन के अनुसार अमेरि‍का में प्रति‍दि‍न 17 प्रति‍शत लोग दैनि‍क अखबार खरीदते हैं। प्रत्‍येक अखबार को एक से अधि‍क लोग मि‍लकर पढते हैं।  अमेरि‍कन न्‍यूजपेपर एसोशि‍एसन के अनुसार वि‍गत दो दशकों में अमेरि‍का में अखबारों के सर्कुलेशन में नि‍रंतर गि‍रावट आयी है। सन् 1985 में 63 मि‍लि‍यन से गि‍रकर सन् 2005 में सर्कुलेशन घटकर 53 मि‍लि‍यन रह गया।
       इसी तरह ब्रि‍टेन में भी अखबारों का सर्कुलेशन गि‍रा है। सन् 2001 से 2005 के बीच में ब्रि‍टेन में अखबारों का सर्कुलेशन 3 प्रति‍शत कम हुआ। जबकि‍ जर्मनी में  इसी अवधि‍ में अखबारों का सर्कुलेशन 11 प्रति‍शत गि‍रा। इसके वि‍परीत भारत में सन् 2001 से 2005 के बीच में दैनि‍क अखबारों का सर्कुलेशन 33 फीसदी बढा है। भारत में अभी बहुत बडा हि‍स्‍सा है जो साक्षर है लेकि‍न अखबार नहीं पढता। साथ ही जि‍स गति‍ से साक्षरता अभि‍यान चल रहा है उसके कारण भी भवि‍ष्‍य में अखबारों के पाठक बढने की अनंत संभावनाएं हैं। भारत के अखबारों में रसीली खबरों से लेकर ठोस खबरें रहती हैं। इनके कारण पाठकों को अखबार पढने में मजा आता है। सर्कुलेशन बढने का अन्‍य कारण है अखबार की कीमत कम होना। आमतौर पर दो रूपये में अखबार मि‍ल जाता है। तकरीबन 11मि‍लि‍यन अंग्रेजी अखबार बि‍कते हैं, इसकी तुलना में हि‍न्‍दी के 34 मि‍लि‍यन अखबार बि‍कते हैं। उल्‍लेखनीय है भारत में तकरीबन 300 बडे दैनि‍क अखबार हैं।रूथ डेविड ने फॉरबिस मैगजीन में लिखा है कि मीडिया के नए आंकड़े बताते हैं कि नए विदेशी पूंजी निवेश की भारत में अनंत संभावनाएं हैं। भारत में लोग ज्यादा चैनल देखना चाहते हैं। प्रतिवर्ष इस क्षेत्र में 20 फीसद आय में इजाफा हो रहा है। सन् 2011 तक समग्र आय 22.5 बिलियन डॉलर का आंकडा पार कर जाएगी। उपभोक्ता की आय में निरंतर इजाफा हो रहा है। प्रिंट मीडिया को 22 करोड़ लोग पढ़ रहे हैं  इसके अलावा आंकड़े बताते हैं कि 37 करोड़ लोग हैं जो किसी न कि‍सी भी मीडिया का इस्तेमाल नहीं करते। भारतीय प्रिंट उद्योग में सन् 2006 में 90.80 मिलियन डॉलर का विदेशी पूंजी निवेश हुआ। नव्य-उदारतावादी नीतिगत बदलाव के साथ प्रिंट उद्योग में मात्र 26 फीसद का ही निवेश किया जा सकता है और प्रबंधन का नियंत्रण विदेशी नागरिक के हाथ में नहीं होगा। यानी पूंजी विदेशी होगी किंतु मीडिया पर प्रबंधन भारतीय लोगों के हाथों में ही होगा।
     भारतीय मीडिया परिदृश्य में सन् 2006 तक इंटरनेट के ग्राहकों की संख्या सवा तीन करोड़ से ज्यादा थी। इनमें दो करोड़ दस लाख नियमित ग्राहक हैं। तकरीबन 59 मिलियन पीसी साक्षर हैं और ये इंटरनेट विज्ञापनों के लक्ष्यीभूत श्रोता हैं। सन् 2008 तक इंटरनेट के नियमित ग्राहकों की संख्या साढ़े तीन करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगी। एक अनुमान के अनुसार टेलीविजन उद्योग की आय 22 फीसद प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। आंकड़ों के मुताबिक यह 4.34 बिलियन डॉलर से बढ़कर 11.78 बिलियन हो जाने की संभावना है। जबकि प्रिंट उद्योग की आय 13 फीसद सालाना की दर से बढ़ रही है। यानी 2.90 बिलियन डालर से बढ़कर 5.27 बिलियन डॉलर हो जाने की संभावना है। विश्व समाचार परिषद के आंकड़ों के अनुसार भारत में दैनिक अखबारी संस्कृति का स्वस्थ ढ़ंग से विकास हो रहा है। दैनिक अखबारों का सर्कुलेशन आठ प्रतिशत की दर से बढ़ा है। जबकि इसी अवधि में ब्रिटेन में दैनिक अखबारों का सर्कुलेशन 4.5 प्रतिशत की दर से बढ़ा है।गार्जियन के अनुसार भारतीय अखबारों में आया यह उछाल आगे भी जारी रहेगा। भारत की आबादी 100 करोड़ से ज्यादा है और लाखों लोग गांवों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। इसके कारण प्रतिदिन नए पाठक पैदा हो रहे हैं। भारत में साक्षरता दर अभी 60 फीसद है और भविष्य में इसमें सुधार होगा। अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास हो रहा है।
       भारत में शिक्षित मध्यवर्ग का विकास हो रहा है। मुख्यभाषा के रूप में हिन्दी,उर्दू और अंग्रेजी स्थानीय भाषाओं की कीमत पर अपनी जमीन बना रही हैं। भवि‍ष्‍य में कुछ मीडि‍या कंपनि‍यां मुफ्त में अखबार बांटने की योजना भी बना रही है। इनका मानना है भारत के लोग गरीब हैं और वे अखबार पढ़ते और पढ़ाते हैं अत: विज्ञापन के प्रचार के लिहाज से मुफ्त में अखबार बांटना फायदे का सौदा है।

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

श्रीमती इंदि‍रा गांधी की हत्‍या के दि‍न सदमे में था जेएनयू



      ऐसा गम मैंने नहीं देखा बौद्धि‍कों के चेहरे गम और दहशत में डूबे हुए थे। चारों ओर बेचैनी थी । कैसे हुआ,कौन लोग थे, जि‍न्‍होंने प्रधानमंत्री स्‍व.श्रीमती इंदि‍रा गांधी की हत्‍या की। हत्‍या क्‍यों की। क्‍या खबर है।क्‍या क्‍या कर रहे हो इत्‍यादि‍ सवालों को लगातार जेएनयू के छात्र -शि‍क्षक और कर्मचारी छात्रसंघ के दफतर में आकर पूछ रहे थे। मैंने तीन -चार दि‍न पहले ही छात्रसंघ अध्‍यक्ष का पद संभाला था,अभी हम लोग सही तरीके से यूनि‍यन का दफतर भी ठीक नहीं कर पाए थे। चुनाव की थकान दूर करने में सभी छात्र  व्‍यस्‍त थे कि‍ अचानक 31 अक्‍टूबर 1984 को सुबह 11 बजे के करीब खबर आई प्रधानमंत्री श्रीमती इंदि‍रा गांधी की हत्‍या कर दी गयी है। सारे कैंपस का वातावरण गमगीन हो गया ।लोग परेशान थे।  मैं  समझ नहीं पा रहा था क्‍या करूँ ? उसी रात को पेरि‍यार होस्‍टल में शोकसभा हुई जि‍समें हजारों छात्रों और शि‍क्षकों ने शि‍रकत की और  सभी ने शोक व्‍यक्‍त कि‍या। श्रीमती गांधी की हत्‍या के तुरंत बाद ही अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। कि‍सी ने अफवाह उडा दी कि‍ यूनि‍यनवाले मि‍ठाई बांट रहे थे। जबकि‍ सच यह नहीं था। छात्रसंघ की तरफ से  हमने शोक वार्ता और हत्‍या की निंदा का बयान जारी कर दि‍या था। इसके बावजूद अफवाहें  शांत होने का नाम नहीं ले रही थीं। चारों ओर छात्र-छात्राओं को सतर्क कर दि‍या गया और कैम्‍पस में चौकसी बढा दी गयी।
       कैंपस में दुष्‍ट तत्‍व भी थे। वे हमेशा तनाव और असुरक्षा के वातावरण में झंझट पैदा करने और राजनीति‍क बदला लेने की फि‍राक में रहते थे। खैर ,छात्रों की चौकसी, राजनीति‍क मुस्‍तैदी और दूरदर्शि‍ता ने कैम्‍पस को संभावि‍त संकट से बचा लि‍या।
     दि‍ल्‍ली शहर और देश के वि‍भि‍न्‍न इलाकों में हत्‍यारे गि‍रोहों ने सि‍खों की संपत्‍ति‍ और जानोमाल पर हमले शुरू कर दि‍ए थे। ये हमले इतने भयावह थे कि‍ आज उनके बारे में जब भी सोचता हूँ तो रोंगटे खडे हो जाते हैं। श्रीमती गांधी की हत्‍या के बाद हत्‍यारे गि‍रोहों का नेतृत्‍व कौन लोग कर रहे थे, आज इसे दि‍ल्‍ली का बच्‍चा बच्‍चा जानता है। इनमें कुछ लोग अभी जिंदा हैं‍ और कुछ लोग मर चुके हैं। यहां कि‍सी भी दल और नेता का नाम लेना जरूरी नहीं है।कई हजार सि‍ख औरतें वि‍धवा बना दी गयीं। हजारों सि‍खों को घरों में घुसकर कत्‍ल कि‍या गया।कई हजार घर जला दि‍ए गए। घर जलाने वाले कौन थे , कैसे आए थे, इसके वि‍वरण और ब्‍यौरे आज भी कि‍सी भी पीडि‍त के मुँह से दि‍ल्‍ली के जनसंहार पीडि‍त इलाके में जाकर सुन सकते हैं। अनेक पीडि‍त अभी भी जिंदा हैं।
     श्रीमती गांधी की हत्‍या और सि‍ख जनसंहार ने सारे देश को स्‍तब्‍ध कर दि‍या।इस हत्‍याकांड ने देश में साम्‍प्रदायि‍कता की लहर पैदा की। जि‍स दि‍न हत्‍या हुई उसी दि‍न रात को जेएनयू में छात्रसंघ की शोकसभा थी और उसमें सभी छात्रसंगठनों के प्रति‍नि‍धि‍यों के अलावा सैंकड़ो छात्रों और अनेक शि‍क्षकों ने भी भाग लि‍या था। सभी संगठनों के लोगों ने श्रीमती गांधी की हत्‍या की तीखे शब्‍दों में निंदा की और सबकी एक ही राय थी कि‍ हमें जेएनयू कैंपस में कोई दुर्घटना नहीं होने देनी है। कैंपस में चौकसी बढा दी गयी। 
         देश के वि‍भि‍न्‍न इलाकों में सि‍खों के ऊपर हमले हो रहे थे,उनकी घर,दुकान संपत्‍ति‍ आदि‍ को नष्‍ट कि‍या जा रहा था। पास के मुनीरका,आरकेपुरम आदि‍ इलाकों में भी आगजनी और लूटपाट की घटनाएं हो रही थीं। दूर के जनकपुरी,मंगोलपुरी,साउथ एक्‍सटेंशन आदि‍ में हिंसाचार जारी था। सि‍खों के घर जलाए जा रहे थे।सि‍खों को जिंदा जलाया जा रहा था। ट्रकों में पेट्रोल,डीजल आदि‍ लेकर हथि‍यारबंद गि‍रोह हमले करते घूम रहे थे।हत्‍यारे गि‍रोहों ने कई बार जेएनयू में भी प्रवेश करने की कोशि‍श की लेकि‍न छात्रों ने उन्‍हें घुसने नहीं दि‍या। जेएनयू से दो कि‍लोमीटर की दूरी पर ही हरि‍कि‍शनसिंह पब्‍लि‍क स्‍कूल में सि‍ख कर्मचारि‍यों और शि‍क्षकों की तरफ से अचानक संदेश मि‍ला कि‍ जान खतरे में है कि‍सी तरह बचा लो। आर. के .पुरम से कि‍सी सरदार परि‍वार का एक शि‍क्षक के यहां फोन आया हत्‍यारे गि‍रोह स्‍कूल में आग लगा रहे हैं। उन्‍होंने सारे स्‍कूल को जला दि‍या था। अनेक सि‍ख परि‍वार बाथरूम और पायखाने में बंद पडे थे। ये सभी स्‍कूल के कर्मी थे, शि‍क्षक थे। शि‍क्षक के यहां से संदेश मेरे पास आया कि‍ कुछ करो।  सारे कैंपस में कहीं पर कोई हथि‍यार नहीं था। वि‍चारों की जंग लडने वाले हथि‍यारों के हमलों के सामने नि‍हत्‍थे थे। देर रात एक बजे वि‍चार आया सोशल साइंस की नयी बि‍ल्‍डिंग के पास कोई इमारत बन रही थी वहां पर जो लोहे के सरि‍या पडे थे वे मंगाए गए और  जेएनयू में चौतरफा लोहे की छड़ों के सहारे नि‍गरानी और चौकसी का काम शुरू हुआ। कि‍सी तरह दो तीन मोटर साइकि‍ल और शि‍क्षकों की दो कारें जुगाड करके हरकि‍शन पब्‍लि‍क स्‍कूल में पायखाने में बंद पडे लोगों को जान जोखि‍म में डालकर कैंपस लाया गया,इस आपरेशन को कैंपस में छुपाकर कि‍या गया था क्‍योंकि‍ कैंपस में भी शरारती तत्‍व थे जो इस मौके पर हमला कर सकते थे। सतलज होस्‍टल,जि‍समें मैं रहता था ,उसके कॉमन रूम में इनलोगों को पहली रात टि‍काया गया। बाद में सभी परि‍वारों को अलग अलग शि‍क्षकों के घरों पर टि‍काया गया। यह सारी परेशानी चल ही रही थी कि‍ मुझे याद आया जेएनयू में उस समय एक सरदार रजि‍स्‍ट्रार था। डर था कोई शरारती तत्‍व उस पर हमला न कर दे। प्रो अगवानी उस समय रेक्‍टर थे और कैंपस में सबसे अलोकव्रि‍य व्‍यक्‍ति‍ थे। उनके लि‍ए भी खतरा था। मेरा डर सही साबि‍त हुआ।   मैं जब रजि‍स्‍ट्रार के घर गया तो मेरा सि‍र शर्म से झुक गया।  रजि‍स्‍ट्रार साहब डर के मारे अपने बाल कटा चुके थे । जि‍ससे कोई उन्‍हें सि‍ख न समझे।उस समय देश में जगह-जगह सैंकडों सि‍खों ने जान बचाने के लि‍ए अपने बाल कटवा लि‍ए थे। जि‍ससे उन पर हमले न हों। डाउन  कैंपस में एक छोटी दुकान थी जि‍से एक सरदार चलाता था, चि‍न्‍ता हुई कहीं उस दुकान पर तो हमला नहीं कर दि‍या। जाकर देखा तो होश उड गए शरारती लोगों ने सरदार की दुकान में लाग लगा दी थी। मैंने रजि‍स्‍ट्रार साहब से कहा आपने बाल कटाकर अच्‍छा नहीं कि‍या आप चि‍न्‍ता न करें, हम सब हैं। यही बात प्रो. अगवानी से भी जाकर कही तो उन्‍ाके मन में भरोसा पैदा हुआ। कैंपस में सारे छात्र परेशान थे,उनके पास दि‍ल्‍ली के वि‍भि‍न्‍न इलाकों से खबरें आ रही थीं, और जि‍सके पास जो भी नई खबर आती, हम तुरंत कोई न कोई रास्‍ता नि‍कालने में जुट जाते।
    याद आ रहा है जि‍स समय आरकेपुरम में सि‍ख परि‍वारों के घरों में चुन-चुनकर आग लगाई जा रही थी उसी समय दो लड़के जेएनयू से घटनास्‍थल पर मोटर साइकि‍ल से भेजे गए, हमने ठीक कि‍या था और कुछ न हो सके तो कम से कम पानी की बाल्‍टी से आग बुझाने का काम करो। यह जोखि‍म का काम था। आरकेपुरम में जि‍न घरों में आग लगाई गयी थी वहां पानी की बाल्‍टी का जमकर इस्‍तेमाल कि‍या गया।हत्‍यारे गि‍रोह आग लगा रहे थे जेएनयू के छात्र पीछे से जाकर आग बुझा रहे थे। पुलि‍स का दूर-दूर तक कहीं पता नहीं था।
     कैंपस में चौकसी और मीटिंगें चल रही थीं। आसपास के इलाकों में जेएनयू के बहादुर छात्र अपनी पहलीकदमी पर आग बुझाने का काम कर रहे थे। सारा कैंपस इस आयोजन में शामि‍ल था। श्रीमती गांधी का अंति‍म संस्‍कार होते ही उसके बाद वाले दि‍न हमने दि‍ल्‍ली में शांति‍मार्च नि‍कालने का फैसला लि‍या। मैंने दि‍ल्‍ली के पुलि‍स अधि‍कारि‍यों से प्रदर्शन के लि‍ए अनुमति‍ मांगी उन्‍होंने अनुमति‍ नहीं दी। हमने प्रदर्शन में जेएनयू के शि‍क्षक और कर्मचारी सभी को बुलाया था । जेएनयू के अब तक के इति‍हास का यह सबसे बड़ा शांति‍मार्च था। इसमें जेएनयू के सारे कर्मचारी,छात्र और सैंकडों शि‍क्षक शामि‍ल हुए। ऐसे शि‍क्षकों ने इस मार्च में हि‍स्‍सा लि‍या था जि‍न्‍होंने अपने जीवन में कभी कि‍सी भी जुलूस में हि‍स्‍सा नहीं लि‍या था, मुझे अच्‍छी तरह याद है वि‍ज्ञान के सबसे बडे वि‍द्वान् शि‍वतोष मुखर्जी अपनी पत्‍नी के साथ जुलूस में आए थे,वे दोनों पर्यावरणवि‍ज्ञान स्‍कूल में प्रोफेसर थे,वे कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के संस्‍थापक आशुतोष मुखर्जी के करीबी परि‍वारी थे। जुलूस में तकरीबन सात हजार लोग कैंपस से नि‍कले थे,बगैर पुलि‍स की अनुमति‍ के हमने शांति‍ जुलूस नि‍काला ,मैंने शि‍क्षक संघ के अध्‍यक्ष कुरैशी साहब को झूठ कह दि‍या कि‍ प्रदर्शन की अनुमति‍ ले ली है। मैं जानता था अवैध जुलूस में जेएनयू के शि‍क्षक शामि‍ल नहीं होंगे। मेरा झूठ पकडा गया पुलि‍स के बडे अधि‍कारि‍यों ने आरकेपुरम सैक्‍टर 1 पर जुलूस रोक दि‍या और कहा आपके पास प्रदर्शन की अनुमति‍ नहीं है।आपको गि‍रफतार करते हैं। मैंने पुलि‍स ऑफीसर को कहा तुम जानते नहीं हो इस जुलूस में बहुत बडे बडे़ लोग हैं वे तुम्‍हारी वर्दी उतरवा देंगे। उनके गांधी परि‍वार से गहरे रि‍श्‍ते हैं। अफसर डर गया बोला मैं आपको छोडूँगा नहीं मैंने कहा जुलूस खत्‍म हो जाए तब पकडकर ले जाना मुझे आपत्‍ति‍ नहीं है। इस तरह आरकेपुरम से पुलि‍स का दल-बल हमारे साथ चलने लगा और यह जुलूस जि‍स इलाके से गुजरा वहां के बाशिंदे सैंकडों की तादाद में शामि‍ल होते चले गए । जुलूस में शामि‍ल लोगों के सीने पर काले बि‍ल्‍ले लगे थे, शांति‍ के पोस्‍टर हाथ में थे। उस जुलूस का देश के सभी माध्‍यमों के अलावा दुनि‍या के सभी माध्‍यमों में व्‍यापक कवरेज आया था। यह देश का पहला वि‍शाल शांति‍मार्च था। जुलूस जब कैंपस में लौट आया तो अपना समापन भाषण देने के बाद मैंने सबको बताया कि‍ यह जुलूस हमने  पुलि‍स की अनुमति‍ के बि‍ना नि‍काला था और ये पुलि‍स वाले मुझे पकडकर ले जाना चाहते हैं। वहां मौजूद सभी लोगों ने प्रति‍वाद में कहा था छात्रसंघ अध्‍यक्ष को पकडोगे तो हम सबको गि‍रफतार करना होगा। अंत में पुलि‍सबल मुझे  गि‍रफतार कि‍ए बि‍ना चला गया। मामला इससे और भी आगे बढ गया। लोगों ने सि‍ख जनसंहार से पीडि‍त परि‍वारों की शरणार्थी शि‍वि‍रों में जाकर सहायता करने का प्रस्‍ताव दि‍या।  इसके बाद जेएनयू के सभी लोग शहर से सहायता राशि‍ जुटाने के काम में जुट गए। प्रति‍दि‍न सैंकडों छात्र-छात्राओं की टोलि‍यां कैंपस से बाहर जाकर घर-घर सामग्री संकलन के लि‍ए जाती थीं और लाखों रूपयों का सामान एकत्रि‍त करके लाती थीं।यह सामान पीडि‍तों के कैम्‍प में बांटा गया। सहायता कार्य के लि‍ए शरणार्थी कैम्प भी चुन लि‍या गया। बाद में पीडि‍त परि‍वारों के घर जाकर जेएनयू छात्रसंघ और शि‍क्षक संघ के लोगों ने सहायता सामग्री के रूप में घरेलू काम के सभी बर्तनों से लेकर बि‍स्‍तर और पन्‍द्रह दि‍नों का राशन प्रत्‍येक घर में पहुँचाया। इस कार्य में हमारी दि‍ल्‍ली वि‍श्‍ववि‍द्यालय के शि‍क्षकों ने खास तौर पर मदद की। मैं भूल नहीं सकता दि‍ल्‍ली वि‍श्‍ववि‍द्यालय के प्रो.जहूर सि‍द्दीकी साहब की सक्रि‍यता को। उस समय हम सब नहीं जानते थे कि‍ क्‍या कर रहे हैं, सभी भेद भुलाकर सि‍खों की सेवा और साम्‍प्रदायि‍क सदभाव का जो कार्य जेएनयू के छात्रों -श्‍ि‍क्षकों और कर्मचारि‍यों ने कि‍या था वह हि‍न्‍दुस्‍तान के छात्र आंदोलन की अवि‍स्‍मरणीय घटना है। यह काम चल ही रहा था कि‍ पश्‍चि‍म बंगाल के सातों वि‍श्‍ववि‍द्यालयों के छात्रसंघों के द्वारा इकट्ठा की गई सहायता राशि‍ लेकर तत्‍कालीन सांसद नेपालदेव भट्टाचार्य मेरे पास पहुँचे कि‍ यह बंगाल की मददराशि‍ है। कि‍सी तरह इसे पीडि‍त परि‍वारों तक पहुँचा दो। वि‍पत्‍ति‍ की उस घड़ी में पश्‍चि‍म बंगाल के छात्र सबसे पहले आगे आए। हमने उस राशि‍ के जरि‍ए जरूरी सामान और राशन खरीदकर पीडि‍त परि‍वारों तक पहुँचाया। इसका हमें सुपरि‍णाम भी मि‍ला अचानक जेएनयू के छात्रों को धन्‍यवाद देने प्रसि‍द्ध सि‍ख संत और अकालीदल के प्रधान संत स्‍व.हरचंद सिंह लोंगोवाल,हि‍न्‍दी के प्रसि‍द्ध लेखक सरदार महीप सिंह और राज्‍यपाल सुरजीत सिंह बरनाला के साथ जेएनयू कैम्‍पस आए। संत लोंगोवाल ने झेलम लॉन में सार्वजनि‍क सभा को सम्‍बोधि‍त कि‍या था, उन्‍होंने कहा अकालीदल की राष्‍ट्रीय कार्यकारि‍णी ने जेएनयू समुदाय खासकर छात्रों को सि‍ख जनसंहार के समय साम्‍प्रदायि‍क सदभाव और पीडि‍त सि‍ख परि‍वारों की मदद करने,सि‍खों की जान बचाने के लि‍ए धन्‍यवाद भेजा है। सि‍ख जनसंहार की घडी में सि‍खों की जानोमाल की रक्षा में आपने जो भूमि‍का अदा की है उसके लि‍ए हम आपके ऋणी हैं।सि‍खों की मदद करने के लि‍ए उन्‍होंने जेएनयू समुदाय का धन्‍यवाद कि‍या। हमारे सबके लि‍ए संत लोंगोवाल का आना सबसे बड़ा पुरस्‍कार था। सारे छात्र उनके भाषण से प्रभावि‍त थे।
     (लेखक उस समय जेएनयू छात्रसंघ का अध्‍यक्ष था)


गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

ताजा मीडि‍या सर्वे : ऑनलाइन के खेल में अखबार की सत्‍ता बरकरार



         मीडि‍या के नए अनुसंधान अमरीकी मीडि‍या के अनेक मि‍थों को तोडते हैं। मीडि‍या खबरों का स्‍तर गि‍रा है। अधूरी,अपूर्ण, वि‍भ्रमपूर्ण खबरें प्रकाशि‍त होती है। वि‍गत बीस सालों में समाचारों का स्‍तर तेजी से गि‍रा है। यह नि‍ष्‍कर्ष है 'पेव रि‍सर्च सेंटर' के ताजा सर्वे का। 'पेव रि‍सर्च सेंटर' (PewResearchCente) ने 1,506 लोगों के साक्षात्‍कारों के आधार पर यह सर्वे तैयार कि‍या है। 63 प्रति‍शत लोगों का मानना है समाचारपत्रों में प्रकाशि‍त समाचार लेख अधूरे होते हैं। मात्र 29 प्रति‍शत लोगों का मानना था कि‍ मीडि‍या ''सीधे तथ्‍यों'' को संप्रेषि‍त करता है। सामाजि‍क -राजनीति‍क सवालों पर मीडि‍या घराने एक ही कि‍स्‍म के नजरि‍ए का पक्ष लेते हैं,ऐसा 74 प्रति‍शत लोगों का मानना था। कुछ लोगों का मानना था ताकतवर लोगों के हि‍तों का भी मीडि‍या पर प्रभाव देखा गया है। सन् 2007 के बाद के दो सालों में 'पेव' के पि‍छले सर्वे के नि‍ष्‍कर्ष और भी नकारात्‍मक दि‍शा में गए हैं। उल्‍लेखनीय है सन् 2002 से यह संस्‍थान सर्वे प्रकाशि‍त करता रहा है और इसके सर्वे महत्‍वपूर्ण और प्रामाणि‍क माने जाते हैं। सर्वे के अनुसार अमरीकी मीडि‍या दलीय पक्षधरता के आधार पर पूरी तरह बंटा हुआ है।
        सर्वे के अनुसार आज भी 96 प्रति‍शत से ज्‍यादा लोग मुद्रि‍त अखबार के जरि‍ए ही खबरें पढते हैं। तकरीबन 3 प्रति‍शत से ज्‍यादा लोग ऑन लाइन अखबार पढते हैं। प्रसि‍द्ध मीडि‍या सर्वे कंपनी 'नेल्‍सन' के अनुसार सन् 2008 में दैनि‍क अखबारों को ऑन लाइन पढने वालों की संख्‍या प्रति‍ माह 3.2 वि‍लि‍यन पन्‍ने थी। अमेरि‍की दैनि‍क अखबारों के द्वारा प्रति‍माह ऑनलाइन और मुद्रि‍त रूप में 90.3 वि‍लि‍यन पन्‍ने प्रकाशि‍त कि‍ए जाते हैं। ऑन लाइन पढने वालों का इसमें हि‍स्‍सा मात्र 3.5 प्रति‍शत बनता है। यानी बाकी 96.5 प्रति‍शत पन्‍ने प्रिंट में पढे जाते हैं।
         वेब पर अखबार पढने वालों ने औसतन कि‍तना समय गुजारा ,इसका भी बड़ा रोचक आंकड़ा है। 'नेल्‍सन' के अनुसार नेट का आदर्श यूजर 45 मि‍नट प्रति‍माह खर्च करता है।सन् 2008 में 67.3 मि‍लि‍यन यूजरों ने नेट का सफर कि‍या।इसमें अखबार की वेबसाइट पर यूजरों ने 3.03 वि‍लि‍यन मि‍नट प्रति‍माह खर्च कि‍ए। इसकी तुलना में मुद्रि‍त अखबार को पढने पर 96.5 वि‍लि‍यन मि‍नट प्रति‍माह पाठकों ने खर्च कि‍ए। इसमें सोम से शनि‍ तक 25 मि‍नट और रवि‍वार को 35 मि‍नट खर्च कि‍ए। समग्रता में देखें तो प्रेस ने पाठक का ध्‍यान अपनी ओर खींचने के लि‍ए पाठकों के प्रति‍माह 99.5 वि‍लि‍यन मि‍नट लि‍ए,इसकी तुलना में ऑनलाइन अखबार ने मात्र 3 प्रति‍शत ही ध्‍यानाकर्षित कि‍या।
       इंटरनेट को हमें स्रोत के रूप में नहीं संसाधन के रूप में देखना चाहि‍ए। संसाधन के रूप में देखेंगे तो ऑनलाइन सामग्री का सही समझ के साथ इस्‍तेमाल कर पाएंगे। नेट की वि‍शेषता है कि‍ वह हमारा पाठकीय व्‍यवहार और आदतें नष्‍ट कर देता है। पाठक की पुरानी आदतें हैं। इन्‍हें नष्‍ट करने में नेट की बडी भूमि‍का है। नेट ने पाठक के समूचे व्‍यवहार को बदला है।
    यह मि‍थ है कि‍ अखबार स्‍थानीय खबरों और नजरि‍ए का एकमात्र स्रोत है। नेट ने इस मि‍थ को नष्‍ट कर दि‍या है। आप अनेक बार अखबार में जो खबर देखते हैं उससे भि‍न्‍न खबर ऑन अखबार में देखते हैं। ऑनलाइन अखबार में प्रति‍क्षण अपडेटिंग होती है ,नयी खबरें आती रहती हैं।फलत: जि‍स समय अखबार पढते हैं उसी समय ऑनलाइन अखबार में अन्‍य खबरें लगी होती हैं। आपको ऑनलाइन खबर के सामने मुद्रि‍त खबर बासी नजर आने लगती है। यह मि‍थ भी टूटता है कि‍ अखबार ही स्‍थानीय खबर का स्रोत है।
   दूसरी बात यह कि‍ ऑनलाइन अखबारों में वि‍भि‍न्‍न कि‍स्‍म की सूचनाएं,वि‍भि‍न्‍न कि‍स्‍म के नजरि‍ए एक ही साथ देखने को मि‍लते हैं। नए वि‍चार और नये की खोज के मामले में नेट आज भी सबसे प्रभावशाली माध्‍यम है। अखबार के जमाने में यह धारणा थी कि‍ अखबार का लेखक ज्‍यादा सूचना सम्‍पन्‍न और ज्ञान सम्‍पन्‍न होता है। लेकि‍न ऑन लाइन अखबार आने के बाद लेखक या संपादकीयकर्मी की तुलना में पाठक ज्‍यादा सूचना सम्‍पन्‍न हो गया है। आज ऑनलाइन यूजर के पास ज्‍यादा जानकारि‍यां और वैवि‍ध्‍यपूर्ण नजरि‍या होता है।इस अर्थमें ऑनलाइन रीडिंग ने पाठक की महत्‍ता,सत्‍ता और क्षमता बढा दी है।
    'पेव' के सर्वे के अनुसार नेट के जरि‍ए समाचार पाने वाले 40 प्रति‍शत लोग हैं। जबकि‍ परंपरागत माध्‍यमों प्रेस,टीवी बगैरह से खबर प्राप्‍त करने वालों की संख्‍या 46 प्रति‍शत है। सर्वे के अनुसार नेट के पाठक ज्‍यादा शि‍क्षि‍त और संपन्‍न हैं इसकी तुलना में परंपरागत मीडि‍या से खबर प्राप्‍त करने वाले कम संपन्‍न और कम शि‍क्षि‍त हैं।
      इंटरनेट पर खास वि‍षय केन्‍द्रि‍त खबरों को पढने और उन्‍हें वर्गीकृत करके यूजरों को संप्रेषि‍त करने का रि‍वाज चल नि‍कला है। 'नेल्‍सन' के सन् 2008 के सर्वे के अनुसार इस तरह की 30 वेबसाइट का जब सर्वे कि‍या गया तो पाया कि‍ इन वेबसाइट पर प्रति‍ व्‍यक्‍ति‍ 21.2 बार आया। इनका 2,709,000 यूजरों ने इस्‍तेमाल कि‍या।
     ऑनलाइन यूजर की अखबार के पाठक से भि‍न्‍न प्रकृति‍ के कारण ऑनलाइन अखबार की वेबसाइट पर आपको वीडि‍यो,ऑडि‍यो,फोटो,भाषण और जाने ऐसी कि‍तनी ही सामग्री मि‍लेगी जो मुद्रि‍त अखबार में नहीं होती। अखबार में पाठकों की राय के लि‍ए सीमि‍त जगह होती है,अनेक अखबारों में वह भी नहीं होती, लेकि‍न ऑनलाइन अखबार की खबरों के अलावा प्रत्‍येक संपादकीय और लेख पर भी राय व्‍यक्‍त करने के लि‍ए स्‍थान उपलब्‍ध रहता है। इससे पाठक की शि‍रकत को बढावा मि‍ला है। मुद्रि‍त अखबार की तुलना में ऑन लाइन अखबार के साथ पाठक ज्‍यादा संपर्क और संवाद करता है। पाठ और अखबार का इतना प्रबल इंटरेक्‍टि‍व संबंध पहले कभी नहीं था। अखबार की तुलना में ऑनलाइन अखबार में ज्‍यादा आलोचनात्‍मक टि‍प्‍पणि‍यां रहती हैं।
   प्रेस में प्रकाशि‍त खबरों के पतन को सि‍र्फ एक ही तथ्‍य से अच्‍छी तरह से समझा जा सकता है कि‍ जब सारी दुनि‍या में आर्थि‍क मंदी की तबाही मच रही थी, अमेरि‍का के समूचे व्‍यापार,उद्योग धंधे को मंदी चौपट कर रही थी उस समय अमेरि‍की मीडि‍या युद्ध के कवरेज में व्‍यस्‍त था। मंदी और बढती बेकारी में संवाददाताओं के सामने गंभीर संकट था प्रमाण का। वे कैसे लि‍खें और कि‍न प्रमाणों के आधार पर लि‍खें कि‍ मंदी तबाही मचा रही है और कि‍न-कि‍न क्षेत्रों को बर्बाद कर रही है। वे यह बताने में भी असमर्थ् रहे कि‍ मंदी और युद्ध के कारण कैसे सामान्‍य नागरि‍क अधि‍कारों का व्‍यापक पैमाने पर हनन हो रहा था। बहुराष्‍ट्रीय कारपोरेट मीडि‍या की जि‍तनी दि‍लचस्‍पी युद्ध के कवरेज में थी वैसी दि‍लचस्‍पी मंदी और नागरि‍क अधि‍कारों के हनन के मामलों में नहीं थी। हाल ही में ओबामा के स्‍वास्‍थ्‍य सुधारों का मीडि‍या ने अंध समर्थन  कि‍या है। इस चक्‍कर में मीडि‍या को आम जनता की स्‍वास्‍थ्‍य तबाही नजर ही नहीं आयी।
     मीडि‍या के द्वारा जि‍न स्रोतों के जरि‍ए खबरें दी जाती हैं उनकी भी दशा सोचनीय है। आमतौर पर पुरूषों के स्रोत के आधार पर खबरें तैयार की जाती हैं। प्रकाशि‍त खबरों में 85 प्रति‍शत खबरें पुरूष स्रोत के हवाले से लि‍खी गयीं। इनमें 92 प्रति‍शत गोरे थे। यही स्‍थि‍ति‍ भारत की भी है,यहां पर अधि‍कांश खबरों के स्रोत पुरूष हैं और हि‍न्‍दू हैं। और अधि‍कतर खबरें पार्टीजान स्रोत से लि‍खी जाती हैं। हमें भारत के संदर्भ में यह भी देखना चाहि‍ए कि‍तनी खबरें खाते-पीते, खुशहाल लोगों के स्रोत के आधार पर लि‍खी गयीं और कि‍तनी गरीबों के स्रोत के आधार पर लि‍खी गयीं ? अमेरि‍की मीडि‍या में शांति‍ और युद्ध,स्‍वतंत्रता,सामजि‍क न्‍याय, सार्वजनि‍क स्‍वास्‍थ्‍य,समृद्धि‍, और पृथ्‍वी का भवि‍ष्‍य जैसे सवालों के लि‍ए कोई जगह ही नहीं होती। यह तथ्‍य रेखांकि‍त कि‍या है वि‍श्‍ववि‍ख्‍यात 'फेयर' नामक मीडि‍या अनुसंधान संस्‍था ने।






















वि‍श्‍व ब्‍लॉग सर्वे : ब्‍लॉगिंग से स्‍तब्‍ध हैं सत्‍ताधारी

   ब्‍लॉगिंग का परंपरागत मीडि‍या के साथ कोई बैर नहीं है। सच यह है कि परंपरागत मीडि‍या में काम करने वाले अधि‍कांश पत्रकारों के ब्‍लॉग हैं। हिंदी में एक खास बात यह है कि‍ नये युवा लेखक ब्‍लॉग बना कर लि‍ख रहे हैं। नये पेशेवर लोग लि‍ख रहे हैं। हिंदी में जो अभी कम लि‍ख रहे हैं, वे हैं हिंदी के कॉलेज, वि‍श्‍ववि‍द्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षक। लेकि‍न जो शि‍क्षक नहीं हैं, लेकि‍न युवा हैं, लि‍खने का मन है, वि‍भि‍न्‍न वि‍षयों पर अच्‍छी तैयारी है, ऐसे नये लेखक हज़ारों की तादाद में लि‍ख रहे हैं। ऐसे लेखकों की संख्‍या को चि‍ट्ठाजगत पर ब्‍लॉगरों की बढ़ती हुई सूची देख कर सहज ही समझा जा सकता है। तकरीबन 11 हज़ार ब्‍लॉग लेखक हैं, जो प्रति‍दि‍न सैकड़ों लेख लि‍ख रहे हैं। इनमें अच्‍छा कौन लि‍ख रहा है, बुरा कौन लि‍ख रहा है – पढ़ने वाला सहज ही अंदाज़ा लगा लेता है।
ब्‍लॉग पाठक को कि‍सी बि‍चौलि‍ये की ज़रूरत नहीं है। उसे कि‍सी आलोचक की भी ज़रूरत नहीं है, जो यह बताये कि कौन लेखक है और कौन लेखक नहीं है। इस अर्थ में ब्‍लॉगिंग ने बिचौलिये आलोचक की मौत की घोषणा कर दी है। हिंदी के ब्‍लॉगरों का अधि‍कांश लेखकवर्ग उनमें से आता है, जो कि‍सी भी मीडि‍या में काम नहीं करते। ब्‍लॉगरों में एक हि‍स्‍सा उनका भी है, जो परंपरागत मीडि‍या में काम करते हैं। जैसे प्रेस, रेडि‍यो, टीवी, अध्‍यापक, साहि‍त्‍यकार आदि‍। इनसे ही ब्‍लॉगर की पहचान बन रही है। इसमें पुरानी और नयी पहचान गड्डमड्ड हो रही है। यह लेखन का शुभ लक्षण है। हिंदी ब्‍लॉगिंग स्‍वात:सुखाय बहुजन हि‍ताय की धारणा से प्रेरि‍त है। जो लोग परंपरागत माध्‍यमों में काम करते हैं, उनमें से अधि‍कांश मुफ्त में ही ब्‍लॉग पर लि‍खते हैं।
ब्‍लॉगिंग से परंपरागत मीडि‍या खासकर प्रेस को कोई ख़तरा नहीं है। ब्‍लॉगिंग को प्रेस की वि‍दाई समझने की भूल नहीं करनी चाहि‍ए। धीरे-धीरे ब्‍लॉगिंग सूचना के स्रोत की जगह लेती जा रही है। इंटरनेट के यूज़रों का एक बड़ा हि‍स्‍सा है, जो ब्‍लॉग से ख़बर, सूचनाएं आदि‍ प्राप्‍त करता है। ब्‍लॉगरों में एक वर्ग यह मानता है कि‍ ब्‍लॉगिंग के आने के साथ ही प्रेस की वि‍दाई की बेला आ गयी है।
2009 टैक्‍नोरती ब्‍लॉग सर्वे हाल ही में प्रकाशि‍त हुआ है। वि‍श्‍व ब्‍लॉग जगत का यह सबसे बड़ा सर्वेक्षण है। वि‍श्‍व ब्‍लॉग सर्वे में पाया गया कि‍ टेलीवि‍जन, ब्‍लॉग और सोशल मीडि‍या इन तीन माध्‍यमों का ज़्यादा उपभोग हो रहा है। सर्वे में शामि‍ल ब्‍लॉगरों ने बताया कि‍ वे सर्च और शेयरिंग के काम पर औसतन तीन घंटे प्रति‍ सप्‍ताह और वीडि‍यो पर प्रति‍ सप्‍ताह दो घंटा खर्च
करते हैं। ब्‍लॉग लेखकों में अधि‍कांश ऐसे हैं, जो प्रति‍ सप्‍ताह ऑनलाइन अखबार-पत्रि‍का पढ़ने पर 2-3 घंटे खर्च करते हैं। ब्‍लॉग लेखकों में मात्र 20 प्रति‍शत अपने ब्‍लॉग अपडेट करते हैं। 80 प्रति‍शत अपडेट नहीं करते। मात्र 13 प्रति‍शत हैं, जो मोबाइल के जरि‍ये अपने ब्‍लॉग को अपडेट करते हैं। अंग्रेजी ब्‍लॉगरों में किये गये सर्वे से पता चला है कि‍ अधि‍कांश ब्‍लॉगर उच्‍च शि‍क्षाप्राप्‍त हैं। अधि‍कांश ब्‍लॉगर स्‍नातक हैं। अधि‍कांश की आय प्रति‍वर्ष औसत 75 हज़ार डालर या उससे ज़्यादा है। अधि‍कांश के एकाधि‍क ब्‍लॉग हैं। आज ब्‍लॉगिंग मीडि‍या की मूलधारा का हि‍स्‍सा है। अधि‍कांश ब्‍लॉगर दो-तीन सालों से ब्‍लॉग लेखन कर रहे हैं।
दो-ति‍हाई ब्‍लॉगर पुरुष हैं। 60 प्रति‍शत की उम्र 18-44 के बीच है। ज़्यादातर ब्‍लॉग लेखक शि‍क्षि‍त और समर्थ हैं। इनमें 75 प्रति‍शत के पास कॉलेज डि‍ग्री है, 40 प्रति‍शत के पास स्‍नातक डि‍ग्री है। तीन में से एक ब्‍लॉगर की सालाना पारि‍वारि‍क आय 75 हज़ार डालर से ज़्यादा है। चार में से एक ब्‍लॉगर की 1 लाख डालर से ज़्यादा की आय है। पेशेवर, स्‍व-रोज़गार करने वाले और नौकरीपेशा ब्‍लॉगरों की आय 75 हज़ार डालर प्रति‍वर्ष है। आधे से ज़्यादा शादीशुदा, अभि‍भावक वाले हैं और पूरावक्‍ती नौकरी करते हैं। ब्‍लॉगरों में 67 प्रति‍शत पुरुष और 33 प्रति‍शत महि‍लाएं हैं। 51 प्रति‍शत का यह पहला ब्‍लॉग है जबकि‍ 49 प्रति‍शत का यह पहला ब्‍लॉग नहीं है। इसी तरह ब्‍लॉग लेखकों की उम्र देखें, सात प्रति‍शत ब्‍लॉगरों की उम्र 18-24 साल के बीच है। 25-34 साल के 25 प्रति‍शत, 35- 44 साल के 28 प्रति‍शत, 44-49 साल के 11 प्रति‍शत, 50-54 के बीच के 10 प्रति‍शत, 55-60 साल के बीच के 14 प्रति‍शत, चार प्रति‍शत ब्‍लॉगर की उम्र 65 और उससे अधि‍क है।
ब्‍लॉगिंग की बुनि‍याद है आत्‍माभि‍व्‍यक्ति और अनुभवों को साझा करने का भाव। मूलत: इन्‍हीं दो कारणों से प्रेरि‍त होकर ब्‍लॉग लि‍खे जा रहे हैं। सर्वे में 70 प्रति‍शत ने कहा कि‍ वे व्‍यक्तिगत संतोष के लि‍ए लि‍खते हैं। जो अभिरुचि‍यों पर केंद्रि‍त होकर लि‍ख रहे हैं, उनकी संख्‍या ज़्यादा है। इसके अलावा वि‍शेषज्ञ कि‍स्‍म के लोगों का लेखन वि‍षयकेंद्रित होता है। ये लोग राजनीति‍क सवालों पर भी लि‍खते हैं। राजनीति‍क वि‍षयों पर स्‍व-रोज़गारी और पेशेवर लोग कम लि‍खते हैं। अधि‍कांश ब्‍लॉगर अपने को गंभीर, संवादी या वि‍शेषज्ञ कहते हैं। ब्‍लॉगिंग में आत्‍मस्‍वीकारोक्ति की शैली ज़्यादा जनप्रि‍य नहीं है।
ब्‍लॉगिंग में पेशेवर लोगों की संख्‍या लगातार बढ़ रही है। व्‍यक्ति‍ अनुभवों पर लि‍खने वालों की तादाद बढ़ रही है। इन्‍हें ज़्यादा लोग पढ़ते हैं। ब्‍लॉग के 70 प्रति‍शत लेखक अंशकालि‍क हैं। ब्‍लॉग में कम लि‍ख पाने का प्रधान कारण है ब्‍लॉग लेखकों का घरेलू संसार में उलझे रहना। 64 प्रति‍शत ब्‍लॉगर का मानना है वे नि‍यमि‍त इसलि‍ए नहीं लि‍ख पाते क्‍योंकि‍ उनकी पारि‍वारि‍क ज़‍ि‍म्‍मेदारि‍यां हैं। 30 प्रति‍शत ऐसे लेखक हैं, जो कम लि‍खते हैं। इनके कम लि‍खने का प्रधान कारण है इनका नेट पर अन्‍य गति‍वि‍धि‍यों में व्‍यस्‍त रहना। ज़्यादातर ब्‍लॉगर का मानना है उनके व्‍यक्तिगत जीवन पर ब्‍लॉगिंग का सकारात्‍मक प्रभाव हुआ है।
ब्‍लॉग मूलत: व्‍यक्तिगत आख्‍यान है। 45 प्रति‍शत ब्‍लॉगरों ने बताया कि‍ वे नि‍जी अनुभवों पर लि‍खते हैं। 23 प्रति‍शत ऐसे हैं, जो जीवन की व्‍यापक जानकारी में इज़ाफ़ा करने के लि‍ए लि‍खते हैं। 30 प्रति‍शत का मानना है उनके लेखन का मुख्‍य वि‍षय अन्‍य हैं। 50 प्रति‍शत ब्‍लॉगरों को अपने प्रि‍य राजनीति‍क वि‍षय पर बातें करने में मज़ा आता है। जबकि‍ पेशेवरों में यह संख्‍या घट गयी है। पेशेवरों में 37 प्रति‍शत और स्‍वरोज़गाररत लोगों में मात्र 33 प्रति‍शत ब्‍लॉगर ही राजनीति‍ में रुचि‍ लेते हैं। 74 प्रति‍शत ब्‍लॉगर सामाजि‍क और पर्यावरण के सवालों पर लि‍खते हैं। जबकि‍ 66 प्रति‍शत पेशेवर लोग अपने काम के वातावरण पर लि‍खते हैं। आर्थि‍क मंदी ने 81 प्रति‍शत ब्‍लॉगरों की वि‍षयवस्‍तु को खास प्रभावि‍त नहीं कि‍या है। वे जि‍न वि‍षयों पर लि‍ख रहे थे उन्‍हीं पर लि‍खते रहे। ज़्यादातर (70 प्रति‍शत) ब्‍लॉग लेखक इस बात से संतुष्‍ट हैं कि‍ उनके ब्‍लॉग पर ज़्यादा लोग पढ़ने आते हैं।
सर्वे के अनुसार 15 प्रति‍शत ब्‍लॉगर 10 या उससे ज़्यादा घंटे प्रति‍ सप्‍ताह खर्च करते हैं। जबकि अंशकालि‍क 24 प्रति‍शत ब्‍लॉगर, 25 प्रति‍शत पेशेवर और स्‍वरोज़गारयुक्‍त 32 प्रति‍शत ब्‍लॉगर प्रति‍ सप्‍ताह 10 या उससे ज़्यादा घंटे समय खर्च करते हैं। पांच में से एक ब्‍लॉगर प्रति‍दि‍न अपने ब्‍लॉग को अपडेट करता है। औसतन सप्‍ताह में 2-3 बार ब्‍लॉगर अपने ब्‍लॉग की अपडेटिंग करते हैं। जो स्‍वरोज़गारयुक्‍त हैं वे अपने ब्‍लॉग की ज़्यादा जल्‍दी अपडेटिंग करते हैं।
ब्‍लॉग लेखन का वि‍श्‍वव्‍यापी प्रभाव होता है। हाल की दो घटनाएं साक्षी हैं कि‍ कि‍स तरह ब्‍लॉग लेखकों ने राजनीति‍क प्रभाव छोड़ा है। सन 2008 में संपन्‍न हुए ईरान के राष्‍ट्रपति‍ चुनाव में ब्‍लॉग लेखकों ने जमकर राजनीति‍क प्रचार अभि‍यान चलाया। इसके कारण ईरान में जनप्रि‍य वेबसाइट, फेसबुक और ट्वि‍टर पर पाबंदी लगा दी गयी। उल्‍लेखनीय है कि ईरान में पत्रकारों को लि‍खने की आज़ादी नहीं है। चुनाव के दौरान देश में इधर-उधर जाने की भी आज़ादी नहीं थी। इसी अर्थ में ईरान को मध्‍य-पूर्व का सबसे बड़ा क़ैदखाना कहा जाता है। ईरान दुनि‍या का पहला देश है, जि‍सने पहली बार कि‍सी ब्‍लॉगर को ब्‍लॉगिंग के लि‍ए जेलखाने पहुंचा दि‍या गया। इसके बावजूद प्रति‍वाद के स्‍वर ब्‍लॉग पर थमे नहीं हैं। कुछ अरसा पहले अमेरि‍का के राष्‍ट्रपति‍ चुनाव में ब्‍लॉग लेखकों के राजनीति‍क लेखन का जम कर इस्‍तेमाल कि‍या गया। नीति‍गत सवालों से लेकर व्‍यक्ति‍गत सवालों तक ब्‍लॉग लेखन को अमेरि‍की नागरि‍कों ने परंपरागत मीडि‍या की तरह ही सम्‍मान और प्‍यार दि‍या।
ब्‍लॉग लेखन ने वि‍चारों के संसार को सारी दुनि‍या में नयी बुलंदि‍यों तक पहुंचाया है। वि‍श्‍व स्‍तर वर अभि‍व्‍यक्ति की आज़ादी को पुख्‍ता बनाया है। ज़्यादा सूचना संपन्‍न, सहि‍ष्‍णु और लोकतांत्रि‍क बनाया है। ब्‍लॉग की दुनि‍या को शि‍क्षि‍तों के समाज में ज़्यादा ध्‍यान दि‍या जा रहा है। अभी बहुत कम शि‍क्षि‍त हैं जो ब्‍लॉग पर जाते हैं, किंतु इनकी संख्‍या बढ़ रही है। यह ऐसा माध्‍यम है, जि‍सका नि‍यंत्रण संभव नहीं है। यह वि‍नि‍मय का माध्‍यम है। यह सरकार और राष्‍ट्र की सीमाओं का अति‍क्रमण करते हुए वि‍नि‍मय करता है। उम्‍मीद की जा रही है कि‍ भावी ब्‍लॉग और भी ज़्यादा एक्‍शन केंद्रित होंगे। अभी तो ब्‍लॉगर के द्वारा घटनाओं पर टि‍प्‍पणी आती है – आगामी दि‍नों में ब्‍लॉग एक्‍शन करते नज़र आएंगे। वे घटनाओं को संचालि‍त करेंगे।
ब्‍लॉगिंग का नया रूप ट्वि‍टर के साथ दि‍खाई दे रहा है। आम जनता की तुलना में ब्‍लॉगरों के द्वारा ट्वि‍टर का ज़्यादा प्रयोग हो रहा है। मई 2009 में पेन, शोन एंड बेर्लेंड एसोसि‍एट्स के द्वारा कराये सर्वे से पता चला है कि‍ ट्वि‍टर का इस्‍तेमाल करने वालों में मात्र 14 प्रति‍शत आम जनता है जबकि‍ 73 प्रति‍शत ब्‍लॉगर हैं जो अपने ब्‍लॉग की जनप्रि‍यता बढ़ाने के लि‍ए इसका इस्‍तेमाल कर रहे हैं। हाल ही में ट्वि‍टर का संचालन करने वाली कंपनी ने इस क्षेत्र में एक बि‍लि‍यन डॉलर का पूंजी नि‍वेश करने का फ़ैसला लि‍या है। जून 2009 तक सोशल मीडि‍या पर आने वालों की संख्‍या 44.5 मि‍लि‍यन गि‍नी गयी। अभी ट्वि‍टर पर वि‍ज्ञापन नहीं लेने का फ़ैसला कि‍या गया है लेकि‍न भवि‍ष्‍य में वि‍ज्ञापन नहीं दि‍खेंगे – यह कहना मुश्‍कि‍ल है।


बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

इंटरनेट में लैटि‍न की वि‍दाई और देशज भाषाओं का आगमन




         इंटरनेट पर देशज भाषाओं का दखल बढ़ रहा है। इंटरनेट पर आने वाले समय में डोमेन नाम, वेबसाइट, ईमेल पता, ट्वि‍टर पोस्‍ट आदि‍ में अब गैर अंग्रेजी भाषाएं भी नजर आएंगी। खासकर चीनी, अरबी,कोरि‍यन और जापानी भाषाओं का प्रयोग होने लगेगा। अभी तक डोमेन पते पर अंग्रेजी का ही इस्‍तेमाल होता है। इसके अलावा ग्रीक,हि‍न्‍दी,रूसी आदि‍ भाषाओं  के प्रयोग का रास्‍ता भी खुल जाएगा। '' Internet Corporation for Assigned Names and Numbers '' (आईसीएएनएन) के प्रवक्‍ता ने 26 अक्‍टूबर 2009 को बताया कि वेब पते पर लैटि‍न भाषा के उपयोग का फैसला इस सप्‍ताह उठा लि‍या है। इंटरनेट के भाषि‍क और संरचनात्‍मक इति‍हास का यह अब तक का सबसे बड़ा बदलाव है। इंटरनेट के जन्‍म के साथ वि‍गत चालीस सालों में वेब पते‍ के लि‍ए लैटि‍न का प्रयोग होता रहा है। दक्षि‍ण कोरि‍या की राजधानी सि‍ओल में सारी दुनि‍या के इंटरनेट कंपनि‍यों, सूचना सम्राटों , वि‍भि‍न्‍न सर्वर के मालि‍कों,सुरक्षा वि‍शेषज्ञों आदि‍ छह दि‍नों तक चलने वाली कॉंफ्रेंस में मि‍ले । इसी कॉंफ्रेस में यह महत्‍वपूर्ण फैसला लि‍या गया है। इस परि‍वर्तन की घोषणा इंटरनेट के 40 साल पूरे होने के एक दि‍न बाद ही की गई है। इंटरनेट में इस भाषि‍क परि‍वर्तन का प्रधान कारण है गैर अंग्रेजी यूजरों की तादाद में तेजी से इजाफा। इस इजाफे ने इंटरनेट कर्त्‍ताओं को लैटि‍न की जगह देशज भाषाओं के डोमेन,पते बगैरह के लि‍ए इस्‍तेमाल की अनुमति‍ देने के लि‍ए वि‍वश कि‍या है।  सन् 2010 तक  इस फैसले के लागू कि‍ए जाने की संभावना है।
         सारी दुनि‍या में इंटरनेट के 1.6 वि‍लि‍यन यूजर हैं जो लैटि‍न भाषा आधारि‍त स्‍क्रि‍प्‍ट का इस्‍तेमाल नहीं करते। यह संख्‍या इंटरनेट यूजरों की आधी संख्‍या के बराबर है, भवि‍ष्‍य में इनकी संख्‍या और भी बढ़ सकती है। इंटरनेट के वि‍कास के लि‍ए देशज भाषाओं के पक्ष में यह परि‍वर्तन करना अनि‍वार्य हो उठा था। अभी इंटरनेट में पते के तौर पर 'कॉम' ,' ओआरजी'  का इस्‍तेमाल कि‍या जाता है। इसकी जगह ज्‍यादा लचीली व्‍यवस्‍था लागू की जाएगी1 जैसे 'पोस्‍ट' और ''बैंक' आदि‍। उल्‍लेखनीय है इंटरनेट में ये परि‍वर्तन तब आए हैं जब वाशिंगटन प्रशासन ने इंटरनेट पर अपनी पकड़ कुछ कम करने का फैसला लि‍या है । नये पते की व्‍यवस्‍था के अनुसार सभी पते 'bank ' के साथ खत्‍म होंगे। ये सभी प्रामाणि‍क पते होंगे। उल्‍लेखनीय है इंटरनेट के कर्त्‍ता अब जि‍स नए पते की व्‍यवस्‍था को लागू करने जा रहे हैं वह पहले से ही प्रचलन में है। उसे उन्‍होंने कभी मान्‍यता नहीं दी। जो लोग इसका इस्‍तेमाल करते हैं उनका नाम है Jerusalem Style Web Design Studio                                  



साइबर उत्‍पाति‍यों की खैर नहीं

                       

     भारत में मंगलवार से संशोधि‍त सूचना तकनीक कानून 2008 लागू हो गया है। यह सन् 2008 के सूचना तकनीक कानून का संशोधि‍त रूप है। साइबर जगत के अपराधों पर अब सरकार और भी सख्‍ती के साथ पेश आएगी। अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की आजादी के नाम चाहे जि‍से संदेश भेजना, अपमानजनक ब्‍लाग लेखन, अपमानजनक टि‍प्‍पणि‍यां,अश्‍लील सामग्री का वि‍तरण, बाल पोर्नोग्राफी के वि‍तरण के साथ -साथ साइबर सामग्री के बगैर अनुमति‍ के उपयोग और दुरूपयोग के बारे में यह कानून ज्‍यादा सख्‍त है। इस कानून से  गैर कानूनी साइबर हरकतें कि‍तनी कम होंगी यह तो वक्‍त ही बताएगा, लेकि‍न यह तय है‍ अब आप मनमाने लेखन के दि‍न लद गए।
    साइबर जगत में जि‍म्‍मेदार लेखन और सृजन के लि‍ए ज्‍यादा सुरक्षि‍त रास्‍ता तैयार हुआ है। अभी तक जो लोग अपमानजनक ईमेल भेजकर सो जाते थे वे ऐसा नहीं कर पाएंगे। अपमानजनक, अवैध ईमेल कानून के दायरे में आ चुके हैं। अब आपका ईमेल भी वैध गति‍वि‍धि‍ है। आपकी टि‍प्‍पणी और ईमेल भी कॉपीराइट के दायरे में हैं। गलत करने पर दंडि‍त हो सकते हैं। गोपनीयता का उल्‍लंघन अभी तक साइबर स्‍पेस में अपराध नहीं था लेकि‍न अब अपराध है। आप कि‍सी के वैध संरक्षि‍त डाटा का अनुमि‍त के बि‍ना व्‍यवसायि‍क इस्‍तेमाल नहीं कर सकते। अब तक 'ई व्‍यापार' के नाम पर जो धोखाधड़ी चल रही थी उसे रोक नहीं सकते थे। इस कानून के जरि‍ए 'ई व्‍यापार' की धोखाधडी भी दंड वि‍धान के दायरे में चली आयी है। साइबर स्‍पेस में चलने वाली खरीद-फरोख्‍त भी इसके दायरे में चली आयी है। संशोधि‍त कानून के व्‍यापक सामाजि‍क प्रभाव हो सकते हैं बशर्ते सरकार के पास 'ई नि‍गरानी' करने वाली व्‍यापक मशीनरी हो। साइबर कानून में संशोधन से सि‍र्फ इतना हुआ है कि‍ हमारे पास कानून है। कोई शि‍कायत करने आएगा तो कानूनी कार्रवाई की जा सकती है लेकि‍न स्‍वयं सरकार अपनी तरफ से कोई कदम नहीं उठाने जा रही है। आमतौर पर जि‍न देशों ने साइबर कानून बनाए हैं वहां पर साइबर नि‍गरानी करने वाली लंबी-चौडी फौज रखी गयी है। भारत में कानून है लेकि‍न कानून लागू करने वाली संरचनाएं अभी तक नहीं बन पायी हैं। अदालतों का जो हाल है उसे देखकर नहीं लगता कि‍ यह कानून कि‍सी भी साइबर अपराधी को रीयल टाइम में पकड पाएगा अथवा रीयल टाइम में दंडि‍त कर पाएगा। साइबर कानून तब ही प्रभावी हो सकता है जब उसकी नि‍गरानी करने वाली स्‍वतंत्र एजेंसी हो, साइबर जगत पर भारत सरकार की नि‍गरानी चौकि‍यॉं हों, इसके लि‍ए लाखों साइबर पुलि‍सकर्मी हों जो रीयल टाइम में एक्‍शन लें और कानून का पालन करें। संशोधि‍त सूचना तकनीक कानून को सन् 2000 में बनाया गया था बाद में दि‍सम्‍बर 2008 में इसमें संशोधन कि‍ए गए जि‍न्‍हें राष्‍ट्रपति‍ के पास स्‍वीकृति‍ के लि‍ए भेजा गया था ,राष्‍ट्रपति‍ ने फरवरी 2009 में इसे मंजूरी दी है और 27 अक्‍टूबर 2009 से यह कानून लागू हो गया है। इसके दायरे में साइबर आतंकवाद को भी शामि‍ल कर लि‍या गया है। साथ ही पहलीबार बाल पोर्नोग्राफी को अपराध माना गया है। इस कानून का अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की आजादी को कुचलने के लि‍ए भी कोई भी सरकार दुरूपयोग कर सकती है।   

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

जेएनयू में हि‍न्‍दी-उर्दू् के दि‍ग्‍गजों का महामि‍लन

          

          जेएनयू के हि‍न्‍दी-उर्दू के पूर्व छात्रों का समागम आगामी 27-29 अक्‍टूबर 2009 को  होने जा रहा है। यह समागम इस अर्थ में महत्‍वपूर्ण है कि‍ इसमें पहलीबार नामवरजी नहीं हैं। जेएनयू का भारतीय भाषा केन्‍द्र नामवर के बि‍ना सूना लगता है ,लगता है प्रो.चमनलाल ने नामवरजी की उस बात का ख्‍याल रखा है जो उन्‍होंने 'जेएनयू में नामवर' पुस्‍तक के लोकार्पण के समय दि‍ल्‍ली के त्रि‍वेणी सभागार में कही थी। नामवरजी ने कहा था '' मैं चाहता हूँ कभी मुझे सुनने के लि‍ए भी बुलाया जाए''। नामवर जी के छात्रों ने लगता है उनकी बात रख ली है। देखते हैं आगे क्‍या होता है। आशा है इस मौके पर आदरणीय गुरूवर सुनने तो कम से कम जरूर आएंगे। वैसे भी यदि‍ वे कार्यक्रम में आ धमके और छात्रों ने मांग कर दी तो उन्‍हें मंच पर आने से कौन रोक पाएगा । तब वह वक्‍ता ही होंगे। श्रोता नहीं।
जेएनयू के हि‍न्‍दी-उर्दू के भूतपूर्व छात्रों का यह समागम कई अर्थों में महत्‍वपूर्ण है। पहला महत्‍व यह है कि‍ इसमें नामवरजी नहीं होंगे। इस कार्यक्रम का दूसरा महत्‍व यह है कि‍ इसमें हि‍न्‍दी-उर्दू के सवालों पर नए परि‍प्रेक्ष्‍य में बातें होंगी, मीडि‍या पर बातें होंगी। जेएनयू के भारतीय भाषा केन्‍द्र के लि‍ए यह वि‍लक्षण आनंद का क्षण होगा। मुझे भी आने के लि‍ए कहा गया था लेकि‍न अपनी नि‍जी व्‍यस्‍तताओं के कारण मैं शामि‍ल नहीं हो पा रहा हूँ। यह मैंने प्रो.चमनलाल और डा. देवेन्‍द्र चौबे को बोला भी है,वे समझते हैं।
     कई चीजें दि‍माग में कौंध रही हैं जि‍नसे हि‍न्‍दी-उर्दू की दशा पर रोशनी पड़ती है। इस कार्यक्रम में तीन बडे स्‍टार हैं उर्दू के मोहम्‍मद हसन ,हि‍न्‍दी से केदारनाथ सिंह और मैनेजर पांडेय। ये तीनों इस कार्यक्रम की प्रधान शोभा हैं। जेएनयू के बाहर ज्‍यादातर लोग यही जानते हैं कि‍ नामवरजी ने जेएनयू के भारतीय भाषा केन्‍द्र को बनाया, यह बात अंशत: सच है। सच का दूसरा पहलू यह है कि‍ उर्दू में प्रो.मोहम्‍मद हसन ने जो काम कि‍या है वैसा हि‍न्‍दी-उर्दू में कि‍सी ने नहीं कि‍या है,यह सारा काम जेएनयू में रहकर ही हुआ है और केदारजी की संपदा कवि‍ता ही नहीं है बल्‍कि‍ एक शानदार शि‍क्षक के रूप में उनकी पढाने की कला सबसे बडी उपलब्‍धि‍ रही है,केदारजी जब कवि‍ता पढाते हैं तो आप कवि‍ता को जिंदा महसूस करते हैं। मैंने उनकी कक्षा में नि‍राला की 'सरोज स्‍मृति‍' कवि‍ता का वह व्‍याख्‍यान सुना है जि‍समें वे कवि‍ता पढा रहे थे और समूची कक्षा रो रही थी। भाववि‍भोर करके पढाने वाले वह अद्वि‍तीय शि‍क्षक हैं। केदारजी की कवि‍ता के रूमानी और अभि‍जन भावबोध के नि‍र्माण में जेएनयू की छाप है,यह बात दीगर है कि‍ बार-बार उन्‍हें गांव से आलोचक जोड़ देते हैं। केदारजी स्‍वभाव और व्‍यवहार में इतने शालीन, सभ्‍य,वि‍नम्र कि‍ उनकी प्रति‍कृति‍ खोजना असंभव है। केदारजी की एक और खूबी है कि‍ उन्‍होंने शि‍क्षक के नाते कभी कि‍सी छात्र या सहकर्मी शि‍क्षक का अहि‍त नहीं कि‍या। जबकि‍ हि‍न्‍दी के शि‍क्षकों में यह आम बीमारी है कि‍ वे आए दि‍न अपने छात्रों का अहि‍त करते रहते हैं।मैंने ऐसा हार्मलैस व्‍यक्‍ति‍त्‍व नहीं देखा।
हि‍न्‍दी आलोचना नामवरजी की ऋणी है। लेकि‍न जेएनयू की मेधा,शोध में नयी खोज और नए परि‍प्रेक्ष्‍य में साहि‍त्‍य के इति‍हास और साहि‍त्‍य के समाजशास्‍त्र को देखने का जो नजरि‍ए प्रो.मैनेजर पांडेय ने दि‍या है वह हि‍न्‍दी में बेजोड़ है। हि‍न्‍दी को साहि‍त्‍य का समाजशास्‍त्र पांडेय जी के जरि‍ए ही प्राप्‍त हुआ। आज भी अपनी स्‍वाभावि‍क ठहाकेदार हंसी के बीच पांडेयजी नयी चुटीली बात कह जाते हैं। उर्दू की प्रगति‍शील परंपरा को आधुनि‍कतावादि‍यों के हमलों से बचाने में प्रो.मोहम्‍मद हसन के लेखन की शानदार भूमि‍का रही है, उन्‍होंने उर्दू के उस स्‍कूल की जमकर मुखालफत की है जि‍से आज उर्दू के आधुनि‍कतावादी अमेरि‍कीसरपरस्‍ती में चला रहे हैं। उर्दू को अमेरि‍कीसरपरस्‍ती से मुक्‍त कराने में मोहम्‍मद हसन की केन्‍द्रीय भूमि‍का रही है। उन्‍होने ही पहलीबार जेएनयू में मीडि‍या पर शोध कराने का कार्य आरंभ कि‍या। उनके पहले छात्र कैशर शमीम ने उर्दू मीडि‍या पर नए सैद्धान्‍ति‍क परि‍प्रेक्ष्‍य के साथ बेहतरीन रि‍सर्च की थी। ऐसी रि‍सर्च उस समय तक हि‍न्‍दी में नहीं हुई। यह शोध ऐसे समय हुई जब हि‍न्‍दी-उर्दू वाला मार्शल मैकलुहान का नाम तक नहीं जानता था। मैकलुहान और दूसरे मीडि‍या सि‍द्धान्‍तकारों के परि‍प्रेक्ष्‍य में की गई यह हि‍न्‍दी-उर्दू की पहली रि‍सर्च थी।यह कि‍ताब के रूप में प्रकाशि‍त हो चुकी है।
      इस वि‍भाग को जेएनयू के मैनस्‍ट्रीम लोकतांत्रि‍क छात्र राजनीति‍ के वातावरण का हि‍स्‍सा बनाने में इस वि‍भाग के छात्रों की बडी भूमि‍का है। यह सच है कि‍ जेएनयू बदला है। उसमें पहले जैसी गर्मी,वि‍चारों की टकराहट, शोध की बेचैनी कम हुई है। इसके बावजूद जेएनयू के छात्रों ने पचासों ने नए वि‍षयों पर अनुसंधान कि‍या है। इसका हि‍साब लगाया जाना चाहि‍ए। काश मैं इस मौके पर शामि‍ल हो पाता।                









सोमवार, 26 अक्टूबर 2009

अमेरि‍का में फंडामेंटलि‍ज्‍म का असली चेहरा

सा 

     जनमाध्यमों से अमेरिकी समाज की आम तौर पर जो तस्वीर पेश की जाती है उसमें ग्लैमर, चमकदमक,शानो-शौकत,खुशी,आनंद,मजा,सेक्स,सिनेमा,उपभोक्ता वस्तुओं की भरमार,सत्ता के खेल, अमीरी के सपने प्रमुख होते हैं।इस तरह की प्रस्तुतियों में कभी भी यह नहीं बताया जाता कि अमेरिकी समाज फंडामेंटलिज्म की ओर जा रहा है। अथवा अमेरिका में फंडामेंटलिस्टों का बोलवाला है। फंडामेंटलिज्म को अमेरिकी मीडिया ने हमेशा गैर अमेरिकी फिनोमिना या तीसरी दुनिया के फिनोमिना के रूप में पेश किया है।सच किंतु यह नहीं है। फंडामेंटलिज्म के मामले में भी अमेरिका विश्व का सिरमौर है। किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति को क्रिश्चियन फंडामेंटलिज्म की उपेक्षा करना संभव नहीं है। वैसे ही जैसे मुशर्रफ और अटलबिहारी बाजपेयी को अपने फंडामेंटलिस्ट बिरादराना संगठनों की उपेक्षा करनी संभव नहीं है। 11सितम्बर की घटना के बाद अमेरिकी प्रशासन का जो चेहरा सामने आया है उसका जनतंत्र से कम फंडामेंटलिज्म से ज्यादा करीबी संबंध है। अमेरिकी मीडिया का बड़ा हिस्सा किस तरह युध्दपंथी है और मुसलमान विरोधी है इसके बारे में 11सितम्बर के बाद के घटनाक्रम ने ऑँखें खोल दी हैं। शुरू में राष्ट्रपति बुश ने यह जरूर कहा कि 11सितम्बर की घटनाओं का मुसलमानों से कोई संबंध नहीं है। किंतु व्यवहार में अमेरिकी पुलिस ने अमेरिका में रहने वाले मुसलमानों को जिस तरह परेशान किया और उनके नागरिक अधिकारों का हनन किया वह अमेरिकी समाज के अभिजनों और मीडिया के एक बड़े हिस्से में व्याप्त मुस्लिम विरोधी मानसिकता को समझने का अच्छा पैमाना हो सकता है। सभ्यताओं के संघर्ष की सैध्दान्तिकी के तहत इस्लाम को कलंकित किया गया। इस्लाम को फंडामेंटलिज्म और आतंकवाद से जोड़ा गया। क्रिश्चियन फंडामेंटलिस्टों के नेताओं जेरी फेलवैल और पेट रॉबर्टसन ने इस्लाम विरोधी प्रचार अभियान को चरमोत्कर्ष तक ले जाते हुए मोहम्मद साहब को आतंकवादी तक घोषित कर दिया। यह भी कहा इस्लाम धर्म हिंसा और घृणा का धर्म है। गॉड पर भरोसा है खुदा पर नहीं। इस बयान की अमेरिकी प्रशासन के किसी मंत्री या अधिकारी ने निंदा तक नहीं की। क्रिश्चियन फंडामेंटलिस्टों ने प्रचार अभियान चलाया हुआ है कि अब प्रलय होने वाली इनका विश्वास है कि जब धर्म और अधर्म के बीच युध्द होगा तो धार्मिक लोग सीधे स्वर्ग जाएंगे। सभी यहूदी ईसाई हो जाएंगे या जला दिए जाएंगे। यही हाल मुसलमानों का होगा।सभी मुसलमान आग के हवाले कर दिए जाएंगे।
11सितम्बर की घटना के बाद मुसलमानों के खिलाफ मीडिया के माध्यम से भय,पूर्वाग्रह और उन्माद पैदा करने की कोशिशें जारी हैं। यह कार्य मुस्लिम और ईसाई फंडामेंटलिस्ट अपने- अपने तरीके से कर रहे हैं।इन दोनों किस्म के फंडामेंटलिस्टों के नेताओं को राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहज ही मीडिया की अग्रणी कतारों में देखा जा सकता है। इन दोनों के लिए जनतंत्र,संवाद, सहिष्णुता और मानवाधिकारों की कोई कीमत नहीं रह गई है। इंटरनेट पर गुगल डाटकॉम पर इस्लाम पर सामग्री खोजने वालों की संख्या में बेतहाशा वृध्दि हुई है। गुगल पर चालीस लाख से ज्यादा वेबसाइट हैं।इनमें 20 वेबसाइट मुसलमानों के द्वारा बनायी हुई हैं।इनमें आप संवाद नहीं कर सकते।अमेरिकी पुलिस और खुफिया विभाग इन वेबसाइट पर आने वाली प्रत्येक सामग्री का अध्ययन करती रहती हैं।
    क्रिश्चियन फंडामेंटलिस्टों का अमेरिका में व्यापक स्तर पर शिक्षा और मीडिया नेटवर्क है।इसमें बॉब जॉन यूनीवर्सिटी का नाम सबसे ऊपर है।यहूदी तत्ववादियों का अनुकरण करते हुए इस विश्वविद्यालय ने ईसाइयों को धार्मिक शुध्दता का पाठ पढ़ाया जाता है। ये लोग समाज में किसी भी किस्म के सम्मिश्रण को स्वीकार नहीं करते। रूढ़िवादी विचारों और संस्कारों में पूरी तरह आस्था रखते हैं। बाइबिल इनके लिए अंतिम और एकमात्र सत्य है। ये आक्रामक और रक्षात्मक दोनों ही किस्म की रणनीति का अपने सांगठनिक विकास के लिए इस्तेमाल करते हैं। बॉब जॉन यूनीवर्सिटी के छात्र सिर्फ विचारों और संस्कारों में ही तत्ववादी नहीं होते अपितु उग्रवादी भी होते हैं। ये किसी भी किस्म की विज्ञानसम्मत शिक्षा और विचारों का विरोध करते हैं। शिक्षा के पाठ्यक्रमों में किसी भी किस्म की उदारतावादी दृष्टि को स्वीकार नहीं करते। इस विश्वविद्यालय के द्वारा पृथकतावादी और तत्ववादी ताकतों का  खुलकर समर्थन किया जाता है। ये लोग नस्लवादी श्रेष्ठत्व पर जोर देते हैं। नस्लवादी श्रेष्ठत्व इनके धार्मिक उसूलों से जुड़ा हुआ है। आमतौर पर तत्ववादी या पृथकतापंथी संगठन अपने कार्यों को वैध ठहराने के लिए अंधविश्वास और अनहोनी या विलक्षण घटनाओं को चुनते हैं। इजराइली और क्रिश्चियन तत्ववादियों ने मध्य-पूर्व में ईराक पर अमरीका और उसके मित्र राष्ट्रों के हमले और तबाही को ईश्वर की कृपा से किए गए हमले और पाप के दण्ड के तौर पर व्याख्यायित किया।इसके लिए सैन्य पदावली का प्रयोग किया गया।
       सुसान रोज ने ''क्रिश्चियन फंडामेंटलिज्म एण्ड ऐजुकेशन इन दि यूनाइटेड स्टेट्स''(1993) में लिखा कैथोलिक स्कूलों की तुलना में प्रोटेस्टेण्ट या इवानगेलिकल्स स्कूलों में छात्रों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। इसके विपरीत कैथोलिक स्कूलों में छात्रों की संख्या में गिरावट आई है। निजी क्षेत्र में इन स्कूलों का बड़ी तेजी से विकास हुआ है। अनुमानत: दस लाख विद्यार्थी 18,000 हजार निजी धार्मिक स्कूलों में पढ़ते हैं। ये कुल निजी स्कूली छात्रों की संख्या का  20 फीसद हिस्सा हैं।
इवानगेलिक और तत्ववादी स्कूलों में विगत दो दशकों में छात्रों की भर्ती में तेजी से इजाफा हुआ है। इसी दौरान इन स्कूलों ने पृथकतावादी मार्ग की अपेक्षा ज्यादा से ज्यादा  कठमुल्लावादी मार्ग का अनुसरण किया है। इसके लिए इन संगठनों ने अदालती कार्रवाईयों तक का सहारा लिया है। अदालतों से इन्हें अपनी गतिविधियां जारी रखने का एक तरह से लाईसेंस  मिल गया है।इन समस्त घटनाओं से इस तथ्य पर रोशनी पड़ती है कि अमरीकी न्याय व्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था किस हद तक तत्ववादी संगठनों के सामने असहाय साबित हुई है।साथ ही उनके शिक्षा संस्थान बगैर किसी बाधा के सुचारू रुप से चल रहे हैं।
       इवानगेलिक स्कूलों का पाठ्यक्रम,पध्दति और प्रभाव सार्वजनिक धर्मनिरपेक्ष स्कूलों से भिन्न है। धार्मिक तत्ववादी स्कूलों का अमरीका में लक्ष्य है धर्मनिरपेक्ष जीवन शैली का विरोध करना ,धार्मिक और पितृसत्ता की स्थापना करना,बच्चों को नशेबाजी,कामुकता,हिंसा और अनुशासनहीनता से बचाना। इसके अलावा तत्ववादी शिक्षा का मुख्य जोर बाइबिल, धार्मिक संस्कारों की शिक्षा और धर्मनिरपेक्ष सार्वजनिक स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले विषयों के खिलाफ रहा है। इन स्कूलों में दण्ड और अध्यापन की सार्वभौम पध्दति अपनायी जाती है। विद्यार्थियों के लिए महंगी से महंगी किताबें और पाठ्यक्रम सामग्री तुरंत प्रदान की जाती है। पाठ्यक्रम पढ़ाने के लिए किसी शिक्षक की मदद की जरूरत महसूस नहीं होती क्योंकि छात्र स्वयं ही पढ़ सकता है। पाठ्यक्रम पढ़कर शायद ही कोई सवाल किसी के मन में उठे क्योंकि समस्त सवालों के जबाव पाठ में ही होते हैं। इन स्कूलों के छात्र सार्वजनिक धर्मनिरपेक्ष स्कूलों की तुलना में ज्यादा संख्या में पास होते हैं। यहां तक कि स्टैण्डफोर्ड अचीवमेंट टेस्ट में इन स्कूलों के छात्रों को राष्ट्रीय नियम की तुलना में एक साल और सात माह ज्यादा की वरीयता मिलती है।सेना में इन तत्ववादी स्कूलों के छात्रों को बेहतरीन विद्यार्थी मानकर वरीयता के साथ भर्ती किया जाता है।क्योंकि इनमें अनुशासन, अनुकरण और अधिकारियों के प्रति सम्मान का भाव होता है।
         अमरीका में धार्मिक तत्ववादी स्कूलों में आमतौर पर गोरे मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे दाखिले लेते हैं। इनके परिवारों की औसत आमदनी 25,000हजार डालर है।यह सम्मिश्रित किस्म का प्रभुत्वशाली समुदाय है। अत: इस समुदाय के छात्रों में धार्मिक तत्ववादी शिक्षा का आधार निर्मित होने से धार्मिक शिक्षा का प्रभाव कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है। रीगन प्रशासन ने एक जमाने में तत्ववादी स्कूलों पर अंकुश लगाने की काफी कोशिश की किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके विपरीत तत्ववादी स्कूलों ने धर्मनिरपेक्ष स्कूलों को अपनी दिशा बदलने के लिए दबाव तेज कर दिया है। इस दिशा में उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली और बड़ी संख्या में ईसाई स्कूलों और धर्मनिरपेक्ष स्कूलों में विलय भी हुआ। आज स्थिति यह है कि अमरीका में तत्ववादियों के नियंत्रण वाली उच्च शिक्षा और टेलीविजन का मजबूत गठबंधन  है। खासकर लिबर्टी यूनीवर्सिटी और रीजेंट विश्वविद्यालय के माध्यम से यह काम बखूबी अंजाम दिया जा रहा है। ये विश्वविद्यालय धार्मिक कठमुल्लापन के साथ आधुनिक विज्ञान,प्रौद्योगिकी और शिक्षा का सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर  रहे हैं।
        



              


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