लोकतंत्र की मानवाधिकारों के बिना कल्पना असंभव है। भारत में लोकतंत्र पर बातें होती हैं लेकिन मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में बातें नहीं होतीं। हमारे यहां का अधिकांश लेखन संवैधानिक नजरिए और उसके विकल्प के वाम-दक्षिण दृष्टियों के बौद्धिक विभाजन या दलीय वर्गीकरण में बंटा है।इसके अलावा मानवाधिकारों पर शीतयुद्धीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य के परे जाकर देखने की भी आवश्यकता है।
भारत में लोकतंत्र है लेकिन लोकतांत्रिक सामाजिक जीवन संबंधों का अभाव है।लोकतंत्र के लिए वोट डालने वाली जनता है लेकिन लोकतांत्रिक मनुष्य हम अभी तक नहीं बना पाए। लोकतांत्रिक जीवन संबंधों के अभाव में मानवाधिकारचेतना का विकास संभव नहीं है। सामाजिक जीवन में पूर्व-पूंजीवादी जीवन संबंधों का वर्चस्व आज भी बना हुआ है। इसमें भी अनेक किस्म के सामाजिक स्तर और जीवनशैलियां हैं।
भारतीय समाज में आदिवासी, अल्पसंख्यक,जातिवादी,धार्मिक,लिंग आदि आधारों पर विभिन्न किस्म के जीवन संबंध हैं। इन संबंधों के आधार पर वैविध्यपूर्ण नजरिया है। इनमें आपस में सह-अवस्था में जीने की भावना है ,लेकिन नए लोकतांत्रिक जीवन संबंधों और लोकतांत्रिक विचारों की ओर जाने की गति धीमी है। लोकतंत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति इस धीमी गति ने सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में भारतीय समाज को काफी पीछे धकेल दिया है।
हम आधुनिक होते हुए भी आधुनिक नहीं बन पाए हैं। समर्थ लोकतांत्रिक संरचनाओं के रहते हुए भी लोकतांत्रिक राजनीतिकदल, मनुष्य ,सामाजिक और निजी वातावरण का निर्माण नहीं कर पाए हैं। स्थिति इतनी बदतर है कि न्यायालय से लेकर संसद तक,विधानसभा से लेकर ग्राम पंचायत तक सभी में अ-लोकतांत्रिक मनुष्यों का वर्चस्व है।
भारत में विशिष्ट स्थिति है कि नए विचारों का जीवन में प्रवेश मुश्किल से होता है,नई जीवनशैली का प्रवेश हो जाता है लेकिन उस जीवनशैली से जुड़े विचार को आत्मसात नहीं करते। सचेत रूप से नए विचारों का जीवन से अलगाव बनाए रखकर नई जीवनशैली और पुराने नजरिए का खेल चलता रहता है। इसका कैनवास न्यायालय से लेकर लोकसभा तक फैला है। भारत में नई जीवनशैली के अनुरूप उपभोक्ता वस्तुओं के विनिमय के तंत्र का गठन बहुत जल्दी होता है लेकिन विचारतंत्र का गठन बहुत धीमी गति से होता है। न्यायव्यवस्था में तो यह अंतराल और भी ज्यादा दिखाई देता है। इस अंतराल का प्रधान कारण है पितृसत्ता का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वर्चस्व ।
मानवाधिकारों की गति,प्रकृति और संस्कृति को समग्र परिप्रेक्ष्य और गति के साथ जोड़कर देखना चाहिए। मसलन्, हमारे यहां कानून में मानवाधिकारों का प्रावधान है लेकिन इनको अर्जित करने में किसी नागरिक के पसीने छूट सकते हैं यदि राज्य या अन्य कोई बाधा डालने पर मादा हो जाए।
मानवाधिकारों के बारे में दो तरह के नजरिए रहे हैं,पहला नजरिया परंपरागत है जिसमें मानवाधिकारों की परंपरागत ढ़ंग से हिमायत की जाती है। इसके तहत सब शुभ होगा ,जिसे हम दुआओं का संसार कहते हैं। आशीर्वाद का संसार कहते हैं। दुआओं के नजरिए से परंपरागत ढ़ंग से दुनिया बदलने की कामना की परंपरा रही है। यह तरीका इनदिनों प्रचलन से गायब हो गया है। नया आधुनिक तरीका मानवाधिकार हनन के खिलाफ जनसंघर्ष की मांग करता है। मानवाधिकारहनन के खिलाफ जनता को एकजुट करने और इस संघर्ष के प्रमुख उपकरण के तौर पर कम्युनिकेशन माध्यमों के इस्तेमाल पर जोर देता है।इससे मानवाधिकार हनन के खिलाफ सामाजिक जागरूकता पैदा करने में मदद मिलती है।
आज मानवाधिकारकर्मी अपने अधिकारों की रक्षा के लिए इंटरनेट,प्रेस,फिल्म,वीडियो ,रेडियो,सोशल नेटवर्क,ब्लॉग आदि का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। एक ओर वे मानवाधिकारहनन के खिलाफ संघर्ष करते हैं। मानवाधिकार की हर जंग अभिव्यक्ति की आजादी की जंग भी है।मानवाधिकार स्वभावतःलोकल-ग्लोबल दोनों हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि हिन्दी में आमतौर पर "ग्लोबल" और "यूनीवर्सल" को पर्यायवाची के रूप में देखते हैं। इस प्रसंग में प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक ज्याँ बौद्रिलार्द के नजरिए को ध्यान में रखना जरूरी है। बौद्रिलार्द ने लिखा है कि ये दोनों पदबंध पर्यायवाची नहीं हैं। यूनीवर्सल का सामान्यतः मानवाधिकार,लिबर्टी,संस्कृति और लोकतंत्र के लिए इस्तेमाल किया जाता है।इसके विपरीत "ग्लोबल"पदबंध का तकनीक,बाजार,पर्यटनऔर सूचना के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। यह भी माना जाता है ग्लोबलाइजेशन अपरिहार्य है उसे बदल नहीं सकते। जबकि यूनीवर्सलाजेसन (सार्वभौमत्व) तो एक मार्ग है। यह पश्चिमी समाज के संदर्भ में विकसित मूल्य व्यवस्था है जिसका पश्चिमी आधुनिकता के साथ विकास हुआ है और इसकी किसी भी संस्कृति से तुलना संभव नहीं है।
सार्वभौम के आने का अर्थ है स्थानीय संस्कृति का अंत। ग्लोबलाईजेशन के कारण सार्वभौम मूल्यों का लोप हुआ । विभिन्न देशों में सार्वभौम मूल्यों के लिए गंभीर संकट पैदा हुआ। ग्लोबलाइजेशन चूंकि सार्वभौम मूल्यों के विकल्प के रूप में पेश किया गया तो इसके कारण इकसार विचारों की आंधी चलाई गई,इससे मानवाधिकार,लोकतंत्र आदि सार्वभौम मूल्यों की व्यापक स्तर पर क्षति हुई।
बौद्रलार्द ने लिखा है कि ग्लोबलाइजेशन में पहला ग्लोबल तत्व है मार्केट। बाजार में विभिन्न किस्म के मालों का अहर्निश विनिमय,सांस्कृतिक तौर पर प्रतीकों और मूल्यों की छद्म बाढ़ पैदा करता है। खासकर पोर्नोग्राफी का ग्लोबल सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में प्रसार होता है। । श्लील-अश्लील में भेद खत्म हो गया है। नेटवर्क संस्कृति का सबसे बड़ा असर हुआ है कि शारीरिक अश्लीलता जैसी कोई चीज नहीं होती। ग्लोबल का अर्थ है कि आपके पास खाली एक इंटरनेट कनेक्शन होना चाहिए।इसके कारण ग्लोबल और यूनीवर्सल का भेद खत्म हो गया। यूनीवर्सल हठात् ग्लोबल हो गया ।
मानवाधिकारों को इन दिनों सारी दुनिया में अब ठीक वैसे ही वितरित किया जा रहा है जैसे किसी ग्लोबल माल को विश्व बाजार में सर्कुलेट किया जाता है। यानी जैसे तेल या पूंजी आदि ग्लोबल प्रोडक्ट हैं ,वैसे ही अब मानवाधिकार भी ग्लोबल प्रोडक्ट है। बौद्रिलार्द के अनुसार यूनीवर्सल से ग्लोबल में रूपान्तरण के कारण लगातार इकसार बनाने की प्रक्रिया चल रही है, साथ ही अंतहीन फ्रेगमेंटेशन और अपदस्थीकरण के जरिए विकेन्द्रीकरण की बजाय केन्द्रीकरण बढ़ा है। अब भेदभाव और बहिष्कार सोची समझी रणनीति के तहत हो रहा है। पहले भूल से होता था। ग्लोबलाइजेशन ने अपनी विवेकशील जनता को तो नष्ट किया ही साथ ही यूनीवर्सलाइजेशन के कारण पैदा हुई आलोचनात्मक जनचेतना को भी खत्म किया। आधुनिकता और सार्वभौमत्व के तमाम विमर्शों को हाशिए पर डाल दिया ।
आज सार्वभौम आधुनिकता का आईना टूट चुका है। सार्वभौम मूल्य अपना अधिकार और प्रभाव खो चुके हैं। फलतः चीजें और भी ज्यादा अनुदार दिशा में जा रही हैं। जब सार्वभौम मूल्य सामने आए थे तो उसमें भेद और मतभेद के लिए स्थान था ,लेकिन ग्लोबलाइजेशन में सभी किस्म के भेदों का अंत हो गया है। ग्लोबलाइजेशन ने एकदम इनडिफरेंट संस्कृति को जन्म दिया है। सारी दुनिया में आज ग्लोबलाइजेशन का कोई विकल्प नहीं है। ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें लिबर्टी,लोकतंत्र और मानवाधिकार हमें अनाकर्षक और गंदे लग रहे हैं। यानी ग्लोबलाइजेशन ने यूनीवर्सलाइजेशन को अतीत की चीज बना दिया है।
यूनीवर्सलाइजेशन के जमाने में रूपान्तरण,आत्मगतता,अवधारणा,यथार्थ और प्रतिनिधित्व पर जोर था , अब इस सबकी जगह वर्चुअल ग्लोबल कल्चर ने स्क्रीन, नेटवर्क,नम्बर,समय-स्थान की गतिशीलता आदि का विकास किया है। सार्वभौमत्व में प्राकृतिक या नेचुरल चीजों के रूप में शब्द,शरीर और अतीत का अस्तित्व था। विश्वस्तर पर हिंसा और नकारात्मक चीजों के प्रति आलोचनात्मक नजरिए का अंत हो गया है। जबकि पहले नकारात्मक चीजों को आलोचनात्मक ढ़ंग से देखते थे।
वर्तमान युग का पहला संदेश है कि सूचना ही शक्ति है। सूचना मानवाधिकार है। सूचना पाने का अर्थ है मानवाधिकार का विस्तार। सामान्य सूचना और उसका प्रसार आमलोगों में तेजी से असर पैदा करता है।संस्थानों का दुरूपयोग रोकने में सूचनाओं का सार्वजनिक उदघाटन मानव जाति की बहुत बड़ी सफलता है। जिन लोगों ने अहर्निश सत्ता का दुरूपयोग किया है और आम जनता पर बेइंतिहा जुल्म ढाए हैं उनके खिलाफ सूचना, कम्युनिकेशन की अत्याधुनिक तकनीकी और जनता के संघर्षों ने मिलकर नए लोकतांत्रिक समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया है। आज सूचना ने जितनी बड़ी शक्ति अर्जित की है वैसी शक्ति उसके पास पहले कभी नहीं थी। जिस समाज में कम्युनिकेशन की तकनीक,शिक्षा और सचेतन संगठन का त्रिकोण काम करने लगता है वहां पर वर्चस्वशाली व्यक्तियों,सत्ता और संस्थानों के दुरूपयोग को एक्सपोज करना आसान रहा है। नई अत्याधुनिक कम्युनिकेशन की तकनीक ने निरस्त्र जनता के हाथ में कम्युनिकेशन के प्रभावशाली अस्त्र दिया है। आम लोगों में लोकतांत्रिक हकों के लिए लड़ने का जज्बा पैदा किया है।
सत्ताधारी ताकतें संचार माध्यमों और मीडियातंत्र का जमकर दुरूपयोग करती हैं लेकिन नई इंटरनेट कम्युनिकेशन तकनीक ने इस तंत्र के खिलाफ आम जनता के हाथ बहुत ही शक्तिशाली कम्युनिकेशन तंत्र सौंप दिया है। वर्चुअल कम्युनिकेशन तकनीक की शक्ति इन दिनों महानता के नए आयाम बना रही है। वर्चुअल कम्युनिकेशन और एक व्यक्ति की कुर्बानी पूरे क्षेत्र में जन रोष पैदा कर सकती है ,इसका आदर्श उदाहरण है ट्यूनीशिया के एक साल पहले अंदर आरंभ हुआ जनज्वार। मोहम्मद बोउजीजी नामक एक फलों का खोमचा लगाने वाले ने सीदीबौउजीद नामक शहर में पुलिस के उत्पीड़न और गरीबी से तंग आकर आत्मदाह करके जान देदी। मोहम्मद बौउजीद की तरह ट्यूनीशिया की आम जनता बरसों से आर्थिक पामाली और अकल्पनीय कष्टों में जीवन जी रही थी. लेकिन मोहम्मद की आत्मदाह की घटना ने अचानक आम जनता के क्रोध को सड़कों पर उतार दिया। मोबाइल फोन और इंटरनेट के माध्यम से मोहम्मद की आत्मदाह और तकलीफों की खबर पूरे देश में तेजी से कम्युनिकेट हुई और हजारों लोग सड़कों पर उतर आए। खासकर युवाओं ने बड़ी तादाद में प्रतिवाद में जमकर हिस्सा लिया और उत्पीड़क शासकों के खिलाफ आधुनिक कम्युनिकेशन तकनीक के रूपों का जमकर इस्तेमाल किया। ट्यूनीशिया की सरकार ने आम जनता के प्रतिवाद को कुचलने के लिए मीडिया से लेकर पुलिस तक सभी का जमकर दुरूपयोग किया लेकिन आम जनता का प्रतिवाद ट्यूनीशिया में फैलता गया और फिर धीरे-धीरे उसने मध्यपूर्व के बदनाम शासकों के खिलाफ आम जनता को सड़कों पर उतार दिया.ट्यूनीशिया में मोहम्मद की मौत के बाद उठे जनज्वार का यह परिणाम निकला कि ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति ने मात्र एक माह में यानी जनवरी में अपने पद से इस्तीफा दे दिया और देश छोड़कर भागने को मजबूर हुए।उन्होंने सउदी अरब के शहर जद्दाह में जाकर शरण ली। इस तरह ट्यूनीशिया में 20 साल से चले आ रहे उत्पीड़क शासनतंत्र का अंत हुआ। इसके बाद वहां पर आम जनता की शिरकत वाली शासन व्यवस्था आई है जो आम जनता के अधिकारों को सम्मान दे रही है। ट्यूनीशिया के सर्वसत्तावादी तंत्र के दमन-उत्पीडन से सारे लोग परेशान थे और शासकों की गणना इस क्षेत्र के सबसे बदनाम शासकों में होती थी। लेकिन ट्यूनीशिया में ज्यों में बदलाव आया उसका सीधे असपास के देशों अल्जीरिया,बहरीन,मिस्र,जोर्डन,लीबिया .यमन आदि पर भी पड़ा और इन इलाकों की सर्वसत्तावादी अलोकतांत्रिक सरकारों के खिलाफ हजारों-लाखों लोग सड़कों पर उतर आए।
इंटरनेट और मोबाइल नए कम्युनिकेशन उपकरण है लेकिन जनता की समस्याएं पुरानी हैं। नए उपकरणों ने प्रतिवादी स्वर और सम्मान के साथ जीने के भावबोध को पैदा करने में बड़ी भूमिका अदा की है। मोबाइल और इंटरनेट को सत्ताधारियों और बहुराष्ट्रीय संचार कंपनियों के मुनाफे और वर्चस्व का हिस्सा मात्र समझने से इन तकनीकी रूपों के प्रति संतुलित नजरिया नहीं बनेगा। ये कम्युनिकेशन उपकरण आम जनता में सम्मान और स्वाभिमान के साथ जीने, निजता और लोकतंत्र की रक्षा करने का भावबोध पैदा करते हैं। इन दो यंत्रों के आने बाद से नए सिरे से मानवाधिकारों की लहर सारी दुनिया में उठी है। अमेरिका के युद्धपंथी रूझानों के खिलाफ पूंजीवादी देशों में लाखों लोगों का शांति जुलूसों में भाग लेना और मध्यपूर्व का लोकतांत्रिक जनज्वार इस बात का प्रमाण है कि मोबाइल और इंटरनेट ने मानवता को गौरव और शक्ति दी है।
मौजूदा दौर डिजिटल संस्कृति का है, लेकिन कम्युनिकेशन तकनीक कोई जादुई छड़ी नहीं है। कम्युनिकेशन तकनीक का नेटवर्क होने पर जरूरी नहीं है कि आमलोगों में लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति अपील भी हो, यह भी देखा गया है कि जो लोग इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं वे लोकतांत्रिक गतिविधियों में कम भाग लेते हैं। कहने का अर्थ यह है कि तकनीक अपने आप में निर्धारक तत्व नहीं है। लोकतांत्रिक वातावरण और मानवाधिकारों की रक्षा में निर्धारक तत्व है आम जनता की सक्रियता। आम जनता की सक्रियता को कम या ज्यादा करने में कम्युनिकेशन तकनीक मदद कर सकती है लेकिन कम्युनिकेशन तकनीक स्वयं में समाज नहीं बदल सकती। इस संदर्भ में देखें तो कम्युनिकेशन तकनीक सतह पर तटस्थ रहती है। लेकिन तकनीक के उपयोग, जनांदोलन के स्तर और सामाजिक संतुलन के मद्देनजर देखें तो तकनीक तटस्थ नहीं होती बल्कि वर्गसंघर्ष का हिस्सा होती है। जिन समाजों में मोबाइल और इंटरनेट को जनउभार पैदा करने लिए इस्तेमाल किया गया वहां पर कालान्तर में इन्हीं कम्युनिकेशन रूपों का खबरों को दबाने,आंदोलन का दमन करने और आम जनता को परेशान करने के लिए इस्तेमाल किया गया। इस प्रसंग में आदर्श उदाहरण है इराक । कहने को अमेरिका ने घोषणा की है कि उसने अपने सैनिक इराक से हटा लिए हैं। लेकिन सच कुछ और है।
अमेरिका ने इराक में कठपुतली सरकार स्थापित की है। आधिकारिक तौर पर अमेरिकी सेना चली गयी है,लेकिन अमेरिका ने बगदाद में अपना जो दूतावास खोला है वह संकेत देता है कि अमेरिका की सेनाएं इराक में शासन कर रही हैं। अमेरिका के बगदाद स्थित इराकी दूतावास में सोलह हजार कर्मचारी हैं। संभवतः किसी देश में इतने कर्मचारी किसी भी देश के दूतावास में काम नहीं करते। जबकि इराक की आबादी मात्र 28मिलियन है।
बगदाद स्थित अमेरिकी दूतावास दुनिया का सबसे बड़ा दूतावास है। डेढ़ मील लंबे एरिया में फैले इस विशालकाय दूतावास को पेंटागन का छोटा संस्करण कहना सही होगा। इसके स्टाफ में निजी सेनाएं और आधिकारिक सेना की विशाल टुकड़ियाएं हैं। इस दूतावास का अगले पांच साल का बजट 25-30 बिलियन डॉलर है। इस तैयारी को देखकर यह लगता है कि इराक को अमेरिका लंबे समय तक अपने उपनिवेश के रूप में शासन में रखेगा। इराक से सेना हटाने का तो खाली नाटक किया गया है।
इराक में किसतरह की जनहानि अमेरिका को उठानी पड़ी है उसके बारे में ओबामा प्रशान झूठ बोल रहा है। सरकारी तौर पर कहा जा रहा है कि इराक में 32हजार अमेरिकी सैनिक घायल हुए,उल्लेखनीय है अमेरिका ने इराक और अफगानिस्तान में 1.25मिलियन सैनिकों की नियुक्ति की थी। इनमें आधे से ज्यादा लोगों ने यानी तकरीबन छह लाख सैनिकों ने अपंगता क्षतिपूर्ति के दाव् दायर किए हैं। यदि 6लाख सैनिक अपंगता के दावे पेश कर रहे हैं तो सरकारी तौर पर दिया गया घायल सैनिकों का आंकड़ा एकदम निराधार है।
हजारों अमेरिकी सैनिकों को इराक और अफगानिस्तान से लौटने के बाद अनाथों की तरह रात-दिन सड़कों पर गुजारने पड़ रहे हैं।इस तरह के बेसहारा और गृहहीन सैनिकों की सड़कों पर संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। जबकि इराक युद्धपर चार ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा खर्च हो चुका है। इसमें यदि अपंग सैनिकों,गृहहीन सैनिकों आदि को मिलने वाले भत्ते आदि को जोड़ लिया जाए तो यह राशि और भी अधिक बैठेगी।
इराक में जो कुछ घट रहा है वह मानव सभ्यता के इतिहास की विरल अमानवीय घटना है। इराक के तेल के कुओं पर हमलावर सेनाओं का कब्जा है और आम राजनीतिक भाषा में कहें तो इराक के नागरिकों की गुलामों से भी बदतर अवस्था है।अमेरिकी सेनाओं के इराक पर हमले के पहले मध्य-पूर्व में इराक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र था, जहां औरतों को व्यापक स्वतंत्रता प्राप्त थी। इराक की आम जनता खुशहाली की जिंदगी गुजार रही थी और सामान्य जीवन में पूर्ण शांति थी।लेकिन अब हालात एकदम बदल गए हैं।
सीनियर बुश के शासनकाल में सद्दाम हुसैन को नष्ट करने और कुवैत से इराक का कब्जा हटाने के बहाने से हमलावर सेनाओं के जो हमले आरंभ हुए थे वे अभी भी जारी हैं। सद्दाम हुसैन और इराकी प्रशासन के खिलाफ अमेरिका ने झूठे आरोप लगाए और विश्वभर के मीडिया से उसका अहर्निश प्रचार किया ।
तरह-तरह के बहानों के जरिए इराक पर पहले आर्थिक पाबंदी लगायी गयी बाद में कुवैत पर इराक के अवैध कब्जे को हटाने के बहाने हमला किया गया और इस समूची प्रक्रिया ने इराक जैसे संप्रभु राष्ट्र की संप्रभुता को सरेआम रौंदते हुए हमलावर सेनाओं ने अपने कब्जे में ले लिया।
विगत 20 सालों में अमेरिकी पाबंदियों और अमरीका और उसके मित्र देशों की सेना के अवैध कब्जे में इराक का समूचा चेहरा ही बदल गया है। हमलावर सेनाओं की कार्रवाईयों से 50 लाख से ज्यादा इराकी मौत के घाट उतारे जा चुके हैं या लाखों विस्थापित हुए हैं, हजारों को बगैर कारण बताए जेलों में बंद कर दिया गया है।
विचार करने की बात यह है कि ग्लोबल मीडिया और भारत का कारपोरेट मीडिया इराक की इतनी व्यापक तबाही देखकर भी चुप क्यों है ? यह मानवाधिकारहनन का हाल के वर्षों का सबसे क्रूर हादसा है।
एक जमाना था जब सद्दाम के द्वारा मानवाधिकारों के हनन की खबरों को देने के लिए रूप में मीडिया के लोग खास करके टीवी चैनलों के लोग बगदाद में डेरा लगाए हुए थे लेकिन सद्दाम हुसैन के मारे जाने और हमलावर सेनाओं के कब्जे में इराक के आते ही ये सभी चैनल धीरेधीरे इराक को छोड़कर चले आए और यह मान लिया गया कि हमलावर सेनाओं के शासन में इराकी जनता के मानवाधिकार पूर्ण सुरक्षित हैं। सच यह नहीं है।
ग्लोबल मीडिया और भारत के कारपोरेट मीडिया ने हमलावर सेनाओं के सहायक के रूप में अब तक काम किया है। हमलावर सेनाओं के मान-सम्मान की रक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। 50 लाख इराकियों के मारे जाने पर भी कारपोरेट मीडिया के तथाकथित सत्यप्रेमी समाचार संपादकों को इराक की तबाही को अभी तक प्रमुख एजेंडा बनाने की याद नहीं आयी है। सवाल उठता है अमेरिकी मीडिया और उनके भारतीय पिछलग्गू टीवी चैनलों में इराक का नियमित कवरेज क्यों गायब हो गया ? मीडिया को यह जबाब देना होगा कि सद्दाम को सबक सिखाने की इतनी बड़ी कीमत इराक की जनता क्यों दे रही है ?
मीडिया में 9/11 के पीडितों को लेकर जितना प्रचार किया गया उसकी तुलना में सहस्रांश भी इराकी जनता की पीड़ा और कष्टों के बारे में नहीं बताया गया। इराक की जनता के प्रति कारपोरेट मीडिया का यह उपेक्षा भाव सोची समझी योजना का हिस्सा है, इसका प्रधान लक्ष्य है विश्व जनमत के दिलो-दिमाग से इराकी जनता के मानवाधिकार हनन की कार्रवाई को धो-पोंछकर सफाई करना।
इराक के प्रसंग में मूल समस्या यह नहीं है कि कौन सही है बल्कि बुनियादी समस्या है कि एक संप्रभु राष्ट्र पर अमेरिका का अवैध कब्जा कैसे हटाया जाए ? आज इराक में चारों ओर सेना है, प्रतिवादी जत्थे हैं और सिर्फ खून-खराबा है। शांति और मानवाधिकारों की स्थापना के नाम पर आयी अमेरिकी सेना ने समूचे इराक को बम ,बारूद और खून के ढ़ेर में बदल दिया है।
इराक में किसी के पास कोई अधिकार नहीं हैं। लोकतंत्र के नाम पर पाखंड चल रहा है। अमेरिका में रहने वाले आप्रवासी इराकियों की कठपुतली सरकार काम कर रही है और इस सरकार के पास में भी कोई अधिकार नहीं हैं । इराकी प्रशासन की असल बागडोर सीआईए पेंटागन और युद्ध उद्योग के मालिकों के हाथों में है।
संयुक्त राष्ट्र संघ शरणार्थी कमिश्नर के द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि युद्ध के कारण इराक के 24 लाख लोग शरणार्थी बना दिए गए हैं। यह आंकड़ा 30 मई 2010 का है। 50 लाख लोग घरविहीन हैं। ये लोग बेहद खराब अमानवीय स्थितियों में टेंट में जी रहे हैं। ये लोग जहां रह रहे हैं वहां पर पीने का साफ पानी नहीं है, शौचालय नहीं हैं। बिजली नहीं है। इनमें से ज्यादातर लोग रेल लाइनों और पुलों के किनारे पड़े हुए हैं।
तकरीबन 2-3 मिलियन इराकी शरणार्थी सीरिया के शरणार्थी शिविरों में नारकीय अवस्था में जी रहे हैं। एक जमाना था इराक में शिक्षित मध्यवर्ग की मध्यपूर्व के देशों में सबसे बड़ी शिक्षित आबादी थी आज इराक का मध्यवर्ग पूरी नष्ट हो गया है। इराकी औरतों को अमेरिकियों की तरफ से जबर्दस्ती वेश्यावृत्ति के धंधे में ठेला जा रहा है। इराकी बच्चों को बाल मजदूरों के काम में ठेलकर भयानक शोषण किया जा रहा है। इराक में युद्ध से मरने वालों की संख्या चौंकाने वाली है। इतनी बड़ी मात्रा में हिटलर ने भी जर्मनी में यहूदियों को नहीं मारा था। जिन लोगों का हिटलर के हत्याकांड और जनसंहार को देखकर खून खौलता है उनका खून इराकियों की मौत पर ठंड़ा क्यों है ? वे इसका प्रतिवाद क्यों नहीं करते ?
अमेरिका ने 2003 में जब दोबारा हमला किया था उस समय इराक में 20 प्रतिशत जनता स्लम में रहती थी इसकी संख्या 2010 में बढ़कर 53 प्रतिशत हो गयी है। संयुक्तराष्ट्र संघ की "विश्व के शहर 2010-11ठ नामक रिपोर्ट में बताया है कि इराक की जनता का 53प्रतिशत हिस्सा आज स्लम में रहता है। यानी इन लोगों के पास जीने की न्यूनतम बुनियादी सुविधाओं जैसे-पानी,शौचालय,सफाई आदि का अभाव है। शिक्षा और स्वास्थ्य का समूचा ढ़ांचा पूरी तरह तबाह हो गया है। सन् 2007 तक 28 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार थे। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 35फीसदी बच्चे (पचास लाख) अनाथ हो चुके हैं। एक पूरी पीढ़ी है जिसके अभिभावक मारे जा चुके या गायब हो गए हैं।
अमेरिका के साढ़े चार हजार से ज्यादा सैनिक मारे गए हैं,30हजार से ज्यादा जख्मी हुए हैं और हजारों सैनिकों को गंभीर मनो-व्याधियों ने घेर लिया है। तकरीबन 4ट्रिलियन डॉलर इराक-अफगान युद्ध पर खर्च हुआ है और 16 बिलियन डॉलर से ज्यादा की संपत्ति लूटी गई है।
यूनेस्को रिपोर्ट " एजूकेशन अंडर अटैक 2010-इराक" ( 10फरवरी 2010) में जो आंकड़े दिए गए हैं वे दिल दहला देने वाले हैं। ये आंकड़े 2005 के हैं इनके अनुसार इराक में 2003 में अमेरिकी हमले के बाद उच्चशिक्षा के 80प्रतिशत संस्थान यानी कॉलेज-विश्वविद्यालय आदि की इमारतें नष्ट कर दी गयीं। उन्हें जलाया गया या लूटा गया। 25 फीसद से ज्यादा स्कूलों को ध्वस्त कर दिया गया।अकेले मार्च 2003 में इराक के 700प्राथमिक स्कूलों पर बमबारी की गयी।200 स्कूल जलाए गए और 3000 स्कूलों को लूटा गया।बगदाद में शिक्षकों की संख्या 80 फीसद कम हो गयी। सन् 2003 से लेकर 2008 के बीच में इराक में शिक्षा संस्थाओं पर हिंसक हमले की 31,598 वारदातें दर्ज की गयीं।बडे पैमाने पर अकादमिशियनों की हत्याएं की गयीं। मसलन् सन् 2003 में 16 अकामिशियन मारे गए,2004 में 36,2005 में 65,2006 में 113,2007 में 63, 2008 में 19, और 15 अकटूबर 2010 में 16अकादमीशियनों की अमेरिकी सैनिकों के हाथों हत्या हुई है।
इसी तरह मीडियाकर्मियों की बड़े पैमाने पर हत्या की गयी है। मसलन् 2003 में 26 ( इनमें 6इराकी) मीडियाकर्मी मारे गए,2004 में 59 (इनमें 53 इराकी),2005 में 59(इनमें 58 इराकी),2006 में 90 (इनमें 88 इराकी),2007 में 82 (इनमें 81 इराकी),2008 में 19(इनमें 19 इराकी),2009 में 8(इनमें आठों इराकी) और 2010 में 15 अक्टूबर तक 12 इराकी मीडियाकर्मियों की हत्या की गयी। इसके अमेरिकी सेना ने सैंकड़ों विदेशीपत्रकारों को इराक छोड़कर जाने के लिए बाध्य किया।
इराक पर अमेरिकी हमले का एक अन्य आयाम में बड़े पैमाने पर मध्यवर्ग का सफाया। बड़ी संख्या में विभिन्न पेशवर समुदाय के लोगों को देश छोड़ने और शरणार्थी के रूप में बाहर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके अलावा इराकी जनता की सबसे मूल्यवान संपदा थी प्राचीनकालीन पुरातात्विक महत्व की चीजें, इन चीजों के जरिए इराक के सांस्कृतिक वैभव की अनुभूतियां पैदा होती थीं । अमेरिकी सेनाओं ने इस संपदा को खुलेआम लूटा।
" इराकी फ्रीडम" के नाम से चलाए अभियान के तहत बगदाद के राष्ट्रीय संग्रहालय को लूटा गया। 12000 से ज्यादा पुरातात्विक महत्व के स्थानों को लूटा गया। मेसोपोटामिया की पन्द्रह हजार अमूल्य चीजों को लूटा गया।
उल्लेखनीय है इराक पर 1991 में अमेरिका ने "डिजर्ट स्टॉर्म" नाम से हमला किया और 13 सालों तक आर्थिक प्रतिबंध लगाया वह सीधे जनता के मानवाधिकारों का हनन था। इससे पूरा देश तबाह हो गया। कालान्तर में सन् 2003 में फिर हमला किया देश पर कब्जा किया और आर्थिक पाबंदियां लगाईं। ये सारी चीजें मानवाधिकार हनन के दायरे में आती हैं।
मानवाधिकारों पर विचार करते समय यह तथ्य हमेशा ध्यान रहे कि मानवाधिकार सार्वभौम और स्थानीय दोनों एक ही साथ होते हैं। कोई भी सार्वभौम अधिकार ,स्थानीय सांस्कृतिक –राजनीतिक भौतिक आधार के बिना अपना विकास नहीं कर सकता। बुनियादी तौर पर देखें तो कोई भी अधिकार सार्वभौम नहीं होता। स्थानीय सांस्कृतिक-राजनीतिक संदर्भ के बिना कोई भी अधिकार पैदा नहीं होता। प्रत्येक देश का अपना परिप्रेक्ष्य है और उसके संदर्भ में मानवाधिकारों के विकास की प्रक्रिया को देखा जाना चाहिए। अनेक समाज ऐसे हैं जहां पर मानवाधिकारों का संबंध व्यक्ति के अधिकारों से है तो अनेक समाजों में व्यक्ति के अधिकारों की बजाय सामुदायिकता के संदर्भ में मानवाधिकारों की व्याख्या की जाती है। भारत के आदिवासी इलाकों और अफ्रीकी देशों में सामुदायिकता के आधार पर मानवाधिकारों को देखा जाता है। इनदिनों दलित समूहों में यही चेतना नजर आ रही है। वे सामुदायिकता के आधार पर मानवाधिकारों को परिभाषित कर रहे हैं। इसी तरह अनेक लोग हैं जो लिंग के आधार पर स्त्री के मानवाधिकारों को परिभाषित कर रहे हैं। समुदाय के आधार पर जो लोग मानवाधिकारों को परिभाषित करते हैं उनके यहां व्यक्ति और समुदाय के अन्तर्विरोधों को आधुनिक न्याय के आधार पर हल नहीं किया जाता बल्कि अपने निजी कानूनों के आधार पर हल किया जाता है। इसी तरह मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणापत्र को जब पेश किया गया था तो उस समय तक अनेक विकासशील देशों में औपनिवेशिक शासन था अतः तीसरी दुनिया के देशों में मानवाधिकारों की रक्षा के नाम पर पश्चिमी पूंजीवादी देशों को इन देशों में हस्तक्षेप का लाइसेंस मिला हुआ था। लेकिन आज स्थिति बदल गयी है। इसके बाबजूद पश्चिमी पूंजीवादी मुल्क अपनी सत्ता और लूट के विस्तार के लिए तीसरी दुनिया के देशों में मानवाधिकारों की रक्षा के नाम पर आए दिन राजनीतिक-सैन्य हस्तक्षेप करते रहते हैं। जो वस्तुतः संप्रभु राष्ट्र की संप्रभुता और मानवाधिकारों का उल्लंघन है।
पश्चिमी देशों में सार्वभौमत्व को प्रविलेज के रूप में देखा जाता है और इसी आधार पर वे इसका दुरूपयोग भी करते हैं। अनेक ऐसे भी लोग हैं जो आस्था के आधार पर मानवाधिकारों की व्याख्या करते हैं। इनका मानना है कि आस्था को मानवाधिकार में शामिल किया जाए। ईश्वर की वैधता को इसके दायरे में रखकर देखा जाए। जबकि सच यह है कि सार्वभौम मानवाधिकारों की सूची में ईश्वर की वैधता को शामिल नहीं किया गया है। मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषाणा और धर्मविशेष के अधिकारों के बीच अंतर्विरोध है और इस अंतर्विरोध को जानबूझकर मूल मसौदे से निकाल दिया गया ,जबकि आरंभिक मसौदे में आस्था को शामिल किया गया था। मूल रूप से मानवाधिकार और धार्मिक परिप्रेक्ष्य के बीच सीधा अंतर्विरोध है।
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