भारत में अधिकांश राजनेताओं की मुश्किल यह
है कि वे बयान देना जानते हैं लेकिन उसके सामाजिक प्रभाव को नहीं जानते। जबकि
आतंकियों,उग्रवादियों और साम्प्रदायिक संगठनों के नेताओं को मालूम है कि बयान का
क्या असर होता है और उसका किस तरह दुरूपयोग किया जाय। वे अपने बयान के अनुरूप
सामाजिक स्थितियों को मोड़ना और सामाजिक अंतर्विरोधों का दुरूपयोग करना अच्छी तरह
जानते हैं।इस मामले में मीडिया का भी वे प्रभावशाली ढ़ंग से दुरूपयोग करते हैं
जिससे उनकी बातें सही,सटीक और स्वाभाविक लगें। हिंसा और आतंक वैध लगे। यही वजह है
कि अशांति के समय राजनेता कमजोर और विभाजनकारी नेता ज्यादा असरदार दिखते हैं। इस
परिप्रेक्ष्य में देखें तो बोडोलैंड इलाके में बोडो और गैर बोडो समुदायों के बीच
हुए हिंसाचार के प्रसंग में उदार की तुलना में उग्रवादी और साम्प्रदायिक राजनीति
आक्रामक है।
असम
के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई जब 6 जुलाई की हिंसा के बाद बोल रहे थे तो वे नहीं
जानते थे कि उनके बयान का किस तरह बुरा असर होगा। 6 जुलाई2012 को कोकराझार में दो
मुस्लिम नेताओं की बोड़ो उग्रवादियों ने हत्या कर दी। इस हत्याकांड को राज्य सरकार
को गंभीरता से लेना था लेकिन मुख्यमंत्री तरूण गोगोई से इस हत्याकांड के बाद जब
पूछा गया कि राज्य सरकार इस तरह की हिंसा से निबटने के लिए क्या उपाय उठाने जा रही
है तो गोगोई ने कहा कि “हिंसा को रोकने की मैं कोई गारंटी नहीं दे सकता”, उनके बयान ने जातीय घृणा में डूबे हिंसकों के
मनोबल बढ़ा दिया। बाद में 19जुलाई को दो
और लोगों की हत्या हुई इसकी प्रतिक्रिया में बोडो उग्रवादियों के 4लोगों की हत्या
कर दी गयी।
आश्चर्य
की बात है कि इस हत्याकांड के बाद भी सरकार चौकन्नी नहीं हुई और सोई रही। इसका
दुष्परिणाम यह निकला कि बोडो उग्रवादियों ने निर्दोष लोगों की बस्तियों और गांवों
पर हमले बोल दिए और देखते ही देखते इन हमलों की जद में 400 गांव आ गए । हिंसा और
आतंक के कारण इन गांवों से दो लाख से ज्यादा लोग पलायन करने के लिए मजबूर हुए ।
इनलोगों को 120 राहत शिविरों में रखा गया
है। इन शिविरों के खर्चे के लिए केन्द्र सरकार ने 300 करोड़ रूपये की सहायता राशि भी
घोषित की है। इससे शिविर चलाए जाएंगे, मारे गए लोगों और घायलों को क्षतिपूर्ति के
रूप में मुआवजा दिया जाएगा। बोडो उग्रवादियों के हमलों से 80 से ज्यादा लोग मारे
गए हैं और सैंकड़ों लोग घायल हुए हैं। प्रधानमंत्री,गृहमंत्री से लेकर सोनिया
गांधी और मुख्यमंत्री ने इन कैम्पों का दौरा किया है। कायदे से प्रभावित इलाकों में राज्य सरकार ,स्वयंसेवी
संगठनों और मानवाधिकार संगठनों को हिंसाचार के तुरंत बाद सक्रियता दिखानी चाहिए थी
लेकिन वे इन इलाकों में नहीं गए। यह गंभीर
चिन्ता का विषय है।
इससे भी दुखद बात यह है कि संसद में भाजपा और
देश में संघ परिवार ने इस हिंसाकांड को बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों की समस्या
से बेवजह जोड़ दिया । ये संगठन तथ्य और सत्य दोनों पर परादा डाल रहे हैं। इससे
हिंसक ताकतों को बल मिला है। ये ताकतें बोड़ो इलाके में जातीय विद्वेष और हिंसा का
माहौल बनाए रखना चाहती हैं। तत्कालीन गृहमंत्री पी.चिदम्बरम् ने जब राहत शिविरों
का मुआयना करके 31जुलाई को प्रेस कॉफ्रेंस में दावा किया कि असम में तुलनात्मक तौर
शांति लौट आई है तो वे महज आशा जगाने की कोशिश कर रहे थे। सच यह था कि राहतशिविरों
में दो लाख से ज्यादा शरणार्थी पलायन करके आ चुके थे और पहले के जातीय दंगों में
पलायन करके आए लोग अभी भी राहतशिविरों में पड़े हुए हैं और उनको वापस घर भेजने में
सरकार सफल नहीं हुई है। हाल में जो लोग राहतशिविरों में आए हैं वे कब अपने घर
लौटेंगे कोई नहीं जानता। उल्लेखनीय है कि बोडोलैंड इलाके में बोडो जनजाति के लोगों
का वर्चस्व है। लेकिन यह इलाका लंबे समय से संथाली,मुसलमान और बंगालियों की रिहायश
भी रहा है। ब्रिटिश शासनकाल में बड़े पैमाने पर बिहार और पश्चिम के संथालियों को
खेती आदि के कामों के लिए यहां लाकर अंग्रेजों ने बसाया था।
उल्लेखनीय है कि बोडो इलाके को लेकर 10 फरवरी
2003 में बोडो आंदोलनकारियों के साथ राज्य और केन्द्र सरकार के बीच एक समझौता हुआ
था । उस समझौते के तहत बोडोलैंड टेरीटोरियल कौंसिल का गठन किया गया। बोडो उग्रवादियों
ने उसके पहले हथियारों का समर्पण किया था और वायदा किया था कि वे हिंसा का रास्ता
छोड़ देंगे। लेकिन वे इस वायदे को बार बार तोड़ते रहे हैं और गैर बोडो लोगों पर
हमले करते रहे हैं।
बोडोलैंड क्षेत्र परिषद में 4जिले हैं कोकराझार,बासका,उदलगोरी और चिराग।
इसके अलावा इस इलाके के विकास के लिए केन्द्र सरकार ने 100 करोड़ रूपये भी जारी
किए थे। उल्लेखनीय है जिस समय यह समझौता हुआ था उस समय केन्द्र में लालकृष्ण
आडवाणी गृहमंत्री थे और असम में तरूण गोगोई मुख्यमंत्री थे। लेकिन बोडोलैंड परिषद के नेताओं ने इस इलाके में
विकास पर ध्यान देने की बजाय पंगे वाले मसले पहले उठाए और उन्होंने गैर बोडो लोगों
के स्वामित्व वाली जमीन-जायदाद के स्वामित्व को विवादों में डाल दिया। इस विवाद का
वे अभी तक कोई मान्य हल नहीं निकाल पाए हैं। फलतःइस इलाके में सब समय तनाव रहता
है। इसके कारण बोडो एक ओर हैं संथाली और मुस्लिम बंगाली दूसरी ओर हैं।
यह
जातीय ध्रुवीकरण इसलिए भी है कि इस इलाके में लंबे समय से गैर-बोडो बाशिंदों की
संख्या इस इलाके में बोडो बाशिंदों से ज्यादा है। इसमें बंगलादेश से माइग्रेट करके
आकर बसे लोगों की संख्या नगण्य है। बोडो इलाके में वे लोग संख्या में ज्यादा हैं
जो ब्रिटिशशासन काल से यहां रह रहे हैं। संघ परिवार ने आक्रामक प्रचार अभियान के जरिए
सभी माइग्रेट लोगों को बंगलादेशी माइग्रेट मुस्लिम की केटेगरी में डाल दिया है।
संघ
परिवार मांग कर रहा है बोडो इलाके में रहने वाले सभी माइग्रेट लोगों को बाहर
निकाला जाए और दुर्भाग्य से यही मांग बोडो उग्रवादी भी कर रहे हैं। इस तरह बोडो
उग्रवादी और संघ परिवार दो भिन्न संगठन होते हुए भी एक ही जैसी मांग उठा रहे हैं,एक
जैसी भाषा बोल रहे हैं,एक जैसी अफवाहें फैला रहे हैं, इससे बोडो क्षेत्र में तनाव बढ़ा
है। सेना को इस इलाके में उतारने के बावजूद स्थिति सामान्य नहीं बन पायी है और
हिंसा जारी है। दूसरी ओर असम के बाहर अफवाहों का बाजार गर्म है। पूना और बंगलौर
में उत्तर-पूर्व के निवासियों पर अनेक स्थानों पर हमले हुए हैं। मुंबई और दूसरी
जगहों पर मुस्लिम आतंकियों ने सभा के बहाने आम जनता और पुलिस पर हमले किए हैं
जिनमें बड़े पैमाने पर सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान हुआ है और दो लोग मारे गए ।
असम
के जातीय तनाव को कम करने के लिए पहली शर्त है कि आतंकियों,अफवाह उड़ाने वालों और
उत्तर-पूर्व बनाम भारत का विभाजन करके प्रचार करने वालों, बोडो बनाम गैर बोडो
समुदाय के नाम पर वर्गीकरण करके प्रचार करने वालों से सरकार सख्ती से निबटे।
कौन
किस इलाके का पुराना बाशिंदा है कौन नया है, कौन मूल बाशिंदा है और कौन माईग्रेट
करके आकर बसा है, इसके बारे में पहले से तयशुदा नियम कानून हैं और उन कानूनों का
सख्ती से पालन किया जाना चाहिए। हाल ही में कोकराझार और अन्य जिलों से हिंसा के
कारण जिन लोगों ने घर छोड़ा है उन्हें पुनः उन इलाकों में बसाया जाय और प्रभावित
इकाकों में सेना सख्ती से प्रशासन संभाले। जिन लोगों ने उत्तर-पूर्व के लोगों और
अन्य लोगों में एसएमएस,फेसबुक ट्विटर आदि के जरिए अफवाहें फैलायी हैं उनके खिलाफ
सख्त कार्रवाई की जाय।
नमस्कार जगदीश्वर चतुर्वेदी जी। आपके लेखों को पढ़ना किसी घटना को मीडिया के परिप्रेक्ष्य से समझने के साथ-साथ बाकी आयामों को भी समझने में सहायता करती है। लेख काफी संतुलित लगा। लेकिन एक सवाल मन में बना हुआ है कि बांग्लादेश से होने वाली घुषपैठ का क्या वाकई...असम के वर्तमान हालात से कोई संबंध नहीं है। मीडिया में आने वाली खबरों व रपटों में तो घुषपैठ को ही मूल समस्या के रूप में पेश किया जा रहा है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से स्थिति को समझने में काफी सहायता मिली। सुंदर,गंभीर व सारगर्भित आलेख के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।
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