ब्रज संस्कृति का विगत दो सौ सालों में निरंतर ह्रास हुआ है। यह संस्कृति मूलत: साहित्य, भाषा और जीवनशैली से जुड़ी रही है। विगत दो सौ सालों में ब्रज के अंदर साहित्य और संस्कृति का ह्रास हुआ है । हिन्दी लेखकों द्वारा ब्रज भाषा को सबसे पहले साहित्य से सचेत रुप से खदेड़ा गया । ब्रज भाषा के आधुनिकीकरण के प्रयासों को किसी ने हाथ नहीं लगाया। आधुनिककाल के पहले ब्रज भाषा को कविता का भाषा के रुप में प्रतिष्ठा और स्वीकृति प्राप्त थी लेकिन आधुनिक काल आने के बाद ब्रज पर हमले बाहर से नहीं अंदर से हुए , दिलचस्प बात यह है कि ये हमले और किसी ने नहीं किए बल्कि साहित्य के नामी लेखकों ने किए, ख़ासकर खड़ी बोली हिन्दी को साहित्य में प्रतिष्ठित करने के लिए यह काम किया गया और इस क्रम में हिन्दीभाषी क्षेत्र की सभी भाषाएँ पिछड़ गयीं और उनको मुख्यधारा के साहित्य से अलग कर दिया गया । यह काम किया गया खड़ी बोली हिन्दी को जातीय भाषा के रुप में प्रतिष्ठित करने के बहाने, लेकिन हिन्दीभाषी क्षेत्र की भाषाओं और बोलियों के प्रति समान व्यवहार नहीं किया गया। इससे भाषा संहार की प्रक्रिया ने जन्म लिया। यह भाषा संहार उर्दू से लेकर ब्रज तक, अवधी से लेकर भोजपुरी तक फैला हुआ है।
हमारे साहित्यकार और आलोचक भाषा के क्षेत्र में चल रहे इस भाषा संहार के प्रति सचेत होना तो दूर अपितु इस संहार का उपकरण बन गए। कहा गया कि ब्रज को कविता के पद से जब तक हटाया नहीं जाता तब तक खड़ी बोली हिन्दी की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती । हमने हिन्दीभाषी क्षेत्र की जनता के लिए एक ही भाषा को आधार के रुप में चुना और इसी खड़ी बोली हिन्दी को जनसंपर्क भाषा और राष्ट्रीय भाषा बनाने पर इस क़दर ज़ोर दिया कि ब्रज, अवधी आदि भाषाएँ पिछड़ गयीं। भाषाओं और बोलियों में समानता और भाईचारा पैदा करने की बजाय हमने भाषायी प्रतिस्पर्धा और भाषा संहार को किसी न किसी रुप में महिमामंडित किया, हिन्दी भाषी क्षेत्र की आम जनता को आधुनिकीकरण का जो मॉडल पेश किया वह भाषायी संहार पर आधारित था।
हिन्दी भाषी क्षेत्र में जो मध्यवर्ग बना वह अपनी बोली और भाषा के साहित्य से शून्य था , इस मध्यवर्ग ने जब एकबार अपनी भाषा को त्यागा तो फिर उसने खड़ी बोली हिन्दी को अपनाने की बजाय अंग्रेज़ी को अपनी पहचान और प्रतिष्ठा का अंग बना लिया। यह मजेदार फिनोमिना है कि खड़ी बोली हिन्दी के जिन लेखकों ने खड़ी बोली हिन्दी को अपनाने पर ज़ोर दिया वे लेखक कम से कम हिन्दीभाषी क्षेत्र के नागरिकों को खड़ी बोली हिन्दी के प्रति आकर्षित करने में असमर्थ रहे ।
आज़ादी के बाद ख़ासतौर पर ब्रजभाषा , साहित्य और ब्रज संस्कृति का तेज़ी से ब्रज के मध्यवर्ग से अलगाव बढा है। ब्रज में आज भी मध्यवर्ग का एक तबक़ा ब्रजभाषा बोलता है लेकिन लिखता -पढ़ता नहीं है। उसके लिखने - पढ़ने की भाषा अंग्रेज़ी बनती चली गयी। इसके अलावा ब्रज क्षेत्र में सक्रिय शिक्षा संस्थानों में साहित्य और भाषा का अकादमिक स्तर आरंभ से ही बहुत ख़राब रहा है इसने ब्रज और खड़ी बोली हिन्दी के माहौल को क्षतिग्रस्त किया । इस क्षेत्र में जो विश्वविद्यालय हैं वे ब्रज के प्रति कोई लगाव नहीं रखते । वरना इन विश्वविद्यालयों में ब्रजभाषा और साहित्य के उन्नयन और शिक्षण का काम गंभीरता के साथ किया जाता।
कोई भी भाषा तब तक आत्मनिर्भर नहीं बनती जब तक उसके शिक्षण के काम को न किया जाय । हमने मान लिया कि ब्रज भाषा को पढाने की कोई ज़रुरत ही नहीं है। ब्रजभाषा के विगत दो सौ सालों में कितने शब्द मर गए हम नहीं जानते , हमने फ़ील्ड सर्वे करके ब्रजभाषा के विभिन्न जिलों में उतार -चढ़ाव का कोई हिसाब नहीं रखा । हम नहीं जानते कि ब्रज का प्रत्येक जिले के शहर और गाँव में भाषायी नक़्शा किस तरह बदला है।
दिलचस्प बात यह भी है राज्य सरकार और नवोदित मध्यवर्ग और नव-धनाढ्यवर्ग ने भी ब्रजभाषा के अंदर मौजूद वैविध्य और अंतरों को जानने की कभी कोशिश ही नहीं की। हममें से अधिकतर ब्रजभाषा के शब्दों के खो जाने का दर्द नहीं जानते । शब्द के खो जाने या नष्ट होने का अर्थ है ब्रज संस्कृति का क्षय । त्रासद पक्ष यह है कि परिवारीजन मरता है तो हम रोते हैं, शोक मनाते हैं लेकिन जब शब्द मरते हैं तो नोटिस तक नहीं लेते ! आखिरकार भाषा के प्रति हम इतने बेगाने क्यों हो गए हैं? ब्रजभाषा यहाँ के जीवन में रची- बसी है लेकिन इसके साथ घटित दुर्व्यवहार की हमने कभी ठंडे मन से समीक्षा नहीं की। राज्य में सरकारें आई और गईं लेकिन भाषाओं के साथ हमने आंतरिक रिश्ता तोड़ दिया । स्थानीय भाषाओं और संस्कृति के साहित्य को हमने उत्सव, इनाम और इवेंट मात्र बना दिया।
ब्रज का मतलब मंदिर नहीं है, ब्रज का मतलब गऊ या गोवर्धन पर्वत या राधा-कृष्ण का मंदिर नहीं है। संस्कृति को साहित्य और लोकगीतों ने रचा है, पर्वतों और गऊ ने नहीं रचा है। आज हम गऊ, पर्वत या मंदिर के पुराने युग में नहीं लौट सकते। यह ब्रज- संस्कृति का प्रतिगामी नजरिया है। ब्रज के साहित्यकारों ने साहित्य को रजवाड़ों और सामंती संस्कृति से मुक्ति दिलाने का काम किया। मध्यकालीन साहित्यकारों ने गऊ, गोवर्धन या भगवान पर कम से कम ध्यान दिया। लेकिन परंपरावादियों ने ब्रज संस्कृति को गाली,गऊ,भगवान और धार्मिकता में संकुचित कर दिया ।
भगवान और भक्ति ब्रज संस्कृति के कम्युनिकेशन उपकरण हैं, इनको धार्मिकता नहीं समझना चाहिए । यह दुखद है कि ब्रज संस्कृति का आधार ब्रजभाषा का साहित्य था लेकिन हमने साहित्य को धार्मिकता के जरिए अपदस्थ कर दिया, क़ायदे से आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के दौरान साहित्य की प्रक्रियाओं को आधुनिक और सघन बनाया जाता लेकिन हमने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया । इस क्रम में ब्रज के लोककला रुपों का सफ़ाया हुआ ।
हम क्या करें -
(१) भाषिक संरचनाओं और उनमें आ रहे परिवर्तनों का ज़मीनीस्तर पर डाटा एकत्रित किया जाय । ब्रजभाषा का ज़मीनी स्तर फील्डवर्क करके शब्दकोश बनाया जाय।
(२) ब्रजभाषा के उत्थान और प्रचार के लिए यूपी में विभिन्न विश्वविद्यालयों में ब्रजभाषा और अन्य भाषाओं और बोलियों के अध्ययन की व्यापक अकादमिक व्यवस्था की जाय । स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में ब्रजभाषा के स्वतंत्र अध्ययन पर ख़ासतौर पर ज़ोर दिया जाय।
(३) ब्रज के कला रुपों ख़ासकर प्रिफॉर्मिग आर्ट से संबंधित कला रुपों, रासलीला, स्वाँग, नौटंकी, भगतआदि के संरक्षण और विकास के बारे में महत्वाकांक्षी योजना बनाने के लिए पेशेवर लोगों का वर्किंग ग्रुप बनाकर योजना तैयार की जाय।
(४) ब्रज संस्कृति अकादमी का राज्य सरकार गठन करे , इसके जरिए ब्रज कला रुपों के संरक्षण के विकास की महत्वाकांक्षी योजना बनायी जाय, यह गंभीर क़िस्म की अकादमी हो और सारी दुनिया के लोग इसमें आने के लिए तरसें।