गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

जेएनयू छात्र आंदोलन, आतंकवाद और राष्ट्रवाद


जेएनयू छात्र आंदोलन में विभिन्न रंगत की विचारधाराएं सक्रिय रही हैं।इनमें मार्क्सवादी,उग्र वामपंथी, लिबरल,समाजवादी,मुक्त चिंतक,माओवादी आदि शामिल हैं। इन सभी रंगत के विचारों को छात्रसंघ की साधारणसभा में वाद-विवाद करते सहज ही देखा जा सकता है।जेएनयू छात्र आंदोलन की सबसे अच्छी बात है अहिंसा ।इस अर्थ में जेएनयूवाले पक्के बौद्ध हैं।वे वाम नहीं है। किसी भी संस्थान या संगठन की विचारधारा उसके आचरण से तय होती है,विचारों से नहीं।जेएनयू के छात्रों का आचरण बौद्ध परंपरा के करीब है,वाम के नहीं।बौद्ध परंपरा का निर्वाह करते हुए जेएनयू छात्र आंदोलन ने कभी हिंसा नहीं की और न कभी हिंसा का समर्थन किया। असहमति और संवाद को छात्र जीवन की धुरी बनाया। यह भी उल्लेखनीय है कि जेएनयू छात्रसंघ में कभी कोई क्रिमिनल चुनकर नहीं आया।

जेएनयू छात्रसंघ देश में अकेला छात्रसंघ है जो पूरी तरह स्वायत्त है, वि.वि. प्रशासन से उसका कोई संबंध नहीं है।छात्रसंघ अपने फैसले खुद लेता है और अपनी सारी गतिविधियों की सभी जानकारी छात्रों को पर्चे आदि के माध्यम से मुहैय्या कराता है। छात्रों को वहां चुने गए नेताओं से ज्यादा अधिकार प्राप्त हैं, छात्र चाहें तो छात्रसंघ के द्वारा तय लिए गए फैसले रद्द कर सकते हैं।इस तरह की व्यवस्था दुनिया में कहीं पर भी नहीं है। जेएनयू छात्रों ने अनेक आंदोलन किए हैं लेकिन हिंसा का कभी सहारा नहीं लिया।इस अर्थ में वे पक्के बौद्ध हैं।

जेएनयूछात्रसंघ की परंपरा मेें कभी किसी भी आतंकी या पृथकतावादी संगठन के पक्ष में कोई प्रस्ताव पास नहीं हुआ है।हमेशा समय-समय पर आतंकवाद और उससे जुड़े आंदोलनों की जेएनयू छात्रसंघ ने निंदा की है और उसके खिलाफ छात्रों को एकजुट किया है।मैं स्वयं 7साल तक जेएनयू की छात्र राजनति में सक्रिय रहा हूँ और यह वह दौर था जब पंजाब से लेकर असम तक,उत्तर-पूर्व से लेकर कश्मीर तक आंदोलन और हिंसाचार जारी था।इसलिए यह कहना कि जेएनयू के छात्र आतंकवाद के समर्थक हैं,कश्मीर की आजादी के समर्थक हैं,अफजल के समर्थक हैं,एकसिरे से गलत है। जेएनयू के छात्र किस ओर हैं यह बात छात्रसंघ के प्रस्तावों के जरिए,पदाधिकारियों के बयानों के जरिए समझी जानी चाहिए,न कि नारों या पोस्टरों के जरिए।

आरएसएस के लोग झूठा प्रचार कर रहे हैं कि जेएनयू के छात्र आतंकियों को समर्थन दे रहे हैं,वे प्रमाण पेश करें कि छात्रसंघ ने क्या कभी कोई प्रस्ताव आतंकियों के समर्थन में पास किया है ? मीडियावाले प्रमाण पेश करें।

आतंकियों के पक्ष में जेएनयू की दीवारों पर लिखे नारों या किसी संगठन के द्वारा बांटे गए पर्चों या नारेबाजी के लिए जेएनयू छात्रसंघ जिम्मेदार नहीं है। यदि कोई छात्र संगठन जेएनयू में आतंकियों का समर्थन करता है तो यह उस संगठन की राय है जेएनयू छात्रसंघ की राय नहीं है,जेएनयू के छात्रों की राय नहीं है।जेएनयूके छात्रों की राय का प्रतिनिधित्व जेएनयूछात्रसंघ करता है।वही एकमात्र आवाज है उनकी।

जेएनयू छात्र आंदोलन राष्ट्रवाद और आरएसएस


    जेएनयू छात्र आंदोलन के लिए 'अन्य' ( 'अदर' 'हाशिए के लोग') बहुत ही महत्वपूर्ण है। संयोग है कि जेएनयू के अकादमिक वातावरण,पाठ्यक्रम और अकादमिक संस्कृति का मूलाधार भी यही है। जेएनयूछात्र संघ के बिना जेएनयू की परिकल्पना असंभव है,छात्रसंघ जेएनयू आत्मा है। आज यही मूलाधार संकटग्रस्त है, उस पर केन्द्र सरकार के जरिए हमले संगठित किए जा रहे हैं। जेएनयू में अन्य या अदर के हकों की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। जेएनयू में छात्रों की हर स्तर पर भागीदारी है,जेएनयू में छात्रों की सलाह को तरजीह दी जाती रही है,उनको स्वतंत्र और स्वायत्त माहौल दिया गया है।

        जेएनयू के लिए राष्ट्रवाद का मतलब वह नहीं है जो संघियों या बुर्जुआ कांग्रेस के लिए है।जेएनयू छात्र आंदोलन की साझा समझ रही है कि भारत सांस्कृतिक-जातीय और धार्मिक विविधतावाला देश है।जेएनयू के जन्म के बाद से इस थीम पर हजारों पर्चे और अनेकों प्रस्ताव इस समझ के आधार पर छात्रसंघ ने प्रकाशित किए हैं।जेेएनयू के छात्रों की नजर में भारत के राष्ट्र की धुरी धर्म नहीं नागरिक हैं।राष्ट्रचेतना की धुरी धार्मिक चेतना नहीं,नागरिकचेतना है।जेएनयू में ताकतवर की पूजा नहीं होती,लोकतंत्र की पूजा होती है, उसका सम्मान होता है।वहां जनता यानी छात्रों के सहयोग से लोकतांत्रिक शक्ति पैदा हुई है।जेएनयू के छात्र आंदोलन की प्रेरणा के स्रोत अन्य या अदर या हाशिए के लोगों के आंदोलन हैं।जेएनयू में छात्रचेतना की धुरी है- छात्रों को शिक्षित करो, लोकतांत्रिक बनाओ और संगठन की कला सिखाओ।

इसके विपरीत आरएसएस की विचारधारा में अन्य के लिए कोई जगह नहीं है,लोकतंत्र के लिए कोई जगह नहीं है,आरएसएस की विचारधारा का आधार जनता नहीं हिन्दुत्व है,गोलवलकर की विचारधारा है।यही वजह है कि जेएनयू के आम वातावरण में आरएसएस का कभी कोई बहुत बड़ा आधार नहीं बन पाया।आरएसएस देश में जिन छात्रसंघों को नियंत्रित करता है वहां किसी भी संगठन में लोकतंत्र और संवाद की परंपरा नहीं है,ऐसी स्थिति में जेएनयू छात्र आंदोलन और आरएसएस में यदि सीधे टकराव नजर आ रहा है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

ईमानदार पेशेवर शिक्षण और विचारधारा

          मुझे निजी तौर पर जिन शिक्षकों से पढ़ने का मौका मिला वे सभी पेशेवर ईमानदार शिक्षक थे।मथुरा में नगरपालिका के प्राइमरी स्कूल जवाहर लाल स्कूल, माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय और अंत में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जिन शिक्षकों से पढ़ने का मौका मिला वे अध्ययन-अध्यापन के प्रति एकदम पेशेवर नजरिया रखते थे,विद्यार्थियों के साथ बेहद मानवीय व्यवहार करते थे।फलतः मेरे मन में पेशेवर शिक्षक बनने की भावना पैदा हुई,एक ऐसा शिक्षक बनने की भावना पैदा हुई जो शिक्षा के प्रति ईमानदार रहे,पेशेवर तैयारी के साथ कक्षा में जाए,शिक्षा को धंधा न बनाए,मेरा कोई भी शिक्षक धंधेबाज नहीं था।दिलचस्प बात यह कि जितने भी शिक्षक मिले वे किसी न किसी विचारधारा को मानते और जानते थे,उनके पास राजनीतिक नजरिया था।एकमात्र आचार्य सवलकिशोर पाठक ऐसे थे जो कभी राजनीति पर नहीं बोलते थे, वे दर्शनशास्त्र के बहुत ही बेहतरीन विद्वान थे, व्यवहार में वे कांग्रेसी विचारधारा से प्रभावित थे,लेकिन आम बातचीत में छात्रों से राजनीति की कभी बातें नहीं करते थे।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि किसी भी शिक्षक ने राजनीति करने के लिए मेरे या अन्य के साथ बुरा व्यवहार नहीं किया।जेएनयू में पढ़ते समय तो अनेक मर्तबा गुरूजनों के खिलाफ ही आंदोलन करना पड़ा लेकिन कभी भी यह महसूस नहीं हुआ कि विचारधारा जहर है,विचारधारा के कारण शिक्षक परेशान कर रहे हैं।शिक्षकों से वैचारिक मतभेद सामान्य चीज थी,इससे शिक्षकों के साथ कभी टकराव पैदा नहीं हुआ,यह जमा पूंजी थी मेरे छात्र जीवन की जिसको लेकर मैं अध्यापकीय जीवन में दाखिल हुआ।मैंने निजी तौर पर अनेक शिक्षकों को जेएनयू ,डीयू आदि में देखा था जो छात्रों से राजनीतिक मतभेद के कारण दुर्व्यवहार करते थे।जेएनयू में कभी-कभी यह प्रवृत्ति नामवरजी के अंदर अभिव्यक्त होती थी,जिसके कारण छात्रों के साथ उनका टकराव होता था।इस पूरे अनुभव का निचोड़ यह कि शिक्षक को कभी विचारधारा के डंडे से अपने विद्यार्थियों को नहीं हांकना चाहिए।जो शिक्षक राजनीतिक विचारधारा के डंडे से हांकेगा वह छात्रों का अहित ही करेगा।

शिक्षा में राजनीति होगी,राजनीति होनी भी चाहिए,लेकिन श्रेष्ठ राजनीति करो,लेकिन पठन-पाठन को गौण न बनाओ। निकृष्ट राजनीति मत करो।छात्रों को राजनीति करने,अपनी विचारधारा,अपने मन का छात्र संगठन चुनने की आजादी हो,हर मसले पर उनकी राय लो,हर स्तर उनकी शिरकत को सुनिश्चित करो,शिक्षा को पेशेवर और ईमानदार आचरण का आईना बनाओ।यही मनोदशा थी जिसे लेकर मैंने 1989 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में लेक्चरर के रूप में नौकरी ली,जब कोलकाता आया था तो बड़े सपने थे मन में,लेकिन कलकत्ता विश्वविद्यालय में काम करने के साथ ही चंद दिनों में सारे सपने दफ्न करने पड़े,इसका एकमात्र कारण वाम राजनीति थी, आयरनी यह कि वाम ने ही सपने पैदा किए,वाम ने ही सपने दफ्न किए।इसलिए मेरे अंदर सपनों के दफ्न हो जाने का दुख नहीं था।

कोलकाता में पढ़ाते हुए 27साल हो गए,इन वर्षों में जो कुछ देखा है वह त्रासद ज्यादा है, सुखद कम है। सुखद यह है कि मैंने सीमित संसाधनों और तमाम किस्म की प्रतिकूल अमानवीय परिस्थितियों के बावजूद कभी शिक्षक के रूप में कक्षा को कम करके नहीं लिया,कक्षा मेरे लिए आज भी सर्वोच्चसुख है,समय पर कक्षा में जाना और पूरा समय कक्षा में रहना यह मेरी आदत है।मेरे लिए कक्षा बहुत बड़ी प्रयोगशाला है,जिसमें मुझे सबसे ज्यादा सीखने को मिला।मैंने अपने विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए जो सीखा वह बेहद मूल्यवान है और उसका मैंने अपने जीवन में तो लाभ उठाया ही अपनी किताबों के लेखन में भी लाभ उठाया। मेरी अधिकांश किताबें सबसे पहले बीज रूप में कक्षाओं में ही पैदा हुईं,पढ़ाते हुए नए विचारों की हवा कक्षा में ही मिली,मेरे लिए छात्र एक तरह से ईंधन का काम करते रहे हैं, मैं पढ़ाता नहीं तो संभवतः किताबें नहीं लिख पाता।मेरे अधिकतर विद्यार्थी नहीं जानते कि वे मुझे क्या दे रहे हैं,लेकिन मैं सचेत रूप से उनसे लेता रहा हूँ।पेशेवर ईमानदारी से जितना बन पड़ा कक्षा में किया,जो कक्षा में नहीं कर पाया वह किताबें लिखकर किया।जिससे भविष्य में ज्ञान का सही इस्तेमाल हो।दिलचस्प बात यह कि मैंने कभी किताबी ढ़ंग से नहीं पढ़ाया,इसका बड़ा कारण था कि मैं जिन शिक्षकों से पढ़कर आया था वे किताबी ढ़ंग से नहीं पढ़ाते थे। मेरा मानना है कि एक बेहतरीन शिक्षक वह जो कक्षा में पढ़ते समय घुल-मिल जाए,विषय में रमकर पढ़ाए,पढ़ाते समय दिमाग की बंद खिड़कियों को खोले,आलोचनात्मक विवेक पैदा करे।मेरे लिए कक्षा का मतलब क्लास नोटस लिखाना नहीं था।मैंने कभी नोटस नहीं लिखाए।मेरे लिए पढ़ाने का मतलब है विद्यार्थी में पढ़ने की दिलचस्पी पैदा करना,पढ़ने की ललक पैदा करना,ज्ञान के लिए बेचैनी पैदा करना,यह काम जिस तरह हो पेशेवर ढ़ंग से किया जाय।मैं नहीं जानता इसमें कहां तक सफल हुआ, कहां तक असफल हुआ,लेकिन मेरे पढ़ाने का रास्ता यही रहा है।



मैंने जब नौकरी आरंभ की तो कलकत्ता विश्वविद्यालय में आधुनिक आलोचना तकरीबन नहीं पढ़ाई जाती थी, परंपरागत पाश्चात्य समीक्षा और संस्कृत काव्यशास्त्र एक अतिथि अध्यापक पढ़ाते थे नाम था सदानंद सिंह,वे प्रेसीडेंसी में शिक्षक थे।मैंने उनसे एकदिन पूछा कि आप किस तरह पढ़ाते हैं,उन्होंने ईमानदारी से कहा रटकर आता हूँ कक्षा में जाकर उगल देता हूँ।मेरे लिए यह चौंकाने वाली चीज थी। इससे मुझे अंदाजा लगा कि रट्टूभाव से यदि शिक्षक पढ़ा रहा है तो वह आखिर किस तरह का वातावरण बना रहा है,रट्टूभाव से पढ़ाने का अर्थ है शिक्षा को सुला देना।कक्षा में जब गया तो और भी चौंकानेवाला अनुभव हुआ,हिन्दी साहित्य का इतिहास कोर्स में था, लेकिन विद्यार्थियों ने रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम तक नहीं सुना था। पूछा कि किसका लिखा इतिहास पढ़ते हो तो पता चला किसी शिवकुमार शर्मा नामक व्यक्ति का लिखा इतिहास पढ़ते हैं,खोजबीन की तो पता चला सारा कलकत्ता उनका इतिहास पढ़ता है,यानी पूरे शहर से रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी गायब थे,जबकि वे स्वयं मेरे विभाग में आ चुके थे,कोलकाता शहर तो वे और उनकी दूसरी परंपरा वाले लोग साल में कई बार आते थे,लेकिन साहित्य के विद्यार्थियों में उनका कोई असर नहीं था।पता चला यह शिवकुमार शर्मा नामक व्यक्ति कुंजीलेखक है,मैं मार्क्सवादी आलोचक शिवकुमार मिश्र समझ रहा था.इससे यह भ्रम भी टूटा कि किसी शहर में बड़े प्रगतिशील साहित्यकार भाषण देने आते-जाते हैं तो उनसे साहित्य के विद्यार्थी प्रभावित नहीं होते, बल्कि वे कक्षा में पठन-पाठन से प्रभावित होते हैं।मुझे खुशी है कि मेरे आने के बाद पहलीबार कलकत्ते के छात्रों को रामचन्द्र शुक्ल-हजारीप्रसाद द्विवेदी के इतिहासग्रंथ पढ़ने की जरूरत महसूस हुई।पहलीबार इतिहास के कुंजीलेखक से छात्रों का संबंध टूटा।इसी तरह कलकत्ता वि.वि. में जयशंकर प्रसाद पर विशेषपत्र दसियों साल से पढ़ाया जा रहा था,लेकिन किसी ने मुक्तिबोध की किताब का जिक्र तक नहीं किया था, मुक्तिबोध की प्रसिद्ध किताब है ‘कामायनी एक पुनर्विचार’,इसका कोई जिक्र नहीं था, छात्र मुक्तिबोध का नाम तक नहीं जानते थे।क्योंकि वे पाठ्यक्रम में नहीं थे।पाठ्यक्रम में कोई सामयिक चीज,सामयिकलेखक नहीं पढ़ाया जाता था।मैंने पहलीबार जब पाठ्यक्रम बदलने पर जोर दिया , जिंदालेखकों को पढ़ाने पर जोर दिया तो इस पर बड़ी तीखी बहस हुई,कलकत्ता वि.वि. में उस समय जिंदा लेखक नहीं पढ़ाया जाता था और जिंदा लेखक पर शोध नहीं होता था।मैंने सबसे पहले अपने साथ पीएचडी करने के लिए जिंदालेखक चुनने में शोधार्थियों को मदद की तो बहुत तीखी बहस हुई,उसके बाद जिंदालेखक का प्रवेश हुआ।मेरे साथ रामविलाश शर्मा और नामवर सिंह ये दो जिंदा लेखक थे जिन पर शोध सबसे पहले हुए।इसके पहले कलकत्ता वि.वि. में जिंदालेखक को पढ़ाना और उस पर शोध कराना बंद था।आज पाठ्यक्रम में अनेक जिंदा लेखक पढाए जाते हैं,जिंदालेखकों पर शोध हो रहा है।यही तो सुख है।

बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

कलकत्ते के खट्टे-मीठे अनुभव-


मैं सन्1989 में कोलकाता आया,जिस समय मेरी नियुक्ति कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में हुई उस समय हिन्दी एम.ए. में तकरीबन 45 छात्र पढ़ते थे।आज प्रत्येक सेमिस्टर में 125 छात्र पढते हैं।एम.फिल् भी है।मेरी नियुक्ति के पहले तक कलकत्ता वि.वि. में एससी,एसटी, आरक्षण नहीं था।कॉलेज सर्विस कमीशन में भी आरक्षण के आधार पर पद नहीं भरे जाते थे। यह समस्या जब मेरी नजरों में पहलीबार सामने आई तो मैंने इसे माकपा के शीर्ष नेतृत्व के सामने रखा और अंतमें काफी जद्दोजहद के बाद आरक्षण लागू हुआ। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि हिन्दी एमए का पाठ्यक्रम तकरीबन30सालों से नहीं बदला गया था,उसमें निरंतर अपडेटिंग की प्रक्रिया आंरंभ हुई। इस काम में विभाग के अन्य शिक्षकों ने सहयोग किया,लेकिन पहल मैंने की। आज पश्चिम बंगाल हिन्दी के पठन-पाठन के लिहाज से बहुत विकास कर गया है,इसमें वाम सरकारों की बड़ी भूमिका रही है।अनेक विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ायी जाती है।

कलकत्ते का सारा माहौल पुराने पैटर्न,आदतों,संस्कारों पर टिका है।नई दुनिया का उसमें प्रवेश बेहद धीमी गति से हो रहा है।चीजें बदल रही हैं लेकिन बेहद धीमी गति से। विद्यार्थियों के सामने सबसे बड़ी समस्या है पुस्तकों की।जरूरत की पुस्तकों को पढ़ने-पढ़ाने का यहां रिवाज कम है।अधिकतर शिक्षक भी उससे अपरिचित हैं।इसके कारण विद्यार्थियों तक सही सूचनाएं ,पुस्तकों के नाम नहीं पहुँच पाते। स्थिति की गंभीरता समझने के लिए मैं अपना एक अनुभव साझा करना चाहता हूँ।हमलोगों ने एमफिल् का पाठ्यक्रम आरंभ किया। पहला बैच था,उसमें मुझे साहित्य का समाजशास्त्र पढ़ाना था,किताबें नहीं मिल रही थीं, मैंने स्व.विष्णुकांत शास्त्री,जो विभाग के वरिष्ठतम प्रोफेसर थे,बेहतरीन शिक्षक थे, से पूछा कि मुझे मिखाइल बाख्तिन पढ़ाना है,क्या आपके पास उनकी कोई किताब है,वे बोले मैंने तो नाम ही पहलीबार सुना है,मैं सुनकर चौंक गया।दूसरे दिन मैंने भाषाविज्ञान विभाग के एक प्रोफेसर से पूछा कि क्या उनके पास बाख्तिन की कोई किताब है तो वे बोले, हां,वे बोले मेरे पास सब किताबें हैं,मैंने शास्त्रीजी से कहा कि देखिए कितना अंतर है ,हिन्दी के प्रोफेसर को नाम तक नहीं मालूम और भाषाविज्ञान के प्रोफेसर के पास किताबें तक हैं।इस एक घटना ने मेरी आंखें खोल दी साथ में यह भी मैसेज दिया कि हिन्दी के शिक्षक आधुनिक विचारकों के लेखन से परिचित होना तो दूर,उनका नाम तक नहीं जानते। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से मैंने काम आरंभ किया।

मैं जेएनयू से पढ़कर आया था,नए विषय,नए विचारक,सिद्धान्तकार आदि के बारे में गुरूमुख पढ़कर आया था अतःमेरे सामने वह संकट नहीं था जो यहां के शिक्षकों के सामने संकट था। कहने का आशय यह कि विद्यार्थी ज्ञान के नए स्रोतों से बाकिफ तब होगा जब शिक्षक बाकिफ होगा।कोलकाता जैसे महानगर में रहते हुए दुनिया के ज्ञान के बेखबर रहने वाला शिक्षक निश्चित रूप से तेजगति से अपना विकास नहीं कर सकता। पहले ज्ञान-विज्ञान के नए क्षितिज शिक्षक स्पर्श करे,बाद में वह अपने विद्यार्थियों को मौका दे,सारी समस्या की जड़ यहां पर है।



मैं जब कोलकाता आया तो मैंने पता किया कि यहां विदेशी किताबें कहां मिलती हैं ? पता चला कि विदेशी पुस्तक भंडार नाम से एक किताबों की दुकान है,मैं दुकानदार से मिला,उसने नई-नई किताबें दिखायीं,बात करने पर पता चला कि नामवरजी जब भी कलकत्ता आते हैं उस किताब वाले के यहां जरूर आते हैं, मैं नामवरजी से उस किताबवाले के बारे में जेएनयू में छात्रजीवन में सुन चुका था, नामवरजी जब भी कोलकाता आते सेमीनार आदि से जो भी रूपये मिलते उससे उस पुस्तक बिक्रेता से किताबें खरीदकर ले जाते।साल में कम से कम 3-4बार उनका कोलकाता आना होता था, मैंने किताब वाले से पूछा क्या कोई और हिन्दी का शिक्षक भी उससे किताबें खरीदने आता है तो उसने कहा कि हिन्दी का कोई शिक्षक कभी किताब खरीदने नहीं आया।यह वाकया इसलिए बताना जरूरी है कि हिन्दी शिक्षकों के दुनिया से संपर्क-संबंध को हम पहचान सकें।कलकत्ता वि.वि.की लाइब्रेरी से कभी किसी हिन्दी शिक्षक ने 1989 तक पश्चिमी समीक्षा की किताबें, आलोचना की नई किताबें निकलवाकर नहीं पढ़ीं,मैं पहला शिक्षक था जो किताबें निकालकर लाता और पढ़ता था।मेरे लिए यह सारी चीजें बेहद निराशा पैदा करने वाली थीं,जब आप नई किताबें नहीं पढ़ेंगे तो नई बहसों में शामिल कैसे होंगे, ज्ञान के समुद्र में दुनिया के साथ हिन्दीवालों को कैसे जोड़ेंगे? यह काम आशीर्वाद मात्र से नहीं हो सकता।

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...