मुझे निजी तौर पर जिन शिक्षकों से पढ़ने का मौका मिला वे सभी पेशेवर ईमानदार शिक्षक थे।मथुरा में नगरपालिका के प्राइमरी स्कूल जवाहर लाल स्कूल, माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय और अंत में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जिन शिक्षकों से पढ़ने का मौका मिला वे अध्ययन-अध्यापन के प्रति एकदम पेशेवर नजरिया रखते थे,विद्यार्थियों के साथ बेहद मानवीय व्यवहार करते थे।फलतः मेरे मन में पेशेवर शिक्षक बनने की भावना पैदा हुई,एक ऐसा शिक्षक बनने की भावना पैदा हुई जो शिक्षा के प्रति ईमानदार रहे,पेशेवर तैयारी के साथ कक्षा में जाए,शिक्षा को धंधा न बनाए,मेरा कोई भी शिक्षक धंधेबाज नहीं था।दिलचस्प बात यह कि जितने भी शिक्षक मिले वे किसी न किसी विचारधारा को मानते और जानते थे,उनके पास राजनीतिक नजरिया था।एकमात्र आचार्य सवलकिशोर पाठक ऐसे थे जो कभी राजनीति पर नहीं बोलते थे, वे दर्शनशास्त्र के बहुत ही बेहतरीन विद्वान थे, व्यवहार में वे कांग्रेसी विचारधारा से प्रभावित थे,लेकिन आम बातचीत में छात्रों से राजनीति की कभी बातें नहीं करते थे।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि किसी भी शिक्षक ने राजनीति करने के लिए मेरे या अन्य के साथ बुरा व्यवहार नहीं किया।जेएनयू में पढ़ते समय तो अनेक मर्तबा गुरूजनों के खिलाफ ही आंदोलन करना पड़ा लेकिन कभी भी यह महसूस नहीं हुआ कि विचारधारा जहर है,विचारधारा के कारण शिक्षक परेशान कर रहे हैं।शिक्षकों से वैचारिक मतभेद सामान्य चीज थी,इससे शिक्षकों के साथ कभी टकराव पैदा नहीं हुआ,यह जमा पूंजी थी मेरे छात्र जीवन की जिसको लेकर मैं अध्यापकीय जीवन में दाखिल हुआ।मैंने निजी तौर पर अनेक शिक्षकों को जेएनयू ,डीयू आदि में देखा था जो छात्रों से राजनीतिक मतभेद के कारण दुर्व्यवहार करते थे।जेएनयू में कभी-कभी यह प्रवृत्ति नामवरजी के अंदर अभिव्यक्त होती थी,जिसके कारण छात्रों के साथ उनका टकराव होता था।इस पूरे अनुभव का निचोड़ यह कि शिक्षक को कभी विचारधारा के डंडे से अपने विद्यार्थियों को नहीं हांकना चाहिए।जो शिक्षक राजनीतिक विचारधारा के डंडे से हांकेगा वह छात्रों का अहित ही करेगा।
शिक्षा में राजनीति होगी,राजनीति होनी भी चाहिए,लेकिन श्रेष्ठ राजनीति करो,लेकिन पठन-पाठन को गौण न बनाओ। निकृष्ट राजनीति मत करो।छात्रों को राजनीति करने,अपनी विचारधारा,अपने मन का छात्र संगठन चुनने की आजादी हो,हर मसले पर उनकी राय लो,हर स्तर उनकी शिरकत को सुनिश्चित करो,शिक्षा को पेशेवर और ईमानदार आचरण का आईना बनाओ।यही मनोदशा थी जिसे लेकर मैंने 1989 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में लेक्चरर के रूप में नौकरी ली,जब कोलकाता आया था तो बड़े सपने थे मन में,लेकिन कलकत्ता विश्वविद्यालय में काम करने के साथ ही चंद दिनों में सारे सपने दफ्न करने पड़े,इसका एकमात्र कारण वाम राजनीति थी, आयरनी यह कि वाम ने ही सपने पैदा किए,वाम ने ही सपने दफ्न किए।इसलिए मेरे अंदर सपनों के दफ्न हो जाने का दुख नहीं था।
कोलकाता में पढ़ाते हुए 27साल हो गए,इन वर्षों में जो कुछ देखा है वह त्रासद ज्यादा है, सुखद कम है। सुखद यह है कि मैंने सीमित संसाधनों और तमाम किस्म की प्रतिकूल अमानवीय परिस्थितियों के बावजूद कभी शिक्षक के रूप में कक्षा को कम करके नहीं लिया,कक्षा मेरे लिए आज भी सर्वोच्चसुख है,समय पर कक्षा में जाना और पूरा समय कक्षा में रहना यह मेरी आदत है।मेरे लिए कक्षा बहुत बड़ी प्रयोगशाला है,जिसमें मुझे सबसे ज्यादा सीखने को मिला।मैंने अपने विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए जो सीखा वह बेहद मूल्यवान है और उसका मैंने अपने जीवन में तो लाभ उठाया ही अपनी किताबों के लेखन में भी लाभ उठाया। मेरी अधिकांश किताबें सबसे पहले बीज रूप में कक्षाओं में ही पैदा हुईं,पढ़ाते हुए नए विचारों की हवा कक्षा में ही मिली,मेरे लिए छात्र एक तरह से ईंधन का काम करते रहे हैं, मैं पढ़ाता नहीं तो संभवतः किताबें नहीं लिख पाता।मेरे अधिकतर विद्यार्थी नहीं जानते कि वे मुझे क्या दे रहे हैं,लेकिन मैं सचेत रूप से उनसे लेता रहा हूँ।पेशेवर ईमानदारी से जितना बन पड़ा कक्षा में किया,जो कक्षा में नहीं कर पाया वह किताबें लिखकर किया।जिससे भविष्य में ज्ञान का सही इस्तेमाल हो।दिलचस्प बात यह कि मैंने कभी किताबी ढ़ंग से नहीं पढ़ाया,इसका बड़ा कारण था कि मैं जिन शिक्षकों से पढ़कर आया था वे किताबी ढ़ंग से नहीं पढ़ाते थे। मेरा मानना है कि एक बेहतरीन शिक्षक वह जो कक्षा में पढ़ते समय घुल-मिल जाए,विषय में रमकर पढ़ाए,पढ़ाते समय दिमाग की बंद खिड़कियों को खोले,आलोचनात्मक विवेक पैदा करे।मेरे लिए कक्षा का मतलब क्लास नोटस लिखाना नहीं था।मैंने कभी नोटस नहीं लिखाए।मेरे लिए पढ़ाने का मतलब है विद्यार्थी में पढ़ने की दिलचस्पी पैदा करना,पढ़ने की ललक पैदा करना,ज्ञान के लिए बेचैनी पैदा करना,यह काम जिस तरह हो पेशेवर ढ़ंग से किया जाय।मैं नहीं जानता इसमें कहां तक सफल हुआ, कहां तक असफल हुआ,लेकिन मेरे पढ़ाने का रास्ता यही रहा है।
मैंने जब नौकरी आरंभ की तो कलकत्ता विश्वविद्यालय में आधुनिक आलोचना तकरीबन नहीं पढ़ाई जाती थी, परंपरागत पाश्चात्य समीक्षा और संस्कृत काव्यशास्त्र एक अतिथि अध्यापक पढ़ाते थे नाम था सदानंद सिंह,वे प्रेसीडेंसी में शिक्षक थे।मैंने उनसे एकदिन पूछा कि आप किस तरह पढ़ाते हैं,उन्होंने ईमानदारी से कहा रटकर आता हूँ कक्षा में जाकर उगल देता हूँ।मेरे लिए यह चौंकाने वाली चीज थी। इससे मुझे अंदाजा लगा कि रट्टूभाव से यदि शिक्षक पढ़ा रहा है तो वह आखिर किस तरह का वातावरण बना रहा है,रट्टूभाव से पढ़ाने का अर्थ है शिक्षा को सुला देना।कक्षा में जब गया तो और भी चौंकानेवाला अनुभव हुआ,हिन्दी साहित्य का इतिहास कोर्स में था, लेकिन विद्यार्थियों ने रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम तक नहीं सुना था। पूछा कि किसका लिखा इतिहास पढ़ते हो तो पता चला किसी शिवकुमार शर्मा नामक व्यक्ति का लिखा इतिहास पढ़ते हैं,खोजबीन की तो पता चला सारा कलकत्ता उनका इतिहास पढ़ता है,यानी पूरे शहर से रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी गायब थे,जबकि वे स्वयं मेरे विभाग में आ चुके थे,कोलकाता शहर तो वे और उनकी दूसरी परंपरा वाले लोग साल में कई बार आते थे,लेकिन साहित्य के विद्यार्थियों में उनका कोई असर नहीं था।पता चला यह शिवकुमार शर्मा नामक व्यक्ति कुंजीलेखक है,मैं मार्क्सवादी आलोचक शिवकुमार मिश्र समझ रहा था.इससे यह भ्रम भी टूटा कि किसी शहर में बड़े प्रगतिशील साहित्यकार भाषण देने आते-जाते हैं तो उनसे साहित्य के विद्यार्थी प्रभावित नहीं होते, बल्कि वे कक्षा में पठन-पाठन से प्रभावित होते हैं।मुझे खुशी है कि मेरे आने के बाद पहलीबार कलकत्ते के छात्रों को रामचन्द्र शुक्ल-हजारीप्रसाद द्विवेदी के इतिहासग्रंथ पढ़ने की जरूरत महसूस हुई।पहलीबार इतिहास के कुंजीलेखक से छात्रों का संबंध टूटा।इसी तरह कलकत्ता वि.वि. में जयशंकर प्रसाद पर विशेषपत्र दसियों साल से पढ़ाया जा रहा था,लेकिन किसी ने मुक्तिबोध की किताब का जिक्र तक नहीं किया था, मुक्तिबोध की प्रसिद्ध किताब है ‘कामायनी एक पुनर्विचार’,इसका कोई जिक्र नहीं था, छात्र मुक्तिबोध का नाम तक नहीं जानते थे।क्योंकि वे पाठ्यक्रम में नहीं थे।पाठ्यक्रम में कोई सामयिक चीज,सामयिकलेखक नहीं पढ़ाया जाता था।मैंने पहलीबार जब पाठ्यक्रम बदलने पर जोर दिया , जिंदालेखकों को पढ़ाने पर जोर दिया तो इस पर बड़ी तीखी बहस हुई,कलकत्ता वि.वि. में उस समय जिंदा लेखक नहीं पढ़ाया जाता था और जिंदा लेखक पर शोध नहीं होता था।मैंने सबसे पहले अपने साथ पीएचडी करने के लिए जिंदालेखक चुनने में शोधार्थियों को मदद की तो बहुत तीखी बहस हुई,उसके बाद जिंदालेखक का प्रवेश हुआ।मेरे साथ रामविलाश शर्मा और नामवर सिंह ये दो जिंदा लेखक थे जिन पर शोध सबसे पहले हुए।इसके पहले कलकत्ता वि.वि. में जिंदालेखक को पढ़ाना और उस पर शोध कराना बंद था।आज पाठ्यक्रम में अनेक जिंदा लेखक पढाए जाते हैं,जिंदालेखकों पर शोध हो रहा है।यही तो सुख है।