मैं सन्1989 में कोलकाता आया,जिस समय मेरी नियुक्ति कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में हुई उस समय हिन्दी एम.ए. में तकरीबन 45 छात्र पढ़ते थे।आज प्रत्येक सेमिस्टर में 125 छात्र पढते हैं।एम.फिल् भी है।मेरी नियुक्ति के पहले तक कलकत्ता वि.वि. में एससी,एसटी, आरक्षण नहीं था।कॉलेज सर्विस कमीशन में भी आरक्षण के आधार पर पद नहीं भरे जाते थे। यह समस्या जब मेरी नजरों में पहलीबार सामने आई तो मैंने इसे माकपा के शीर्ष नेतृत्व के सामने रखा और अंतमें काफी जद्दोजहद के बाद आरक्षण लागू हुआ। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि हिन्दी एमए का पाठ्यक्रम तकरीबन30सालों से नहीं बदला गया था,उसमें निरंतर अपडेटिंग की प्रक्रिया आंरंभ हुई। इस काम में विभाग के अन्य शिक्षकों ने सहयोग किया,लेकिन पहल मैंने की। आज पश्चिम बंगाल हिन्दी के पठन-पाठन के लिहाज से बहुत विकास कर गया है,इसमें वाम सरकारों की बड़ी भूमिका रही है।अनेक विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ायी जाती है।
कलकत्ते का सारा माहौल पुराने पैटर्न,आदतों,संस्कारों पर टिका है।नई दुनिया का उसमें प्रवेश बेहद धीमी गति से हो रहा है।चीजें बदल रही हैं लेकिन बेहद धीमी गति से। विद्यार्थियों के सामने सबसे बड़ी समस्या है पुस्तकों की।जरूरत की पुस्तकों को पढ़ने-पढ़ाने का यहां रिवाज कम है।अधिकतर शिक्षक भी उससे अपरिचित हैं।इसके कारण विद्यार्थियों तक सही सूचनाएं ,पुस्तकों के नाम नहीं पहुँच पाते। स्थिति की गंभीरता समझने के लिए मैं अपना एक अनुभव साझा करना चाहता हूँ।हमलोगों ने एमफिल् का पाठ्यक्रम आरंभ किया। पहला बैच था,उसमें मुझे साहित्य का समाजशास्त्र पढ़ाना था,किताबें नहीं मिल रही थीं, मैंने स्व.विष्णुकांत शास्त्री,जो विभाग के वरिष्ठतम प्रोफेसर थे,बेहतरीन शिक्षक थे, से पूछा कि मुझे मिखाइल बाख्तिन पढ़ाना है,क्या आपके पास उनकी कोई किताब है,वे बोले मैंने तो नाम ही पहलीबार सुना है,मैं सुनकर चौंक गया।दूसरे दिन मैंने भाषाविज्ञान विभाग के एक प्रोफेसर से पूछा कि क्या उनके पास बाख्तिन की कोई किताब है तो वे बोले, हां,वे बोले मेरे पास सब किताबें हैं,मैंने शास्त्रीजी से कहा कि देखिए कितना अंतर है ,हिन्दी के प्रोफेसर को नाम तक नहीं मालूम और भाषाविज्ञान के प्रोफेसर के पास किताबें तक हैं।इस एक घटना ने मेरी आंखें खोल दी साथ में यह भी मैसेज दिया कि हिन्दी के शिक्षक आधुनिक विचारकों के लेखन से परिचित होना तो दूर,उनका नाम तक नहीं जानते। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से मैंने काम आरंभ किया।
मैं जेएनयू से पढ़कर आया था,नए विषय,नए विचारक,सिद्धान्तकार आदि के बारे में गुरूमुख पढ़कर आया था अतःमेरे सामने वह संकट नहीं था जो यहां के शिक्षकों के सामने संकट था। कहने का आशय यह कि विद्यार्थी ज्ञान के नए स्रोतों से बाकिफ तब होगा जब शिक्षक बाकिफ होगा।कोलकाता जैसे महानगर में रहते हुए दुनिया के ज्ञान के बेखबर रहने वाला शिक्षक निश्चित रूप से तेजगति से अपना विकास नहीं कर सकता। पहले ज्ञान-विज्ञान के नए क्षितिज शिक्षक स्पर्श करे,बाद में वह अपने विद्यार्थियों को मौका दे,सारी समस्या की जड़ यहां पर है।
मैं जब कोलकाता आया तो मैंने पता किया कि यहां विदेशी किताबें कहां मिलती हैं ? पता चला कि विदेशी पुस्तक भंडार नाम से एक किताबों की दुकान है,मैं दुकानदार से मिला,उसने नई-नई किताबें दिखायीं,बात करने पर पता चला कि नामवरजी जब भी कलकत्ता आते हैं उस किताब वाले के यहां जरूर आते हैं, मैं नामवरजी से उस किताबवाले के बारे में जेएनयू में छात्रजीवन में सुन चुका था, नामवरजी जब भी कोलकाता आते सेमीनार आदि से जो भी रूपये मिलते उससे उस पुस्तक बिक्रेता से किताबें खरीदकर ले जाते।साल में कम से कम 3-4बार उनका कोलकाता आना होता था, मैंने किताब वाले से पूछा क्या कोई और हिन्दी का शिक्षक भी उससे किताबें खरीदने आता है तो उसने कहा कि हिन्दी का कोई शिक्षक कभी किताब खरीदने नहीं आया।यह वाकया इसलिए बताना जरूरी है कि हिन्दी शिक्षकों के दुनिया से संपर्क-संबंध को हम पहचान सकें।कलकत्ता वि.वि.की लाइब्रेरी से कभी किसी हिन्दी शिक्षक ने 1989 तक पश्चिमी समीक्षा की किताबें, आलोचना की नई किताबें निकलवाकर नहीं पढ़ीं,मैं पहला शिक्षक था जो किताबें निकालकर लाता और पढ़ता था।मेरे लिए यह सारी चीजें बेहद निराशा पैदा करने वाली थीं,जब आप नई किताबें नहीं पढ़ेंगे तो नई बहसों में शामिल कैसे होंगे, ज्ञान के समुद्र में दुनिया के साथ हिन्दीवालों को कैसे जोड़ेंगे? यह काम आशीर्वाद मात्र से नहीं हो सकता।
बहुत प्रेरक वक्तव्य !
जवाब देंहटाएंहम आज भी सोचते हैं काश जे एन यू में पढ़े होते !
बात केवल हिंदी की नहीं है. मैं शिक्षकों के बीच रहा हूँ. दूसरे विषयों में भी यही हाल है. केवल 5-10 प्रतिशत शिक्षक ही अपडेट होते हैं, बाकी तो सब ढर्रे पर चलने वाले, टाइम काटने वाले ही होते हैं. बल्कि कई तो विद्यार्थियों को हतोत्साहित करने में ही लगे रहते हैं.
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