मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

मोदी का नशा और कर्णसिंह चौहान

          हिंदी के प्रमुख आलोचक कर्णसिंह चौहान का नोट नीति पर पक्ष देखकर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ,असल में अधिकतर हिंदी बुद्धिजीवी और मध्यवर्ग के लोग वैसे ही सोचते हैं जैसे कर्णसिंहजी सोचते हैं।मुझे आश्चर्य इस बात पर हुआ कि कर्णसिंह चौहान हमेशा परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखने के पक्षधर रहे हैं लेकिन मोदीजी की नोट नीति को लेकर उनके पास कोई परिप्रेक्ष्य ही नहीं है।मैं इस पोस्ट में मोदी सरकार ने विगत ढाई साल में क्या किया उसका लेखा-जोखा पेश नहीं करने जा रहा।यहां पर सिर्फ चौहानजी की टिप्पणी और उससे जुड़ी समस्याओं तक ही सीमित रखूँगा।

नोट नीति के संदर्भ में पहली बात यह है कि यह नीति सभी किस्म की सामान्य संवैधानिक मान्यताओं और प्रतिवद्धताओं को ताक पर रखकर लागू की गयी है।इसका सबसे खतरनाक पहलू है कि इस पर सरकार ने खुलकर न तो मंत्रीमंडल में विचार किया और न ही रिजर्व बैंक ने व्यापक पहलुओं को ध्यान में रखकर फैसला लिया।जिस दिन रिजर्व बैंक ने फैसला लिया उसी दिन बिना किसी बहस मुबाहिसे के मंत्रीमंडल ने पास कर दिया,अब तक के उपलब्ध तथ्य बताते हैं कि रिजर्व बैंक के मात्र 8 अधिकारियों ने इसका फैसला लिया।जबकि 24 अधिकारी पूरे बोर्ड में हैं,अधिकांश के पद खाली रखे हुए हैं,मैं उन अधिकारियों के विवरण और ब्यौरों में नहीं जाना चाहता।

बुनियादी बात यह है कि नोट नीति सीधे नागरिक के संविधान प्रदत्त हकों पर हमला है ,साथ ही रिजर्व बैंक की जो नागरिकों को दी गयी प्रतिज्ञा है उसका उल्लंघन है।अब तक मोदी सरकार, सुप्रीम कोर्ट को यह नहीं बता पायी है कि उसने यह फैसला कैसे लिया या फिर किन लोगों ने यह फैसला लिया,यहां तक कि वित्त मंत्रालय की संसदीय समिति की बैठक में रिजर्व बैंक के गवर्नर हाजिर नहीं हुए हैं।संसद में भी सरकार ने फैसले के आधिकारिक दस्तावेज पेश नहीं किए हैं,स्वयं प्रधानमंत्री संसद से भागते रहे हैं।आश्चर्य की बात है कि कर्णसिंह चौहान को इनमें से कोई भी समस्या बहस योग्य नहीं लगती ! यही है हिंदी का आलोचनात्मक विवेक!

चौहानजी, हम गाली नहीं लिखते,व्यंग्य भी नहीं लिखते,सच है जो लिखा है,हम जो भी लिखते हैं अपने विवेक से लिखते हैं,यह संयोग की बात है कि माकपा से मेरा भी संबंध रहा है और आपका भी।मैं माकपा के कामकाज और नीतियों को लेकर माकपा के सदस्य रहते हुए आलोचनात्मक नजरिया रखता था और मैंने जमकर उनकी लिखकर मुखालफत की है,लेकिन मैंने आपके उस तरह के लेखन को नहीं देखा है।माकपा के प्रति मेरा आलोचनात्मक रूख जगजाहिर है,सैंकड़ों लेख लिखे हैं,यहां तक कि पूरी किताब लिखी है,लेकिन आप हमेशा कन्नी काटते रहे हैं !

चौहानजी, मोदीजी कोई साधारण नेता नहीं है,वह सामान्य पीएम नहीं है, यह मेरी मोदी के उदय से ही समझ रही है,लेकिन मैंने गालियां नहीं लिखीं।मैं वामपंथियों की हिमायत नहीं करना चाहता वे अपनी हिमायत करने में सक्षम हैं , लेकिन आपने नोट नीति के पक्ष या विपक्ष में सीधे लिखने से हमेशा परहेज करके अपने मोदीप्रेम को ही व्यक्त किया है,आप समझदार हैं,आपका इस तरह प्रच्छन्न मोदीप्रेम हमारे गले नहीं उतरता ! हम तो चाहेंगे आप खुलकर लिखें,प्रच्छन्न रूप में न लिखें ! खुलकर जैसे मेरे ऊपर हमला करते हैं वैसे ही खुलकर मोदी के पक्ष में लिखकर मोदी विरोधियों पर हमले करें ! हम देखें तो सही आप किस तरह सोचते हैं !

अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है मोदीजी के पक्ष में आपके पास कोई तर्क नहीं है,हमसब क्या कह रहे हैं इस सबको गोली मारिए ! कम से कम जनता की जो क्षति हो रही है उसकी ओर ही आँखें उठाकर देख लेते ! बैंकों की जो क्षति हो रही है उसे ही देख लिया होता !

लेकिन आपने 8नवम्बर के बाद से अपनी वॉल पर इन सब पर कुछ नहीं लिखा,हां,मेरे ऊपर दो पोस्ट जरूर लिखीं,मैं जानता हूँ आप मुझे सच में प्यार करते हैं ! आपको मैं लिख-लिखकर परेशान करता रहता हूँ,मैं अपनी आदत से मजबूर हूँ,आप थोड़ा नाराज तो होंगे लेकिन मैं क्या करूँ मोदी सरकार लगातार जनविरोधी फैसले ले रही है और आप जैसे लोग चुप तमाशा देख रहे हैं!

चौहानजी, नोट नीति सफल रही है,आपकी आशंकाएं गलत हैं,मोदीजी जो चाहते थे वह हो चुका है,जो मुद्रा जनता के पास थी वह खींचकर बैंकों में आ चुकी है।इसलिए इस नीति की असफलता का तो सवाल ही बेमानी है।

नोट नीति का लक्ष्य था नोटों को बटोरकर बैंकों में लाना,यह काम हो गया है। इसका लक्ष्य कालाधन खत्म करना नहीं था,इससे आतंकियों की रसद पर भी कोई असर नहीं पड़ा,इससे चुनावों में कालेधन के इस्तेमाल पर भी कोई खास असर नहीं पड़ेगा,हां,एक काम जरूर हुआ है,बैंकों का प्रतिदिन का तीन हजार करोड़ रूपये का नुकसान हो रहा है,वे धंधा नहीं कर पा रही हैं,बाजार का प्रतिदिन का एक लाख तीस हजार करोड़ रूपये का नुकसान हुआ है,लाखों मजदूरों की नौकरी चली गयी है।सौ से ज्यादा लोग मारे गए हैं।एक भी कालेधन का मालिक पकड़ा नहीं गया है और न उसने आत्महत्या की है न उसे हार्ट अटैक हुआ है।बाजार से लेकर कल –कारखानों तक नोट नीति ने जो तबाही मचायी है वह हम सबके लिए चिंता की बात है लेकिन आपके लिए ये कोई समस्याएं ही नहीं हैं,आप इतने भोले या अनजान तो नहीं हैं कि यह सब न जानते हों,मैंने इन सब पर लगातार लिखकर वही किया है जो एक सचेत नागरिक को करना चाहिए।लेकिन आपकी इन सब सवालों पर चुप्पी स्तब्ध करने वाली है ! मैं नहीं कहूँगा आप मोदी भक्त हैं,भाजपा के साथ हैं,लेकिन आप चुप हैं और यह चुप्पी सिर्फ आपको ही नहीं हिंदी के आलोचकों को कठघरे में खड़ा कर रही है आप हिंदी आलोचना के प्रतिनिधि पात्र हैं!

चौहानजी,आपकी फेसबुक जैसे माध्यमों को लेकर बुनियादी समझ ही गलत है।फेसबुक का उदय ही हुआ है रीयलसटाइम संप्रेषण के लिए,इसमें लिखा अजर -अमर नहीं है,यह सामान्य संचार है जिसे हम सब अनौपचारिक बातचीत में करते हैं।यहां लिखे का ऐतिहासिक महत्व नहीं है,यहां तो सिर्फ संचार है और संप्रेषण है,यहां विचारधारा गौण है।फेसबुक पर अभियान नहीं चलाए जाते।संचार का प्रवाह रहता है इसमें एक नहीं अनेक किस्म के प्रवाह हैं।यह एकदम खुला संचार है,यहां हर बात परिवर्तन के दवाब में है,कोई चीज स्थिर नहीं है,स्थिर और टिकाऊ कोई चीज है तो परिप्रेक्ष्य,परिप्रेक्ष्य यहां पर धीमी गति से बदलता है,लेकिन आप तो नोट नीति पर परिप्रेक्ष्य के बिना फुटकल ढ़ंग से सोचते हैं जो कम से कम एक बड़े आलोचक के लिए सही नहीं लगता।





कर्णसिंह चौहान की मूल पोस्ट -



[ यह टिप्पणी जगदीश्वर जी की पोस्ट पर की गई जो ८ नवंबर की विमुद्रीकरण-पुनर्मुद्रीकरण की घोषणा के बाद विपक्षी दलों की तर्ज पर वामपंथी-सैक्युलर बुद्धिजीवियों की तरफ से इसके खिलाफ छेड़े अभियान का हिस्सा है । इस तरह के अभियान में न केवल भाषा की शिष्टता का विनाश हुआ है, तमाम तरह की मर्यादाओं का विनाश हुआ है । यह विमर्श की भाषा न होकर हिंसक भाषा है जो किसी चीज का कोई समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकती । इस अंध-विरोध ने न केवल विरोधी का मजाक उड़ाया है बल्कि जनचेतना को भी उपहास की वस्तु बना दिया है । विमुद्रीकरण की पैरोकार सरकार को इस विरोध से जितना बल मिला है शायद उतना उसके तमाम प्रचारतंत्र से नहीं । यह विरोध प्रकारांतर से भ्रष्टाचार और कालेधना का हिमायती नजर आता है और उसके विरुद्ध जनता की भावना को विरूपित करता है । इस पोस्ट में उन्होंने एक व्यंग्य बनाने की कोशिश की है जिसमें प्रधानमंत्री को हिंदू का प्रतीक, उन्हें मिल रहे जन-समर्थन को हिंदू जनता के पुनर्जन्म में विश्वास से जोड़ने आदि की कोशिश की गई है । ]

जगदीश्वर जी,

अब तक इस विषय पर लिखी सबसे खराब और भ्रांत पोस्ट है यह । विमुद्रीकरण-मुद्रीकरण, मोदी, हिंदू, पुनर्जन्म को लेकर आपने जो व्यंग्यनुमा कुछ बनाने की कोशिश की है, वह न व्यंग्य है न विचार । आपका और आपकी तरह अभियान में लगे तमाम लोगों का संपूर्ण विरोध क्यों जनता के सामने हताशा-निराशा पर बार-बार टूट रहा है ! आप इसे न समझने की कोशिश करते हैं, न स्वीकारने की । बस रात-दिन गाली-गलौज में लगे हैं ।

इसे समझने के लिए जनता पर इस या उस बहाने दोषारोपण करने की जगह अगर केवल इतना समझ लेते कि जनता, इसे सही या गलत जिस रूप में आप लें, भ्रष्टाचार, कालेधन से मुक्ति का अभियान समझ रही है । यह भी कि जनता ने इस रोग को ७० साल फलते-फूलते देखा है और इससे मुक्ति उसके लिए सर्वोपरि है । जब-जब उसे इसके विरुद्ध आवाज बुलंद करने या आक्रोश जाहिर करने का अवसर मिला उसने भरपूर साथ दिया । विरोधी दल या आप सब जब रात-दिन उसके खिलाफ गाली-गलौज करते हैं तो वह सही-गलत रूप में आपको भ्रष्टाचारियों, कालाधनधारियों का हितैषी समझती है ।

अगर यह मुहिम विरोध पक्ष या बुद्धिजीवियों के अभियान से या इसे चलाने वालों की बदनीयती या बद-इंतजामी की वजह से असफल रही तो यह जन-आकांक्षा उसी तरह पछाड़ खाकर गिरेगी जैसे पहले कई बार जे.पी. आंदोलन या अन्ना आंदोलन में गिरी है । यह गिरना कई दशकों का गैप बना जाता है ।

वैसे फिलहाल आपने जो मजमा जमा रखा है उसमें कुछ भी कहना बेकार ही है । आप लोग किसी भी अलग राय को कुछ भी ब्रांड करने में पीछे नहीं रहने वाले हैं । धीरे-धीरे असहिष्णुता की ऐतिहासिक कमी को थोड़े से समय में पूरा करना जो है । फिर भी आपके अभियान के लिए शुभकामनाएँ ।





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