भारतीय नवजागरण पर जब भी बहस होती है तो दलितों
या शूद्रों की मुक्ति के सवालों पर बहस नहीं होती,यह मान लिया गया कि दलितों की
मुक्ति का आरंभ बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर के आने के बाद होता है। ज्योतिबा फुले दलित मुक्ति
के मिशन की नींव रखते हैं,लेकिन इस पर पूरा शास्त्र बाबासाहेब ने ही बनाया।
दलित मुक्ति का सवाल जहां एक ओर दलितों की
मुक्ति से जुड़ा है वहीं दूसरी ओर यह सवाल फुले-आम्बेडकर के सत्ता विमर्श से जुड़ा
है। इन दोनों को अंग्रेजों के शासन से कोई गंभीर शिकायत नहीं है। ये दोनों ही
तत्कालीन सत्ता से हमदर्दी रखते हैं। सवाल यह है क्या दलितों की मुक्ति पूंजीवाद
में संभव हैॽ क्या पूंजीवादी सत्ता
विमर्श में वैकल्पिक नजरिए से शामिल हुए बगैर दलित के लिए संघर्ष करना संभव हैॽ क्या पूंजीवादी सत्ता विमर्श दलितों को मुक्ति देता है ॽ
नवजागरण बुर्जुआ संवृत्ति है।यह
आधुनिकता के प्रकल्प का अंग है,इसे क्रांतिकारी प्रकल्प नहीं समझना चाहिए।यदि
नवजागरण के परिप्रेक्ष्य में ज्योतिबा फुले और आम्बेडकर के नजरिए को देखेंगे तो यह
मूलतःआधुनिकतावादी आंदोलन है।इसी तरह बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर का समग्र नजरिया
बुर्जुआ है और उसकी धुरी है आधुनिकता।पुराने किस्म के दलित की बजाय आधुनिक दलित की
खोज और निर्माण उसका केन्द्रीय लक्ष्य है।यह नजरिया दलित को पुराने सामंती शोषण
से मुक्त तो करता है लेकिन दलितों में शोषणमुक्त समाज का नजरिया नहीं बनाता।पूंजीवाद
से मुक्ति का सपना पैदा नहीं करता।
यही वजह है 20वीं शताब्दी में बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर ही दलित मुक्ति के
केन्द्र में है।इस धारणा ने कई स्टीरियोटाइप सरलीकरणों को जन्म दिया है।पहला,दलित
मुक्ति का एकमात्र रास्ता वही है जिसको आम्बेडकर व्यक्त करते हैं।दूसरा,शिक्षा से जातिप्रथा
नष्ट हो जाती है,तीसरा,दलितमुक्ति के लिए आरक्षण जरूरी है,चौथा,पूंजीवाद के विकास
के साथ जातिप्रथा स्वतः नष्ट हो जाएगी,जाति शोषण नष्ट हो जाएगा।पांचवां,महानगरीय
जीवन जातिप्रथा खत्म कर देता है। ये पांचों चीजें आधुनिकता के प्रकल्प का हिस्सा
है। इन सरलीकरणों के पीछे आस्थाएं ही प्रमुख रूप से काम करती रही हैं।आस्था
केन्द्रित होने के कारण नवजागरण और दलित पर बहुत कुछ ऐसा लिखा गया है जिसका यथार्थ
से कम संबंध है,इसमें इच्छित लक्ष्यों और इच्छित तर्कों के आधार पर इच्छित सामाजिक
यथार्थ की सृष्टि करने में भारत के बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग सफल रहा है।
नवजागरण और शूद्र के
अन्तस्संबंध के प्रसंग में सबसे पहली बात यह कि नवजागरण वस्तुतःदलितमुक्ति का
प्रकल्प नहीं है।बल्कि यों कहें तो सही होगा कि नवजागरण के दलित मुक्ति के
बुनियादी लक्ष्यों से गहरे अंतर्विरोध हैं।
जाति कहां है -
जाति के समान
कोई चीज नहीं है जिसके साथ जाति का विनिमय नहीं हो सके। जाति का किसी भी चीज से
विनिमय संभव नहीं है,यह व्यवस्था या सिस्टम है,इसको आप पूरा छोड़ें तब ही जाति से
मुक्ति संभव है,जाति में से किसी अंश को रख लो,अथवा उस जाति का वह गुण ले लो या
निचली जाति से ऊँची जाति में या अ-सवर्ण से सवर्ण जाति में चले जाने से जाति खत्म
होने वाली नहीं है।अंशों में विनिमय के जरिए जाति खत्म नहीं होगी।जाति तो जाति है
उसका विनिमय नहीं कर सकते।वह बेहद ठोस भौतिक शक्ति है, उसके साथ भेदभावभरी
व्यवस्था के साथ विनिमय संभव नहीं है।जाति ठोस है,उसके विचार चंचल हैं,इसलिए जब भी
जाति बदलती दिखती है तो असल में जाति नहीं बदलती उसके विचार बदलते हैं,जाति तो जस
की तस बनी रहती है।विचारों के विनिमय से जाति नहीं बदलती।विचार बदलते हैं,जाति असल
में शोषण का एक रूप है,जो बड़ी बारीकी से हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-आर्थिक
जीवन में व्याप्त हो गयी है।हम जब जाति सुधार की बातें करते हैं तो अधिक से अधिक
जाति के बुरे विचार को निकाल फेंकने की बातें करते हैं।इससे जाति नष्ट नहीं होती।
जाति कोई सामाजिक समूह नहीं
है,सामाजिक समूह के रूप में जाति को देखेंगे तो सही निष्कर्ष नहीं निकलेंगे।जाति
को सामाजिक समूह के रूप में देखेंगे तो हमें अधिक से अधिक उसके ऊपरी ढाँचे को
बदलने की इच्छा पैदा होगी,हम ऊपरी ढाँचे को बदल देंगे,लेकिन इससे जाति की आत्मा
नहीं बदलेगी।छूआछूत,ऊँच-नीच,निचली जाति,ऊँची जाति, मनु व्यवस्था या अन्य
व्यवस्थाएं या संवैधानिक व्यवस्थाएं अपने आपमें जाति को खत्म नहीं कर
सकतीं,क्योंकि सभी किस्म के संवैधानिक उपाय जाति के ऊपरी कलेवर को बदलते हैं,उसकी
आत्मा को स्पर्श नहीं करते।असल में जाति की आत्मा विनिमयरहित है।जाति के एक विचार
को खत्म करेंगे,तो तुरंत दूसरा विचार उसकी हिमायत में उठ खड़ा होगा।हम करीब से उन
जातियों को देखें जहां पर जाति का ऊपरी तौर पर खात्मा हो गया है लेकिन उससे समस्या
खत्म नहीं हुई है। मसलन्,पश्चिम बंगाल में जातिप्रथा खत्म हो गयी है लेकिन उसकी
जगह शोषित-शोषक के नए संबंधों ने जन्म ले लिया है,उन संबंधों को सहज ही घर-घर जाकर
देख सकते हैं। कहने का आशय यह कि जाति तो शोषण का पुराना आदिम रूप है,वह हम सबकी
आदतों,संस्कारों,चाल-चलन,रीति-रिवाज आदि में घुस आया है,वह सिर्फ समुदाय के रूप
में ही मौजूद नहीं है बल्कि उसने दृष्टिकोण में जगह बना ली है।यही वजह है जाति के
समान और कोई जगत नहीं है।
जाति में रहने और जाति के मार्ग पर चलने का अर्थ है कि
इसमें पैर जमाकर चल ही नहीं सकते, यह बेहद रपटन भरा मार्ग है।पुराने समाज में जाति
के समान कोई चीज मौजूद नहीं है, आज भी जाति के समान कोई चीज नहीं है,जाति से किसी
चीज की तुलना नहीं कर सकते,यह अतुलनीय है।इसने जीवन के हर क्षेत्र को अपने दायरे
में शामिल कर लिया है।जाति के लिए समाज का हर आईना छोटा है,जाति हमारे विजन में इस
कदर घर किए हुए है कि हम उसके बिना कोई चीज देख ही नहीं सकते।जाने-अनजाने जाति
हमारे नजरिए को प्रभावित करती है,वहां से
हमारे ज़ेहन में शोषण के लक्षण व्यंजित होते रहते हैं।
जाति को हमें सिस्टम की
तरह देखना चाहिए।सिस्टम की तरह देखेंगे तो इसके आर्थिक आधार को भी देख पाएंगे।जाति
कोई मानसिक अवस्था या विचार मात्र नहीं है।कहने के लिए जाति के ही आधार पर हर तरह
का कार्य-व्यापार चलता रहा है।लेकिन जाति को आज इसके जरिए किसी चीज का विनिमय नहीं
कर सकते।जाति के इस दौर में तीन और क्षेत्र सामने आए हैं वह है राजनीति,न्याय और
साहित्य।इन तीनों क्षेत्रों में जाति के आधार पर देखने,विनिमय करने की बड़े पैमाने
पर कोशिशें हो रही हैं लेकिन मुश्किल यह है जाति को आधार बनाकर ज्योंही संप्रेषण
करेंगे,संप्रेषण खत्म हो जाएगा।इसका प्रधान कारण यही है कि जाति को आधार बनाकर कोई
बात नहीं की जा सकती, जाति की किसी से तुलना संभव नहीं है, किसी से विनिमय संभव
नहीं है। क्योंकि जाति का जाति के बाहर कोई अर्थ नहीं है,जाति तब तक ही अर्थवान या
प्रासंगिक है जब तक जाति के दायरे में रहकर विचार करते हैं। जाति की राजनीति तब तक
चमकदार नजर आती है जब तक वह जाति केन्द्रित रहे,उसी तरह दलित साहित्य की केटेगरी
तब तक प्रासंगिक है जब तक दलित के लेखन को जाति के आधार पर देखा जाय,उसके बाहर
इनकी प्रासंगिकता नहीं है।जाति की इस सीमा को हमेशा ध्यान में रखें।
जाति की दूसरी बड़ी विशेषता है कि वह अपने में हर चीज को समाहित करने की क्षमता रखती है।जो लोग जाति के आधार
पर सोचते हैं वे हर चीज को जाति के आधार पर ही देखते हैं,चाहे राजनीति हो या न्याय
हो या साहित्य या कला रूप हों,इन सब पर बातें करते समय हमेशा हर चीज को खींचकर
जाति में समाहित कर लेते हैं।जब वे किसी चीज को जाति के आधार पर देखते हैं तो फिर
उसमें से इच्छित अंतर्वस्तु भी निकाल लेते हैं। वे इस इच्छित
अंतर्वस्तु को यथार्थ में रूपान्तरित नहीं कर पाते। उसके भिन्न अर्थ को देख नहीं पाते।
जाति की तीसरी सबसे बड़ी विशेषता है उसके अंदर
केटेगरी या कोटियों की अनिश्चितता है।मसलन्,जो जाति यूपी में आरक्षित केटेगरी में आती
है,जरूरी नहीं है वह बंगाल या अन्य जगह आरक्षित केटेगरी में हो। यही वजह है जाति का
भिन्न –भिन्न इलाकों या समुदायों में अलग ढ़ंग का विकास और चरित्र नजर आता है।इससे
जाति की काल्पनिकता या विभ्रम सामने आते हैं।
जाति को केन्द्र में रखकर
जितना भी विमर्श निर्मित हुआ है उसके केन्द्र में प्रतीकों की भाषा है। इस भाषा ने
जाति को वस्तुओं के संसार में एक वस्तु बना दिया है।फलतःवह अनुमान और अनुकरण पर
चलती रही है,और आज भी चल रही है।उसके काल्पनिक और वास्तविक रूप में भेद करना असंभव
है। मसलन्, एक ओर शूद्र अतिगरीब मिलेंगे तो दूसरी ओर आईएएस भी मिलेंगे,आप तय नहीं
कर सकते कि यथार्थ में शूद्र क्या है ॽ सच यह है जाति पर
अधिकांश बहस अनुमानाधारित है,जबकि दावे किए जाते हैं कि वह यथार्थ पर आधारित
है।दिक्कत तब आती है जब आप एक ही साथ
अतिगरीब शूद्र और आईएएस शूद्र को सामने रखकर देखते हैं।इससे हमारे अनुमान में
निहित अ-व्यवस्था का उद्घाटन होता है।
ज्योंही यथार्थ और विवेकवाद इन
दो तत्वों का जाति के मूल्यांकन के प्रसंग में इस्तेमाल करते हैं तो जाति हमें ठोस
रूप में स्थिर नजर आने लगती है, इस तरह दिखने लगती है कि उसका किसी भी चीज से
विनिमय संभव नहीं है। जाति के सिद्धांत के दायरे में तो जाति प्रासंगिक लगती है
लेकिन ज्योंही जाति के सिद्धांतों के बाहर निकलोगे तो जाति अ-प्रासंगिक नजर आने
लगेगी।
सवाल यह है जाति पुराना सिस्टम
है,नया आधुनिक सिस्टम पूंजीवाद है।क्या जाति का पूंजीवाद के साथ विनिमय संभव है ॽक्या पूंजीवाद में जातियों का लोप हो जाएगा ॽ जी नहीं,पूंजीवाद में जातियों का लोप नहीं हो
सकता।उल्टे जातियों के विकास की अनंत संभावनाओं के द्वार पूंजीवाद ने खोले हैं। नवजागरण
आने के बाद जातियों की संख्या बढ़ी है, घटी नहीं है।जातियों के नाम पर
सुख,सुविधा,कानून आदि सबमें इजाफा हुआ है,जातियों का विभिन्न नई जातियों में नाम
परिवर्तन हुआ है लेकिन जाति का लोप नहीं हुआ है। जातियों के लिए नई परिधियां तय कर
ली गयी हैं,नए आधार तय कर लिए गए हैं।इससे जाति के सिस्टम में अनिश्चितता और बढ़ी
है।मसलन्, आज से सौ साल पहले व्यक्ति को जिस जाति के सदस्य के रूप में जानते थे वह
आज उस जाति से निकलकर भिन्न जाति में शामिल हो चुका है।ऐतिहासिक तौर पर जाति के
नाम का बदलना बताता है जाति में नाम बदलने,नियम बदलने,स्वयं ही अपने को नष्ट करके
नए रूप में पेश करने की विलक्षण क्षमता है।इसके कारण जाति अपने को बार-बार
प्रासंगिक और नए मूल्यबोध से जोड़ने में सफल हो जाती है।फलतः वह अपने को नष्ट करने
में असफल रहती है।इस नजरिए से देखें तो पाएंगे कि जाति हर बार नया विभ्रम और
अनिश्चितता निर्मित करती है।इसका अर्थ यह
भी है जाति खत्म होती नजर नहीं आती बल्कि आर्थिक तौर पर और भी ज्यादा ताकतवर नजर
आती है। समग्रता में देखें तो जाति के लिए मूल्य और कानून अपवाद हैं ,विभ्रम यानी
इल्युजन बुनियादी नियम है,फलतः जाति हमेशा समाज में बनी रहती है।मसलन्, आप जाति के
नाम पर सब कुछ पा सकते हैं ,सब कुछ पाने के बाद भी जाति से आप मुक्त नहीं होते तो
हम यही कहेंगे कि जाति के साथ किसी भी चीज का विनिमय संभव नहीं है। मसलन्, जाति के
नाम पर शिक्षा,रोजगार,सामाजिक हैसियत आदि सब मिल जाता है,इसके बाद भी जाति नहीं
छूटती।इसका अर्थ यह भी है कि जाति सबसे ज्यादा सुव्यवस्थित सिस्टम है जिसे आप
नियम, कानून, रोजगार,शिक्षा आदि प्रदान करके भी खत्म नहीं कर सकते।बल्कि उलटे इनसे
जाति के और भी पुख्ता हो जाने की संभावनाएं पैदा हो जाती हैं।
जाति पर बहस के दौरान
असमानता,कर्ज और उत्पीड़न इन तीन कोटियों में जाति विमर्श सामने आया है।इन तीनों
तत्वों या कोटियों को यदि जाति के परिप्रेक्ष्य में पेश किया जाएगा तो यह तय है ये
तीनों तत्व लौट-फिरकर वापस केन्द्र में आ जाएंगे।क्योंकि इन तीनों में अनुकरण पैदा
करने की विलक्षण क्षमता है।ये अंतहीन चक्राकार रूप में घूमते रहते हैं।कुछ साल
पहले केन्द्र सरकार ने किसानों के कर्ज माफ कर दिए,लग रहा था अब किसान कर्ज मुक्त
हो गया है,लेकिन कुछ ही सालों में किसान फिर कर्जगीर हो गया।इन किसानों में दलित
जातियों का बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है।इसी तरह दलित के उत्पीड़न को लेकर जितने भी
सख्त कानून बना लो,उत्पीड़न पुनःलौटकर आ जाता है। तमाम कानून बनाने के बावजूद
दलितों का उत्पीडन खत्म नहीं हुआ है,यही हाल औरतों के उत्पीड़न का है।असल में
असमानता,कर्ज और उत्पीड़न ये तीन कोटियां ऐसी हैं जो तमाम कानून बनाए जाने के बाद
भी बनी रहती हैं, इनके जरिए यथार्थ के साथ विनिमय नहीं कर सकते। इनके जरिए यथार्थ
नहीं बदल सकते,इनके जरिए कोई नई चीज पैदा नहीं कर सकते।
असमानता,कर्ज और उत्पीड़न इन
तीनों के आधार पर जब भी कोई परिप्रेक्ष्य खड़ा किया जाएगा वह अंततःअसफल होगा।मसलन्,
यह माना गया कि भूमिहीनों को जमीन बांट देने से गांवों में असमानता घटेगी,भूमिहीन
किसान ताकतवर बनेगा,पश्चिम बंगाल में बड़े पैमाने पर भूमि सुधार कार्यक्रम को लागू
किया गया,लेकिन दो दशक के बाद पता चला कि भूमिहीन किसान जमीन के पाने के बावजूद
असमानता,अभाव,कर्ज के जंजाल से मुक्त नहीं हो पाया,उसकी पामाली घटने की बजाय बढ़
गयी।उसे जिन चीजों से बचाने के लिए जमीन दी गयी थी उन चीजों से जमीन उसकी रक्षा
नहीं कर पायी।