शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

साहित्य में भावुकता की हिमायत में



साहित्यालोचना में इन दिनों उदासी छायी हुई है। इस उदासी का प्रधान कारण है कृति-कृतिकार का जीवन से कृत्रिम संबंध।आलोचकों की इस कृत्रिम संबंध को पहचानने में असफलता। किसी भी कृतिकार की कलात्मक श्रेष्ठता उस समय ज्यादा समझ में आती है जब वह अपनी कृति में भावुकता का चित्रण करता है। इन दिनों कृतियों में विवरण-ब्यौरे तो खूब हैं लेकिन भावुकता पता नहीं कहां खो गई है। भावुकता के चित्रण के साथ यह समझ भी होनी चाहिए कि आखिर वे कौन से स्थल हैं जहां भावुकता का निर्वाह किया जाना चाहिए। कथानक के मार्मिक स्थलों की सही समझ और विषय के साथ गहरा संबंध अंततः भावुक स्थलों के चित्रण में मददगार हो सकता है। हिन्दी के प्रमुख आलोचक रामचन्द्र शुक्ल ने तुलसीदास के प्रसंग में यह सवाल काफी पहले बड़े ही सुंदर ढ़ंग से उठाया है। शुक्लजी ने लिखा है-  "प्रबन्धकार कवि की भावुकता का सबसे अधिक पता यह देखने से चल सकता है कि वह किसी आख्यान के अधिक मर्मस्पर्शी स्थलों को पहचान सका है या नहीं। राम कथा के भीतर ये स्थल अत्यन्त मर्मस्पर्शी हैं-राम का अयोध्‍या त्याग और पथिक के रूप में वनगमन; चित्रकूट में राम और भरत का मिलन; शबरी का आतिथ्य; लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम का विलाप; भरत की प्रतीक्षा। "इन स्थलों को गोस्वामीजी ने अच्छी तरह पहचाना है; इनका उन्होंने अधिक विस्तृत और विशद वर्णन किया है।यानी रचना में मार्मिक स्थलों का रचनाकार को ज्ञान होना चाहिए। हमारे अधिकतर उपन्यासकारों को कथानक के मार्मिक स्थलों का पता ही नहीं रहता और कथानक स्टीरियोटाइप ढ़ंग से चलता रहता है। इसके अलावा मार्मिकता में निहित भावुकता का चित्रण करते समय मूल्यों के चित्रण में निपुण होना जरूरी है।
    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है " एक सुन्दर राजकुमार के-छोटे भाई और स्‍त्री को लेकर-घर से निकलने और वन वन फिरने से अधिक मर्मस्पर्शी दृश्य क्या हो सकता है? इस दृश्य का गोस्वामीजी ने मानस, कवितावली और गीतावली तीनों में अत्यन्त सहृदयता के साथ वर्णन किया है। गीतावली में तो इस प्रसंग के सबसे अधिक पद हैं। ऐसा दृश्य स्त्रियों को सबसे अधिक स्पर्श करनेवाला, उनकी प्रीति, दया और आत्मत्याग को सबसे अधिक उभारनेवाला होता है, यह बात समझकर मार्ग में उन्होंने ग्राम बधुओं का सन्निवेश किया है। ये स्त्रियाँ राम जानकी के अनुपम सौन्दर्य पर स्नेह शिथिल हो जाती हैं, उनका वृत्तान्त सुनकर राजा की निष्ठुरता पर पछताती हैं; कैकेयी की कुचाल पर भला बुरा कहती हैं। सौन्दर्य के साक्षात्कार से थोड़ी देर के लिए उनकी वृत्तियाँ कोमल हो जाती हैं, वे अपने को भूल जाती हैं। यह कोमलता उपकार बुद्धि की जननी है-
सीता  लषन  सहित  रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई।।
सुनि सब बालबृद्ध नर  नारी। चालहिं तुरत गृह काज बिसारी।।
राम लषन सिय रूप  निहारी। पाइ  नयन  फल  होहिं सुखारी।।
सजल विलोचन पुलक सरीरा। सब भए मगन  देखि दोउ बीरा।।
रामहिं देखि एक अनुरागे। चितवत चले जाहि सँग लागे।।
एक देखि बट छाँह भलि, डासि मृदुल तृन पात।
कहहिं 'गँवाइय छिनुक स्तम, गवनब अबहिं कि प्रात'।।
    राम जानकी के अयोध्‍या से निकलने का दृश्य वर्णन करने में गोस्वामीजी ने कुछ उठा नहीं रखा। सुशीलता के आगार रामचन्द्र प्रसन्नमुख निकलकर दास दासियों को गुरु के सुपुर्द कर रहे हैं, सबसे वही करने की प्रार्थना करते हैं जिससे राजा का दु:ख कम हो। उनकी सर्वभूतव्यापिनी सुशीलता ऐसी है कि उनके वियोग में पशु पक्षी भी विकल हैं। भरतजी जब लौटकर अयोध्‍या आए, तब उन्हें सर सरिताएँ भी श्रीहीन दिखाई पड़ीं, नगर भी भयानक लगा। भरत को यदि रामगमन का संवाद मिल गया होता तो हम इसे भरत के हृदय की छाया कहते। पर घर में जाने के पहले उन्हें कुछ भी वृत्ता ज्ञात नहीं था। इससे हम सरसरिता के श्रीहीन होने का अर्थ उनकी निर्जनता, उनका सन्नाटापन लेंगे। लोग रामवियोग में विकल पड़े हैं। सरसरिता में जाकर स्नान करने का उत्साह उन्हें कहाँ? पर यह अर्थ हमारे आपके लिए है। गोस्वामीजी ऐसे भावुक महात्मा के निकट तो राम के वियोग में अयोध्‍या की भूमि ही विषादमग्न हो रही है; आठ आठ ऑंसू रो रही है।
    चित्रकूट में राम और भरत का जो मिलन हुआ है, वह शील और शील का, स्नेह और स्नेह का, नीति और नीति का मिलन है। इस मिलन से संघटित उत्कर्ष की दिव्य प्रभा देखने योग्य है। यह झाँकी अपूर्व है? 'भायप भगति' से भरे भरत नंगे पाँव राम को मनाने जा रहे हैं। मार्ग में जहाँ सुनते हैं कि यहाँ पर राम लक्ष्मण ने विश्राम किया था, उस स्थल को देख ऑंखों में ऑंसू लेते हैं-
राम बास थल बिटप बिलोके। उर अनुराग रहत नहिं रोके।।
    मार्ग में लोगों से पूछते जाते हैं कि राम किस वन में हैं। जो कहता है कि हम उन्हें सकुशल देखे आते हैं, वह उन्हें राम लक्ष्मण के समान ही प्यारा लगता है। प्रिय सम्बन्धी आनन्द के अनुभव की आशा देनेवाला एक प्रकार के उस आनन्द को जगानेवाला है-'उद्दीपन' है। सब माताओं से पहले राम कैकेयी से प्रेमपूर्वक मिले। क्यों? क्या उसे चिढ़ाने के लिए? कदापि नहीं। कैकेयी से प्रेमपूर्वक मिलने की सबसे अधिक आवश्यकता थी। अपना महत्तव या सहिष्णुता दिखाने के लिए नहीं, उसके परितोष के लिए। अपनी करनी पर कैकेयी को जो ग्लानि थी, वह राम ही के दूर किए हो सकती थी, और किसी के किए नहीं। उन्होंने माताओं से मिलते समय स्पष्ट कहा था-
अंब! ईस आधीन जग काहु न देइय दोषु।
    कैकेयी को ग्लानि थी या नहीं, इस प्रकार के सन्देह का स्थान गोस्वामीजी ने नहीं रखा। कैकेयी की कठोरता आकस्मिक थी, स्वभावगत नहीं। स्वभागवत भी होती तो भी राम की सरलता और सुशीलता उसे कोमल करने में समर्थ थी।
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल   रानि   पछितानी   अघाई।।
अवनि जमहि  जाचति  कैकेयी। महि न बीचु, बिधि मीचु न देई।।"
  आचार्य शुक्ल ने रामचरित मानस के संदर्भ में जिस भावुकता का जिक्र किया है क्या वह भावुकता आज भी मानस के पाठकों को अपील करती है ? क्या महाकाव्य के सुख,दुख,विषाद,प्रेम,क्रोध आदि आज भी अपील करते हैं ? क्या आम लोग आज भी रामचरित मानस के मार्मिक स्थलों के भावुक चित्रण से भावविभोर होते हैं ? तुलसीदास ने मानस में भावुकता का चित्रण करते समय एक साथ कई सामाजिक संबंधों को चित्रित किया है। एक साथ कई धर्मों को चित्रित किया है। सामाजिक और धार्मिक बहुलतावाद का इतना सुंदर मार्मिक चित्रण ही रामचरित मानस को भारत की आत्मा बना सका है। रामचरित मानस के बहुलतावादी चित्रण को रेखांकित करते हुए रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है " जिस समाज के शील सन्दर्भ की मनोहारिणी छटा को देख वन के कोल किरात मुग्ध होकर सात्‍विक वृत्ति में लीन हो गए, उसका प्रभाव उसी समाज में रहनेवाली कैकेयी पर कैसे न पड़ता?
    (क) भए सब साधु किरात किरातिनि राम दरस मिटि गई कलुषाई।
    (ख) कोलकिरात  भिल्ल   बनवासी। मधु सुचि सुन्दर स्वादु सुधा-सी।।
       भरि भरि परन पुटी रुचि रूरी। कन्द  मूल  फल  अंकुर जूरी।।
       सबहिं देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुननामा।।
       देहिं लोग बहु, मोल न लेहीं। फेरत  राम   दोहाई  देहीं।।
    और सबसे पुलकित होकर कहते हैं-
       तुम्ह प्रिय पाहुन बन पगु धारे। सेवा    जोगु  न   भाग  हमारे।।
       देब काह हम तुम्हहिं गोसाईं। ईंधन  पात  किरात  मिताई।।
       यह हमारि अति बड़ि  सेवकाई। लेहिं न   बासन   बसन  चोराई।।
       हम जड़ जीव  जीव  धन  घाती। कुटिल कुचाली कुमतिकुजाती।।
       सपनेहुँ धरम बुद्धि कस  काऊ। यह   रघुनन्दन   दरस   प्रभाऊ।।
    उस पुरुष समाज के प्रभाव से चित्रकूट की रमणीयता में पवित्रता भी मिल गई। उस समाज के भीतर नीति, स्नेह, शील, विनय, त्याग आदि के संघर्ष से जो धर्मज्योति फूटी उससे आसपास का सारा प्रदेश जगमगा उठा-उसकी मधुर स्मृति से आज भी वहाँ की वनस्थली परम पवित्र है। चित्रकूट की उस सभा की कार्रवाई क्या थी, धर्म के एक एक अंग की पूर्ण और मनोहर अभिव्यक्ति थी। रामचरितमानस में वह सभा एक अध्‍यात्मिक घटना है। धर्म के इतने स्वरूपों की एकसाथ योजना, हृदय की इतनी उदात्त वृत्तियों की एकसाथ उद्भावना तुलसी के ही विशाल 'मानस' में सम्भव थी। यह सम्भावना उस समाज के भीतर बहुत से भिन्न भिन्न वर्गों के समावेश द्वारा संघटित की गई है। राजा और प्रजा, गुरु और शिष्य, भाई और भाई, माता और पुत्र, पिता और पुत्री, श्वसुर और जामाता, सास और बहू, क्षत्रिय और ब्राह्मण, ब्राह्मण और शूद्र, सभ्य और असभ्य के परस्पर व्यवहारों का उपस्थित प्रसंग के धर्मगाम्भीर्य और भावोत्कर्ष के कारण, अत्यन्त मनोहर रूप प्रस्फुटित हुआ। धर्म के उस स्वरूप को देख सब मोहित हो गए-क्या नागरिक क्या ग्रामीण और क्या जंगली। भारतीय शिष्टता और सभ्यता का चित्र यदि देखना हो तो इस राज समाज में देखिए। कैसी परिष्कृत भाषा में, कैसी प्रवचन पटुता के साथ, प्रस्ताव उपस्थित होते हैं, किस गम्भीरता और शिष्टता के साथ बात का उत्तर दिया जाता है, छोटेबड़े की मर्यादा का किस सरसता के साथ पालन होता है। सबकी इच्छा है कि राम अयोध्‍या को लौटें; पर उनके स्थान पर भरत बन को जायँ, यह इच्छा भरत को छोड़ शायद ही और किसी के मन में हो। अपनी प्रबल इच्छाओं को लिए हुए लोग सभा में बैठते हैं; पर वहाँ बैठते ही धर्म के स्थिर और गम्भीर स्वरूप के सामने उनकी व्यक्तिगत इच्छाओं का कहीं पता नहीं रह जाता। राजा के सत्यपालन से जो गौरव राजा और प्रजा दोनों को प्राप्त होता दिखाई दे रहा है, उसे खंडित देखना वे नहीं चाहते। जनक, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि धर्मतत्‍व के पारदर्शी जो कुछ निश्चय कर दें, उसे वे कलेजे पर पत्थर रखकर मानने को तैयार हो जाते हैं।"
तुलसी ने मानस में भावुकता के चित्रण के साथ कई सामाजिक संबंधों का भी चित्रण किया है।मसलन, राजा-प्रजा,परिवारीजनों के बीच के संबंध,ऋषियों और राजकुमारों के बीच का संबंध,माता-पुत्र, पिता-पुत्र,पति-पत्नी,आदिवासी और राजा,भाई-भाई का संबंध ,श्वसुर-दामाद का संबंध,ऋषियों और आदिवासियों का संबंध आदि संबंधों का चित्रण करते हुए लेखक ने तदनुरूप भाव की सृष्टि करने में सफलता हासिल की है।
इसी प्रसंग में रामचन्द्र शुक्ल ने एक महत्वपूर्ण बात कही है, उन्होंने लिखा है , " कवि की पूर्ण भावुकता इसमें है कि वह प्रत्येक मानवस्थिति में अपने को डालकर उसके अनुरूप भाव का अनुभव करे। इस शक्ति की परीक्षा का रामचरित से बढ़कर विस्तृत क्षेत्र और कहाँ मिल सकता है! जीवनस्थिति के इतने भेद और कहाँ दिखाई पड़ते हैं! इन क्षेत्रों में जो कवि सर्वत्र पूरा उतरता दिखाई पड़ता है, उसकी भावुकता को और कोई नहीं पहुँच सकता। जो केवल दाम्पत्य रति में ही अपनी भावुकता प्रकट कर सकें, या वीरोत्साह ही का अच्छा चित्रण कर सकें, वे पूर्ण भावुक नहीं कहे जा सकते। पूर्ण भावुक वे ही हैं जो जीवन की प्रत्येक स्थिति के मर्मस्पर्शी अंश का साक्षात्कार कर सकें और उसे श्रोता या पाठक के सम्मुख अपनी शब्दशक्ति द्वारा प्रत्यक्ष कर सकें। हिन्दी के कवियों में इस प्रकार की सर्वांगपूर्ण भावुकता हमारे गोस्वामीजी में ही है जिसके प्रभाव से रामचरितमानस उत्तरी भारत की सारी जनता के गले का हार हो रहा है।'' शुक्लजी ने सवाल उठाया है कि "गोस्वामीजी की भावात्मक सत्ता का अधिक विस्तार स्वीकार करते हुए भी यह पूछा जा सकता है कि क्या उनके भावों में पूरी गहराई या तीव्रता भी है? यदि तीव्रता न होती, भावों का पूर्ण उद्रेक उनके वचनों में न होता, तो वे इतने सर्वप्रिय कैसे होते? भावों के साधारण उदगार से ही सबकी तृप्ति नहीं हो सकती। यह बात अवश्य है कि जो भाव सबसे अधिक प्रकृतिस्थ है, उसकी व्यंजना सबसे अधिक गूढ़ और ठीक है। जो प्रेमभाव अत्यन्त उत्कर्ष पर पहुँचा हुआ उन्होंने प्रकट किया है, वह अलौकिक है, अविचल है और अनन्य है। वह घन और चातक का प्रेम है।"







1 टिप्पणी:

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...