इन अनुमानतः उत्तर आधुनिक समयों की एक आश्चर्यजनक बौद्धिक परिघटना महानगरीय विद्वतपरिषद में सांस्कृतिक अध्ययनों के एक नए ‘ज्ञान क्षेत्र’ का आरंभ होना है। मैं यहां ‘नए’ शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ क्योंकि सांस्कृतिक अध्ययन सही मायनों में कभी भी महत संस्कृति का एक सुव्यवस्थित अध्ययन नहीं था। यह आरमब से ही विचारधारात्मक एवंआनुभविक गवेषणा की एकदिष्ट और आत्मज्ञात विरोधात्मक कार्ययोजना था। एक विचार,जिसने सर्वप्रथम बर्मिँघम विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में एक उपविभाग के रूप में संस्थागत आकार ग्रहण किया,आज विकसित होकर शैक्षिक गतिविधि की समस्त सूची में शामिल हो गया है। इसमें विशिष्ट डिग्री,स्नातक कार्यक्रम,पेशे से संबंधित संस्थाएं, बड़े-बड़े सम्मेलन और अंतर्महाद्वीपीय नेटवर्क ये सभी चीजें उपलब्ध हैं। निगमित प्रकाशकों ने तो सांस्कृतिक अध्ययनों से संबंधित लेखन के लिए पूरी पुस्तक सूची ही समर्पित कर दी है। जिसमें इस विषय से जुड़े न केवल शोध शामिल हैं बल्कि इसका इतिहास भी। इसमें अध्येताओं के लिए भारी भरकम पाठ्यपुस्तक हैं न कि झांसापट्टी केकुछ गाइड। अपनी प्रभावशाली संरचना का निर्माण करने के साथ-साथ सांस्कृतिक अध्ययनों ने अधिकारिक सफलता के साथ शिक्षा के अन्य क्षेत्रों विशेष रूप से साहित्य,इतिहास,समाजशास्त्र और महिलाओं से संबंधित अध्ययन के क्षेत्रों में शोध तथा शिक्षण को नए रूप में प्रस्तुत करने का सुझाव दिया है। तीस साल पूर्व आरंभ हुआ एक छोटा सा रैडिकल हस्तक्षेप अब समस्त मानवविज्ञानों के लिए व्यापक रूप से एक नए सामान्य सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
यह घटना एक समझदार प्रेक्षक में अनिवार्य रूप से एक विसंगति या सहज अवास्तविकता का अहसास उत्पन्न करती है। यह अहसास इस कल्पना से और भी गहरा हो जाता है कि यह घटना उन ऐतिहासिक स्थितियों में हुई जिनमें इसे विफल करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए थी। सांस्कृतिक अध्ययन रैडिकल नवपरिवर्तन तथा पुनर्संरचना की एक स्व-परिभाषित योजना है। जिन बरसों में इसका पल्लवन हुआ, वह उन शैक्षिक संस्थानों, जहां इस विषय का अध्ययन होता है, (विशेष रूप से, लेकिन केवल ब्रिटेन में ही नहीं) उसके लिए कठोर वित्तीय संयम तथा उन रैडिकल आंदोलनों के पराभव और दिशाभ्रम कासमय था, जो इसके प्रेरणा स्रोत रहे हैं। सांस्कृतिक अध्ययन की धूम एक प्रभावशाली वास्तविकता है लेकिन किसी को भी इसे विकासगाथा मानकर जश्न मनाना नहीं चाहिए। सांस्कृतिक अध्ययन के कारण जो व्यक्तिगत तथा सामूहिक उपलब्धियां संभव हुई हैं, इन्हें स्वीकार करना उचित है। लेकिन साथ ही हमें सांस्कृतिक विश्लेषण की रीति के रूप में इस योजना के आम तर्क पर और सांस्कृतिक राजनीति पर कुछ आवश्यक आलोचनात्मक विवेचना भी करनी चाहिए।
मैंने यहां यह विवेचना पांच संक्षिप्त टिप्पणियों के रूप में करने का प्रयास किया है। सबसे पहले मैंने सांस्कृतिक अध्ययन को सांस्कृतिक विश्लेषण की एक अलग स्पष्ट प्रवृत्ति के रूप में परिभाषित करने की कोशिश की है। इसके बाद इस विषय में जीवन के कुछ अंतर्विराधों तथा विचारों की चर्चा करते हुए अंत में इसमें जो संबंध दांव पर है, जैसे, संस्कृति और राजनीति के बीच के संबंध के बारे में कुछ सामान्य आलोचनात्मक अभ्युक्तियां दी हैं।
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सांस्कृतिक अध्ययन की पुराशास्त्रीय परिभाषा रेमंड विलियम्स द्वारा प्रतिपादित की गई थी। उनके अनुसार यह ऐतिहासिक भौतिक मानवीय संघटन समझे जाने वाले समाजों में बोध-निर्माण की पूरी दुनिया (व्याख्याओं, विश्लेषणों, अधिनिरूपणों, सभी प्रकार के मूल्यांकनों) में तथा 'संपूर्ण जीवन शैली' के नियामक भाग के रूप में बोध-निर्माण का अन्वेषण करेगा। यानी सांस्कृतिक अध्ययन सबसे पहले विश्लेषण के क्षेत्र में व्यापक विस्तार की मांग करता है; साहित्यिक आलोचना की सीमाओं से भी परे जिससे यह उत्पन्न हुआ है। अर्थात सभी सामाजिक अर्थों की जांच की जा सकती है। बहरहाल, सांस्कृतिक अध्ययन की परिभाषा के लिए इतना कहना काफी नहीं। सांस्कृतिक आलोचना (या कल्चुरीक्रितिक, जो कि इसका मानक जर्मन शब्द है जिसका मैं इसके बाद रोमन टाइप में उपयोग करना पसंद करूंगा क्योंकि मिलते-जुलते अंग्रेजी के शब्द इतने आम हैं कि वे मेरे तर्क के लिए आवश्यक परिभाषा को सही-सही संप्रेषित नहीं कर पाते) की पुरानी परंपरा दैनिक जीवन के अर्थ के अध्ययन को विशेष महत्व देती थी। इस परंपरा के लेखकों में इंगलैंड के साहित्यिक समालोचक एफ.आर. लेविस तथा क्यू.डी. लेविस, स्पेन के दार्शनिक जोस ओटर्ेगा वाई गैसेट, या जर्मन के युवा थॉमस मान थे। उन्होंने लोकतंत्र की नई 'जनसमूह संस्कृति' का तथा वाणिज्यीकृत साक्षरता का पूरे मनोवेग के साथ प्रत्युत्तर दिया लेकिन हमेशा उच्च विचार की भावना और परंपरावादी जुगुप्सा से। इनके विपरीत सांस्कृतिक अध्ययन अपने आंकड़ों के 'प्रतिक्रियात्मक समतुल्यीकरण' का प्रस्ताव करता है। दूसरे शब्दों में, हालांकि कविता और पॉपकॉर्न के विज्ञापन किसी भी सत्याभासी नैतिक अर्थ में समान महत्व के नहीं हो सकते लेकिन सामाजिक अर्थों के वाहक के रूप में दोनों काफीरोचक हैं और उस अर्थ में दोनों के प्रति समान विश्लेषणात्मक गंभीरता होनी चाहिए। बहरहाल यह विभेद भी, पहली परिभाषा के समान, सांस्कृतिक अध्ययन की विवेचना के लिए अपर्याप्त है। सांस्कृतिक अध्ययन महज मानवशास्त्र की एक शैली नहीं जो सांकेतिक प्रतिक्रियाओं के एक समूह के रूप में समाज का अध्ययन करता है। एक तीसरा विशिष्ट विवरण भी है जो बहुत महत्वपूर्ण है।
सांस्कृतिक अध्ययनों ने सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) की सामाजिक संवेदनशीलता और इसके रेंज का महज विस्तार नहीं किया बल्कि उन मूल्यों के संपूर्ण तंत्र को चुनौती दी जो पुरानी परंपरा और सांस्कृतिक सत्ता के पूरे तंत्र का समर्थन करता था तथा एक वैकल्पिक सत्ता के रूपों को यदि स्थापित नहीं किया, तो कम से कम उन्हें ढूंढ़ने का कार्य आरंभ किया। इसी अर्थ में सांस्कृतिक अध्ययन को 'निसर्गत: राजनीतिक' माना जाता है।
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सांस्कृतिक अध्ययन के एक विस्तारित, समतल क्षेत्र का यह प्रत्यय व्यावहारिक कम और सैध्दांतिक अधिक है। कोई पेशेवर समूह, कोई भी व्यक्ति 'सभी कुछ' के अध्ययन का दिखावा नहीं कर सकता। अध्ययन सामग्रियों के एक उदासीन चयन की धारणा भी परस्पर विरोधी है। चयन के लिए कुछ मौलिक विकल्प हैं; और ऐसा प्रतीत होता है अपनी सभी संभव अनुभूतियों की भिन्नता तथा संस्थागत परिस्थिति की विविधता के बावजूद सांस्कृतिक अध्ययन अपनी प्राथमिकताओं के अर्थ में अपेक्षाकृत स्थायी रहा है। इसके विश्लेषण का मुख्य क्षेत्र सामाजिक परिघटनाओं का वही रेंज रहा है जिसने पारंपरिक सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को अत्यधिक चौकन्ना और प्रतिकर्षित कर दिया यानी उन्नत पूंजीवाद के प्रत्ययों तथा 'जनसमूह' सांस्कृतिक रूपों : सिनेमा, टेलीविजन, जनपत्रकारिता, विज्ञापन, शॉपिंग को। इसका प्रमुख विवादात्मक थीम, जो सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) के रूढ़ि विश्वास का सीधे-सीधे खंडन करता है, यह रहा है कि इस प्रकार की संस्कृति महज मूर्छाकारी औषधि नहीं, जिसे समाजातीय जनसमूह में उदासीनता उत्पन्न करने के लिए सफलतापूर्वक तैयार किया गया हो बल्कि इसके विपरीत इसमें सक्रिय, स्वैच्छिक, चुनिंदा और विध्वंसात्मक जनभागीदारी है।
संस्कृति के किसी भी समाजवादी सिध्दांत के लिए क्षेत्र तथा परिप्रेक्ष्य के ये परिवर्तन अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यदि सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) की मतांध प्रस्थापनाएं वास्तव में वैध हैं, और कुछ मार्क्सवादी खासकर हर्बर्ट मारकस उस विचार से सहमत हैं, तो मेहनतकश वर्ग की आत्म मुक्ति के रूप में समाजवाद को पुराशास्त्रीय अर्थग्रहण एक सांप्रदायिक धर्मपरायणता से ज्यादा कुछ भी नहीं। जब अंतोनियो ग्राम्शी ने कहा कि सभी मनुष्य बुध्दिजीवी है, यद्यपि उनमें से केवल कुछ को ही 'प्रबुध्द' का दर्जा तथासामाजिक कार्य का दायित्व दिया जाता है तो उन्होंने यह बात इसी पुराशास्त्रीय भावना से कही थी।
हालांकि ग्राम्शी के सूत्र का निर्णायक पहलू इसका दोहरा चरित्र है : यह न केवल मुक्ति और भौतिक संभावना पर बल देता है बल्कि वर्चस्व के स्थापित तथ्य की भी पुष्टि करता है। सांस्कृतिक अध्ययन की प्रमुख प्रवृत्ति का जोर दूसरी ओर है। चूंकि सांस्कृतिक अध्ययन अपने विश्लेषण क्षेत्र में 'उच्च' सांस्कृतिक रूपों तथा आचरणों को शामिल नहीं करता है अत: यह अपनी ही विचारधारात्मक महत्वाकांक्षा से समझौता करता है जो कि 'संपूर्ण जीवन शैली' या और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो संस्कृति के समग्र विद्यमान सामाजिक संबंधों की विवेचना करना है। और चूंकि यह प्रचलित सांस्कृतिक व्यवहारों के सक्रिय तथा महत्वपूर्ण तत्व पर एकतरफा जोर देता है अत: इसमें असमानता और दमन की व्याकुल कर देने वाली ऐतिहासिक वास्तविकताओं की अनदेखी करने की प्रवृत्ति भी है। ये ऐतिहासिक वास्तविकताएं उनका निर्धारण करती हैं। ये प्रवृत्तियां संयुक्त रूप से उचित आलोचना सिध्दांत के विकास तथा विश्लेषण के विरुध्द कार्य करती है; जो सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को प्रतिस्थापित करने का दावा करती हैं लेकिन वास्तव में इसकी प्रतिपूरक प्रतिक्रिया से ज्यादा कुछ भी प्रस्तुत नहीं करती है।
सांस्कृतिक अध्ययन में कुछ मत इन प्रवृत्तियों के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं लेकिन बिना किसी खास सफलता के। बहुसंख्यक प्रवृत्ति के विरुध्द 'जनवाद' का आरोप लगाया गया है और यह सही भी है। लेकिन अपने सभी रूपों में जनवाद अपने आपको विरोधपरक पाता है; यहां इसके विरुध्द इससे भी अधिक गंभीर आरोप लगाए जा सकते हैं। चूंकि आज अधिकांश महानगरीय लोक संस्कृति ने पण्यीकृत मनोरंजन या सौंदयीकृत जीविकोपार्जन कार्य का रूप ले लिया है; 'जीवनशैली' में सब कुछ बाजार के साथ संघटित है, अत: सांस्कृतिक अध्ययन का स्वत:स्फूर्त झुकाव वास्तव में विन्यासवादी है; और सबसे बुरे ढंग से सोचने पर यही 'सैटेलाइट टेलीविजन तथा शापिंग माल्स' की विचारधारात्मक आत्मचेतना है।
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माना कि यह विवरण स्थिति की सबसे खराब विवेचना है। इसके प्रति उल्लेखनीय ऊर्जा और प्रतिभा तथा कार्य का असाधारण रिकार्ड प्रस्तुत किया जाना चाहिए। लेकिन यह इस स्वीकृत दृढ़ विश्वास के अर्थ पर और विचार करने के लिए प्रेरित करता है कि सांस्कृतिक अध्ययन अनिवार्य रूप से वामपंथ की ओर है या जैसा कि एक जोरदार तथा खोखले पदबंध में हमसे बार-बार कहा जाता है कि यह 'निर्सगत: राजनीतिक' है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सांस्कृतिक अध्ययनों ने समाजवादी, स्त्रीवादी, नस्लवादविरोधी, साम्राज्यवादविरोधी जैसे मुक्तिदायी सामाजिक उद्देश्यों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है।इन विशिष्ट और ठोस अर्थों में इनका हस्तक्षेप राजनीतिक है। लेकिन सांस्कृतिक अध्ययन को महज 'हस्तक्षेप' समझते रहना रूमानी होगा। अब यह संस्थागत शैक्षिक गतिविधि है। और शैक्षिक गतिविधि, इसके आंतरिक गुण चाहे जो भी हो, निश्चित तौर पर राजनीतिक परियोजना नहीं हो सकती। जब कोई विरोधात्मक प्रवृत्ति एक ऐसा विषय बन जाती है जिसके लिए अलग बजट प्रावधान हो, जो प्रत्यय-पत्र, आजीविका और शोध के लिए धन मुहैया कराता हो तो क्या होता है? कमोबेश वही जो कोई यथार्थवादी उम्मीद करेगा। कोई भी शैक्षिक विषय सम्मान रूप में या यथार्थ रूप में अपने छात्रों या शिक्षकों पर राजनीतिक परीक्षण लागू नहीं कर सकता। वाकई वह दिन दूर नहीं और शायद वह आ चुका है जब इस विषय के वास्तविक प्राध्यापक, जिन्होंने इसमें प्रशिक्षण प्राप्त किया है तथा इसे विद्वतापूर्ण आजीविका के रूप में अपनाया है 'विध्वंस' या इसी प्रकार की शीर्षक वाले नेमी पाठयक्रमों पर कक्षाओं में परिचयात्मक व्याख्यान देने के लिए अपना स्थान ग्रहण करेंगे। यह केवल कटु परिकल्पना नहीं। यदि हम कोई पहले का उदाहरण देखना चाहें तो केवल एफ.आर. लेविस और उसके सहकर्मियों का स्मरण करने की आवश्यकता है जिनकी साहित्यिक आलोचना की युयुत्सु, उग्र और विद्वता-विरोधी शैली का व्यापक अनुकरण किया गया और जो अंतत: काफी पारंपरिक हो गई लेकिन इसका विरोधात्मक वैचित्र्य इसमें अभी भी था। उपदेश देना बेकार है लेकिन सांस्कृतिक अध्ययन से जुड़े वामपंथी विचारकों को उनका नया 'राजनीतिक' विषय उन्हें जितना प्रोत्साहित करने के लिए तत्पर प्रतीत होता है उससे कहीं अधिक उन्हें व्यंग्यात्मक आत्मचेतना की आवश्यकता है।
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लेविस का यह उदाहरण सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) और सांस्कृतिक अध्ययन के बीच के संबंध के बारे में और भी विचार करने के लिए प्रेरित करता है। और वो भी एक ऐसे आयाम में जहां वे एक दूसरे के गहरे विरोधी प्रतीत होते हैं, यानी राजनीतिक आयाम में।
इसके भिन्न राष्ट्रीय तथा अनुशासनिक रंग-प्रबंधों (डिसिपलिनरी कलरेशंस) के बावजूद सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) एक स्थायी बौध्दिक परिघटना थी। इसके प्रवर्तक सामान्यतया मूल्यों के एक सत्तात्मक केंद्र से बोलने का दावा करते थे जिन्हें 'मानवीय' या 'सार्वभौम' या 'पारंपरिक' जैसे पदों के रूप में अभिलक्षित किया जा सकता है और जिसके लिए सर्वाधिक स्वीकार्य संक्षिप्त शब्द 'संस्कृति' है। इस अर्थ में उनका स्व-परिभाषित कार्य आधुनिकता के बढ़ते खतरों के विरुध्द संस्कृति के हितों की रक्षा करना था, जिसका निरूपण बौध्दिक विशिष्टीकरण या औद्योगिक प्रौद्योगिकी या वाणिज्यवाद या 'साधारण समाज' के रूप में किया जा सकता है और जिसके लिए पुराशास्त्रीय संक्षिप्त शब्द 'सभ्यता' थी। सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) प्राय: संभ्रांतवर्गीय थी; यहएक अकाटय सत्य था कि संस्कृति हमेशा कुछ लोगों का ही सरोकार होना चाहिए जिसे सामान्य उदासीनता और अबोध्यता की स्थिति में जारी रखा जाना चाहिए। इसकी वकालत करने वालों के लिए खास राजनीतिक विकल्प दक्षिणपंथ से वामपंथ तक परिवर्तनीय थे। लेकिन सभी मामलों में ये विकल्प गौण थे क्योंकि सांस्कृतिक आलोचना का अंतर्निष्ठ उद्देश्य दृढ़तापूर्वक एक प्रकार की सामाजिक सत्ता प्रस्तुत करना था जो 'केवल' राजनीतिक नहीं इससे आगे हो। अत: संस्कृति, जो कि आवश्यक मूल्यों का क्षेत्र है तथा सभ्यता, जो कि सामाजिक 'मशीनरी' का क्षेत्र, के बीच मुख्य अंतर ने ही इस कल्पना को असंभव बना दिया कि राजनीति एक सार्थक सामाजिक गतिविधि है।
सांस्कृतिक अध्ययन ने सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को विस्थापित करने का प्रयास किया है। इसने 'संस्कृति' और 'साधारण समाज' (मासेस) की एक वैकल्पिक व्याख्या प्रस्तुत की है। इसकी गतिविधि, विकल्प, और महत्व की खोज की है। वहीं सांस्कृतिक आलोचना केवल जड़ता और यंत्रवाद को ही देख सकती थी और इसने ऐसा रैडिकल सामाजिक लक्ष्यों के नाम पर किया है। फिर भी यहां कुछ कौतूहलपूर्ण है। स्वाभाविक है कि सांस्कृतिक अध्ययन ने उदारवादी और रूढ़िवादी विचारों को निरंतर चुनौती ही है लेकिन यदि यह किसी चीज से पूर्वग्रहग्रसित रहा है तो वह वामपंथ की कमियां हैं। अब यह सच है कि समझने के लिए कई चीजें हैं लेकिन सांस्कृतिक अध्ययन ने सबसे अधिक केवल एक बात पर फोकस किया है। इसका लगातार सुझाव, जो कि प्रभावी रूप में इस विषय का संकेत-धुन भी है, यह है कि लोक संस्कृति न केवल राजनीतिक समझ को बढ़ाती है, प्रत्युत कुछ अर्थों में वामपंथ को विरासत में मिली राजनीतिक परंपराओं को अवैध करार देती है तथा अतिक्रमण करती है। दूसरे शब्दों में सांस्कृतिक अध्ययन केवल राजनीति ('वर्ग', 'राज्य', 'संघर्ष', 'क्रांति' और इसी प्रकार की पुरानी अवधारणा) को लोक संस्कृति की उच्चतर सत्ता के अधीन लाना चाहता है। और ऐसा करने में यह विश्वसनीयता के साथ सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) के मूल पैटर्न को दोहराता है। यह सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को नकारता है लेकिन ठीक वैसे ही जैसे दर्पण का बिंब आकृति को अक्षुण्ण रखते हुए इसके मूल को उलटा करता है। यहीं उन विरोधाभासों का स्रोत है जो इस हस्तक्षेपवादी विषय जिसे सांस्कृतिक अध्ययन कहते हैं के जीवन का निर्माण करता है।
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तो फिर हम सांस्कृतिक सिध्दांत तथा राजनीति के बीच संबंध के बारे में कैसे सोच सकते हैं? मैंने यह दावा किया है कि सांस्कृतिक अध्ययन इस संबंध की विशिष्ट तथा गहरी समझ को दोहराता है। ऐसा कहने का मेरा अभिप्राय यह है कि यह समझ गलत है और यह सांस्कृतिक अध्ययन से जुड़े वामपंथियों के संजीदा राजनीतिक उद्देश्यों के साथ समझौताकर सकता है। निष्कर्ष के रूप में, मैं समाजवादी सांस्कृतिक सिध्दांत की 'राजनीतिक' स्थिति के बारे में वैकल्पिक तरीके से विचार करने का साहस करूंगा।
संस्कृति और राजनीति के बीच का संबंध वामपंथ में दो प्रकार के न्यूनीकरणवाद के अध्यधीन रहा है। बिना किसी खेद के हम एक बड़े विकल्प का त्याग कर सकते हैं : यानी प्रचलित राजनीतिक न्यूनीकरणवाद, जिसकी वजह से साम्यवादी आंदोलन कुख्यात हो गया, जो सभी सांस्कृतिक पहल के एक पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के रूप में वर्गीकृत करता है और जिसके मानवीय संभावनाओं संबंधी बोध का आरंभ और अंत राजनीतिक उद्देश्य के साथ होता है। लेकिन अब हमारे पास एक वैकल्पिक न्यूनीकरणवाद है। इस बार यह संस्कृतिवादी किस्म का है जिसे अकादमी सांस्कृतिक अध्ययन के अधीन तथा बाहर की दुनिया में उत्तरआधुनिक बुध्दिमत्ता के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह न्यूनीकरणवाद सांस्कृतिक विभेद की सभी अभिव्यक्तियों को राजनीतिक मानकर सम्मानित करता है और इसलिए विशेषाधिकारवाद को प्रोत्साहित करता है तथा अनिवार्य रूप से कठोर अर्थ में राजनीति का आत्मासक्ति विषयक विघटन करता है। यदि न्यूनीकरणवाद ने संस्कृति को एक राजनीतिक उपकरण के रूप में स्वीकार किया है तो विशेषाधिकारवाद ने प्रभावी रूप से राजनीति की संभावना को ही समाप्त कर दिया और कहूंगा कि सचमुच राजनीतिक संघर्ष के क्षेत्र के रूप में संस्कृति की संभावना को ही समाप्त कर दिया है।
एक समाजवादी सांस्कृतिक सिध्दांत के लिए सांस्कृतिक आचरणों की संभावनाओं तथा सीमाओं को स्वीकार करना आवश्यक है। इसके लिए यह स्वीकार करना भी जरूरी है कि इस प्रकार के आचरण राजनीति से कम भी हैं, अधिक भी। हालांकि संस्कृति एक विवादित धरातल है, राजनीतिक संघर्ष का एक क्षेत्र, लेकिन यह केवल राजनीतिक नाटयशाला नहीं हो सकती, न ही पूर्णरूपेण राजनीति को ही समाहित कर सकती है। संस्कृति के समाजवादी सिध्दांत का पहला नियम कहता है कि राजनीति और संस्कृति के बीच संबंध की प्रतीकात्मक अवस्था 'विसंगति' होगी। यह कोई बहुत आकर्षक प्रतिपादन नहीं प्रतीत हो सकता लेकिन सामाजिक अर्थों की समग्रता या 'संपूर्ण जीवन शैली' को समाहित करने के लिए 'संस्कृति' के दायरे का एक बार विस्तार कर लेने के बाद इस पर बल देना आवश्यक है। क्योंकि यह विस्तारित अर्थग्रहण समाजवादी सांस्कृतिक सिध्दांत के लिए महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ यह अपनी भी अवधारणात्मक समस्याएं खड़ी करती है।
यदि संस्कृति सामाजिक अर्थों की संपूर्णता है और यदि राजनीतिक गतिविधि का उद्देश्य एक दिए हुए स्थान के भीतर सामाजिक संबंधों की संपूर्णता है (जैसा कि एक सच्ची मुक्तिकारी राजनीति की होनी चाहिए) तो प्रथम द्रष्टया यह प्रतीत हो सकता है कि मानो संस्कृति और राजनीति दोनों एक ही चीज हैं, जैसा कि अब सांस्कृतिक अध्ययन मानने को तैयार है। सैध्दांतिक रूप में हम यह नहीं कह सकते कि एक प्रकार की सामाजिक विषय-वस्तु राजनीतिक और दूसरी प्रकार की नहीं। यदि पूरा समाज संस्कृति के अंत:क्षेत्र में है तोऐसा लगता है कि कोई भी सांस्कृतिक प्रवृत्ति वैध रूप से अपने आपको 'राजनीतिक' कह सकती है।
लेकिन यहां एक मौलिक भ्रांति है। ऐसा समझा जा सकता है कि संस्कृति और राजनीति दोनों ही सामाजिक संबंधों की समग्रता को अपने में समेटे हुए हैं, लेकिन वे ऐसा अलग-अलग रूप में करते हैं। राजनीति सामाजिक संबंधों के चरित्र के निर्धारण में अपनी भूमिका के कारण अन्य सामाजिक आचरणों से अलग है। जब यह शब्द और बिंब के रूप में पूरी तरह अर्थ के क्षेत्र में भी कार्य करती है तो राजनीतिक आचरण अपने विशिष्टीकृत प्रकार्य द्वारा विनियमित होता है। यह एक विचारात्मक आचरण (डेलिबरेटिव प्रैक्टिस) है जो सामान्यतया निर्णयोन्मुख होता है; नियंत्रण संबंधी प्रश्न हमेशा रहता है कि, 'क्या किया जाना है?' शांतिपूर्ण जनतांत्रिक स्थितियों में यह एक आदेशात्मक आचरण (इंजंक्टिव प्रैक्टिस) कार्य है, प्रभावी सहमति के लिए एक संघर्ष। और अंतत: यह उन संसाधनों की ओर मुड़ता है जिन्हें संस्कृति में परिणत नहीं किया जा सकता है यानी भौतिक अवपीड़न के साधन।
सांस्कृतिक आचरण इस प्रकार के नहीं होते जिन्हें हम अपेक्षाकृत कम अमूर्त रूप में वह समझें जिनका प्रमुख प्रकार्य अर्थ उत्पन्न करना होता है। उनके अर्थ की दुनिया भी वही है। उनमें राजनीतिक संकेत बहुत अधिक हैं लेकिन उन विशिष्टीकृत लक्षणों की कमी है, और इनकी आवश्यकता भी नहीं। विचार-विमर्श, आदेश और बलप्रयोग द्वारा सामाजिक संबंधों की प्रकृति का निर्धारण करना संस्कृति का कार्य नहीं है। इस अंतर का निहितार्थ ग्राम्शी द्वारा अनुभव किया गया। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक निर्णय और राजनीतिक निर्णय की प्रकृति अलग होती है और उनमें एक स्थान पर मिलने की प्रवृत्ति भी नहीं होती।
सांस्कृतिक आचरण किसी भी और सभी विभेदों को निरपेक्ष मान सकता है (जैसा कि एक बार जार्ज लुकास ने कहा था कि कला और प्रत्ययों के क्षेत्र में कोई भी संयुक्त मोर्चा नहीं होता)। जबकि राजनीति किसी खास वस्तु स्थिति को लाने या रोकने के लिए, जीवन के इस या उस सामान्य स्थिति को प्राप्त करने के लिए विभेदों के साथ समान रूप में व्यवहार नहीं कर सकती। इसमें उन विभेदों को पाटने की क्षमता होनी चाहिए जिन्हें सांस्कृतिक आचरण निरपेक्ष मानता है ताकि विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एकजुटता बनाई जा सके। साथ ही उन्हीं कारणों से राजनीतिक हित सांस्कृतिक एकजुटता वाले क्षेत्र में विभाजन को प्रोत्साहित करना अनिवार्य बना सकता है। उदाहरण के लिए, एक राजनीतिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए (उदाहरणस्वरूप राज्य द्वारा वित्तपोषित नर्सरी की व्यवस्था) किसी धार्मिक संप्रदाय के भीतर वर्ग तथा लिंगभेद संबंधी वैमनस्य को उजागर करना आवश्यक हो सकता है। किसी दिए हुए सांस्कृतिक हित के परिप्रेक्ष्य में देखने पर राजनीतिक मांग हमेशा ही या तो बहुत अधिक या बहुत कम होती है और संस्कृति के विरुध्द राजनीतिक शिकायत भी हमेशा इसी प्रकार की होती है। प्रत्येक एक-दूसरे के सापेक्ष, सांप्रदायिक और एकतावर्धक दोनों हैं।
सांस्कृतिक अध्ययन इसी मौलिक विभेद का लोप करता है। यहां इसके ऐतिहासिक कारणों की पड़ताल करने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, लेकिन इसके परिणामों के बारे में कुछ कहा जा सकता है। आरंभ से ही सांस्कृतिक अध्ययन की प्रवृत्ति राजनीति को संस्कृति में विलीन करने की रही है। रेमंड विलियम्स ने भी अनुदर्शन में स्वीकार किया कि उन्होंने सांस्कृतिक राजनीति की संभावनाओं को बढ़ा दिया था। वह सांस्कृतिक क्षेत्र से बाहर राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे और अपने सैध्दांतिक कार्य में भी इस प्रवृत्ति से कभी भी बाहर नहीं निकल पाए। फिर भी उन्होंने तथा उनके पूर्व के समाजवादी सांस्कृतिक अध्ययन करने वालों ने कम से कम दो महत्वपूर्ण कार्य किए : पहला, स्तालिनवादी रूप में संस्कृति को राजनीतिक साधन बनाने की अस्वीकृति करते हुए उन्होंने विशेष रूप से उपभोक्ता पूंजीवाद तथा 'जन' संचार के युग में संघर्ष की जमीन के रूप में इसके महत्व को स्वीकार किया। दूसरा, 'लोक' संस्कृति को संवेदनमंदक रहस्यवाद मानकर खारिज करने की संभ्रांतवर्गीय प्रवृत्ति के विरुध्द उन्होंने इसकी वैधता पर बल दिया। पूंजीवादी समाज में लोक संस्कृति वर्चस्व या वस्तुवाद (कमोडिफिकेशन) की अनिवार्यताओं के संबंधों से बाहर कभी भी नहीं रही। फिर भी उन संबंधों तथा अनिवार्यताओं के भीतर 'साधारण समाज' कभी भी केवल निष्क्रिय और दमित नहीं था। लोक संस्कृति में दमन और प्रतिरोध दोनों ही परिलक्षित होते थे।
आज सांस्कृतिक अध्ययन न केवल राजनीति का संस्कृति में विलय को आगे बढ़ा रहा है बल्कि इस प्रक्रिया में यह इसके प्रथ प्रदर्शकों की विरासत को भी बरबाद कर रहा है। यह सांस्कृतिक आचरण से परे राजनीति के लिए या सांस्कृतिक विभेद के विशेषाधिकार से परे किसी राजनीतिक एकजुटता के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ता। वास्तव में सांस्कृतिक प्रतिवाद की राजनीति के लिए भी कोई स्थान नहीं है। और यदि 'उच्च' संस्कृति तथा असमानता और वर्चस्व सभी जनसमूह संस्कृति की ऐतिहासिक वास्तविकताओं से अमूर्त रूप में पहले ही सक्रिय तथा अत्यंत महत्वपूर्ण है, यदि टेलीविजन और शॉपिंग पहले ही विध्वंस के थिएटर हैं तो संघर्ष के लिए कोई जगह नहीं और दरअसल इसकी आवश्यकता भी नहीं। लेकिन यदि इन सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों से परे कुछ भी नहीं, तो 'साधारण समाज' का दमन तथा उपभोक्ता पूंजीवाद के आगे उनका आत्मसमर्पण उतना ही संपूर्ण है जितना सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) के प्रवर्तक मानते थे। यहां पर सांस्कृतिक अध्ययन का सबसे गहरा अंतर्विराध यह है कि इसका अंत इस जनतंत्रविरोधी निर्णय की पुष्टि तथा जश्न के साथ होता है।
यह घटना एक समझदार प्रेक्षक में अनिवार्य रूप से एक विसंगति या सहज अवास्तविकता का अहसास उत्पन्न करती है। यह अहसास इस कल्पना से और भी गहरा हो जाता है कि यह घटना उन ऐतिहासिक स्थितियों में हुई जिनमें इसे विफल करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए थी। सांस्कृतिक अध्ययन रैडिकल नवपरिवर्तन तथा पुनर्संरचना की एक स्व-परिभाषित योजना है। जिन बरसों में इसका पल्लवन हुआ, वह उन शैक्षिक संस्थानों, जहां इस विषय का अध्ययन होता है, (विशेष रूप से, लेकिन केवल ब्रिटेन में ही नहीं) उसके लिए कठोर वित्तीय संयम तथा उन रैडिकल आंदोलनों के पराभव और दिशाभ्रम कासमय था, जो इसके प्रेरणा स्रोत रहे हैं। सांस्कृतिक अध्ययन की धूम एक प्रभावशाली वास्तविकता है लेकिन किसी को भी इसे विकासगाथा मानकर जश्न मनाना नहीं चाहिए। सांस्कृतिक अध्ययन के कारण जो व्यक्तिगत तथा सामूहिक उपलब्धियां संभव हुई हैं, इन्हें स्वीकार करना उचित है। लेकिन साथ ही हमें सांस्कृतिक विश्लेषण की रीति के रूप में इस योजना के आम तर्क पर और सांस्कृतिक राजनीति पर कुछ आवश्यक आलोचनात्मक विवेचना भी करनी चाहिए।
मैंने यहां यह विवेचना पांच संक्षिप्त टिप्पणियों के रूप में करने का प्रयास किया है। सबसे पहले मैंने सांस्कृतिक अध्ययन को सांस्कृतिक विश्लेषण की एक अलग स्पष्ट प्रवृत्ति के रूप में परिभाषित करने की कोशिश की है। इसके बाद इस विषय में जीवन के कुछ अंतर्विराधों तथा विचारों की चर्चा करते हुए अंत में इसमें जो संबंध दांव पर है, जैसे, संस्कृति और राजनीति के बीच के संबंध के बारे में कुछ सामान्य आलोचनात्मक अभ्युक्तियां दी हैं।
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सांस्कृतिक अध्ययन की पुराशास्त्रीय परिभाषा रेमंड विलियम्स द्वारा प्रतिपादित की गई थी। उनके अनुसार यह ऐतिहासिक भौतिक मानवीय संघटन समझे जाने वाले समाजों में बोध-निर्माण की पूरी दुनिया (व्याख्याओं, विश्लेषणों, अधिनिरूपणों, सभी प्रकार के मूल्यांकनों) में तथा 'संपूर्ण जीवन शैली' के नियामक भाग के रूप में बोध-निर्माण का अन्वेषण करेगा। यानी सांस्कृतिक अध्ययन सबसे पहले विश्लेषण के क्षेत्र में व्यापक विस्तार की मांग करता है; साहित्यिक आलोचना की सीमाओं से भी परे जिससे यह उत्पन्न हुआ है। अर्थात सभी सामाजिक अर्थों की जांच की जा सकती है। बहरहाल, सांस्कृतिक अध्ययन की परिभाषा के लिए इतना कहना काफी नहीं। सांस्कृतिक आलोचना (या कल्चुरीक्रितिक, जो कि इसका मानक जर्मन शब्द है जिसका मैं इसके बाद रोमन टाइप में उपयोग करना पसंद करूंगा क्योंकि मिलते-जुलते अंग्रेजी के शब्द इतने आम हैं कि वे मेरे तर्क के लिए आवश्यक परिभाषा को सही-सही संप्रेषित नहीं कर पाते) की पुरानी परंपरा दैनिक जीवन के अर्थ के अध्ययन को विशेष महत्व देती थी। इस परंपरा के लेखकों में इंगलैंड के साहित्यिक समालोचक एफ.आर. लेविस तथा क्यू.डी. लेविस, स्पेन के दार्शनिक जोस ओटर्ेगा वाई गैसेट, या जर्मन के युवा थॉमस मान थे। उन्होंने लोकतंत्र की नई 'जनसमूह संस्कृति' का तथा वाणिज्यीकृत साक्षरता का पूरे मनोवेग के साथ प्रत्युत्तर दिया लेकिन हमेशा उच्च विचार की भावना और परंपरावादी जुगुप्सा से। इनके विपरीत सांस्कृतिक अध्ययन अपने आंकड़ों के 'प्रतिक्रियात्मक समतुल्यीकरण' का प्रस्ताव करता है। दूसरे शब्दों में, हालांकि कविता और पॉपकॉर्न के विज्ञापन किसी भी सत्याभासी नैतिक अर्थ में समान महत्व के नहीं हो सकते लेकिन सामाजिक अर्थों के वाहक के रूप में दोनों काफीरोचक हैं और उस अर्थ में दोनों के प्रति समान विश्लेषणात्मक गंभीरता होनी चाहिए। बहरहाल यह विभेद भी, पहली परिभाषा के समान, सांस्कृतिक अध्ययन की विवेचना के लिए अपर्याप्त है। सांस्कृतिक अध्ययन महज मानवशास्त्र की एक शैली नहीं जो सांकेतिक प्रतिक्रियाओं के एक समूह के रूप में समाज का अध्ययन करता है। एक तीसरा विशिष्ट विवरण भी है जो बहुत महत्वपूर्ण है।
सांस्कृतिक अध्ययनों ने सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) की सामाजिक संवेदनशीलता और इसके रेंज का महज विस्तार नहीं किया बल्कि उन मूल्यों के संपूर्ण तंत्र को चुनौती दी जो पुरानी परंपरा और सांस्कृतिक सत्ता के पूरे तंत्र का समर्थन करता था तथा एक वैकल्पिक सत्ता के रूपों को यदि स्थापित नहीं किया, तो कम से कम उन्हें ढूंढ़ने का कार्य आरंभ किया। इसी अर्थ में सांस्कृतिक अध्ययन को 'निसर्गत: राजनीतिक' माना जाता है।
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सांस्कृतिक अध्ययन के एक विस्तारित, समतल क्षेत्र का यह प्रत्यय व्यावहारिक कम और सैध्दांतिक अधिक है। कोई पेशेवर समूह, कोई भी व्यक्ति 'सभी कुछ' के अध्ययन का दिखावा नहीं कर सकता। अध्ययन सामग्रियों के एक उदासीन चयन की धारणा भी परस्पर विरोधी है। चयन के लिए कुछ मौलिक विकल्प हैं; और ऐसा प्रतीत होता है अपनी सभी संभव अनुभूतियों की भिन्नता तथा संस्थागत परिस्थिति की विविधता के बावजूद सांस्कृतिक अध्ययन अपनी प्राथमिकताओं के अर्थ में अपेक्षाकृत स्थायी रहा है। इसके विश्लेषण का मुख्य क्षेत्र सामाजिक परिघटनाओं का वही रेंज रहा है जिसने पारंपरिक सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को अत्यधिक चौकन्ना और प्रतिकर्षित कर दिया यानी उन्नत पूंजीवाद के प्रत्ययों तथा 'जनसमूह' सांस्कृतिक रूपों : सिनेमा, टेलीविजन, जनपत्रकारिता, विज्ञापन, शॉपिंग को। इसका प्रमुख विवादात्मक थीम, जो सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) के रूढ़ि विश्वास का सीधे-सीधे खंडन करता है, यह रहा है कि इस प्रकार की संस्कृति महज मूर्छाकारी औषधि नहीं, जिसे समाजातीय जनसमूह में उदासीनता उत्पन्न करने के लिए सफलतापूर्वक तैयार किया गया हो बल्कि इसके विपरीत इसमें सक्रिय, स्वैच्छिक, चुनिंदा और विध्वंसात्मक जनभागीदारी है।
संस्कृति के किसी भी समाजवादी सिध्दांत के लिए क्षेत्र तथा परिप्रेक्ष्य के ये परिवर्तन अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यदि सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) की मतांध प्रस्थापनाएं वास्तव में वैध हैं, और कुछ मार्क्सवादी खासकर हर्बर्ट मारकस उस विचार से सहमत हैं, तो मेहनतकश वर्ग की आत्म मुक्ति के रूप में समाजवाद को पुराशास्त्रीय अर्थग्रहण एक सांप्रदायिक धर्मपरायणता से ज्यादा कुछ भी नहीं। जब अंतोनियो ग्राम्शी ने कहा कि सभी मनुष्य बुध्दिजीवी है, यद्यपि उनमें से केवल कुछ को ही 'प्रबुध्द' का दर्जा तथासामाजिक कार्य का दायित्व दिया जाता है तो उन्होंने यह बात इसी पुराशास्त्रीय भावना से कही थी।
हालांकि ग्राम्शी के सूत्र का निर्णायक पहलू इसका दोहरा चरित्र है : यह न केवल मुक्ति और भौतिक संभावना पर बल देता है बल्कि वर्चस्व के स्थापित तथ्य की भी पुष्टि करता है। सांस्कृतिक अध्ययन की प्रमुख प्रवृत्ति का जोर दूसरी ओर है। चूंकि सांस्कृतिक अध्ययन अपने विश्लेषण क्षेत्र में 'उच्च' सांस्कृतिक रूपों तथा आचरणों को शामिल नहीं करता है अत: यह अपनी ही विचारधारात्मक महत्वाकांक्षा से समझौता करता है जो कि 'संपूर्ण जीवन शैली' या और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो संस्कृति के समग्र विद्यमान सामाजिक संबंधों की विवेचना करना है। और चूंकि यह प्रचलित सांस्कृतिक व्यवहारों के सक्रिय तथा महत्वपूर्ण तत्व पर एकतरफा जोर देता है अत: इसमें असमानता और दमन की व्याकुल कर देने वाली ऐतिहासिक वास्तविकताओं की अनदेखी करने की प्रवृत्ति भी है। ये ऐतिहासिक वास्तविकताएं उनका निर्धारण करती हैं। ये प्रवृत्तियां संयुक्त रूप से उचित आलोचना सिध्दांत के विकास तथा विश्लेषण के विरुध्द कार्य करती है; जो सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को प्रतिस्थापित करने का दावा करती हैं लेकिन वास्तव में इसकी प्रतिपूरक प्रतिक्रिया से ज्यादा कुछ भी प्रस्तुत नहीं करती है।
सांस्कृतिक अध्ययन में कुछ मत इन प्रवृत्तियों के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं लेकिन बिना किसी खास सफलता के। बहुसंख्यक प्रवृत्ति के विरुध्द 'जनवाद' का आरोप लगाया गया है और यह सही भी है। लेकिन अपने सभी रूपों में जनवाद अपने आपको विरोधपरक पाता है; यहां इसके विरुध्द इससे भी अधिक गंभीर आरोप लगाए जा सकते हैं। चूंकि आज अधिकांश महानगरीय लोक संस्कृति ने पण्यीकृत मनोरंजन या सौंदयीकृत जीविकोपार्जन कार्य का रूप ले लिया है; 'जीवनशैली' में सब कुछ बाजार के साथ संघटित है, अत: सांस्कृतिक अध्ययन का स्वत:स्फूर्त झुकाव वास्तव में विन्यासवादी है; और सबसे बुरे ढंग से सोचने पर यही 'सैटेलाइट टेलीविजन तथा शापिंग माल्स' की विचारधारात्मक आत्मचेतना है।
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माना कि यह विवरण स्थिति की सबसे खराब विवेचना है। इसके प्रति उल्लेखनीय ऊर्जा और प्रतिभा तथा कार्य का असाधारण रिकार्ड प्रस्तुत किया जाना चाहिए। लेकिन यह इस स्वीकृत दृढ़ विश्वास के अर्थ पर और विचार करने के लिए प्रेरित करता है कि सांस्कृतिक अध्ययन अनिवार्य रूप से वामपंथ की ओर है या जैसा कि एक जोरदार तथा खोखले पदबंध में हमसे बार-बार कहा जाता है कि यह 'निर्सगत: राजनीतिक' है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सांस्कृतिक अध्ययनों ने समाजवादी, स्त्रीवादी, नस्लवादविरोधी, साम्राज्यवादविरोधी जैसे मुक्तिदायी सामाजिक उद्देश्यों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है।इन विशिष्ट और ठोस अर्थों में इनका हस्तक्षेप राजनीतिक है। लेकिन सांस्कृतिक अध्ययन को महज 'हस्तक्षेप' समझते रहना रूमानी होगा। अब यह संस्थागत शैक्षिक गतिविधि है। और शैक्षिक गतिविधि, इसके आंतरिक गुण चाहे जो भी हो, निश्चित तौर पर राजनीतिक परियोजना नहीं हो सकती। जब कोई विरोधात्मक प्रवृत्ति एक ऐसा विषय बन जाती है जिसके लिए अलग बजट प्रावधान हो, जो प्रत्यय-पत्र, आजीविका और शोध के लिए धन मुहैया कराता हो तो क्या होता है? कमोबेश वही जो कोई यथार्थवादी उम्मीद करेगा। कोई भी शैक्षिक विषय सम्मान रूप में या यथार्थ रूप में अपने छात्रों या शिक्षकों पर राजनीतिक परीक्षण लागू नहीं कर सकता। वाकई वह दिन दूर नहीं और शायद वह आ चुका है जब इस विषय के वास्तविक प्राध्यापक, जिन्होंने इसमें प्रशिक्षण प्राप्त किया है तथा इसे विद्वतापूर्ण आजीविका के रूप में अपनाया है 'विध्वंस' या इसी प्रकार की शीर्षक वाले नेमी पाठयक्रमों पर कक्षाओं में परिचयात्मक व्याख्यान देने के लिए अपना स्थान ग्रहण करेंगे। यह केवल कटु परिकल्पना नहीं। यदि हम कोई पहले का उदाहरण देखना चाहें तो केवल एफ.आर. लेविस और उसके सहकर्मियों का स्मरण करने की आवश्यकता है जिनकी साहित्यिक आलोचना की युयुत्सु, उग्र और विद्वता-विरोधी शैली का व्यापक अनुकरण किया गया और जो अंतत: काफी पारंपरिक हो गई लेकिन इसका विरोधात्मक वैचित्र्य इसमें अभी भी था। उपदेश देना बेकार है लेकिन सांस्कृतिक अध्ययन से जुड़े वामपंथी विचारकों को उनका नया 'राजनीतिक' विषय उन्हें जितना प्रोत्साहित करने के लिए तत्पर प्रतीत होता है उससे कहीं अधिक उन्हें व्यंग्यात्मक आत्मचेतना की आवश्यकता है।
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लेविस का यह उदाहरण सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) और सांस्कृतिक अध्ययन के बीच के संबंध के बारे में और भी विचार करने के लिए प्रेरित करता है। और वो भी एक ऐसे आयाम में जहां वे एक दूसरे के गहरे विरोधी प्रतीत होते हैं, यानी राजनीतिक आयाम में।
इसके भिन्न राष्ट्रीय तथा अनुशासनिक रंग-प्रबंधों (डिसिपलिनरी कलरेशंस) के बावजूद सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) एक स्थायी बौध्दिक परिघटना थी। इसके प्रवर्तक सामान्यतया मूल्यों के एक सत्तात्मक केंद्र से बोलने का दावा करते थे जिन्हें 'मानवीय' या 'सार्वभौम' या 'पारंपरिक' जैसे पदों के रूप में अभिलक्षित किया जा सकता है और जिसके लिए सर्वाधिक स्वीकार्य संक्षिप्त शब्द 'संस्कृति' है। इस अर्थ में उनका स्व-परिभाषित कार्य आधुनिकता के बढ़ते खतरों के विरुध्द संस्कृति के हितों की रक्षा करना था, जिसका निरूपण बौध्दिक विशिष्टीकरण या औद्योगिक प्रौद्योगिकी या वाणिज्यवाद या 'साधारण समाज' के रूप में किया जा सकता है और जिसके लिए पुराशास्त्रीय संक्षिप्त शब्द 'सभ्यता' थी। सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) प्राय: संभ्रांतवर्गीय थी; यहएक अकाटय सत्य था कि संस्कृति हमेशा कुछ लोगों का ही सरोकार होना चाहिए जिसे सामान्य उदासीनता और अबोध्यता की स्थिति में जारी रखा जाना चाहिए। इसकी वकालत करने वालों के लिए खास राजनीतिक विकल्प दक्षिणपंथ से वामपंथ तक परिवर्तनीय थे। लेकिन सभी मामलों में ये विकल्प गौण थे क्योंकि सांस्कृतिक आलोचना का अंतर्निष्ठ उद्देश्य दृढ़तापूर्वक एक प्रकार की सामाजिक सत्ता प्रस्तुत करना था जो 'केवल' राजनीतिक नहीं इससे आगे हो। अत: संस्कृति, जो कि आवश्यक मूल्यों का क्षेत्र है तथा सभ्यता, जो कि सामाजिक 'मशीनरी' का क्षेत्र, के बीच मुख्य अंतर ने ही इस कल्पना को असंभव बना दिया कि राजनीति एक सार्थक सामाजिक गतिविधि है।
सांस्कृतिक अध्ययन ने सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को विस्थापित करने का प्रयास किया है। इसने 'संस्कृति' और 'साधारण समाज' (मासेस) की एक वैकल्पिक व्याख्या प्रस्तुत की है। इसकी गतिविधि, विकल्प, और महत्व की खोज की है। वहीं सांस्कृतिक आलोचना केवल जड़ता और यंत्रवाद को ही देख सकती थी और इसने ऐसा रैडिकल सामाजिक लक्ष्यों के नाम पर किया है। फिर भी यहां कुछ कौतूहलपूर्ण है। स्वाभाविक है कि सांस्कृतिक अध्ययन ने उदारवादी और रूढ़िवादी विचारों को निरंतर चुनौती ही है लेकिन यदि यह किसी चीज से पूर्वग्रहग्रसित रहा है तो वह वामपंथ की कमियां हैं। अब यह सच है कि समझने के लिए कई चीजें हैं लेकिन सांस्कृतिक अध्ययन ने सबसे अधिक केवल एक बात पर फोकस किया है। इसका लगातार सुझाव, जो कि प्रभावी रूप में इस विषय का संकेत-धुन भी है, यह है कि लोक संस्कृति न केवल राजनीतिक समझ को बढ़ाती है, प्रत्युत कुछ अर्थों में वामपंथ को विरासत में मिली राजनीतिक परंपराओं को अवैध करार देती है तथा अतिक्रमण करती है। दूसरे शब्दों में सांस्कृतिक अध्ययन केवल राजनीति ('वर्ग', 'राज्य', 'संघर्ष', 'क्रांति' और इसी प्रकार की पुरानी अवधारणा) को लोक संस्कृति की उच्चतर सत्ता के अधीन लाना चाहता है। और ऐसा करने में यह विश्वसनीयता के साथ सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) के मूल पैटर्न को दोहराता है। यह सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को नकारता है लेकिन ठीक वैसे ही जैसे दर्पण का बिंब आकृति को अक्षुण्ण रखते हुए इसके मूल को उलटा करता है। यहीं उन विरोधाभासों का स्रोत है जो इस हस्तक्षेपवादी विषय जिसे सांस्कृतिक अध्ययन कहते हैं के जीवन का निर्माण करता है।
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तो फिर हम सांस्कृतिक सिध्दांत तथा राजनीति के बीच संबंध के बारे में कैसे सोच सकते हैं? मैंने यह दावा किया है कि सांस्कृतिक अध्ययन इस संबंध की विशिष्ट तथा गहरी समझ को दोहराता है। ऐसा कहने का मेरा अभिप्राय यह है कि यह समझ गलत है और यह सांस्कृतिक अध्ययन से जुड़े वामपंथियों के संजीदा राजनीतिक उद्देश्यों के साथ समझौताकर सकता है। निष्कर्ष के रूप में, मैं समाजवादी सांस्कृतिक सिध्दांत की 'राजनीतिक' स्थिति के बारे में वैकल्पिक तरीके से विचार करने का साहस करूंगा।
संस्कृति और राजनीति के बीच का संबंध वामपंथ में दो प्रकार के न्यूनीकरणवाद के अध्यधीन रहा है। बिना किसी खेद के हम एक बड़े विकल्प का त्याग कर सकते हैं : यानी प्रचलित राजनीतिक न्यूनीकरणवाद, जिसकी वजह से साम्यवादी आंदोलन कुख्यात हो गया, जो सभी सांस्कृतिक पहल के एक पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के रूप में वर्गीकृत करता है और जिसके मानवीय संभावनाओं संबंधी बोध का आरंभ और अंत राजनीतिक उद्देश्य के साथ होता है। लेकिन अब हमारे पास एक वैकल्पिक न्यूनीकरणवाद है। इस बार यह संस्कृतिवादी किस्म का है जिसे अकादमी सांस्कृतिक अध्ययन के अधीन तथा बाहर की दुनिया में उत्तरआधुनिक बुध्दिमत्ता के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह न्यूनीकरणवाद सांस्कृतिक विभेद की सभी अभिव्यक्तियों को राजनीतिक मानकर सम्मानित करता है और इसलिए विशेषाधिकारवाद को प्रोत्साहित करता है तथा अनिवार्य रूप से कठोर अर्थ में राजनीति का आत्मासक्ति विषयक विघटन करता है। यदि न्यूनीकरणवाद ने संस्कृति को एक राजनीतिक उपकरण के रूप में स्वीकार किया है तो विशेषाधिकारवाद ने प्रभावी रूप से राजनीति की संभावना को ही समाप्त कर दिया और कहूंगा कि सचमुच राजनीतिक संघर्ष के क्षेत्र के रूप में संस्कृति की संभावना को ही समाप्त कर दिया है।
एक समाजवादी सांस्कृतिक सिध्दांत के लिए सांस्कृतिक आचरणों की संभावनाओं तथा सीमाओं को स्वीकार करना आवश्यक है। इसके लिए यह स्वीकार करना भी जरूरी है कि इस प्रकार के आचरण राजनीति से कम भी हैं, अधिक भी। हालांकि संस्कृति एक विवादित धरातल है, राजनीतिक संघर्ष का एक क्षेत्र, लेकिन यह केवल राजनीतिक नाटयशाला नहीं हो सकती, न ही पूर्णरूपेण राजनीति को ही समाहित कर सकती है। संस्कृति के समाजवादी सिध्दांत का पहला नियम कहता है कि राजनीति और संस्कृति के बीच संबंध की प्रतीकात्मक अवस्था 'विसंगति' होगी। यह कोई बहुत आकर्षक प्रतिपादन नहीं प्रतीत हो सकता लेकिन सामाजिक अर्थों की समग्रता या 'संपूर्ण जीवन शैली' को समाहित करने के लिए 'संस्कृति' के दायरे का एक बार विस्तार कर लेने के बाद इस पर बल देना आवश्यक है। क्योंकि यह विस्तारित अर्थग्रहण समाजवादी सांस्कृतिक सिध्दांत के लिए महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ यह अपनी भी अवधारणात्मक समस्याएं खड़ी करती है।
यदि संस्कृति सामाजिक अर्थों की संपूर्णता है और यदि राजनीतिक गतिविधि का उद्देश्य एक दिए हुए स्थान के भीतर सामाजिक संबंधों की संपूर्णता है (जैसा कि एक सच्ची मुक्तिकारी राजनीति की होनी चाहिए) तो प्रथम द्रष्टया यह प्रतीत हो सकता है कि मानो संस्कृति और राजनीति दोनों एक ही चीज हैं, जैसा कि अब सांस्कृतिक अध्ययन मानने को तैयार है। सैध्दांतिक रूप में हम यह नहीं कह सकते कि एक प्रकार की सामाजिक विषय-वस्तु राजनीतिक और दूसरी प्रकार की नहीं। यदि पूरा समाज संस्कृति के अंत:क्षेत्र में है तोऐसा लगता है कि कोई भी सांस्कृतिक प्रवृत्ति वैध रूप से अपने आपको 'राजनीतिक' कह सकती है।
लेकिन यहां एक मौलिक भ्रांति है। ऐसा समझा जा सकता है कि संस्कृति और राजनीति दोनों ही सामाजिक संबंधों की समग्रता को अपने में समेटे हुए हैं, लेकिन वे ऐसा अलग-अलग रूप में करते हैं। राजनीति सामाजिक संबंधों के चरित्र के निर्धारण में अपनी भूमिका के कारण अन्य सामाजिक आचरणों से अलग है। जब यह शब्द और बिंब के रूप में पूरी तरह अर्थ के क्षेत्र में भी कार्य करती है तो राजनीतिक आचरण अपने विशिष्टीकृत प्रकार्य द्वारा विनियमित होता है। यह एक विचारात्मक आचरण (डेलिबरेटिव प्रैक्टिस) है जो सामान्यतया निर्णयोन्मुख होता है; नियंत्रण संबंधी प्रश्न हमेशा रहता है कि, 'क्या किया जाना है?' शांतिपूर्ण जनतांत्रिक स्थितियों में यह एक आदेशात्मक आचरण (इंजंक्टिव प्रैक्टिस) कार्य है, प्रभावी सहमति के लिए एक संघर्ष। और अंतत: यह उन संसाधनों की ओर मुड़ता है जिन्हें संस्कृति में परिणत नहीं किया जा सकता है यानी भौतिक अवपीड़न के साधन।
सांस्कृतिक आचरण इस प्रकार के नहीं होते जिन्हें हम अपेक्षाकृत कम अमूर्त रूप में वह समझें जिनका प्रमुख प्रकार्य अर्थ उत्पन्न करना होता है। उनके अर्थ की दुनिया भी वही है। उनमें राजनीतिक संकेत बहुत अधिक हैं लेकिन उन विशिष्टीकृत लक्षणों की कमी है, और इनकी आवश्यकता भी नहीं। विचार-विमर्श, आदेश और बलप्रयोग द्वारा सामाजिक संबंधों की प्रकृति का निर्धारण करना संस्कृति का कार्य नहीं है। इस अंतर का निहितार्थ ग्राम्शी द्वारा अनुभव किया गया। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक निर्णय और राजनीतिक निर्णय की प्रकृति अलग होती है और उनमें एक स्थान पर मिलने की प्रवृत्ति भी नहीं होती।
सांस्कृतिक आचरण किसी भी और सभी विभेदों को निरपेक्ष मान सकता है (जैसा कि एक बार जार्ज लुकास ने कहा था कि कला और प्रत्ययों के क्षेत्र में कोई भी संयुक्त मोर्चा नहीं होता)। जबकि राजनीति किसी खास वस्तु स्थिति को लाने या रोकने के लिए, जीवन के इस या उस सामान्य स्थिति को प्राप्त करने के लिए विभेदों के साथ समान रूप में व्यवहार नहीं कर सकती। इसमें उन विभेदों को पाटने की क्षमता होनी चाहिए जिन्हें सांस्कृतिक आचरण निरपेक्ष मानता है ताकि विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एकजुटता बनाई जा सके। साथ ही उन्हीं कारणों से राजनीतिक हित सांस्कृतिक एकजुटता वाले क्षेत्र में विभाजन को प्रोत्साहित करना अनिवार्य बना सकता है। उदाहरण के लिए, एक राजनीतिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए (उदाहरणस्वरूप राज्य द्वारा वित्तपोषित नर्सरी की व्यवस्था) किसी धार्मिक संप्रदाय के भीतर वर्ग तथा लिंगभेद संबंधी वैमनस्य को उजागर करना आवश्यक हो सकता है। किसी दिए हुए सांस्कृतिक हित के परिप्रेक्ष्य में देखने पर राजनीतिक मांग हमेशा ही या तो बहुत अधिक या बहुत कम होती है और संस्कृति के विरुध्द राजनीतिक शिकायत भी हमेशा इसी प्रकार की होती है। प्रत्येक एक-दूसरे के सापेक्ष, सांप्रदायिक और एकतावर्धक दोनों हैं।
सांस्कृतिक अध्ययन इसी मौलिक विभेद का लोप करता है। यहां इसके ऐतिहासिक कारणों की पड़ताल करने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, लेकिन इसके परिणामों के बारे में कुछ कहा जा सकता है। आरंभ से ही सांस्कृतिक अध्ययन की प्रवृत्ति राजनीति को संस्कृति में विलीन करने की रही है। रेमंड विलियम्स ने भी अनुदर्शन में स्वीकार किया कि उन्होंने सांस्कृतिक राजनीति की संभावनाओं को बढ़ा दिया था। वह सांस्कृतिक क्षेत्र से बाहर राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे और अपने सैध्दांतिक कार्य में भी इस प्रवृत्ति से कभी भी बाहर नहीं निकल पाए। फिर भी उन्होंने तथा उनके पूर्व के समाजवादी सांस्कृतिक अध्ययन करने वालों ने कम से कम दो महत्वपूर्ण कार्य किए : पहला, स्तालिनवादी रूप में संस्कृति को राजनीतिक साधन बनाने की अस्वीकृति करते हुए उन्होंने विशेष रूप से उपभोक्ता पूंजीवाद तथा 'जन' संचार के युग में संघर्ष की जमीन के रूप में इसके महत्व को स्वीकार किया। दूसरा, 'लोक' संस्कृति को संवेदनमंदक रहस्यवाद मानकर खारिज करने की संभ्रांतवर्गीय प्रवृत्ति के विरुध्द उन्होंने इसकी वैधता पर बल दिया। पूंजीवादी समाज में लोक संस्कृति वर्चस्व या वस्तुवाद (कमोडिफिकेशन) की अनिवार्यताओं के संबंधों से बाहर कभी भी नहीं रही। फिर भी उन संबंधों तथा अनिवार्यताओं के भीतर 'साधारण समाज' कभी भी केवल निष्क्रिय और दमित नहीं था। लोक संस्कृति में दमन और प्रतिरोध दोनों ही परिलक्षित होते थे।
आज सांस्कृतिक अध्ययन न केवल राजनीति का संस्कृति में विलय को आगे बढ़ा रहा है बल्कि इस प्रक्रिया में यह इसके प्रथ प्रदर्शकों की विरासत को भी बरबाद कर रहा है। यह सांस्कृतिक आचरण से परे राजनीति के लिए या सांस्कृतिक विभेद के विशेषाधिकार से परे किसी राजनीतिक एकजुटता के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ता। वास्तव में सांस्कृतिक प्रतिवाद की राजनीति के लिए भी कोई स्थान नहीं है। और यदि 'उच्च' संस्कृति तथा असमानता और वर्चस्व सभी जनसमूह संस्कृति की ऐतिहासिक वास्तविकताओं से अमूर्त रूप में पहले ही सक्रिय तथा अत्यंत महत्वपूर्ण है, यदि टेलीविजन और शॉपिंग पहले ही विध्वंस के थिएटर हैं तो संघर्ष के लिए कोई जगह नहीं और दरअसल इसकी आवश्यकता भी नहीं। लेकिन यदि इन सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों से परे कुछ भी नहीं, तो 'साधारण समाज' का दमन तथा उपभोक्ता पूंजीवाद के आगे उनका आत्मसमर्पण उतना ही संपूर्ण है जितना सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) के प्रवर्तक मानते थे। यहां पर सांस्कृतिक अध्ययन का सबसे गहरा अंतर्विराध यह है कि इसका अंत इस जनतंत्रविरोधी निर्णय की पुष्टि तथा जश्न के साथ होता है।
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