उत्तर आधुनिकतावादी विकास का प्रधान लक्षण है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार,नेताओं में संपदा संचय की प्रवृत्ति, अबाधित पूंजीवादी विकास,उपभोक्तावाद की लंबी छलांग और संचार क्रांति। इन लक्षणों के कारण सोवियत अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी। सोवियत संघ और उसके अनुयायी समाजवादी गुट का पराभव एक ही साथ हुआ। सामान्य तौर इस पराभव को मीडिया में साम्यवाद की असफलता कहा गया। वास्तव में यह साम्यवाद की असफलता नहीं है। फ्रेडरिक जेम्सन के शब्दों में यह ‘आधुनिकीकरण की छलयोजना’ है।
उत्तर आधुनिकतावाद दौर में क्रांति पर सबसे तेज हमले हुए हैं। इन हमलों के आंतरिक और बाह्य दोनों ही किस्म के रूप रहे हैं। इस प्रसंग में पहली बात यह कि क्रांति का वास्तव अर्थ इन दिनों विकृत हुआ है। उसका अवमूल्यन हुआ है। क्रांति का अर्थ परिवर्तन मान लिया गया है और प्रत्येक परिवर्तन को क्रांति कहने का रिवाज चल निकला है। क्रांति के अर्थ का यह विकृतिकरण है। क्रांति का अर्थ है बुनियादी या आमूल-चूल परिवर्तन।
क्रांति पर बहस करते हुए आमतौर पर कुछ इमेजों,कुछ आख्यानों, कुछ देशों ,कुछ खास क्षण विशेष आदि का जिक्र किया जाता है और यह क्रांति का भ्रष्टीकरण करने में मदद करता है। क्रांति पर बात करने के लिए उसे साम्यवादी और साम्यवादविरोधी विचारकों और प्रचार सामग्री के द्वारा निर्मित इमेजों से बाहर आकर देखने की जरूरत है।
क्रांति अनंत क्षण में नहीं बल्कि समकालिक क्षण में घटित होती है। इसमें प्रत्येक चीज एक-दूसरे जुड़ी होती है। क्रांति का मतलब राजतंत्र या समाजतंत्र का ‘सुधार’ या ‘अल्प सुधार’ नहीं है क्रांति का मतलब किसी काल्पनिक मानसिक जगत में परिवर्तन से नहीं है। बल्कि इसका संबंध आमूल-चूल परिवर्तन से है। ये परिवर्तन एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं।
क्रांति कोई बनी-बनायी परंपरा का निर्माण नहीं है। बल्कि मूलभूत परिवर्तनों का पुनरान्वेषण है। क्रांति कोई तयशुदा तर्कसंघर्ष नहीं है । इसी प्रसंग में प्रसिद्ध मार्क्सवादी फ्रेडरिक जेम्सन ने तीसरी थीसिस में लिखा है ‘‘सामाजिक क्रांति अनंत समय का एक क्षण मात्र नहीं है। प्रत्युत समकालिक तंत्र में परिवर्तन की आवश्यकता की पुष्टि है, जिसमें हर चीज एक साथ है और एक दूसरे से अंतर्संबधित है। इस प्रकार का तंत्र संपूर्ण तंत्रगत परिवर्तन की मांग करता है, न कि अल्प 'सुधार', जिसे निंदात्मक अर्थ में 'मनोराज्य विषयक' कहा जाता है, जो भ्रामक है, व्यवहार्य नहीं। अभिप्राय यह है कि यह तंत्र वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर एक रैडिकल सामाजिक विकल्प की विचारधारात्मक दृष्टि की मांग करता है, ऐसा कुछ जिसे वर्तमान तर्कमूलक संघर्ष के अंतर्गत दिया हुआ या विरासत में मिला नहीं माना जाए, बल्कि जो पुनरान्वेषण की मांग करे। धार्मिक रूढ़िवाद (चाहे वह इसलामी, ईसाई, या हिंदू रूढ़िवाद हो) जो उपभोक्तावाद या 'अमरीकी जीवन शैली' का रैडिकल विकल्प देने का दावा करता है, तभी महत्वपूर्ण अस्तित्व प्राप्त करता है जब पारंपरिक वाम विकल्प खासकर मार्क्सवाद और साम्यवाद की महान क्रांतिकारी परंपराएं अचानक अनुपलब्ध प्रतीत होने लगती हैं।’’
आज क्रांति का महत्वपूर्ण एजेण्डा है राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा करना। क्रांति एक प्रक्रिया है और समकालिक परवर्ती पूंजीवादी तंत्र का अवसान भी है। लेकिन इसका प्रस्थान बिंदु राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा के सवालों से आरंभ होता है। परवर्ती पूंजीवाद के जमाने में राष्ट्रीय संप्रभुता ही दांव पर लगी है। किसी भी देश को स्वतंत्र रूप से अपनी नीतियां बनाने और विकास करने का हक नहीं है। क्रांतिकारी ताकतों का यह विश्व एजेण्डा है।
क्रातिकारी ताकतों का आंतरिक एजेण्डा है हाशिए के लोगों को उनकी जनवादी मांगों के इर्दगिर्द एकजुट करना। समाज में प्रत्येक व्यक्ति को संघर्ष की अवस्था में इस या उसके साथ खड़े होने,प्रतिबद्ध होने के लिए तैयार करना। परवर्ती पूंजीवाद ने गैर प्रतिबद्धता की हवा चला दी है,इस हवा को जनवादी प्रतिबद्धता के आधार पर ही चुनौती दी जा सकती है। आम लोगों को जनवादी विचारों के प्रति प्रतिबद्ध बनाना,हाशिए के लोगों की जनवादी मांगों के आधार पर एकजुट करना, उनके संगठनों और संघर्षों को आयोजित करना वास्तव अर्थों में क्रांति के मार्ग पर ही चलना है।
मार्क्सवादी आलोचक फ्रेडरिक जेम्सन ने मौजूदा दौर के संदर्भ में मार्क्सवाद की पांच थीसिस प्रतिपादित की हैं। इनमें दूसरी थीसिस में उन्होंने उन खतरों की ओर ध्यान खींचा है जो मार्क्सवाद के लिए आ सकते हैं या आए हैं और जिनसे मार्क्सवादी आंदोलन को धक्का लगा है। उत्तर आधुनिक परिस्थितियों के आने साथ मार्क्सवादी चिंतन को नव्य उदार आर्थिक नीतियों और उसके गर्भ से पैदा हुए बाजार ने सबसे बड़ा खतरा पैदा किया है। इन नीतियों के इतने व्यापक और भयावह रूपान्तरणकारी परिणाम होंगे इसका कोई भी मार्क्सवादी पूर्वानुमान नहीं लगा पाया।
नव्य उदारतावाद के खिलाफ विचारधारात्मक संघर्ष में मार्क्सवादी आम लोगों का दिल जीतने ,उन्हें इसके परिणामों के बारे में समझाने में असमर्थ रहे। इस समस्या के दो स्तर थे, पहला स्तर स्वयं मार्क्सवादियों के लिए था वे खुद समझ ही नहीं पाए कि नव्य उदार आर्थिक नीतियों का क्या परिणाम निकलेगा। उनका इन नीतियों के प्रति तदर्थ रवैय्या था। जब वे स्वयं दुविधाग्रस्त थे तो वे अन्य को कैसे समझाते ? इससे संकट और भी गहरा हो गया।
उत्तर आधुनिकतावाद के संदर्भ में मार्क्सवादियों की सफलताएं कम हैं असफलताएं ज्यादा हैं। सबसे बड़ी असफलता है नव्य उदार आर्थिक नीतियों के गर्भ से पैदा हुई असुरक्षा, अव्यवस्था,विस्थापन और भय को संगठनबद्ध न कर पाना। नव्य उदार दौर में मजदूरवर्ग के क्षय को वे रोक नहीं पाए और असंगठित मजदूरवर्ग की तबाही को अपने संगठनों के जरिए एकजुट नहीं कर पाए। आज महानगरों में लाखों असंगठित मजदूर हैं जो किसी भी वाम संगठन में संगठित नहीं हैं।
मजदूरवर्ग के अंदर नव्य उदारतावाद ने जो भय पैदा किया उसे भी प्रभावशाली ढ़ंग से मार्क्सवादी लिपिबद्ध नहीं कर पाए। इसका व्यापक दुष्परिणाम निकला है,मजदूरों की आवाज सामान्य वातावरण से गायब हो गयी है। नव्य उदारपंथी एजेण्डा वाम संगठनों में आ घुसा है। वे इससे बचने की युक्ति नहीं जानते।
इसी प्रसंग में फ्रेडरिक जेम्सन ने लिखा, ‘‘तर्कमूलक संघर्ष (जैसा कि यह सीधी वैचारिक लड़ाई के विरुध्द है) अपने विकल्पों की साख समाप्त करके और थीमैटिक प्रसंगों की एक पूरी श्रृंखला को अनुल्लेखनीय घोषित करके सफलता हासिल करता है। यह राष्ट्रीकरण, विनियमन, घाटा व्यय, कीन्सवाद, नियोजन, राष्ट्रीय उद्योगों की सुरक्षा, सुरक्षा नेट, तथा अंतत: स्वयं कल्याणकारी राज्य जैसी पूर्ववर्ती गंभीर संभावनाओं को निर्णायक रूप में अवैध घोषित करने के लिए क्षुद्रीकरण, निष्कपटता, भौतिकस्वार्थ, 'अनुभव', राजनीतिक भय ऐतिहासिक सबक को 'आधार' मानने का आग्रह करता है। कल्याणकारी राज्य को समाजवाद बताना बाजारवाद का उदारवादियों (अमरीकी प्रयोग में जैसा कि 'न्यू डील लिबरल्स' में किया गया है) तथा वामपंथियों दोनों पर दोहरी जीत दिलाता है। इस प्रकार आज वामपंथ ऐसी स्थिति में आ गया है जब उसे बड़ी सरकारों या कल्याणकारी राज्यों का समर्थन करना है। सामाजिक प्रजातंत्र की समीक्षा करने की जो वामपंथियों की विस्तृत और परिष्कृत परंपरा रही है, उसके लिए यह कार्य खासकर वामपंथियों को इतिहास की द्वंद्वात्मक समझ जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं होने के कारण बेहद लज्जित करने वाला है। खास तौर पर, ऐतिहासिक स्थितियों में परिवर्तन तथा उनके अनुरूप उपयुक्त राजनीतिक और कार्यनीतिगत प्रतिक्रिया के बारे में पुन: कुछ बोध प्राप्त करना वांछनीय है। लेकिन यह भी तथाकथित इतिहास के अंत यानी आम तौर पर उत्तरआधुनिक की मौलिक अनैतिहासिकता के साथ बहस की मांग करता है।’’
मार्क्सवादी फ्रेडरिक जेम्सन ने आगे लिखा है, ‘‘इसी बीच मनोराज्य (यूटोपिया) से जुड़ी चिंताएं जो इस भय से उत्पन्न होती हैं कि हमारी वर्तमान पहचान, हमारी आदतें और आकांक्षा पूर्ति के तरीकों का निर्माण करने वाली चीज कतिपय नई सामाजिक व्यवस्था में समाप्त हो जाएगी तथा सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आज कुछ समय पहले की तुलना में अधिक संभव है। स्पष्टतया दुनिया के आधे से अधिक भाग में और न केवल प्रभावशाली वर्गों में आज निस्सहाय लोगों के जीवन में परिवर्तन की आशा का स्थान 'नष्ट हो जाने के भय' ने ले लिया है। इस प्रकार की मनोराज्य-विरोधी (एंटी-यूटोपियन) चिंताओं को दूर करना अनिवार्य है जो कि सांस्कृतिक निदान और उपचार के रूप में किया जाना चाहिए न कि बाजार के सामान्य बहस और अलंकार की इस या उस विशेषता से सहमति जताकर इससे बचना चाहिए।’’
‘‘मानव-स्वभाव मूल रूप से अच्छा और सहयोगी है या फिर बुरा और आक्रामक। यदि यह सर्वसत्तात्मक राज्य (लेवियाथन) को नहीं तो कम से कम बाजार को वश में रखने की अपेक्षा करता है, ये सारे तर्क वास्तव में मानवतावादी और विचारधारात्मक हैं (जैसा कि अलथूसर ने कहा है) और इसके स्थान पर रैडिकल परिवर्तन और सामूहिक परियोजना का परिप्रेक्ष्य लाना चाहिए। साथ ही वामपंथियों को बड़ी सरकारों या फिर कल्याणकारी राज्यों का आक्रामक रूप से बचाव करना चाहिए तथा मुक्त बाजार के ऐतिहासिक ध्वंसात्मक रिकार्ड को देखते हुए बाजारवाद पर लगातार प्रहार करते रहना चाहिए ।’’
मार्क्सवादी के लिए साम्यवाद पूजा की चीज नहीं है। मार्क्सवादी के लिए वैज्ञानिक ढ़ंग से इस समाज को समझना और उस परिवर्तन के तर्क को समझना जरूरी होता है जिसके कारण परिवर्तन घट रहे हैं। उत्तर आधुनिकता के दूसरे चरण में नव्य उदार परिवर्तनों का केन्द्र बिंदु अमेरिका नहीं एशिया है। पुराने साम्राज्यवाद के दौर में पूंजीवाद का केन्द्र था इंग्लैण्ड,बाद में द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर दौर में अमेरिका केन्द्र बना।नव्य उदारतावाद के आरंभ में अमेरिका ही पूंजीवाद का गोमुख था। लेकिन नव्य उदारतावाद के अगले चरण में यानी मौजूदा दौर में पूंजीवाद का केन्द्र चीन है,अमेरिका नहीं। कारपोरेट और लंपट पूंजीवाद की इसमें सभी खूबियां हैं। सब कुछ हजम कर जाने का इसमें भाव है। विश्व बाजार में छा जाने ,सब कुछ बनाने और सस्ता उपलब्ध कराने का नजरिया है। इस समाविष्टकारी भाव से सारी दुनिया में देशज उद्योगों के लिए गंभीर संकट पैदा हो गया है।
एक जमाना था चीन में कम से कम चीजें पैदा होती थीं। सारा देश पांच किस्म के कपड़े पहनता था। सारा देश साइकिल पर चलता था। लेकिन विगत 30 सालों में उसने सब कुछ बदल दिया है। उत्पादन और जिन्सों के उत्पादन में तो उसने क्रांति की है। किसी वस्तु को सस्ते में बनाना,बाजार में इफ़रात में उपलब्ध कराना और बाजार को घेरे रखना। बड़ी पूंजी को आकर्षित करना,श्रम और श्रमिक को सस्ते माल में लब्दील करना। मैन्यूफेक्चरिंग की ताकत को ऐसे समय में स्थापित करना जब सारी दुनिया मैन्यूफैक्चरिंग छोड़कर सेवाक्षेत्र की ओर आंखें बंद करके भाग रही थी।अपने आप में महान उपलब्धि है।
उत्पादन और खूब उत्पादन का नारा लगाकर चीन ने उत्पादन और उत्पादकों की महत्ता स्थापित की है। तंत्रगत संकटों को उसने अभिनव परिवर्तनों और प्रौद्योगिक क्रांति के जरिए संभाला है। विकास की तेजगति को बरकरार रखा है। साथ ही उत्पादन की गति को बनाए रखकर कारपोरेट पूंजीवाद को नए सिरे से पुनर्गठित किया है। इन परिवर्तनों को उत्तर मार्क्सवाद के आधार पर ही परखा जा सकता है। चीन और अमेरिका के नव्य उदार आर्थिक परिवर्तन पुराने मार्क्सवाद से नहीं उत्तर मार्क्सवाद से ही समझ में आ सकते हैं।
फ्रेडरिक जेम्सन ने लिखा है ‘‘तंत्रगत संकटों पर काबू पाने के लिए दूसरी आवश्यकता है अभिनव परिवर्तन और प्रौद्योगिकी में 'क्रांति' की। अर्नेस्ट मेंडेल ऊपर उल्लिखित चरणों के साथ इन परिवर्तनों का तालमेल बिठाते हैं : वाष्प तकनीकी का राष्ट्रीय पूंजीवाद के क्षण के साथ; विद्युत और दहनशील इंजन का साम्राज्यवाद के क्षण के साथ; आणविक ऊर्जा और साइबरनेटिक का हमारे अपने समय के बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद और भूमंडलीकरण के क्षण के साथ जिसे कुछ लोगों द्वारा उत्तरआधुनिकता का भी नाम दिया जाता है। ये प्रौद्योगिकियां नई प्रकार की जिन्सों का उत्पादन तो कर ही रही हैं साथ ही नए विश्व क्षितिज को उद्धाटित करने में भी सहायक हैं। इस प्रकार ये विश्व को छोटा और पूंजीवाद को नए पैमाने पर पुनर्गठित कर रही हैं। इसी अर्थ में उत्तरपूंजीवाद (लेट कैपिटलिज्म) की विवेचना सूचना या साइबरनेटिक्स के पदों के रूप में उपयुक्त हैं (और ये पद सांस्कृतिक रूप में भी बहुत कुछ व्यक्त करते हैं) लेकिन इन्हें आर्थिक गतिकी के साथ पुनर्युग्मित करने की आवश्यकता है, जिससे इनमें सांस्कृतिक, बौध्दिक और विचारधारात्मक रूप से आसानी से अलग होने की प्रवृत्ति है।”
स्त्री साहित्य- हिन्दी की यह विरल परंपरा है कि स्त्रीसाहित्य है लेकिन स्त्री साहित्य इतिहास नहीं है।साहित्य के इतिहास में उसका न्यूनतम जिक्र नहीं है। लंबे समय से औरतें लिख रही हैं लेकिन उनके साहित्येतिहास का कहीं अता-पता नहीं है। स्त्री साहित्य का इतिहास न तो पुरूषों ने लिखा है और औरतों ने। इतिहास की अनुपस्थिति स्वयं में बड़ी समस्या है। स्त्री साहित्य का इतिहास क्यों नहीं लिखा गया ? इसका उत्तर आलोचकों को खोजना चाहिए।
स्त्री -साहित्येतिहास की प्रधान समस्या है स्त्री साहित्य खोजने और उसे व्यवस्थित ढ़ंग से पेश करने की। इससे स्त्री साहित्य परंपरा , शैलियों और विधाओं के मूल्यांकन में मदद मिलेगी। बड़े पैमाने पर स्त्री साहित्य लिखा गया है लेकिन वह सब इधर-उधर बिखरा पड़ा है। कभी उसका समग्रता में संकलन नहीं किया गया ,किसी ने उस पर कलम चलाने की आवश्यकता महसूस नहीं की। अतःपहली जरूरत है कि स्त्री रचनाओं को खोजा जाए।इसके बाद उनका कालक्रम और संदर्भ तय किया जाए, विश्लेषण किया जाए।
स्त्री साहित्येतिहास की दूसरी बड़ी समस्या है स्त्री -साहित्य की निरंतरता को स्थापित करने की। अनेक लेखिकाओं की रचनाएं नष्ट हो गईं हैं या अनुपलब्ध हैं। सन् 1905 से हिन्दी में स्त्री -साहित्य के संकलनों के प्रकाशन का सिलसिला चल रहा है इसके कारण अनेक लेखिकाओं की महत्वपूर्ण और दुर्लभ रचनाएं सामने आई हैं। लेकिन इतिहास अभी तक नहीं लिखा गया। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि अनेक महिला लेखिकाओं की रचनाएं प्रकाशित ही नहीं हो पाई हैं।
प्रसिद्ध स्त्रीवादी आलोचिका और दार्शनिक हेलिनी सिकसाउस मानना है किसी भी विषय पर कोई भी बात एटीट्यूट,संस्कार,शरीर और मन के तंत्र को जाने बिना नहीं हो सकती। खासकर स्त्री साहित्य और स्त्री पर कोई भी बात करने के लिए चीजों को एकदम नग्नतम रूप में देखना और पेश करना बेहद जरूरी है। चीजों को नग्नतम रूप में देखने का अर्थ है उन्हें अवधारणाओं में बांधकर देखना।
अवधारणा में यथार्थ को जब भी देखेंगे, चीजें,घटनाएं और विचार एकदम साफ नजर आएंगे। दुनिया को जब भी देखो तो रक्षाविहीन नजरिए से देखो। इससे दुनिया बेहद सुंदर और काव्यात्मक नजर आएगी। दुनिया को देखने के लिए किसी 'ट्रिक्स' या हथकंडे का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। दुनिया को देखने के लिए हम जब किसी एपरेट्स का इस्तेमाल करने लगते हैं तो आंखें बंद हो जाती हैं।लेकिन जब आप अवधारणाओं में देखते हैं तो कोई चीज छिपायी नहीं जा सकती। जो छिपाया जा रहा है वह साफ दिखाई देने लगता है।
हेलिनी सिकसाउस के अनुसार अवधारणाओं में सोचना जरूरी है। खासकर स्त्री साहित्य के इतिहासदर्शन के प्रसंग में अवधारणाएं और भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इस क्षेत्र में पुंसवादी सैद्धांतिकी हावी है। मध्यकाल में आमतौर स्त्रियों की राजनीतिक घटनाओं और राजनीतिक कार्यक्रमों में दिलचस्पी कम होती थी। वे चीजों के साथ राजनीतिक संबंधों को नहीं देख पाती थीं। वे चीजों को राजनीति के बिना एक सामान्य औरत की तरह ही देखती थीं। यही वजह है कि अनेक मर्तबा औरतों को सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ विशालकाय पहाड़ नजर आता है।
आधुनिककाल में आकर औरतों में राजनीतिक-सामाजिक यथार्थ को लेकर आकर्षण पैदा होता है। आधुनिक शिक्षा ,आधुनिक आंदोलनों और मीडिया ने औरत को इस क्षेत्र में समझदार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
स्त्री के व्यक्तित्व की एक अन्य खूबी है कि वह अपने दायित्व और सामाजिक भूमिकाओं का पालन करने के साथ साथ अन्य की जिम्मेदारियों का पालन भी करती। समग्रता में अन्य के लिए वह ज्यादा समय देती है,स्वयं के लिए कम समय देती है। अन्य के दबाव में उसकी कल्पनाशीलता,सर्जनात्मकता और काव्यात्मकता कहीं नष्ट न हो जाए इस बात का उसे सब समय ख्याल रखना होता है। दूसरी ओर महिला आंदोलन में स्त्रीसाहित्य के लिए जरा सी भी जगह नहीं है। ऐसी अवस्था में स्त्रीसाहित्य लिखना, उसे बचाना और भावी पीढ़ी के हाथों सौंपना बहुत बड़ी चुनौती है।
स्त्रीसाहित्य में स्त्री होने मात्र से किसी लेखिका को स्वीकृति नहीं मिलती। उसे लेखिका पहले होना होगा। लेखिका होने के लिए जरूरी है कि वह पहले साहित्य रचना करे या कृति लिखे,उसके लिखे के आधार पर ही वह पाठकों में स्वीकृति प्राप्त करती है। रचना दौड़ती है उसके पीछे लेखिका दौड़ती है और फिर पाठक पीछा करते हैं। यदि किसी रचना का पाठक पीछा नहीं कर रहे हैं तो जान लो कि पाठक बैठे हुए हैं। रचना कम पढ़ी जा रही है। लेखिका को प्रसन्नचित्त रखने में उसके पाठक ही मदद करते हैं।
हिन्दी में स्त्री साहित्य की बातें करना ,उसके पक्ष में बोलना,उसके इतिहास की बातें करना,स्त्री की समस्याओं पर जनजागरण का काम करना आदि बातें अभी भी लोकप्रिय नहीं हैं। इसका प्रधान कारण स्त्री की स्वतंत्र सत्ता और चेतना को अधिकांश समाज आज भी स्वीकार नहीं करता। स्त्री है,लेकिन वो कैसी है और उसकी क्या समस्याएं ये सभी बातें आज भी पुरूष के नजरिए से ही देखी-सुनी और कही जाती हैं। हम सभी के जेहन में लिंग या जेण्डर के नाम पर एक ही लिंग का वर्चस्व है और वह पुरूषलिंग। यह स्थिति कमोबेश पूरे समाज की है। खासकर स्त्रीचेतना इससे बेहद प्रभावित है।
भारत में लोकतंत्र है और स्त्री ,स्त्री साहित्येतिहास और इतिहास दर्शन का कोई भी नजरिया इसके बिना नहीं बनता। लोकतंत्र महत्वपूर्ण संस्थान ,मूल्य और संस्कार है। लोकतंत्र में एक अस्मिता नहीं अनेक अस्मिताएं एक साथ सक्रिय रहती हैं। इसके अलावा वर्ग,समुदाय के रूप में भी अस्मिताएं सक्रिय रहती हैं। फलतःलोकतंत्र में व्यक्ति की अस्मिता के साथ कई अस्मिताएं अंन्तर्ग्रथित होती हैं।सवाल यह है लोकतंत्र में कौन सी अस्मिता कब प्राथमिक और महत्वपूर्ण है ? अस्मिता संदर्भनिर्भर होती है।
मसलन् नागरिक,लिंग,जाति, धर्म,समुदाय,राष्ट्र,राष्ट्रवाद आदि में कौन सी अस्मिता कब महत्वपूर्ण है ? खासकर स्त्री के संदर्भ में इनमें कौन सी अस्मिता बेहतरीन समझ और सामाजिक सामंजस्य पैदा कर सकती है ?
भारत क वास्तविकता यह है कि 63 साल बाद भी लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात नहीं कर पाए हैं। हमें लोकतंत्र के फल खाने में अच्छे लगते हैं। उसकी सभी सुविधाओं और संस्थानों का लाभ उठाना चाहते हैं लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात किए बिना। यह समस्या समूचे समाज की है। स्त्रियां भी इससे अछूती नहीं हैं। जिस तरह पुरूषों को स्त्री के परंपरागत संस्कार,रूप और स्वभाव अच्छे लगते हैं। वैसे ही स्त्रियों को भी अच्छे लगते हैं। हमारे महिला आंदोलन की यह सीमा है कि वह स्त्री के मसले उठाता है लेकिन स्त्री को लोकतांत्रिक पहचान नहीं दे पाया है। स्त्री की लोकतांत्रिक अस्मिता का निर्मित न होना स्त्री की प्रमुख समस्याओं में से एक है। आज भी अस्मिता के सवालों पर लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य की बजाय पितृसत्ता और पुंसवादी राजनीति के संदर्भ में सारा विमर्श चल रहा है।
भारतीय संविधान में सभी को नागरिक अधिकार प्राप्त हैं। लेकिन नागरिकचेतना का विकास नहीं हो पाया है। यही हाल औरतों का है वे अपने को परंपरागत स्त्री रूप में ही देखना पसंद करती हैं। नागरिकचेतना को प्राप्त करने की उनमें कोई विशेष छटपटाहट नजर नहीं आती। स्त्रियों में जब तक नागरिकचेतना और लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास नहीं होता तब तक उनकी स्त्री अस्मिता को लेकर विभ्रम की स्थिति बनी रहेगी। अस्मिता तब बनती है जब नागरिकचेतना अर्जित करते हैं। लोकतांत्रिक मूल्य हासिल करते हैं। देखना चाहिए क्या भारतीय समाज में औरतें लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिकचेतना से अपने को लैस कर पायी हैं ?
भारतीय समाज की विशेषता है कि स्त्री ,परिवार से पूरी तरह बंधी है। यह सामान्य परिवार नहीं है ,बल्कि जाति और धर्म से घिरा परिवार है। वह अपने किसी भी हक को यदि पाना चाहती है तो उसे पुंससत्ता का समर्थन लेना अनिवार्य है बिना उसके वह अपने हक प्राप्त नहीं कर सकती।
स्त्री के सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकारों को विभिन्न किस्म के सामाजिकभेदों ने हजम कर लिया है। सामाजिकभेदों के प्रति हमारे अंदर जितनी तीव्र नफरत होगी और उनसे मुक्ति का जितना प्रयास करेंगे स्त्री मुक्ति और अस्मिता के एजेण्डे को हम उतनी ही जल्दी हासिल कर पाएंगे।
भारत में अभी तक स्त्री की जंग पितृसत्ता से रही है। लेकिन इसके अलावा पूंजी की सत्ता और राजनीतिक सत्ता के खिलाफ जंग को हम ठीक से आरंभ ही नहीं कर पाए हैं। कायदे से पितृसत्ता,पूंजी और राजनीतिक सत्ता के वर्चस्व के खिलाफ एकजुट नहीं कर पाए हैं। बिना इसके स्त्री की राजनीतिक और सामाजिक सत्ता को प्रतिष्ठित करना संभव नहीं है।
सामाजिक निर्माण की समग्र भाषा पूरी तरह संस्थानों की रणनीति और तर्कों पर आधारित होती है। यह ऐसी भाषा है जिसे आमतौर पर औरतें कभी नहीं बोलतीं। भारत में भाषायी वैविध्य और अंग्रेजी की महत्ता इसमें अतिरिक्त कारक है। हम भारत में स्वाधीन, आत्मनिर्भर और स्वायत्त स्त्री की इमेज को स्वीकृति नहीं दिला पाए हैं। इसका प्रधान कारण है स्त्री का सामाजिक वातावरण से घिरा रहना और उससे निकलकर अपनी अस्मिता बनाने में असफल होना।
इसके पीछे प्रधान कारण है महिला आंदोलन का विषम विकास। कायदे से स्त्री अधिकारों लेकर महिला आंदोलन ने कोई राष्ट्रीय आंदोलन अभी तक खड़ा नहीं किया। महिला आंदोलन ने स्त्री के मुद्दों अनेकबार उठाया है उससे स्त्री के अधिकारों में इजाफा हुआ है लेकिन ये सभी आंदोलन सीमित दायरे और सीमित अवधि में चलते रहे हैं। इन आंदोलनों से स्त्रीचेतना कम प्रभावित हुई है। इसके विपरीत स्त्रियां अपनी अस्मिता,सामाजिक इतिहास, साहित्य का इतिहास आदि को वर्तमान के आधार पर नहीं अतीत के आधार पर निर्मित करना पसंद करती हैं।
स्थिति यह है 'फेमिनिस्ट' को विलक्षण और औचक भाव से देखा जाता है। यहां तक कि अकादमिक जगत में भी उन्हें दूसरे लोक का प्राणी मानकर व्यवहार किया जाता है। साहित्य की स्नातक और उससे ऊपर की कक्षाओं में 'फेमिनिज्म' या स्त्रीवादी साहित्य सिद्धांत नहीं पढ़ाए जाते। अकादमिक जगत में हम स्त्री के बारे में बातकरते हैं लेकिन उसके शास्त्र को पढ़ाने से परहेज करते हैं। युवा लड़कियां भी फेमिनिस्ट कहलाना पसंद नहीं करतीं।
आज औरतों के पास जितने अधिकार हैं उन्हें दिलाने में फेमिनिज्म और महिला आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन अधिकतर औरतें फेमिनिज्म या महिला आंदोलन के इस कर्ज के प्रति कृतज्ञता से पेश नहीं आतीं। वे स्त्री की उन परिस्थितियों को अस्वीकार नहीं करतीं जिनमें औरतें कष्ट और अपमान में रह रही है, और अपनी वास्तव स्त्रीचेतना से वंचित है। इस क्रम में औरतें समाज में हाशिए पर चली गयी हैं। अधिकतर औरतें अदृश्य रहना चाहती हैं। वे परिवार के निर्माण में अपनी भूमिका निभाना चाहती हैं लेकिन सामाजिक वातावरण में अपनी भूमिका नहीं निभाना चाहतीं। उनके व्यक्तित्व से नागरिक आयाम एकसिरे से गायब है। यह भी कह सकते हैं घरेलू औरत की अस्मिता ने उसकी नागरिक अस्मिता का अपहरण कर लिया है।
फेमिनिज्म की खूबी है कि वह औरत के आसपास बने हुए परंपरागत माहौल को खत्म करता है।उसके अंदर नागरिक अधिकारों की चेतना पैदा करता है। खासकर लोकतंत्र में फेमिनिज्म तो स्त्रीरक्षा का प्रभावशाली हथियार है। उल्लेखनीय है विभिन्न रंगत का फेमिनिज्म प्रचलन में है स्त्री अपनी सुविधा और समझ के आधार पर चुन सकती है कि वह किस तरह के फेमिनिस्ट नजरिए का पालन करे। फेमिनिज्म के बिना स्त्री अपनी अस्मिता का निर्माण नहीं कर सकती। स्त्री के लिए फेमिनिज्म नजरिया है और उसके सामाजिक विकास की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है। हिन्दी की आयरनी है कि हमारे यहां स्त्र5 साहित्य है लेकिन फेमिनिस्ट कोई नहीं है। उलटे फेमिनिज्म से नफरत करने वाली लेखिकाएं मिल जाएंगी।
लोकतंत्र में स्त्रीअधिकार की आधारशिला है उसका स्वायत्त अस्तित्व।स्त्री का जब तक स्वायत्त अस्तित्व समाज और स्वयं स्त्री स्वीकार नहीं करती,सारी कवायद बेकार है। स्त्री का अस्तित्व और स्वायत्तता ये उसके दो बुनियादी हक हैं। अभी औरत को हम महज सेवा करने वाली और बच्चा पैदा करने वाली के रूप में ही देखते हैं।
इसके अलावा विभिन्न संस्थानों को भी लोकतंत्र का पाठ नए सिरे से पढ़ाने की आवश्यकता है। जिससे वे नागरिक अधिकारों और नागरिकचेतना के प्रति परिपक्वता से पेश आएं। नागरिक परिपक्वता पैदा करने के लिए नागरिक कानूनों की नए सिरे पड़ताल की जानी चाहिए। जजों से लेकर सांसदो-विधायकों को नागरिकता का गहन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। वे जानें कि नागरिक अधिकारों का मतलब क्या है ? सीमाएं क्या हैं ? प्राकृतिक नियम विधान और कानूनी नियम विधान की सीमाएं क्या हैं ? इस दिशा में पहले कदम के तौर पर स्त्री की इच्छा और अधिकारों का हम सम्मान करना सीखें, उस पर थोपना बंद करें।
स्त्री-पुरूष ये दोनों समाज में स्वायत्त इकाई हैं। इस बात को बुनियादी तौर पर मानें। लोकतंत्र का आरंभ नागरिक संबंधों से होता है और नागरिक संबंधों को नागरिक अधिकारों के जरिए संरक्षण प्राप्त है। ये नागरिक अधिकार पुरूष की तरह स्त्री को भी प्राप्त हैं। स्त्री-पुरूष के बीच में प्रेम रहे। दोनों एक-दूसरे की संवेदना,अनुभूति,शरीर और मूल्यों का सम्मान करें।
हमारे देश में लोकतंत्र है, संविधान में हक भी मिले हैं। लेकिन स्त्री-पुरूष एक-दूसरे का सम्मान नहीं करते। नागरिकता का उदय तब होता है ,जब हम सम्मान करते हैं। भिन्नता को स्वीकार करते हैं। भिन्न किस्म की धार्मिक ,राजनीतिक और सांस्कृतिक भावनाओं को स्वीकार करते हैं। नागरिक भावबोध पैदा करने लिए हमें स्त्री-पुरूष के प्राकृतिक अंतर को भी मानना पड़ेगा। इन दोनों की स्वायत्तता को भी मानना पड़ेगा।
लोकतंत्र में हक मिलते नहीं हैं।उनको हासिल करना पड़ता है। यह स्त्री के विवेक पर निर्भर करता है कि वह अपने अधिकारों के प्रति कितनी सजग है। स्त्री की सजगता के आधार पर यह भी देख सकते हैं कि वह अपने को दासता से किस हद तक मुक्त करना चाहती है। इसके लिए स्त्री को लिंग के दायरे से बाहर निकलकर नागरिक के दायरे में आना होगा। लिंगबोध का नागरिकबोध में रूपान्तरण करना होगा।
लिंग का दायरा स्त्री दासता बनाए रखता है। जबकि नागरिकता का दायरा दासता से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। इससे स्त्री को अपनी प्राकृतिक पहचान को नागरिक अस्मिता में रूपान्तरित करने में मदद मिलती है। स्त्री ,प्राकृतिक स्त्री की इमेज में जब तक बंधी रहेगी उसे नागरिक समाज और नागरिक अधिकारों के साथ सामंजस्य बिठाने में असुविधा होगी। यह भी संभव है स्त्री अपनी प्राकृतिक जिंदगी को पूरी तरह त्यागे बिना नागरिक जिंदगी में प्रवेश करे। जिस तरह स्त्री के लिए वस्त्र जरूरी हैं वैसे ही नागरिक अधिकार भी जरूरी हैं। इसके लिए जरूरी है कि स्त्री-पुरूष में प्रेम हो। प्रेम के बिना सब बेकार है। यहां तक कि नागरिक अधिकार भी अर्थहीन हैं। परंपरा और धर्म भी अर्थहीन है। स्त्री की स्वायत्तता बचे इसके लिए स्त्री-पुरूष में प्रेम जरूरी है। स्त्रियों में आपसी प्रेम जरूरी है।
स्त्री के प्रति रवैय्या बदले इसके लिए जरूरी है कि हम उसे देखने का तरीका बदलें। स्त्रीचेतना का सामाजिक स्रोत हैं संस्थान। स्त्री के बारे में जब भी किसी विषय पर बात की जाए उसे संस्थान के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए। स्त्रीचेतना का निर्धारण स्त्री कम और सामाजिक संस्थान ज्यादा करते हैं। मसलन् ,मध्यकाल में स्त्री पर विचार करना है तो मध्यकालीन संस्थानों से जोड़कर देखें। आधुनिक औरत पर बात करनी है तो आधुनिक संस्थानों की भूमिका के संदर्भ में विश्लेषित करें। संस्थान के चरित्र उदघाटन के बिना स्त्री अस्मिता का रहस्योदघाटन संभव नहीं है।
संस्थान किसे कहते हैं ?उनका काम क्या है ? संस्थान हमारे बीच में तयशुदा संबंध और व्यवहार जिनसे सामाजिक मूल्यों और विश्वासों को बनाए रखते हैं। सामान्यतौर पर स्त्री पर बात करते समय ,उसके लिखे पर बात करते समय हम स्त्री को लिंग की तरह नहीं देखते,उसकी राय को लिंग की राय के रूप में ग्रहण नहीं करते।बल्कि व्यक्तिगत राय के रूप में देखते हैं। इस तरह देखने का दुष्परिणाम यह निकला है कि स्त्री को,उसके विचारों को हाशिए पर डाल देते हैं। उसके स्वायत्त अस्तित्व और उसकी उपलब्धियों या सामाजिक भूमिका को सीमित करके पुंस वर्चस्व के अधीन बना देते हैं।
स्त्री साहित्य पर बात करनी हो या स्त्री के सवालों पर या खुद स्त्री से बात करनी हो, उसे लिंग के रूप में देखना और उसी रूप में उसकी राय का सम्मान करना चाहिए। स्त्री को लिंग के रूप में देखने के कारण हम सामाजिक जीवन में व्याप्त लिंबभेद को बेहतर ढ़ंग से समझ पाएंगे। स्त्री की समस्याएं,उसका सृजन,उसका मन,उसके विचार आदि ये कोई निजी या व्यक्तिगत नहीं हैं वे तो एक लिंग के विचार हैं। स्त्री कभी भी निजी नहीं होती है।वह हमेशा लिंग के रूप में बनी रहती है ,और लिंग के रूप में उसकी भूमिका तय है, और उसी रूप में उस पर वर्चस्व के रूप भी तय हैं। स्त्री के वास्तव स्वरूप को जानने के लिए उसकी लिंग की पहचान को केन्द्र में रखना चाहिए।
स्त्री को लिंग के रूप में न देखने का यह भी परिणाम निकला है कि हम स्त्री की निर्माण प्रक्रिया से भी अनभिज्ञ हैं। स्त्री -पुरूष को एक-दूसरे के सामाजिक पूरक के रूप में देखते हैं। खासकर स्त्रीको तो पुरूष की पूरक के रूप में ही देखते हैं।
कॉमनसेंस चेतना है पुरूष कर्ता है और स्त्री पूरक है। जबकि यह बात गलत है। स्त्री पूरक नहीं है। वह स्वतंत्र लिंग है। स्त्री लिंग के रूप में उसकी सत्ता,स्वायत्तता और महत्ता है।
उल्लेखनीय है लिंगरहित पहचान की जितनी भी धारणाएं या संबंध हमारे समाज में प्रचलन में हैं उनके आधार पर स्त्री की सही समझ नहीं बनती। मसलन्, स्त्री को मनुष्य, निजी,व्यक्ति, बीबी,बहू,बेटी,बहन आदि के आधार पर नहीं समझा जा सकता। इस तरह के सारे पदबंध स्त्री की लिंग की पहचान को छिपाते हैं,या उसकी उपेक्षा करते हैं। स्त्री को न्यूनतम स्पेस देते हैं। साथ ही इनमें किसी न किसी रूप में पुंसवादी संदर्भ निहित है और वह निर्णायक भूमिका अदा करता है। ये सभी पदबंध पुरूष कोड में निर्मित हैं। कायदे से हमें मर्द के सॉचे में ढ़लकर आई अवधारणाओं और स्त्री के साँचे में ढलकर आई अवधारणाओं में हमें अंतर करना चाहिए।
अन्या -
हिन्दी में लेखिकाओं को स्त्री को 'अन्या ' के रूप में देखने की आदत है वे,अपने को भी अन्या के रूप में पेश करती हैं। प्रभाखेतान ने तो अपनी आत्मकथा का नाम ही "अन्या से अनन्या तक"रख दिया। "अन्य'' की धारणा बेहद जटिल है। इसमें यह तथ्य निहित है कि अन्य हमसे (स्त्रीसे) लेते हैं और स्त्री को भी कुछ देते हैं। हेलिनी सिकसाउस ने लिखा है अन्य हमारा मित्र हो सकता है और मित्र भी हो सकता है। शत्रु जरूरी नहीं है कि बुरा ही हो। शत्रु भी हमें कुछ न कुछ शिक्षा देता है। शत्रु जरूरी नहीं है कि घृणा की ही शिक्षा दे। वह हमारे रहस्यमय असुरक्षित क्षेत्रों को सामने लाता है। वह हमें निज की रक्षा करने की शिक्षा देता है। वह अनेक क्षेत्रों में विकास और परिपक्वता पैदा करने की संभावनाओं के द्वार खोलता है। अगर वह स्वयं मौत न हो ,मौत की ओर ठेलने वाला या हत्यारा न हो तो अनेक क्षेत्र ऐसे भी हो सकते हैं जिनमें शत्रु के साथ मिलकर भी काम किया जा सकता है। यानी सब समय स्त्री और पुरूष को एक-दूसरे के शत्रु के रूप में नहीं देखना चाहिए।
भारतीय समाज में औरतों में व्यापक स्तर पर हीनताबोध है। इस हीनताबोध के प्रसार का प्रधान कारण है समाज में खुलेपन का अभाव। खुलेपन के अभाव के कारण हमारे सभी किस्म के संबंध प्रभावित होते हैं। इसके बावजूद लोग प्रेम कर रहे हैं। मित्र बना रहे हैं। इसका अर्थ क्या है ? इसका अर्थ है अन्य मौजूद है और उसकी महत्वपूर्ण भूमिका भी है।
अन्य पूरी तरह अन्य है। वह हमारे अंदर नहीं है। हम सब समय यह कहने की स्थिति में होते हैं कि 'मैं आपको लाइक नहीं करता' या 'प्यार' नहीं करता। ये बातें विनिमय के रूप में होती हैं। यह कहते हुए हम अपने को नहीं देखते । अन्य को देखते हैं। जब अन्य कुछ कहता है तो हमें अपने को भी देखना चाहिए। अन्य के साथ अंतर करते हुए जब चीजें पेश की जाती हैं तो हम देखते हैं। ऐसी अवस्था में हम अन्य को ज्यादा देखते हैं। अन्य में ज्यादा चीजें देखते हैं। साथ ही कुछ बिंदु होते हैं जिन्हें हम नहीं देखते।
कुछ ऐसे बिन्दु भी होते हैं जिन्हें हम नहीं देखते या नहीं जानते और उनसे कभी -कभी अनजाना सच जन्म ले सकता है। जब अन्य की गुप्त,छिपी बातें मालूम पड़ती हैं,अन्य का व्यक्तित्व खुलता है।
अन्य वह है जिसे हम नहीं जानते। इस अन्य से संबंध में सुंदर चीज क्या है ? वह कौनसी चीज है जो हमें गतिशील बनाती है ? अन्य से प्यार करते समय वह कौनसा हिस्सा है जिसकी एक झलक को हम तरसते हैं और एक झलक पाकर धन्य हो जाते हैं। अन्य में वह क्या छिपा है जो अन्य नहीं देख सकता। वह कौन सा क्षेत्र है जिसके जरिए हम अन्य के छिपे हुए को देखते हैं,महसूस करते हैं ? इसी को हम प्यार कहते हैं।यह हृदय में निवास करता है।
कईबार हम देख नहीं पाते इसका अर्थ है कि इससे आगे जानने के तरीके नहीं जानते। ऐसी भी चीजें होती हैं जिनके बारे में हम नहीं जानते या जिनको हम पुनर्प्रस्तुत नहीं कर सकते। क्योंकि व्यवहार और फैसलों में वे हमारे लिए पराये हैं विदेशी हैं। यह वह जगह है जहां से अन्य का परायापन आरंभ होता है। इसकी समृद्धि,जरूरत,पहुँच आदि हमें आकर्षित करती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम खोज नहीं करेंगे। या हमने कोई खोज नहीं की है।
कुछ लोग मानते हैं असीमित परायापन अपने आप में विध्वंसक है,परेशानीदायक है। इसके विपरीत इसका अंत उत्साहजनक और अतिसुंदर होता है। यह अज्ञेय है लेकिन सुंदर है। यह वैसे ही है जैसे बिना जाने प्यार करना। प्यार करना और नहीं जानना। अन्य पर बिना किसी प्रमाण के विश्वास करना। विश्वास के क्षण में रहना। अन्य जब झूठ बोल रहा हो तब भी उस पर विश्वास करना। वैसे ही जैसे ईश्वर नहीं है लेकिन हम ईश्वर में विश्वास करते हैं। भगवान है इसका कोई प्रमाण नहीं है। लेकिन विश्वास है कि ईश्वर है।यानी आस्था के क्षण में जीना।
अन्या की अवधारणा पर मनोवैज्ञानिकों की समझ का, खासकर फ्रॉयड की ओडिपस कॉम्प्लेक्स की धारणा का व्यापक असर है। इसकी विभिन्न किस्म की व्याख्याओं और चुनौतियों को स्त्रीवादी विमर्श में विकसित किया गया है। ये सभी व्याख्याएं एक साझा बात पर विचार करती हैं कि बाह्य हमारे अंदर कैसे आता है। अन्य हमारे अंदर कैसे आता है। नैन्सी चोदोरोव और अन्य फ्रांसीसी स्त्रीवादी मानती हैं कि जेण्डर के विकास के लिए माँ के रूप में आरंभ के 2 सालों का बच्चे के लिए बड़ा महत्व है। इन्हीं आरंभिक 2 सालों में बच्चे की अस्मिता की बुनियाद बनती है। पुराने फ्रायडपंथी मानते हैं बच्चे के स्वस्थ विकास में विभिन्न किस्म के प्रेम ऑब्जेक्ट के साथ उसके अहं का संपर्क-संबंध स्वस्थ बच्चे का विकास करते हैं।
इन दिनों जिस तरह परिवारीजनों की व्यस्तता बढ़ी है और माँ-बाप ने अपनी शक्ति बच्चों में व्यय करने की बजाय अन्यत्र व्यय करना आरंभ किया है उससे बच्चों के विकास पर सीधा असर पड़ा है। माँ और पिता की भूमिका घटी है। इसके कारण बच्चे के जीवन में अन्य लोगों की भूमिका बढ़ी है और यह उसके अंदर पुंसवादी मानसिकता के विकास का बड़ा कारण है। पश्चिमी सभ्यता का जिस तरह विकास हुआ है उसमें पुंसवाद के मूल्यों जैसे अलगाव,स्वायत्तता,आत्म-निर्भरता और व्यक्तिवाद को सब्जैक्टिविटी का आधार बनाया गया है। इसके कारण स्त्री के गुणों की उपेक्षा बढ़ी है।जैसे संपर्क,संबंध,पालन-पोषण आदि का निजी जीवन के क्षेत्र में अवमूल्यन हुआ है। स्त्रीवादी मनोवैज्ञानिक मानती हैं कि सभी लोगों में वे पुरूष हों या स्त्री। आदमी के विकास में एजेन्सियां संतुलित ढ़ंग से विनिमय करें। सेल्फ -एसर्शन और सेल्फ रिकॉगिनीसन के साथ काम करें। इससे परिपक्वता और व्यक्तिवाद का विकास होगा।
लूस इरीगरी,जूलिया कृस्त्वा और कैथरीन क्लेमेंट का नजरिया इससे भिन्न है। वे फ्रॉयड के नजरिए के आधार पर अन्य के बारे में सवाल उठाती हैं। इन लोगों ने फ्रॉयड की धारणा ड्राइव का इस्तेमाल किया है। वे इच्छाओं के भिन्न तंत्र में रूचि रखती हैं। इसमें उन्होंने ड्राइव, इम्पल्स, ऑब्जेक्ट चयन आदि पर ध्यान दिया है। मनुष्य के आत्म के विभाजनकारी रूपों का मूल्यांकन किया है।
बच्चा बड़ा होने के साथ अपनी इच्छाओं को माँ से अलग कर लेता है और अन्य के साथ जोड़कर देखता है। लाकां के अनुसार माँ से अलग होने की प्रक्रिया बच्चे के अंदर जब वो 6-18 माह का होता है तब से आरंभ होती है।इस बीच बच्चा अपनी इमेज और शारीरिक गठन को पहचानने लगता है। यही वह प्रस्थानबिंदु है जहां से अन्य का बच्चे के जेहन में प्रवेश और आकर्षण पैदा होता है।
पितृसत्ता-
पितृसत्ता की अवधारणा पर हिन्दी में आमतौर पर बहस नहीं होती। 1990 के बाद से पितृसत्ता के बारे में हिन्दी में थोड़ी बहुत हलचल नजर आती है। यहां तक कि फेमिनिज्म की बहसों में भी 1960 के बाद ही केन्द्र में आती है। हिन्दी में अधिकांश लेखन स्त्री-पुरूष संबंध की धारणा पर ही केन्द्रित रहा है।
पितृसत्ता एक व्यवस्था है जिसमें पुरूष के विशेषाधिकार,शक्ति और क्षमता को मर्दानगी के आधार पर व्याख्यायित किया जाता है। पितृसत्ता के दायरे में औरतें अधिकार और स्वायत्ततारहित होती हैं। उन्हें वही करना होता है जो पुरूष चाहता है। घर से लेकर बाहर तक सभी ,बच्चे से लेकर राजनीति तक सभी फैसले पुरूष लेता है और औरतों एवं अन्य को मानने के लिए मजबूर करता है। परिवार में पुरूष मूलतः मुखिया है और वह इसी आधार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाए रखता है।
परिवार , पितृसत्ता की बुनियाद है । परिवार किस तरह का है उससे पितृसत्ता का स्वरूप समझने में मदद मिलेगी। पारिवारिक संबंधों की अभिव्यंजना समूचे सामाजिक-राजनीतिक ढ़ांचे पर भी पड़ती है। समाज में पितृसत्ता की क्या स्थिति है यह इससे तय होगा कि परिवार में पुरूष की स्थिति क्या है ? समाज की वैचारिक संरचनाओं को देखने का सही आधार परिवार है। अमूमन समाज की अन्य संरचनाओं को ज्यादा महत्व देते हैं।
सवाल यह है आप किस तरह का परिवार बनाना चाहते हैं ?लेकिन बहस इस पर होती रही है कि किस तरह का समाज बनाना चाहते हैं ?यह सवाल इस बात से जुड़ा है किस तरह के उत्पादन संबंध बनाना चाहते हैं ?इन बुनियादी सवालों की उपेक्षा करते रहे हैं। सामंती समाज से लेकर समाजवादी समाज तक पितृसत्ता का बने रहना इस बात का सबूत है कि व्यवस्था परिवर्तन का पितृसत्ता पर कोई खास असर नहीं होता। पितृसत्ता पर बात करते हुए अनेक लोग ऐसे भी हैं जो सामान्यीकरण का सहारा लेते हैं और उसकी सांस्कृतिक-राजनीतिक और तकनीकी परक जटिलताओं की अनदेखी करते हैं।
पितृसत्ता महज विचार या अवधारणा नहीं है। बल्कि कम्पलीट सामाजिक व्यवस्था है उसका आर्थिक आधार है। वह जितना समाज में है उससे ज्यादा मन के अंदर है। पितृसत्ता की जितनी मन में मजबूत जड़ें है उतनी ही गहरी सामाजिक संरचनाओं ,राजनीति ,संस्कृति उद्योग और आर्थिक संबंधों में जडें हैं। पितृसत्ता को व्यक्ति केन्द्रित होकर देखने की बजाय व्यवस्था और विचारधारा के रूप में देखें तो ज्यादा बेहतर होगा। यह मूलतः वर्चस्व की विचारधारा है।
श्रम-विभाजन,परिवार,राज्य,संस्कृति,मासकल्चर,मीडिया,उपनिवेशवाद,कामुकता,स्वतंत्रता आदि क्षेत्र हैं जहां मर्दानगी को विचरण करते हुए सहज देखा जा सकता है। पितृसत्ता मूलतः वर्चस्व का पुराना रूप है जिसे कभी गंभीरता से चुनौती नहीं दी गयी । वर्चस्व के अनेक रूपों को विभिन्न समयों पर चुनौती दी गयी लेकिन पितृसत्ता को चुनौती नहीं दी गयी,विभिन्न व्यवस्था परिवर्तनों के साथ उसके सामंजस्य के बहाने खोज लिए गए।
पितृसत्ता वर्चस्व का प्रधान रूप है। हम वर्चस्व के अन्य रूपों को विश्लेषित करते रहे लेकिन इसकी ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। पुरूष के सामाजिक वर्चस्व को स्वाभाविक मान लिया। वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष को चुनौतीपूर्ण प्रकल्प के रूप में कभी स्वीकार ही नहीं किया। फलतःइतिहास ,राजनीति,धर्म,दर्शन आदि में तमाम सद् इच्छाओं के बावजूद पितृसत्ता बनी रही। साहित्य के इतिहास और आलोचना में उसका वर्चस्व बना रहा। आज भी कौन लेखिका महान है यह फैसला मन्नू भंडारी या कृष्णा सोबती नहीं करतीं। बल्कि मर्द आलोचक ही करेगा। इतिहास में स्त्रीलेखन दर्ज हो या नहीं यह फैसला भी वही करेंगे। स्त्री चाहे तो भी समाज और साहित्य में अपना स्थान तय नहीं कर सकती।
पितृसत्ता का ही कमाल है कि स्त्री के मरने के बाद भी स्त्री के साथ क्या व्यवहार किया जाए यह पुरूष ही तय करता है। पितृसत्ता के वर्चस्व की बात जब भी होती है तो उसका अर्थ है सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-आर्थिक वर्चस्व। यह व्यवस्था हजारों सालों से चली आ रही है और इससे स्त्री-पुरूष दोनों का ही नुकसान होता है। यह वर्चस्व सिर्फ स्त्री के तन और मन को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि समाज के सभी संस्थानों को प्रभावित और संचालित करता है। एकतरह से इसने जीवनशैली में सहज-स्वाभाविक स्थान बना लिया है। फलतः पितृसत्ता को आम जीवन में स्वाभाविक अधिकार की भूमिका अदा करते हुए पाते हैं।
पितृसत्ता में एक अंतर्निहित नजरदारी और निर्देशन का भाव है।इसने समाज पर ऊपर से निषेधों की विशाल नियमावली थोप दी है। पूंजीवाद ने सभी किस्म के भेदों की समाप्ति का वायदा किया था।इसमें लिंगभेद भी शामिल है। लेकिन पूंजीवाद के 250 सालों के शासन में लिंगभेद खत्म नहीं हुआ। उलटे लिंगभेद संबंधी समस्याओं में इजाफा हुआ है।
हाल के वर्षों में दुनिया के विभिन्न इलाकों में नए किस्म के पुंस आंदोलनों का भी जन्म हुआ है। ये लिंगभेद के स्त्रीवादी तर्कशास्त्र का अपने पक्ष में जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं ।
वे पुरूष की लैंगिक पहचान को मर्द के ही संदर्भ में चिह्नित कर रहे हैं और उसकी समस्याओं पर रोशनी डाल रहे हैं। आज प्रत्येक देश में मर्द आंदोलन ने सामूहिक रूप ले लिया है। मर्द का मर्द से प्यार ,झगड़ा,उत्पीड़न,अवसाद,मर्द का मर्द के जरिए दमन-शोषण, मर्द-मर्द के बीच में प्यार और पुलिस उत्पीड़न,कानूनी उत्पीड़न आदि के सवाल उठाए जा रहे हैं। इस क्रम में मर्द के मिथ और आध्यात्मिकता का भी सहारा लिया जा रहा है। मर्द-मर्द के बीच के शारीरिक-भावनात्मक संबंधों को स्वाभाविक कहा जा रहा है। पिता के अधिकारों की मांग की जा रही है। एकल पिता के अधिकारों पर जोर दिया जा रहा है।खासकर बच्चे की कस्टैडी के सवाल पर काफी विवाद हो रहा है। अमेरिका- आस्ट्रेलिया में यह स्थिति ज्यादा नजर आ रही है।
विकसित पूंजीवादी मुल्कों में पिता अधिकार ग्रुप, पुंस अधिकार ग्रुप आदि ताकतवर समूह के रूप में सामने आए हैं। इससे लिंगभेद बढ़ा है। इस तरह के आंदोलन अपनी बुनियादी प्रकृति में स्त्रीविरोधी विचारधारा और पितृसत्तात्मक विचारधारा को ही व्यक्त करते हैं। इस तरह के आंदोलनों का आधार है व्यक्तिगत विकास और राहत हासिल करना। इस तरह के तर्को के आधार पुंस आंदोलनों से ज्यादा से ज्यादा मर्द जुड़ते चले जा रहे हैं। इस आधार पर वे मर्दानगी को नए फ्रेमवर्क में गठित करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत में पति उत्पीडि़त संघ टाइप संगठन इसी मनोदशा को व्यक्त करते हैं।मर्दानगी को पुनर्गठित करने का यह प्रयास जिस तरह के सामाजिक संबंधों,संस्थानों और विचारधारा बात कह रहे हैं वह समाज के लिए अर्थहीन है। पश्चिम में जिस तरह वूमेन स्टैडीज है उसकी तर्ज पर मेन स्टैडीज भी खुल गए हैं।
स्त्री का पाठ कैसे पढें -
इन दिनों लेखक को पढ़ने की पद्धति बदल गयी है। लेकिन हिन्दी में अधिकांश आलोचक अभी भी पुरानी शैली में पढते हैं। यानी वे किताब को केन्द्र में रखकर पढ़ते हैं। रोलां बार्थ ने सन् 1977 में इस दिशा में ध्यान खींचा था कि युग बदल गया है अब हमें "वर्क" से "पाठ" की ओर जाना चाहिए। यही वह प्रस्थान बिंदु है जिसके आधार पर हमें पाठ का विश्लेषण करना चाहिए। पहले आलोचक कृति को पढ़ते थे लेकिन अब पाठ को पढें।
सैंकड़ों सालों से बड़े कौशल के साथ कृति का संरक्षण चला आ रहा था। इसके कारण कृति के मूल अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं आया। पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही अर्थ का प्रचार प्रसार होता रहा। इसके विपरीत बार्थ ने जिस पाठ के मूल्यांकन की ओर ध्यान खींचा है वह सुनिश्चित कलात्मक-साहित्यिक अभ्यासों के समृद्ध संदर्भों पर निर्भर है। अतः इसपाठ को प्रत्येक पीढ़ी को संबंधित समस्या के लिए नए सिरे से खोजना होता है। इस क्रम में पाठ के एक नहीं अनेक बल्कि अंतर्विरोधी अर्थ भी प्राप्त होते हैं। इस क्रम में मूल बात यह है कि आप अर्थ को कैसे हासिल करते हैं।
पाठ में अनेक जटिलताएं होती हैं। इसकी परिभाषा को लेकर भी व्यापक मतभेद हैं। इसके बावजूद सवाल यह है कि पाठ किसे कहते हैं ? पाठ अनेक संकेतों का समूह है। इस पहलू को अम्ब्रेतो इको ने भिन्न ढ़ंग से कहा है। इको का मानना है शब्द ही पाठ है और पाठ ही शब्द है। लेकिन इनका असुरक्षित इतिहास है।पाठ के शब्द संसार पर प्रतिक्रिया देने का अर्थ है नए अर्थ की खोज करना। सवाल यह नहीं है कि रचना को आप कृति कहते हैं या पाठ कहते हैं। सवाल यह है उसका क्या निश्चित अर्थ होता है ? क्या उसमें अनेक संभावित अर्थ होते हैं ? अथवा कोई अर्थ ही नहीं होता ?
इनदिनों पाठक के पास अपने समाज,संस्कृति,राजनीति आदि की व्यापक जानकारी है और वह इसके आधार पर विभिन्न पाठों को नए सिरे से खोलता है। पाठ के संदर्भ में बुनियादी मसला क्या है ? यहां पर स्त्री का पाठ बुनियादी मसला है। अतः पाठ को स्त्री के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। उसी संदर्भ में पाठ के अर्थ की खोज की जानी चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि कौन पढ़ रहा है ? स्त्री पढ़ रही है या मर्द पढ़ रहा है ? इससे यह भी पता चलेगा कि पाठ का अर्थ कौन ग्रहण कर रहा है ? कौन रोक रहा है ? कौन प्रतिवाद कर रहा है ? या कौन अर्थ को समायोजित कर रहा है। यानी पाठक की अस्मिता का पाठ के मूल्यांकन में महत्व होता है। अपनी अस्मिता के आधार पर ही वह अर्थ की खोज करता है। अनेकबार हम फिल्म देखते हुए उसे बीच में ही छोड़कर चल देते हैं हमें वह अच्छी नहीं लगती। इसके लिए कोई खास कारण हम नहीं जानते लेकिन छोड़कर चल देते हैं। असल में दर्शक यह काम अपने अनुभव के आधार पर करता है। पाठ के आधार नहीं करता। लेकिन ज्योंही पाठक को पाठ के आधार पर बात करने के लिए कहा जाएगा वह यही कहता है कि हमें कहानी अच्छी नहीं लगी, अभिनय अच्छा नहीं लगा। यानी वो कोई न कोई आधार बताता है।
पाठ का पाठक पर विखंडित असर पड़ता है जिसके आधार पर वह राय बनाता है। पाठ का पाठक पर असर ही नहीं पड़ता बल्कि मूल्यों और विचारधारा का भी असर पड़ता है। इसका भी असर पड़ेगा कि आखिरकार पाठक निजी तौर पर स्त्री,लिंग,सेक्स, कामुकता, नस्ल,रक्तसंबंध,वर्ग ,जातीयता आदि के बारे में किस तरह के मूल्यों को जानता और महसूस करता है। उसमें वह किन मूल्यों को घातक मानता है। यह भी संभव है किसी कृति या फिल्म में ऐसे मूल्यों का चित्रण किया गया हो जिनका पाठक की मूल्य संरचना के साथ अन्तर्विरोध हो, विवाद हो,पंगा हो,ऐसे में वह पाठ से असहमत भी हो सकता है। उल्लेखनीय है फिल्म का पाठ नहीं संकेत की धारणा के आधार पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए। यह भी देखें संकेत को किन तत्वों के साथ सजाकर पेश किया है।
मसलन् आप किसी शिक्षक के पढ़ाने को ले सकते हैं। कक्षा में विभिन्न किस्म के छात्र होते हैं। इनकी मनोदशा भी भिन्न किस्म की होती है। वे पाठ और शिक्षक को एक ही तरह से ग्रहण नहीं करते। उनके ग्रहण का आधार होता है उनकी अपनी चेतना और रीडिंग आदतें होती हैं। जिस छात्र की किताब पढ़ने की आदत नहीं है और नोटस से काम चला लेता है ,उसके लिए वह शिक्षक मूल्यवान है जो नोटस लिखाता है या नोटस देता है। लेकिन जो छात्र किताब पढ़ने में दिलचस्पी रखता है उसके लिए वह शिक्षक मूल्यवान है जो किताब के सवालों को विभिन्न तरीकों से खोलकर पढ़ाता है। यानी छात्र की अस्मिता और चेतना यहां मूलतः निर्धारण का काम कर रही है।
एस .हाल ने रेखांकित किया है पाठ की रीडिंग में शरीर की अवस्थिति की बड़ी भूमिका होती है। मसलन् कब,कहां,किस समय,किस अवस्था में शरीर है। इसका पाठ की रीडिंग पर सीधा असर पड़ेगा। इसी प्रसंग में मिशेल फूको ने व्यक्ति के शरीर के नियमन और अनुशासित करने की प्रक्रियाओं को विस्तार से बताया है कि आधुनिककाल आने के बाद व्यक्ति के शरीर को किस तरह नए किस्म के अनुशासन ,आदतों,संस्कार और नियमों में बांधा गया।
एस. हाल का मानना है अस्मिता आंतरिक तत्वों से बनती है, बाह्य रिप्रजेंटेशन से नहीं। प्रत्येक व्यक्ति अपना आख्यान एवं प्रस्तुति स्वयं बनाता है। जिसमें उसका समाज झांकता है। वह समाज के सांस्कृतिक तत्वों के जरिए ही अस्मिता बनाता है फलतः व्यक्ति की अस्मिता सांस्कृतिक निर्मित होती है। उसमें बहुस्तरीय सामयिक विषय तैरते रहते हैं। जो चीज उसके सांस्कृतिक संदर्भ में आ जाती है उसका वह रूपान्तरण कर लेता है।
पाठ की व्याख्या की कई परंपराएं हैं। खासकर रैनेसां के साथ पाठ की सार्वभौम व्याख्याओं का जन्म होता है। सार्वभौम तुलनाओं का किया जाता है। सार्वभौम तुलना का अर्थ है कि प्रत्येक चीज,बात,व्यक्ति,घटना,विचार आदि अन्य से जुड़ा है। यानी अन्य तत्व उस तत्व की अभिव्यंजना है या अन्य किसी चीज की अंतर्वस्तु है। जब आप दो चीजों में तुलना करेंगे, एक-दूसरे के साथ जोड़कर देखेंगे तो व्याख्या के अनियंत्रित होने की संभावनाएं भी रहेगी।यहां अर्थ से अर्थ की ओर रूपान्तरण होगा। समानता से समानता की ओर स्थानान्तरण होगा। इस छोर का उस छोर के साथ संपर्क बनेगा। यानी एक से दूसरे की ओर स्थान्तरण होगा। यहां कोई कदम सुनिश्चित नहीं हो सकता।
हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल के इतिहास को इस नजरिए से देखें तो विभिन्न समयों में पैदा हुई व्याख्याओं के कारणों को सहज भाव से जान सकते हैं। मसलन्, भारतेन्दुकाल में किसी लेखक ने इस युग को रैनेसां या नवजागरण नहीं कहा । सन् 1940 के बाद ही पता चला कि भारतेन्दु युग नवजागरणकाल था। यह बात सबसे पहले राहुल साकृत्यायन ने कही। यही हाल छायावाद का है इस आंदोलन के लेखक और आलोचक नहीं जानते थे कि इस आंदोलन का स्वाधीनता संग्राम से कोई संबंध है। यह तथ्य खोजकर रामविलास शर्मा ने बताया।
कहने का अर्थ है कि रैनेसांकालीन व्याख्या की पद्धति में अर्थ और तुलना दोनों के ही असीमित रूपों के उदय की संभावना निहित है। रैनेसांकालीन आलोचना की सीमा यह है कि वह किसी चीज की अनुपस्थिति या रूपान्तरणकारी अर्थ के बारे में नहीं बताते। यही वजह है हमारे यहां भारतेन्दु से लेकर छायावाद तक रैनेसांकालीन आलोचना को अपने रूपान्तरण के अर्थ का पता नहीं है। वे तो यह देखते हैं कि हर चीज एक-दूसरे से जुड़ी है और उसके आधार पर ही आलोचना के सारे मानक बने हैं।
सार्वभौम अर्थ में संकट भी पैदा हो सकता है। मसलन् स्त्रीभाषा के संदर्भ को ही लें। पश्चिम में भाषा में दो ही लिंग हैं लेकिन भारत में 3तीन लिंग हैं। पुंलिंग,स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग। इन तीन कोटियों के कारण हमें साहित्य के उस तीसरे रूप को अलग से जानने का अवसर मिल सकता है जिसे लेकर इनदिनों पश्चिम परेशान है।
इसी तरह सार्वभौम स्त्री धारणाओं का आधार भारत में वही नहीं है जो पश्चिम में है। सारी दुनिया में तीन बड़े धर्म हैं। क्रिश्चियन, इस्लाम और हिन्दू । इनमें पहले दो धर्मों के पास एकमात्र पुरूष परंपरा है और स्त्री को पुरूष संदर्भ से ही देखने का नजरिया है। लेकिन भारत में हिन्दू धर्म में शक्ति सम्प्रदाय के नाम से जो दार्शनिक-धार्मिक परंपरा है वह स्त्री को स्त्री के संदर्भ में ही देखती है। यह विशिष्टता भारत के स्त्रीवादी विमर्श को व्यापक देशज वैचारिक आधार प्रदान करती है। शक्ति परंपरा में भी सैंकड़ों विकल्प हैं। ये चीजें पश्चिम में नहीं हैं।
दिक्कत यह है कि स्त्री परंपरा को कभी फेमिनिस्ट नजरिए से देखा ही नहीं गया। शक्ति परंपरा के रूपों के साथ भारतीय स्त्री के वैविध्य को देखने से अनेक नई चीजें सामने आएंगी।
एक और चीज है जिसे ध्यान में रखना होगा। वह है भारत में असंख्य प्रतीकों और रूपकों का सर्जनात्मक संसार। खासकर शक्ति के प्रतीकों का वैविध्य नए किस्म के विमर्श को जन्म दे सकता है। प्रतीकों और संकेतों के नए अर्थ देखने का लाभ यह है कि हम निरंतर एक अर्थ से दूसरे अर्थ की ओर जाते रहते हैं। साथ ही और ज्यादा नए अर्थ की मांग करते हैं। यानी "आगे क्या हुआ " या "नया अर्थ क्या है "यह धारणा पीछा करती रहती है। अर्थ से नए अर्थ की ओर जाने की निरंतरता के कारण नए आलोचना मानकों और धारणाओं का जन्म होता है।
जब हम किसी पाठ को पढ़ते हैं तो असल में जीवन सत्य खोजना मूल लक्ष्य होता है। पुराने अर्थ के आधार पर जीवन सत्य ठीक से नजर नहीं आता, इसलिए नए अर्थ खोजने की जरूरत पड़ती है। पाठ पर से पुराने कपड़े उतारने पड़ते हैं और पाठ को नए अर्थ के कपडे पहनाने होते हैं। नए कपड़े पहनाने के लिए पुराने कपड़ों को पूरी तरह उतारना बेहद जरूरी है। यानी पाठ को पुराने अर्थ से मुक्त करना बेहद जरूरी है। नए अर्थ के आने का मतलब है एक नई प्रस्तुति का आना। नई प्रस्तुति की रोशनी में हम सत्य को देखते हैं। यहीं पर नई व्याख्या का जन्म होता है।यह व्याख्या स्थायी नहीं होती। बल्कि आगे फिर कभी बदल सकती है। क्योंकि जीवन सत्य बदलता रहता है।परिवर्तित जीवन सत्य के साथ व्याख्या का बदलना आम बात है। इस क्रम में धारणाएं भी बदलती रहती हैं।
रैनेसां जब आया तो स्थिति यह थी कि व्याख्याओं का ढ़ेर लग गया।गद्य की बाढ़ आ गयी। वस्तु,घटना,व्यक्ति,संवृत्ति,प्रवृत्ति आदि के बारे में हम ज्यादा जानने लगे। हम ज्यादा जानते हैं इसका अर्थ नहीं है कि हम सब कुछ जानते हैं। यही हाल रैनेसाकालीन लेखकों का था। वे जिन चीजों को जानते थे ,साथ में उनके कुछ आधार को भी जानते थे। वे जिस संदर्भ में लिख रहे थे उसकी क्षमता भी जानते थे। नयी आधुनिक व्यवस्था के संदर्भ में वे असीमित जान सकते थे। लेकिन प्रक्रियाएं सीमित ही थीं,उनका असीमित ज्ञान संभव नहीं था।
रैनेसां में आलोचना की जो पद्धति अपनायी गयी उसमें अर्थ की जडों को जानने का भाव है। उसके आधार पर व्याख्या करने की प्रवृत्ति मिलती है। लेकिन एक अवस्था या समय गुजर जाने के बाद लेखक और आलोचक यथास्थितिवाद में बंध जाता है,रूढ़िवाद में बंध जाता है और फिर उससे निकलने की छटपटाहट आरंभ हो जाती है। अभिव्यक्ति के फॉर्म और अंतर्वस्तु को बदलने की छटपटाहट आरंभ हो जाती है। फलतः एक ही समय में अनेक किस्म की प्रवृत्तियां और शैलियां सक्रिय नजर आती हैं। अब हर किस्म संदर्भ और हर चीज से संबंध प्रासंगिक नजर आता है। प्रत्येक वस्तु के साथ संबंध स्वीकार्य हो जाता है।
मसलन्, भारतेन्दु के साहित्य के साथ सन् 1857 का संपर्क ,संबंध और असर मान लिया गया। नयी पूंजीवादी सभ्यता के विभिन्न रूपों के साथ संपर्क-संबंध भी मान लिया गया।प्रेस से संबंध मान लिया, धार्मिक-समाजसुधार आंदोलन,पुनरूत्थानवाद,ब्रजभाषा,खड़ीबोली हिन्दी,उर्दू,पुराने भक्ति आंदोलन आदि जो भी चीज मिलती गयी उससे संबंध जोड़ते चले गए। इनमें से प्रत्येक चीज को अन्य के साथ जोड़ा,अभिव्यक्ति रूपों के साथ जोड़ा। एक अभिव्यक्ति रूप को दूसरे के साथ जोड़ा। यानी प्रत्येक अंतर्वस्तु को अन्य अंतर्वस्तु की अभिव्यक्ति माना। ग्लोबल अंतर्वस्तु का भी विकास होता रहा।
रैनेसांकाल से आरंभ हुई अनंत समीक्षा की संभावनाओं ने अवधारणा और अर्थ की अनंत संभावनाओं के द्वार खोले हैं। इसे आलोचना की भाषा में विस्थापन कहते हैं। जब आप आलोचना करते हैं तो अनुगमन करते हैं ,विस्थापन करते हैं। देरिदा ने "ऑफ ग्रामोटॉलॉजी "में लिखा ,पाठ तो मशीन है उसमें अनंत विस्थापन निहित हैं।इसकी प्रकृति वसीयत के मर्म को समेटे होती है। यानी इसमें वसीयती भाव है । यही वजह है इतिहास,परंपरा आदि की खोज का काम आधुनिककाल में ज्यादा हुआ है। लेखक अपने को भक्ति आंदोलन,रैनेसां आदि के वारिस के रूप में पेश करने लगे हैं।
यह ऐसा दौर है जिसमें पाठ का आनंद लें या कष्ट उठाएं,उससे आगे निकलें,या उसे छोड़ें।प्रत्येक क्षण का अध्ययन करें। प्रत्येक संकेत या पाठ या प्रवृत्ति के उदय की प्रक्रिया पढ़ने लायक होती है साथ ही वो एक समय के बाद खो जाती है या नष्ट हो जाती है। वह अपने समय से संबंध बनाती है और एक अवस्था के बाद संबंध विच्छिन्न कर लेती है। देरिदा के नजरिए से यही बुनियादी तौर पर विस्थापन या "ड्रिफ्ट" है।
पाठ की आलोचना में मंशा की अवधारणा की महत्वपूर्ण भूमिका है। अम्ब्रेतो इको ने इसी संदर्भ में लिखा है पाठ के पीछे निहित आत्मगत मंशा को जब अस्वीकार कर दिया जाता है तो पाठक की पाठ के प्रति वफादारी खत्म हो जाती है। फलतः उसकी भाषा बहुस्तरीय खेलों का आधार बन जाती है।यही वजह है पाठ में अंतिम अर्थ को शामिल नहीं किया जा सकता। यहां कोई रूपान्तरणकारी संकेतित अर्थ नहीं रह जाता। प्रत्येक संकेतक अन्य संकेतक के साथ युक्त नजर आता है। कोई भी चीज प्रासंगिकता के दायरे के बाहर नजर नहीं आती। आलोचना का काम है पाठ में अंतर्निहित अर्थ की खोज करना । उसे भिन्न लक्ष्य के साथ पेश करना। इस क्रम में आलोचना कॉमनसेंस का दायरा अतिक्रमित कर जाती है।
स्त्रीसाहित्य के संदर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है कि किसी एक पद्धति के आधार पर उसका मूल्यांकन नहीं कर सकते। क्योंकि स्त्री के अनुभव ऐतिहासिक तौर पर बेहद जटिल होते हैं। विभिन्न विषयों और क्षेत्रों के अध्ययन के लिए अलग अलग सैद्धांतिक मॉडलों को आधार बनाया जाना चाहिए। इस मामले में अन्तर्विषयवर्ती पद्धतिशास्त्र की मदद लेनी चाहिए।