(पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में सरकार को आए एक साल हो गया है और विगत 12 महीनों में हालात सुधरने की बजाय और भी बिगड़े हैं,ममता सरकार के शासन में एक साल में इसराज्य में किस तरह के बदलाव आए हैं उनका गंभीरता के साथ प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अशोक मित्रा ने बारीकी से मूल्यांकन किया है)
मन-मिजाज परिवेश से बनता है; आप यदि कोलकाता और पश्चिम बंगाल के निवासी है तो आज यहां की हवा में फैले विषाद और आशंका से बचना असंभव है। इसीप्रकार, इस मौजूदा परिस्थिति को तैयार करने में सहभागी होने की जिम्मेदारी से इंकार करना भी समान रूप से कठिन होगा।
वाम मोर्चा ने - या शायद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) या पार्टी के राज्य नेतृत्व ने - सातवीं मोर्चा सरकार के काल में कुछ ऐसे निर्णय लिये और कुछ ऐसी गतिविधियों को नजरंदाज किया जिनके चलते जनता के महत्वपूर्ण अंश पूरी तरह से कट गये। इसके अलावा, वह स्पष्ट रूप में एक निकम्मी सरकार थी। इसकी एक वजह पार्टी के मरियल घोड़ों पर उसकी अतिरिक्त निर्भरशीलता थी जिनमें न्यूनतम योग्यता की भी कमी थी। उन हालात ने चापलूसी और भ्रष्टाचार दोनों पैदा किये। भाई-भतीजावाद ने पंचायतों के कामों को गंभीर नुकसान पहुंचाया, जिसके कारण जिस क्षेत्र को किसी समय वामपंथ का गढ़ माना जाता था, वही इसके गले की फांस बन गया। देहातों में अफवाहें और तेजी से फैलती है; असंतोष जंगल की आग की तरह फैलता है।
जब 2011 के चुनाव की घड़ी आयी, मतदाताओं के बड़े हिस्सों ने वाम के खिलाफ वोट देते वक्त इस बात की परवाह नहीं की कि वह किसे वोट दे रहा है। जिस भद्र महिला को ‘टाईम’ पत्रिका ने अभी अपनी संत-सूची में शामिल किया है, वह अपने मौके की ताक में थी। वह वर्षों से वामपंथियों की राजनीति और व्यवहार के खिलाफ अथक अभियान चला रही थी। वाम या उसकी सरकार ने जहां कही भी समझ-बूझ कर या असावधानीवश कोई ऐसा काम किया जो जनता की भावना को ठेस पहुंचाता हो, वह हमेशा उस जगह पहुंच जाती थी, तत्काल भारी प्रतिवाद संगठित करती थी। उसमें एक प्रकार का करिश्मा था जो समाज के निचले तबके को खींचता था, और उसीके चलते उसे उच्च मध्यवर्ग की प्रशंसा भी मिलने लगी। इस बात को सुनिश्चित करने के लिये कि वाम के खिलाफ वोट बिखर न जाए, इन सब तबकों ने इस भद्र महिला के उम्मीदवारों को एकमुश्त चुन लिया। यहां तक कि मतदाताओं के वे हिस्से भी, जिन्हें बुद्धिजीवियों के प्रतिनिधि कहा जा सकता है, इस भीड़ में शामिल होगये। थोड़े से, बहुत ही थोड़े से लोग इस महिला के अतीत को कुरेदने के लिये तैयार थे। वह सीपीआई(एम) को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिये हुए थी और जनता की इच्छा भी यही थी; वह जनतांत्रिक उसूलों और कानून के शासन को फिर से स्थापित करने का वादा कर रही थी; वह आंतरिकता का भान कर रही थी; इसकी कोई वजह नहीं थी कि उसके चुनाव घोषणापत्र की बातों को सही न माना जाए।
भद्र महिला ने वाम का वध कर दिया। बुद्धिजीवी प्रसन्न हुए। सबमें खुशफहमी छागयी। जब उसने एक बार इतना बड़ा चमत्कार कर दिया तो यह मान लिया गया कि इसके बाद भी सब वैसा ही होगा। राज्य में कानून और व्यवस्था लौट आयेगी। छीना-झपटी, हत्याएं, महिलाओं पर घृणित अपराध बंद होजायेंगे। शिक्षा के क्षेत्र में भाई-भतीजावाद खत्म होगा और एक बार फिर अधकचरेपन पर योग्यता को स्वीकृति मिलेगी। पंचायतों और नगर निकायों को छोटे-मोटे भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी, किसानों को अपनी फसल का उचित दाम मिलने लगेगा, कारखाने फिर से खुलेंगे, भले ही इससे फिर से दूध और शहद की नदियों का स्वर्ग का मौसम न लौटे, लेकिन उसका एक लघु संस्करण तो कम से कम आयेगा ही।
हर हाल में, वाम मोर्चा का, खास तौर पर सीपीआई(एम) का अंत इस व्यापक समुदाय का साझा उद्देश्य था। केंद्र में शासक दल में सीपीआई(एम) के प्रति, खास तौर पर उसके केंद्रीय नेतृत्व के प्रति गहरी नफरत है क्योंकि वह उसके लिये विनाशकारी उत्पाती साबित हुआ था। यह इस जंगली पार्टी को परेशानी में डालने का सुनहरा मौका था। कांग्रेस ने इस जबर्दस्त लड़ाकू भद्रमहिला की मदद के लिये, जो असल में कुछ समय पहले तक उसी मुख्य पार्टी में शामिल थी, अपने सारे संसाधन झोंक दिये। सब जानते हैं कि चुनाव के ठीक पहले के हफ्तों में बड़े व्यवसायी घरानों ने भी भद्रमहिला पर काफी उदारता से निवेश किया; उसका समर्थन करने के पीछे उनका कोई विशेष तर्क नहीं था, सिर्फ यही कि देश के एक महत्वपूर्ण हिस्से में इतने अधिक लंबे काल तक किसी कम्युनिस्ट गठबंधन का शासन उन्हें उद्योग और वाणिज्य के स्वास्थ्य के लिये अनुचित लगता था।
खास बात यह है कि चुनाव के पहले इस भद्र महिला को अति वामपंथियों का भी कम समर्थन नहीं मिला। सिर्फ माओवादी नहीं, नक्सलियों और नव-नक्सलवादियों के नाना गुटों ने भी निष्ठा के साथ सीपीआई(एम) की हार की कामना की थी क्योंकि उनकी राय में उसने क्रांतिकारी हित के प्रति विश्वासघात और विकास के पूंजीवादी रास्ते के प्रति सहमति का अक्षम्य अपराध किया है। यदि लक्ष्य को हासिल करने के लिये दक्षिणपंथ की यह रोजा लुक्सेमबर्ग ही ‘सम्भवामि युगे युगे’ थी तो फिर उसे ठोस रूप में नहीं तो कम से कम सांकेतिक समर्थन देने में किसी प्रकार की कोताही की जरूरत नहीं थी। इन बिखरे हुए गुटों का नजरिया बड़ी संख्या में उन आम लोगों के नजरिये से ज्यादा भिन्न नहीं था जो तब तक खुद को वामपंथी मुख्यधारा का अविभाज्य अंग मानने के अभ्यस्त थे, लेकिन जिन्होंने इस बार वाम मोर्चा के नेतृत्व को एक धक्का देने की ठान ली थी ताकि उसे सीख मिले और सुधर जाये।
राज्य में नये शासन की पिछले कुछ हफ्तों की घटनाओं, और खास तौर पर यहां के मुख्यमंत्री के मनमाने व्यवहार ने अब सबको बुरी तरह से झकझोर कर जगा दिया है। बहुत सारे लोग, जिन्होंने इस भद्र महिला को सक्रिय समर्थन दिया था, वे खुद को ठगा सा पा रहे हैं, उन्होंने सिर्फ साल भर पहले जो सपना देखा था, उस सपने की ऐसी परिणति को स्वीकारने के लिये वे कत्तई तैयार नहीं थे। अब एक बार फिर वे उसी रास्ते पर चल पड़े हैं, जिसे उन्होंने वाम मोर्चा का विरोध करते वक्त अपनाया था - रैलियां, जुलूस, हस्ताक्षर अभियान, टेलिविजन पर साक्षात्कार, पोस्टर प्रदर्शनी, गीत और कविताएं लिखना, नुक्कड़ सभाएं। जनतंत्र और कानून के शासन की पुनस्र्थापना, सर्वाधिकारवाद का प्रतिरोध, शिक्षा के क्षेत्र में एक-दलीय प्रभुत्व, अपनी पसंद का पढ़ने और अपनी इच्छा के अनुसार लिखने और बोलने के जनता के अधिकार की मांगों के मंत्र उनके जमावड़ों में गूंज रहे हैं।
गुस्ताखी माफ हो, लेकिन आज फिर सड़कों उतर पड़े ये प्रतिवादी लोग वास्तव में क्या अपनी मासूमियत की ही कीमत नहीं चुका रहे हैं? इस भद्रमहिला के पक्ष में मतदान करने के लिये वे किसी तरह से मजबूर नहीं थे। इसके बावजूद उन्होंने बिना यह सोचे कि इसका क्या अंजाम होने वाला है, अपने खुद के कारणों से ऐसा किया। आज यदि वह उनकी कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है तो इसमें उसका कोई कसूर नहीं है, कसूर उनका है जिन्होंने उसे इस प्रकार से वोट दिया।
बुद्धिजीवी संभवत: इस बात पर अचरज करेंगे। वे कहेंगे कि भद्र महिला ने कुछ वादे किये थे, जिनसे अब वह नग्न रूप से इंकार कर रही है। क्या यही उनकी सबसे बड़ी गलती नहीं है? उन्होंने उसके बारे में मामूली खोज करने की भी जहमत नहीं उठायी। अपने जीवन के बिल्कुल प्रारंभ से ही भद्र महिला में सच और कल्पना के बीच भेद के प्रति तिरस्कार का भाव रहा है। वर्षों के रियाज के जरिये उसने अपने को सबसे अधिक दुराचारी बयानबाजी और उसे ही ध्रुव सत्य मान कर सड़क पर उतर पड़ने की कला में पारंगत कर लिया था। दूसरे शब्दों में, वह अपने कहे की कभी कोई जिम्मेदारी नहीं स्वीकारती है। उसके जीवन की सबसे बड़ी पूंजी जीवन में सफलता पाने की निष्ठुर जिद है। अपने लक्ष्य को पाने के लिये वह कुछ भी कर गुजरने से हिचकती नहीं है। आज तक भी वह यह समझने में असमर्थ है कि एक अस्तित्वहीन अमेरिकी विश्वविद्यालय से लीगयी उसकी डाक्टरेट की फर्जी डिग्री को लेकर क्यों इतना शोर मचाया गया। पिछले साल उन्होंने चुनाव-पूर्व जो वादे किये थे, वे तो पक्षियों से किये गये वादे थे; अपनी इस खिलंदरी के लिये वह नींद खराब नहीं करती है।
सच कहूं तो, उसकी एक चीज के प्रति पूरी वफादारी है। यह उसका प्रमुख क्षेत्र है - कोलकाता और पूरे राज्य में निचले वर्ग के विभिन्न तबकों को लेकर तैयार की गयी लुंपेन तत्वों की भयानक फौज; गंदी बस्तियों में बुरी दशा में अनिश्चित और अक्सर संदेहास्पद जीविका वाले; वर्षों से छंटनी हुए मजदूर, छोटे-मोटे दफ्तरों के कर्मचारी, विभिन्न विषयों के शिक्षक जो यह माने हुए हैं कि समाज उनके प्रति जानबूझ कर अन्याय करता रहा है, किसी जमाने के पूर्व पाकिस्तान के विस्थापितों की दूसरी, तीसरी पीढ़ी जो बमुश्किल किसी तरह गुजर-बसर करते हैं और गरीबी से त्रस्त अभी के जीवन को स्वीकार नहीं पा रहे हैं, कितने ही प्रकार के निराश नौजवान जो हाथ लगी किसी भी चीज को सड़कों पर बेच कर पैसे कमाने की फिराक में रहते हैं, कामचोर, आलसी और निकम्मे, तमाम तरह के शक्की-झक्की, अर्थात गुंडे-मवाली। व्यवस्था के प्रति, वह कोई भी व्यवस्था क्यों न हो, शत्रुता का एक स्थायी भाव इन सभी तत्वों को एक साथ जोड़ता है। जीवन में लगातार फसादों से पीडि़त ये लोग जिन्हें घृणा-योग्य समझते हैं, उनसे नफरत करना पसंद करते हैं। किसिम-किसिम के ये उच्छिष्ट तत्व अपने अंतर से किसी भी संगठन या अनुशासन के विरोधी होते हैं। इसीलिये वे वांछित लक्ष्यों को हासिल करने के लिये लंबे और एकजुट संघर्षों का उपदेश देने वाले संगठित राजनीतिक दलों से नफरत करते हैं। सड़कों पर लड़ाइयों से उत्पन्न यह भद्रमहिला ऐसी भाषा बोलती है और ऐसे शब्दों का प्रयोग करती है जो इन तबकों को मोह लेते हैं। उसके पास संगठित वामपंथ को नीचा दिखाने के लिये गंदी गालियों का खासा भंडार है। उन्हें सुन कर वे दहाड़ उठते हैं। भद्रमहिला उन्हें चांद का वादा करती है, और आश्वस्त करती है कि इसे पाने में उन्हें कोई कष्ट नहीं होगा; बस उन्हें सिर्फ उसका साथ देना होगा। वे उसपर विश्वास करते हैं क्योंकि वह उनके जैसी ही है। उन्होंने उसके साथ उम्र भर लगे रहने की कसम खायी है। वह भी कभी उनका साथ न छोड़ने का निश्चय कर चुकी है, वह उनकी है, वे उसके हैं। वह उनके बीच जो मुफ्त का लुटा रही है, वह उनके प्रेम और वफादारी का प्रतिदान है।
आस-पास की सभी पार्टियों के बारे में यह सच है कि वे सभी लुंपेन तत्वों की एक फौज रखने पर यकीन करती हैं। कुछ नाजुक मौकों पर कभी-कभी इन गुंडों का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन पार्टी के मालिकगण आम तौर पर इन चीजों से दूर रहते हैं और लुंपेन तत्वों को छिपा कर रखने की सावधानी बरतते हैं। लेकिन एक लुंज-पुंज सांगठनिक ढांचे में यह भद्रमहिला जो प्रयोग कर रही है, वह इसके ठीक उलटा है: भद्रलोगों के समुदाय में जो इधर-उधर दिखाई देते हैं, वे लुंपेन आज बिल्कुल सामने की कतार में है, वे भद्रमहिला के सबसे करीबी विश्वासपात्र और सलाहकार हैं। वे समझते हैं कि उसकी बदौलत उनका राज कायम होगया है और अब वे उन सबको देख लेंगे जो अतीत में उनका उपहास करते थे।
इससे भी शायद कुछ और आगे की बात है। आज मुख्य रूप से केंद्र में यूपीए की संगीन स्थिति के चलते विभिन्न राजनीतिक मोर्चों पर भद्रमहिला की लगातार सफलताओं से उसकी लुंपेन फौज में अनेकों को यह विश्वास हो गया है कि वह किसी देवी से कम नहीं है। लक्षणों को देख कर लगता है कि भद्रमहिला खुद भी अपने दैवीपन पर थोड़ा विश्वास करने लगी है। हर रोज उसका ज्यादा से ज्यादा स्वेच्छाचारी व्यवहार इसी बात की पुष्टि करता है।
बजट का गणित कभी किसी दैव-शक्ति का आदर नहीं करता है। इसके अलावा, लुंपेन तत्वों अथवा उनके प्रतिनिधियों की किसी भी स्तर की योग्यता से प्रशासन नहीं चल सकता है। पश्चिम बंगाल के लोग अनुमान नहीं लगा सकते हैं कि आने वाले दिनों में उनके लिये क्या बदा है। लेकिन क्या देवी बनी हुई मुख्यमंत्री को खुद भी पक्का अनुमान है कि उसका भविष्य क्या है? (यह लेख कुछ अर्सा पहले कोलकाता से प्रकाशित डेली टेलीग्राफ में छपा था,साभार हम प्रकाशित कर रहे हैं, अनुवाद-जगदीश्वर चतुर्वेदी)
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