मनमोहन सरकार का आम जनता के साथ अन्तर्विरोध प्रखर हो गया है। जिन लोगों ने यह सपना देखा था कि नव्य आर्थिक नीतियां मध्यवर्ग के लिए फायदेमंद हैं और यह वर्ग कम से कम चैन की बंशी बजाएगा।आज वे लोग निराश हैं। मनमोहन सरकार ने मध्यवर्ग के चैन को बेचैनी में बदल दिया है। मुश्किल यह है कि 1990-91 के बाद से मध्यवर्ग में आरामतलबी के संस्कार गहरे हुए हैं। जनांदोलनों से मध्यवर्ग की दूरी बढ़ी है। बल्कि यों कहें मध्यवर्ग का एक बड़ा अंश जनांदोलनों के प्रति संशय में ठेल दिया गया है। मीडिया और उपभोक्तावाद की आक्रामक रणनीतियों ने इस वर्ग को पराश्रित बना दिया है और गहरे अवसाद में डुबो दिया है। ऐसे में मध्यवर्ग में से प्रतिवाद की जगह सिर्फ मीडियापीड़ा के स्वर सुनाई दे रहे हैं।मध्यवर्ग की मीडियापीड़ा को आम जनता के संघर्ष में रूपान्तरित करने की जरूरत है।
मध्यवर्ग के नपुंसक बनाए जाने की स्थिति का मजदूर संगठनों और कम्युनिस्ट पार्टियों पर भी असर हुआ है वे भी ठलुआदल बनकर रह गए हैं। यही वह नपुंसक परिवेश है जिसको चुनौती देने की जरूरत है। नपुंसक परिवेश नव्य आर्थिक उदारनीतियों की देन है और महंगाई का उससे गहरा संबंध है।जब तक विपक्ष इन नीतियों के खिलाफ एकजुट नहीं होता भविष्य में भी महंगाई के झटके लगते रहेंगे।
मनमोहन सिह सरकार के खिलाफ राष्ट्रीय प्रतिवाद का अभाव इस बात का संकेत है कि मध्यवर्ग परजीवी है और माहौल नपुंसक है। ऐसे में प्रतिवाद दिवा-स्वप्न ही प्रतीत हो रहा है । मनमोहन सरकार ने अपनी जनविरोधी इमेज में चार चाँद लगाते हुए जिस तरह पेट्रोल के दामों में साढ़े सात रूपये का इजाफा किया है। उससे एक बात साफ हो गयी है कि यह सरकार आम जनता के हितों के बारे में कागजीतौर पर वचनवद्ध है। आम आदमी और खासकर मध्यवर्ग इसके निशाने पर है। क्या इतने बड़ी मूल्यवृद्धि के बाद भी मनमोहन सरकार को उसके सहयोगी दल समर्थन देते रहेंगे ? कायदे से ममता-मुलायम -मायावती -करूणानिधि और लालू यादव को यूपीए सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेना चाहिए।
केंद्र सरकार ने पेट्रोल बम फोड़कर आम आदमी की जेब को लहुलूहान करने की पूरी तैयारी कर ली है। एक न्यूज एजेंसी के हवाले से आई खबर के मुताबिक, पेट्रोल के दाम में प्रति लीटर 7.50 पैसे का इजाफा किया गया है। ऐसे में इस इजाफे को जोड़ते हुए पिछले 3 सालों में पेट्रोल की कीमतों में करीब 23 रुपये का इजाफा किया जा चुका है। वहीं डीजल को लेकर ये आंकड़ा 8 रुपये प्रति लीटर है। महंगाई से त्रस्त भारतीय जनता के लिए ये इजाफा कमर तोड़ने वाला है।आने वाले समय में गैस के प्रति सिलेण्डर और डीजल के दामों में भी इजाफा होने के चांस हैं।यह नव्य आर्थिक उदारीकरण का क्लाइमेक्स है ।मनमोहन सरकार ने मंदी के समय में जनता के ऊपर यह भारी बोझ डालकर अपनी हृदयहीनता का परिचय दिया है।
असल में, मीडिया -मनोरंजन और उपभोक्तावाद की अशांत भूख ने मध्यवर्ग और आम आदमी को इस कदर घेरा है कि उसके पास प्रतिवाद के लिए समय ही नहीं बचा है।हम लोग प्रतिवाद के नाम पर जैसे-तैसे वोट डाल आते हैं और फिर पांच साल तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। इससे लोकतंत्र बेजान हो गया है। वोट डालना लोकतंत्र के प्रति सामाजिक जिम्मेदारी की इतिश्री नहीं है।बल्कि वह तो शुरूआत है।
कांग्रेस की ठग नीतियों से बचने का एकमात्र रास्ता है लोकतांत्रिक हकों के लिए नियमित संघर्ष और सरकार पर आंदोलन के जरिए दबाब। आम लोगों को लोकतंत्र बचाने के लिए अपनी आरामगाह से बाहर निकलना होगा। मीडिया की नकली बहसों से आगे जाकर सड़कों-गलियों -मुहल्लों में महंगाई और अन्य सवालों पर बहसों को नियोजित करना करना होगा।संगठनवद्ध करना होगा। और स्थानीय स्तर पर दीर्घकालिक संघर्ष की तैयारी करनी होगी।
आज स्थिति यह है मनमोहन सरकार के हाथों समूची अर्थव्यवस्था कुप्रबंधन का शिकार होकर रह गयी है। डॉलर के मुकाबले रूपये की स्थिति बदतर है,निजीक्षेत्र को बेशुमार आर्थिक रियायतों के बाबजूद कोई औद्योगिक रैनेसां नहीं हुआ है। निजी क्षेत्र में मजदूरों की पगार में कोई इजाफा नहीं हुआ है। सरकारी कर्मचारियों के बढ़ाए नए वेतनमान अब सुचारू जीवन संचालन के लिए अपर्याप्त साबित हो रहे हैं।यानी आम लोगों के सामने पामाली में जीने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। ऐसे में मध्यवर्ग की चुप्पी चिंता की बात है। मध्यवर्ग को अपने हितों के बारे में सोचने के साथ आम जनता यानी मजदूरों-किसानों के बारे में भी सोचना होगा।
हमें यह भी ध्यान रखना होगा लोकतंत्र का अर्थ निरंकुश लोकतांत्रिक शासन और गूंगी- बहरी जनता नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ,आम जनता के साथ निरंकुश शासक की तरह व्यवहार कर रहे हैं और बाकी दलों के नेता अनुनय-विनय-अपील के भाव से पेश आ रहे हैं। लोकतंत्र में हमें मनमोहन सिंह जैसे निरंकुश शासक नहीं चाहिए। कायदे से विपक्षीदल मनमोहन सरकार के खिलाफ तदर्थ प्रतिवाद का रवैय्या त्यागें और ईमानदारी से दीर्घकालिक संघर्ष की घोषणा करें और सड़कों पर आएं।
महंगाई के सवाल पर वामपंथीदलों और गैर-वामपंथी विपक्षी दलों को सड़कों पर संयुक्त कार्रवाई करनी चाहिए। अन्नाहजारे - बाबा रामदेव को महंगाई के खिलाफ आवाज उठाने से किसने रोका हुआ है। अन्ना से करूणानिधि तक सबको सड़कों पर आना चाहिए। हर आदमी को विरोध करना चाहिए और पीएम को प्रतिवाद करते हुए ईमेल करना चाहिए।
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