शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

कर्णसिंह चौहान के कुतर्क और पलायन

       मोदी भक्ति का सबसे प्रचलित मुहावरा है विपक्ष को गाली दो !कीचड़ उछालने वाले कहो ! पंडितों –विशेषज्ञों को खराब भाषा में चित्रित करो ! तकरीबन यही पद्धति हिंदी आलोचक कर्णसिंह चौहान ने अपनायी है।समस्या है नोट नीति, चौहान साहब उस पर एक भी वाक्य बोलना नहीं चाहते,वे क्यों नहीं बोलना चाहते यह उनका सिरदर्द है,लेकिन बहस जब इस मसले पर हो रही है तो उनको बोलना चाहिए,वरना बहस न करें।बहस में शामिल भी होंगे लेकिन मूल सवाल पर नहीं बोलेंगे यह हो नहीं सकता।

नरेन्द्र मोदी के साथ जुड़ने के लिए जरूरी है कि आप अपना अतीत भूल जाएं,अपने को ज्ञानी नहीं अनुयायी बना लें,गैर-राजनीतिक लिखें,गैर-राजनीतिक दिखें,यहां तक कि अपने राजनीतिक कॉमनसेंस को भी भूल जाएं,यह दशा उनकी है जिन्होंने मार्क्सवाद के प्रमुख विचारकों को पढ़ा है,नाम है कर्णसिंह चौहान !

हम चाहते हैं चौहानजी सब समय व्यस्त रहें ! इतने व्यस्त भी न रहें कि नोट नीति पर लिखने के लिए कुछ शब्द भी न हों ! लेकिन नोट नीति की आलोचना करने वालों के खिलाफ ढेरों शब्द हों ! इसे मोदी भक्ति कहते हैं! यह मोदी पक्षधरता है!

चौहान साहब की फेसबुक वॉल पर मोदी सरकार की नीतियों को लेकर एकदम सन्नाटा पसरा पड़ा है ! चौहानजी ,यह सन्नाटा टूटना चाहिए! यदि आपसे कहा जाए कि स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों के लिखे को पढो तो तुरंत आप उनको छोटा-तुच्छ-हेय-बोगस साबित करने के लिए जल्द ही मूल्य-निर्णय दे देते हैं,मसलन् मैंने जब टीएन नाइनन से लेकर इकोनोमिस्ट के अर्थशास्त्रियों के नाम सुझाए तो कह दिया कि वे ´´ वे खुद अँधेरे में रास्ता खोज रहे हैं या अपनी जड़ता पर मुग्ध और परम संतुष्ट हैं ।´´इसे कहते हैं मोदी भक्ति में डूबा निर्मल मन !

चौहानजी,कमाल की बात यह कि आपने मोदी की नोट नीति के अर्थशास्त्री आलोचकों को कहा ´जैसे सारी जनता के लिए आध्यात्मिकता और ईश्वर के प्रतिनिधि बने महात्माओं की असलियत होती है, कुछ वही अपने विशेषज्ञों के बारे में भी सच है ।´ कम से कम इतनी घटिया टिप्पणी की आपसे उम्मीद न थी ! लेकिन जैसी कि इन दिनों बयार बह रही है कि मोदी के आलोचकों को निकृष्ट कोटि का सिद्ध करो,अफसोस है आप भी उनमें शामिल हो गए !

कर्णसिंहजी आपने कमाल की मोदी डिफेंस तैयार की है,आपके अनुसार मोदीजी की आलोचना करने वाले किताबी ज्ञानधारी हैं ! मोदी न तो गांधी हैं और न श्यामाप्रसाद मुखर्जी हैं,मोदी के पापों पर खासकर उसकी नोट नीति के पापों पर पर्दा डालने के लिए आपने जो तर्क बनाए हैं उनको देखकर यह बात पक्की है कि आपने सम-सामयिक राजनीति के सामाजिक प्रभावों को न देखने का मन बना लिया है,इसका प्रधान कारण तो आप ही जानें लेकिन अब यह बात तय है कि मोदीजी के पक्ष में बड़े ही कौशल के साथ तर्क निर्मित कर रहे हैं।

आज समस्या क्रांति,समाजवाद,वाम नहीं है,समस्या है नोट नीति लेकिन नोट नीति पर आप एक भी वाक्य बोलने को तैयार नहीं हैं।ऐसा क्या है जो आप बोलने को तैयार नहीं!बुद्धिजीवी के नाते विषय चुनने,अपने नजरिए से बोलने का आपको हक है लेकिन नोट नीति तो हम सबका विषय है,आपकी इस विषय को लेकर राय है जिसे हम देख रहे हैं कि आप नोट नीति के खिलाफ लिखे को बेहद घटिया मान रहे हैं,मेरे लिखे को स्वयं के खिलाफ जिहाद कह रहे हैं, क्या मैं मोदी की डिफेंस में लिखे आपके लेखन को जिहाद कहूँ ॽ आप मोदी के पक्के ज्ञानी अनुयायी हैं,आप मोदीभक्त या मोदी जिहादी नहीं हैं,लेकिन नोट नीति के पक्के समर्थक हैं!

कर्णसिंह चौहान ने लिखा है ´ आप लोग भी जब उसी दलदल में कीचड़ उछालू शैली में बहस करते हैं और आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं तो दुख होता है ।´यह तथ्य की दृष्टि से गलत है।हमने कभी कीचड़ नहीं उछाली, ऩ उस शैली में बहस की है।हमने आरोप-प्रत्यारोप भी नहीं लगाए हैं।चौहानजी, आप नोट नीति के पक्ष में हैं तो गंभीरता से अपना पक्ष क्यों नहीं रखते,आपको किसने रोका है,आपको यह हक किसने दिया है कि हमारे लेखन को कीचड़ उछालू लेखन कहें ! इस तरह का निष्कर्ष निंदनीय ही कहा जाएगा।मैंने आपके लेखन को कभी कीचड़ नहीं कहा,मुझे उम्मीद नहीं थी कि आप इतने नीचे गिरकर इस तरह की घटिया भाषा का इस्तेमाल करेंगे।

हमने फेसबुक पर नोटनीति के विरोध में जिन पत्र-पत्रिकाओं,अर्थशास्त्रियों को पेश किया है उनकी आम लोगों में,मीडिया में,अकादमिक जगत में पेशेवर साख है,वे सरकार या विपक्ष के भोंपू नहीं हैं,आप मेरी फेसबुक वॉल पर नोट नीति पर लिखी पोस्ट देखें और बताएं कि कहां पर कीचड़ उछालू बहस चलायी गयी है।

चौहानजी ! फेसबुक कोई किताब नहीं है ,यह तुरंत कमेंटस करने और तुरंत संवाद का मीडियम है,आप इस मीडियम पर लिखेंगे तो इसके अनुरूप ही लिखेंगे,इस पर किताब के अनुरूप या पत्रिका के अनुरूप नहीं लिखा जा सकता,हां किताब या पत्रिका के लिखे को शेयर कर सकते हैं।



मैं उम्मीद लगाए बैठा हूँ कि नोट नीति के 50 दिन गुजर गए हैं आप इस समस्या पर जरूर लिखेंगे,आप यह भूल जाएं कि मैंने क्या लिखा है,मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूँ,मैं आपके जैसा विद्वान और ज्ञानी भी नहीं हूँ।मैं नागरिक के नाते लिखता हूँ और नागरिक के नाते ही यहां संवाद करता हूँ।नागरिक के नाते आपके कुछ सरोकार भी बनते हैं जिनको आप मुझसे बेहतर जानते हैं,आप नागरिक के रूप में यहां लिखें !

बुधवार, 28 दिसंबर 2016

हिन्दू धर्म महान!कालाधन महान !





पीएम नरेन्द्र मोदी की जनविरोधी इमेज क्रमशः बेनकाब हो रही है।लेकिन वे अभी भी मीडिया में बादशाह हैं!उनका जलवा देखने लायक है,हर चैनल उनके हर भाषण को लाइव टेलीकास्ट करता है,वे जब तक बोलें लाइव प्रसारण अबाधित चलता रहता है।यह सुविधा अभी किसी भी नेता के पास नहीं है।राहुल गांधी-केजरीवाल-ममता बनर्जी –सीताराम येचुरी इनका किसी का भी कवरेज मोदी के मुकाबले कहीं नहीं ठहरता।सं
चार के इस वैषम्य का लाभ मोदीजी को मिल रहा है ।
    आरएसएस और भाजपा के टीवी कवरेज का अधिकतर समय घेरा हुआ है।टीवी कवरेज ने ही मोदी का कद सामान्य से असामान्य बनाया है।जब तक टीवी कवरेज के अ-संतुलन को विपक्ष दुरूस्त नहीं करता,जमीनी हकीकत में कोई अंतर नहीं आएगा।यह सच है जमीनी स्तर पर जनता परेशान है और बड़े पैमाने पर गरीबों और मजदूरों को नोट नीति ने आर्थिक नुकसान पहुँचाया है।हम सब मध्यवर्ग के लोग इस नुकसान को देखने और सुनने को तैयार नहीं हैं,इसने मध्यवर्ग के मन में गरीबों और मजदूरों के प्रति बैठी नफरत और दूरी को एकबार फिर से उजागर कर दिया है,इससे वे लेखक और बुद्धिजीवी भी बेनकाब हुए हैं जो बातें जनता की करते हैं लेकिन संकट की इस अवस्था में उनको परेशान आदमी जनता नजर ही नहीं आ रहा !

इसके विपरीत उनको कालेधन ,मोदी की महानता,कांग्रेस के 70साल के दुष्कर्म और वाम की कमजोरियां ही याद आ रही हैं।जबकि हकीकत यह है नोट नीति के कारण आम जनता की परेशानियों को पहले हल करने पर ,उन समस्याओं को सामने लाने पर जोर होना चाहिए,लेकिन हम सब इधर-उधर भाग रहे हैं।

मोदीभक्त इस बात से भी परेशान हैं कि हमारे जैसे लोग अहर्निश मोदी के खिलाफ क्यों लिखते रहते हैं ॽअथवा विपक्ष मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार क्यों कर रहा है ॽमोदीजी तो सही काम कर रहे हैं ॽआज समस्या यह नहीं है कि मोदीजी के खिलाफ कौन क्या बोल रहा है ,समस्या यह है नोट नीति के भंवर में से देश कैसे निकलेगा ॽ पहले ही इस भंवर में लाखों-करोड़ों लोगों की जिंदगी को पामाली की ओर ठेल दिया गया है।देश के हर नागरिक को नोट नीति ने परेशान किया है,कष्ट दिए हैं,ये ऐसे कष्ट हैं जो जनता को मिलने नहीं चाहिए लेकिन मिले हैं,जिनको कष्ट मिले हैं या जिनकी नौकरी चली गयी ये वे लोग हैं जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया,टैक्सचोरी नहीं की,कालाबाजारी नहीं की,कालेधन को हाथ तक नहीं लगया,बेइंतहा ईमानदार थे फिर भी उनको तकलीफें उठानी पड़ रही हैं।

मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हूँ , आज तक मेरे विश्वविद्यालय की एसबीआई ब्रांच मुझे नियमानुसार एक भी बार 24 हजार रूपये नहीं दे पाई है,मैं कईबार जाकर लौट आया,जितनीबार गया काउंटर पर यही कहा गया 24 हजार नहीं मिलेंगे,मैंने प्रतिवाद में पांच हजार ,सात हजार लेने से इंकार किया,मैं हर महिने 30हजार रूपया आयकर देता हूं,मेरे पास कोई कालाधन नहीं है,भाड़े के घर में रहता हूँ,कार नहीं है,सामान्य मध्यवर्गीय जिन्दगी जीता हूँ।लिखने-पढ़ने की आदत है।इसके बावजूद यदि मैं अपना पैसा बैंक से नहीं निकाल सकता तो आप कल्पना करें आम आदमी को कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा होगा,मैं नौकरी करता हूँ,लेकिन पैसा नहीं है,वे लोग जिनकी नौकरी चली गयी ,वे कैसे गुजारा करेंगे ॽयह सामान्य सच है कि भयानक सच है,यदि इस सच को देखकर आपको बेचैनी नहीं होती तो मैं यही कहूँगा आपकी नागरिकचेतना मर गयी है।आपका नागरिक व्यक्तित्व खत्म होगया है,आप गुलाम हैं और गुलामी को आप मौज में गुजारें, गुलामी में आपको कोई बेचैनी नहीं होगी।

आज यह बेमानी है कि मोदी फासिस्ट हैं या अति-राष्ट्रवादी हैं,घृणा के प्रचारक हैं या सौजन्य के प्रतीक हैं,मोदीजी सभ्य हैं या असभ्य हैं ! क्योंकि आपने गुलामी को अपनी आदत,संस्कार बना लिया है।आपका हिन्दूमन आपको कभी नागरिक की तरह सोचने नहीं देता,अन्य के कष्टों को देखकर मन में कभी प्रतिवाद करने की इच्छा नहीं होती,आपके पास बुद्धि है,डिग्री है,शोहरत है,पद है,सुविधा है,मोदीभक्ति का तमगा है,तुम कार में चलते हो,कार्ड से पेमेंट देते हो,बैंक से लेकर बिग बाजार तक तुमको कहीं पर भी दो हजार रूपये मिल जाते हैं और तुम खुश हो,क्योंकि तुम सुरक्षित जीवन जी रहे हो ! ध्यान रहे गुलाम को भी यही सब चाहिए,गुलाम मानसिकता अन्य को देख नहीं पाती !

मैंने जब हिन्दूमन से नोट नीति को जोड़ा तो अनेक हिन्दुओं को कष्ट हुआ,मैं साफ कह दूँ ,मैं हिन्दूमन,हिन्दू संस्कार,हिन्दू आदतें आदि को मानसिक गुलामी की जंजीरें मानता हूँ।मोदीजी बड़े ही कौशल के साथ इन जंजीरों का अपने पक्ष में दुरूपयोग कर रहे हैं,वे नोट नीति की आड़ में,तथाकथित कालेधन और बेनामी संपत्ति के खिलाफ चलाई जा रही मुहिम की आड़ में हिन्दुओं को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं। वे फासिस्ट हैं या नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण है उनका जनविरोधी चेहरा जो नोट नीति की आड़ में छिपा हुआ है।

अब तक जितने लोगों के यहां छापे पड़े हैं ये वे लोग हैं जिनको आयकर वाले पहले से जानते थे,इनमें कोई भी नया आदमी नहीं है।कालेधन का न मिलना,नए कालेधन के मालिक का मिलना ,लेकिन कालेधन का धुंआधार प्रचार करते रहना,सिर्फ हिन्दू मन से ही संभव है,धार्मिक मन भगवान की जितनी सेवा करता है भगवान के विपरीत उतना ही आचरण करता है।दिलचस्प बात है अब तक पकड़े गए कालेधन के मालिक अधिकांश हिन्दू हैं!सवाल यह है जैन मतावलम्बी कालेधन वाले कितने अमीर पकड़े गए ॽ जबकि धंधे में जैनियों का वर्चस्व है।



उल्लेखनीय है धर्म के प्रसार के साथ पाप का प्रसार तेजी से होता है।जितना धर्म रहेगा पाप उससे ज्यादा रहेगा।धर्म की महत्ता तब तक है जब तक समाज में पाप और दुष्कर्मों का साम्राज्य बना रहे,जिन समाजों में पाप और दुष्कर्म नहीं हैं वहां धर्म भी नहीं है।धर्म का उद्घोष पाप की सत्ता-महत्ता का जयघोष है,इसी तरह कालेधन के खिलाफ मोदीजी का जयघोष इस बात का संकेत है कालाधन महान है,अजेय है।

मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

मोदी का नशा और कर्णसिंह चौहान

          हिंदी के प्रमुख आलोचक कर्णसिंह चौहान का नोट नीति पर पक्ष देखकर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ,असल में अधिकतर हिंदी बुद्धिजीवी और मध्यवर्ग के लोग वैसे ही सोचते हैं जैसे कर्णसिंहजी सोचते हैं।मुझे आश्चर्य इस बात पर हुआ कि कर्णसिंह चौहान हमेशा परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखने के पक्षधर रहे हैं लेकिन मोदीजी की नोट नीति को लेकर उनके पास कोई परिप्रेक्ष्य ही नहीं है।मैं इस पोस्ट में मोदी सरकार ने विगत ढाई साल में क्या किया उसका लेखा-जोखा पेश नहीं करने जा रहा।यहां पर सिर्फ चौहानजी की टिप्पणी और उससे जुड़ी समस्याओं तक ही सीमित रखूँगा।

नोट नीति के संदर्भ में पहली बात यह है कि यह नीति सभी किस्म की सामान्य संवैधानिक मान्यताओं और प्रतिवद्धताओं को ताक पर रखकर लागू की गयी है।इसका सबसे खतरनाक पहलू है कि इस पर सरकार ने खुलकर न तो मंत्रीमंडल में विचार किया और न ही रिजर्व बैंक ने व्यापक पहलुओं को ध्यान में रखकर फैसला लिया।जिस दिन रिजर्व बैंक ने फैसला लिया उसी दिन बिना किसी बहस मुबाहिसे के मंत्रीमंडल ने पास कर दिया,अब तक के उपलब्ध तथ्य बताते हैं कि रिजर्व बैंक के मात्र 8 अधिकारियों ने इसका फैसला लिया।जबकि 24 अधिकारी पूरे बोर्ड में हैं,अधिकांश के पद खाली रखे हुए हैं,मैं उन अधिकारियों के विवरण और ब्यौरों में नहीं जाना चाहता।

बुनियादी बात यह है कि नोट नीति सीधे नागरिक के संविधान प्रदत्त हकों पर हमला है ,साथ ही रिजर्व बैंक की जो नागरिकों को दी गयी प्रतिज्ञा है उसका उल्लंघन है।अब तक मोदी सरकार, सुप्रीम कोर्ट को यह नहीं बता पायी है कि उसने यह फैसला कैसे लिया या फिर किन लोगों ने यह फैसला लिया,यहां तक कि वित्त मंत्रालय की संसदीय समिति की बैठक में रिजर्व बैंक के गवर्नर हाजिर नहीं हुए हैं।संसद में भी सरकार ने फैसले के आधिकारिक दस्तावेज पेश नहीं किए हैं,स्वयं प्रधानमंत्री संसद से भागते रहे हैं।आश्चर्य की बात है कि कर्णसिंह चौहान को इनमें से कोई भी समस्या बहस योग्य नहीं लगती ! यही है हिंदी का आलोचनात्मक विवेक!

चौहानजी, हम गाली नहीं लिखते,व्यंग्य भी नहीं लिखते,सच है जो लिखा है,हम जो भी लिखते हैं अपने विवेक से लिखते हैं,यह संयोग की बात है कि माकपा से मेरा भी संबंध रहा है और आपका भी।मैं माकपा के कामकाज और नीतियों को लेकर माकपा के सदस्य रहते हुए आलोचनात्मक नजरिया रखता था और मैंने जमकर उनकी लिखकर मुखालफत की है,लेकिन मैंने आपके उस तरह के लेखन को नहीं देखा है।माकपा के प्रति मेरा आलोचनात्मक रूख जगजाहिर है,सैंकड़ों लेख लिखे हैं,यहां तक कि पूरी किताब लिखी है,लेकिन आप हमेशा कन्नी काटते रहे हैं !

चौहानजी, मोदीजी कोई साधारण नेता नहीं है,वह सामान्य पीएम नहीं है, यह मेरी मोदी के उदय से ही समझ रही है,लेकिन मैंने गालियां नहीं लिखीं।मैं वामपंथियों की हिमायत नहीं करना चाहता वे अपनी हिमायत करने में सक्षम हैं , लेकिन आपने नोट नीति के पक्ष या विपक्ष में सीधे लिखने से हमेशा परहेज करके अपने मोदीप्रेम को ही व्यक्त किया है,आप समझदार हैं,आपका इस तरह प्रच्छन्न मोदीप्रेम हमारे गले नहीं उतरता ! हम तो चाहेंगे आप खुलकर लिखें,प्रच्छन्न रूप में न लिखें ! खुलकर जैसे मेरे ऊपर हमला करते हैं वैसे ही खुलकर मोदी के पक्ष में लिखकर मोदी विरोधियों पर हमले करें ! हम देखें तो सही आप किस तरह सोचते हैं !

अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है मोदीजी के पक्ष में आपके पास कोई तर्क नहीं है,हमसब क्या कह रहे हैं इस सबको गोली मारिए ! कम से कम जनता की जो क्षति हो रही है उसकी ओर ही आँखें उठाकर देख लेते ! बैंकों की जो क्षति हो रही है उसे ही देख लिया होता !

लेकिन आपने 8नवम्बर के बाद से अपनी वॉल पर इन सब पर कुछ नहीं लिखा,हां,मेरे ऊपर दो पोस्ट जरूर लिखीं,मैं जानता हूँ आप मुझे सच में प्यार करते हैं ! आपको मैं लिख-लिखकर परेशान करता रहता हूँ,मैं अपनी आदत से मजबूर हूँ,आप थोड़ा नाराज तो होंगे लेकिन मैं क्या करूँ मोदी सरकार लगातार जनविरोधी फैसले ले रही है और आप जैसे लोग चुप तमाशा देख रहे हैं!

चौहानजी, नोट नीति सफल रही है,आपकी आशंकाएं गलत हैं,मोदीजी जो चाहते थे वह हो चुका है,जो मुद्रा जनता के पास थी वह खींचकर बैंकों में आ चुकी है।इसलिए इस नीति की असफलता का तो सवाल ही बेमानी है।

नोट नीति का लक्ष्य था नोटों को बटोरकर बैंकों में लाना,यह काम हो गया है। इसका लक्ष्य कालाधन खत्म करना नहीं था,इससे आतंकियों की रसद पर भी कोई असर नहीं पड़ा,इससे चुनावों में कालेधन के इस्तेमाल पर भी कोई खास असर नहीं पड़ेगा,हां,एक काम जरूर हुआ है,बैंकों का प्रतिदिन का तीन हजार करोड़ रूपये का नुकसान हो रहा है,वे धंधा नहीं कर पा रही हैं,बाजार का प्रतिदिन का एक लाख तीस हजार करोड़ रूपये का नुकसान हुआ है,लाखों मजदूरों की नौकरी चली गयी है।सौ से ज्यादा लोग मारे गए हैं।एक भी कालेधन का मालिक पकड़ा नहीं गया है और न उसने आत्महत्या की है न उसे हार्ट अटैक हुआ है।बाजार से लेकर कल –कारखानों तक नोट नीति ने जो तबाही मचायी है वह हम सबके लिए चिंता की बात है लेकिन आपके लिए ये कोई समस्याएं ही नहीं हैं,आप इतने भोले या अनजान तो नहीं हैं कि यह सब न जानते हों,मैंने इन सब पर लगातार लिखकर वही किया है जो एक सचेत नागरिक को करना चाहिए।लेकिन आपकी इन सब सवालों पर चुप्पी स्तब्ध करने वाली है ! मैं नहीं कहूँगा आप मोदी भक्त हैं,भाजपा के साथ हैं,लेकिन आप चुप हैं और यह चुप्पी सिर्फ आपको ही नहीं हिंदी के आलोचकों को कठघरे में खड़ा कर रही है आप हिंदी आलोचना के प्रतिनिधि पात्र हैं!

चौहानजी,आपकी फेसबुक जैसे माध्यमों को लेकर बुनियादी समझ ही गलत है।फेसबुक का उदय ही हुआ है रीयलसटाइम संप्रेषण के लिए,इसमें लिखा अजर -अमर नहीं है,यह सामान्य संचार है जिसे हम सब अनौपचारिक बातचीत में करते हैं।यहां लिखे का ऐतिहासिक महत्व नहीं है,यहां तो सिर्फ संचार है और संप्रेषण है,यहां विचारधारा गौण है।फेसबुक पर अभियान नहीं चलाए जाते।संचार का प्रवाह रहता है इसमें एक नहीं अनेक किस्म के प्रवाह हैं।यह एकदम खुला संचार है,यहां हर बात परिवर्तन के दवाब में है,कोई चीज स्थिर नहीं है,स्थिर और टिकाऊ कोई चीज है तो परिप्रेक्ष्य,परिप्रेक्ष्य यहां पर धीमी गति से बदलता है,लेकिन आप तो नोट नीति पर परिप्रेक्ष्य के बिना फुटकल ढ़ंग से सोचते हैं जो कम से कम एक बड़े आलोचक के लिए सही नहीं लगता।





कर्णसिंह चौहान की मूल पोस्ट -



[ यह टिप्पणी जगदीश्वर जी की पोस्ट पर की गई जो ८ नवंबर की विमुद्रीकरण-पुनर्मुद्रीकरण की घोषणा के बाद विपक्षी दलों की तर्ज पर वामपंथी-सैक्युलर बुद्धिजीवियों की तरफ से इसके खिलाफ छेड़े अभियान का हिस्सा है । इस तरह के अभियान में न केवल भाषा की शिष्टता का विनाश हुआ है, तमाम तरह की मर्यादाओं का विनाश हुआ है । यह विमर्श की भाषा न होकर हिंसक भाषा है जो किसी चीज का कोई समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकती । इस अंध-विरोध ने न केवल विरोधी का मजाक उड़ाया है बल्कि जनचेतना को भी उपहास की वस्तु बना दिया है । विमुद्रीकरण की पैरोकार सरकार को इस विरोध से जितना बल मिला है शायद उतना उसके तमाम प्रचारतंत्र से नहीं । यह विरोध प्रकारांतर से भ्रष्टाचार और कालेधना का हिमायती नजर आता है और उसके विरुद्ध जनता की भावना को विरूपित करता है । इस पोस्ट में उन्होंने एक व्यंग्य बनाने की कोशिश की है जिसमें प्रधानमंत्री को हिंदू का प्रतीक, उन्हें मिल रहे जन-समर्थन को हिंदू जनता के पुनर्जन्म में विश्वास से जोड़ने आदि की कोशिश की गई है । ]

जगदीश्वर जी,

अब तक इस विषय पर लिखी सबसे खराब और भ्रांत पोस्ट है यह । विमुद्रीकरण-मुद्रीकरण, मोदी, हिंदू, पुनर्जन्म को लेकर आपने जो व्यंग्यनुमा कुछ बनाने की कोशिश की है, वह न व्यंग्य है न विचार । आपका और आपकी तरह अभियान में लगे तमाम लोगों का संपूर्ण विरोध क्यों जनता के सामने हताशा-निराशा पर बार-बार टूट रहा है ! आप इसे न समझने की कोशिश करते हैं, न स्वीकारने की । बस रात-दिन गाली-गलौज में लगे हैं ।

इसे समझने के लिए जनता पर इस या उस बहाने दोषारोपण करने की जगह अगर केवल इतना समझ लेते कि जनता, इसे सही या गलत जिस रूप में आप लें, भ्रष्टाचार, कालेधन से मुक्ति का अभियान समझ रही है । यह भी कि जनता ने इस रोग को ७० साल फलते-फूलते देखा है और इससे मुक्ति उसके लिए सर्वोपरि है । जब-जब उसे इसके विरुद्ध आवाज बुलंद करने या आक्रोश जाहिर करने का अवसर मिला उसने भरपूर साथ दिया । विरोधी दल या आप सब जब रात-दिन उसके खिलाफ गाली-गलौज करते हैं तो वह सही-गलत रूप में आपको भ्रष्टाचारियों, कालाधनधारियों का हितैषी समझती है ।

अगर यह मुहिम विरोध पक्ष या बुद्धिजीवियों के अभियान से या इसे चलाने वालों की बदनीयती या बद-इंतजामी की वजह से असफल रही तो यह जन-आकांक्षा उसी तरह पछाड़ खाकर गिरेगी जैसे पहले कई बार जे.पी. आंदोलन या अन्ना आंदोलन में गिरी है । यह गिरना कई दशकों का गैप बना जाता है ।

वैसे फिलहाल आपने जो मजमा जमा रखा है उसमें कुछ भी कहना बेकार ही है । आप लोग किसी भी अलग राय को कुछ भी ब्रांड करने में पीछे नहीं रहने वाले हैं । धीरे-धीरे असहिष्णुता की ऐतिहासिक कमी को थोड़े से समय में पूरा करना जो है । फिर भी आपके अभियान के लिए शुभकामनाएँ ।





प्रतिवाद का छंद, मीडिया और राहुल देव

     पीएम नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने और अब नोट नीति के लागू होने के बाद फेसबुक से लेकर सामान्य मध्यवर्गीय-निम्न मध्यवर्गीय लोगों में उनकी जय-जयकार सुनने के बाद अनेक लोग परेशान हैं,अनेक लोग मोदी पर फिदा है,अनेक जुदा हैं और वफादार हैं!

कुछ लोग हैं जो मोदी की इमेज के बनाने में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका को देख रहे हैं,कुछ किं-कर्त्तव्य विमूढ़ हैं ! मोदी के सत्ता में आने का सबसे बड़ा प्रभाव यह पड़ा है कि उसने प्रतिवाद के छंद को ही तोड़ दिया है,अब लोग प्रतिवाद की भाषा में नहीं सहमति की भाषा में हर चीज को देखने लगे हैं ,यह परिवर्तन बहुत ही खतरनाक और त्रासद है ! इस परिवर्तन के अनेक जागरूक बुद्धिजीवी भी शिकार हैं।

मोदी का सत्ता में आना,कोई अनहोनी घटना नहीं है,अनहोनी घटना है प्रतिवाद के छंद का टूट जाना। इसने प्रतिवाद का अभाव पैदा किया है।इस स्थिति से कैसे निकलें इस पर ध्यान देने की जरूरत है।मोदीजी को कप्यूटर की क्लिक ने ही महान बनाया है, एक ही क्लिक में जानने और हजम करने की अनक्रिटिकल मानसिकता ने प्रतिवाद के छंद को तोड़ा है।क्लिक करके जानने की आदत ने ही हमारे अंदर छिपे परपीड़क आनंद को हवा दी है।

आज वास्तविकता सामने घट रही है लेकिन हम उसे जानने की कोशिश नहीं करते।इसका प्रधान कारण है टीवी पर उसका अदृश्य हो जाना।टीवी स्क्रीन से हम अपनी राय बना रहे हैं।मीडिया में हम जब चीजें देखते हैं तो हमें यही बताया जाता है कि मीडिया तो वही दिखाता है जो घट रहा है या जो हम देखना चाहते हैं।आज एक पत्रकार चिंतक राहुल देव ने फेसबुक पर तकरीबन इसी तरह की बातें लिखी हैं।ये जनाब लंबे समय से मीडिया से जुड़े रहे हैं। राहुलजी की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के बारे में नहीं बोलना चाहता।वे मोदीजी के साथ हैं।मुझे इससे कोई लेना-देना नहीं। लेकिन उन्होंने मीडिया के बारे में फेसबुक पर जो लिखा है वह बुनियादी तौर पर गलत है।

मीडिया में आमतौर पर जिस चीज को पेश किया जाता है वह है अनुपस्थित ।यह वह अनुपस्थित है जो आमतौर पर क्षितिज से गायब है,यह खाली स्पेस या स्थान या समय को भरने का सामान है,वस्तु है।इसकी कला की तरह कोई सौंदर्यबोधीय अपील नहीं होती।कला की तरह इसमें यथार्थ की अभिव्यंजना नहीं होती।इसे यथार्थ के साथ जोड़कर भ्रमित नहीं होना चाहिए।राहुलदेव और उनके जैसे तमाम मीडियाकर्मी चाहें तो बौद्रिलार्द के मीडिया संबंधी दार्शनिक विवेचन को पढ़कर ज्ञान लाभ कर सकते हैं।मीडिया प्रस्तुति की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह यथार्थ को ही ध्वस्त कर देता है।यथार्थ का केरीकेचर करता है।वह अपने को यथार्थ की तरह पेश करता है।मीडिया प्रस्तुतियों में यथार्थ को एक भिन्न आयाम में ले जाता है जिसे थर्ड डायमेंशन कहते हैं।इसके जरिए वह जहां एक ओर यथार्थ को हजम कर जाता है वहीं यथार्थ के सिद्धांतों के बारे में ही सवाल खड़े कर देता है।वहां यथार्थ नहीं होता.बल्कि खाली स्थान होता है।

मोदी के प्रचार की खूबी यह नहीं है कि वे यथार्थ को पेश कर रहे हैं ,बल्कि इसके उलट वे यथार्थ को तो पेश ही नहीं कर रहे,यही काम मीडिया कर रहा है।मीडिया प्रस्तुतियों में यथार्थ का गायब हो जाना सामान्य घटना नहीं है। मीडिया में प्रस्तुत या मोदी के भाषणों मे प्रस्तुत यथार्थ में सम-सामयिकता तो है लेकिन यथार्थ नहीं है,यथार्थ की गंभीरता नहीं है।मोदी की समूची प्रस्तुति के निशाने पर प्रतिवाद का छंद रहा है।वे शुरू से प्रतिवाद के छंद पर हमला करते रहे हैं।नोट नीति के साथ भी उन्होंने प्रतिवाद के छंद को ही निशाना बनाया है,वे लगातार प्रतिवाद पर हमला कर रहे हैं।प्रतिवाद के प्रति उनका एकदम असहिष्णु भाव है।

भारत में प्रतिवाद के रूप एक नहीं अनेक हैं लेकिन मोदीजी ने सभी प्रतिवादी रूपों को एक ही बंडल में बांध दिया है।हम सब जानते हैं कि देश में साम्प्रदायिकता-आरएसएस-भाजपा आदि का विरोध करने वाले विभिन्न रंगत के राजनीतिक दल और स्वयंसेवी संगठन हैं इनमें कोई विचार साम्य नहीं है,लेकिन मोदीजी ने पक्ष और विपक्ष में इस तरह वर्गीकरण किया है कि प्रतिवाद की विविधता ही खत्म हो गयी है।अब सामूहिक तौर पर मोदी के साथ हो या मोदी के विरोध में हो।इस बुनियादी धारणा का व्यापक असर देखने में आ रहा है।

मोदीजी के खिलाफ बोलने वाले संगठन और विचारधाराएं अनेक हैं।उनके अपने स्वतंत्र राजनीतिक कार्यक्रम हैं।मोदी और मीडिया जब पक्ष-विपक्ष में वर्गीकरण करते हैं तो प्रतिवाद के छंद को ही तोड़ देते हैं। प्रतिवाद का छंद तब ही अच्छा लगता है जब वह अपनी मूल भावना और विचारधारा के साथ राजनीति में व्यक्त हो। प्रतिवाद के वैविध्य को मीडिया ने विपक्ष में फूट के नाम से उछाला है। यहां तक कि गूगल में भी मोदी के नाम से क्लिक करके पक्ष -विपक्ष में चीजें खोजने की आदत पड़ गयी है।गूगल या इंटरनेट पर मोदी का शोर वैसे ही है जैसा वह टीवी या अखबार में है।इसी वर्गीकरण के पक्ष -विपक्ष में गूगल पर आंकडों की जमकर खेती हो रही है।

मोदी की प्रस्तुतियों ने मोदी के साथ जनता के अंतर को खत्म कर दिया है।मीडिया में मोदीजी पूरी तरह जनता के साथ एकाकार हो गए हैं।जबकि यथार्थ में ऐसा नहीं है,उनको मात्र 31फीसदी जनता का समर्थन मिला था।इस अंतर को उनकी मीडिया प्रस्तुतियों में सहज ही देख सकते हैं।इसे मीडिया मेनीपुलेशन भी कह सकते हैं।मोदी को महान बनाने के लिए मीडिया ने पहले भाजपा में मोदीजी के साथ उठे मतभेदों और अंतरों को छिपाया ,भाजपा और मोदी को एकाकार करके पेश किया।इसके बाद मोदी और जनता के बीच के अंतर को खत्म किया।मीडिया में गंभीरता से देखेंगे तो मोदी और जनता के बीच में कोई अंतर दिखाई नहीं देता।जबकि जीवन में अंतर हैं,राजनीति में फर्क है।
       मोदीजी के नजरिए को सिद्धांततः ´निषेध का निषेध´ के नजरिए से देखें।वे पहले कांग्रेस ने जो कहा उसका निषेध करते हैं,फिर स्वयं जो कहते हैं,कुछ समय बाद उसका निषेध करते हैं,इन सब निषेधों का तीव्र गति से प्रचार,अति -प्रचार करते हैं और यही वह अति -संप्रेषण की कला है जिसके जरिए वे विभिन्न रंगत के प्रतिवाद और अंतरों को निशाना बनाते हैं,इस समूची प्रक्रिया में जो चीज नष्ट हुई है वह है भारत का यथार्थ ।
     आज आम आदमी का मोदी से संपर्क है लेकिन भारत के यथार्थ से संबंध टूट चुका है।वे जो कुछ भी कहते हैं उनकी सरकार उससे तत्काल पलट जाती है।नोट नीति के संदर्भ में यह बात खासतौर पर सामने आई है।हर रोज रिजर्व बैंक ने पीएम के कहे का उल्लंघन किया कल जो नियम बनाया उसे दूसरे दिन ही बदल दिया।बार बार बदलना,निषेधका निषेध करना,असल में प्रतिवाद के छंद को स्थिर नहीं रहने देता।

कर्णसिंह चौहान के बहाने उठे सवाल

        कल मैंने जब हिंदी के आलोचक कर्णसिंह चौहान को अंध मोदीभक्त की तरह मोदीजी की नोट नीति की हिमायत में फेसबुक पर पढा तो मैं सन्न रह गया।वे बेहतरीन व्यक्ति हैं,सुंदर समीक्षा लिखते हैं और उन्होंने बेहतरीन अनुवाद किए हैं।साहित्य के मर्मज्ञ हैं।लेकिन अर्थशास्त्र में वे एकदम शून्य हैं,वे हर चीज को पुराने माकपा कार्यकर्ता की तरह मात्र आस्था के आधार पर देख रहे थे,उनके लेखन से मन बहुत खराब हुआ,उनके चाहने वाले अनेक मित्रों ने उनके नोट नीति के समर्थन पर मुझे फोन पर उनके रूख पर हैरानी व्यक्त की।तब मैंने सोचा कि हमें समस्या की जड़ों में जाना चाहिए।यह मसला एक लेखक का नहीं है,बल्कि उससे कहीं गहरा है।
        भारत इस समय बहुत गंभीर संकट से गुजर रहा है।शिक्षितों का एक बड़ा वर्ग इस संकट को संकट ही नहीं मान रहा।संकट यह नहीं है कि बैंक में लाइन लगी है,एटीएम में पैसा नहीं है,संकट यह नहीं है कि किसान कर्ज में डूबा हुआ है और वे आत्महत्या कर रहे हैं, संकट यह है हम सबकी आँखों से यथार्थ रूप में ठोस मनुष्य और उसकी तकलीफें गायब हो गयी हैं।हम ऐसे समय में रह रहे हैं जब मनुष्य गायब हो गया है।चीजें गायब हो गयी हैं। बौद्रिलार्द की मानें तो चुनौती यह है कि यथार्थ ही अदृश्य हो गया है।पहले समस्या यह थी कि साहित्य और मीडिया में कोई प्रवृत्ति आती और जाती थी,आंदोलन आते और जाते थे,राजनीतिक दल सत्ता में आते और जाते थे,लेकिन मनुष्य के यथार्थ पर हमारी पकड़ बनी हुई थी,हम ठोस रूप में मनुष्य को जानते थे,उसके दुखों को जानते थे,ठोस हकीकत के रूप में मनुष्य की समस्याओं पर बातें करते थे।लेकिन नव्य-आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से समूचा पैराडाइम ही बदल गया है।यही वह दौर है जिसमें मनुष्य और उसका यथार्थ अदृश्य हुआ है।अब हर चीज,घटना,वस्तु, फिनोमिना आदि हठात् आ जा रहे हैं।हम देखरहे हैं लेकिन कुछ भी करने,हस्तक्षेप करने में असमर्थता महसूस करते हैं।

यथार्थ के अदृश्य हो जाने के कारण हमने यथार्थ पर बातें खूब की हैं,हत्याओं पर बातें खूब की हैं,लेकिन हत्या का यथार्थ हमने कभी महसूस नहीं किया,मसलन् 2002 के गुजरात के दंगों के बारे में जितना लिखा और बोला गया उतना तो संभवतःभारत-विभाजन के समय की विभीषिका पर भी नहीं बोला गया।इसके बावजूद दंगों के यथार्थ को हम पकड़ने में असमर्थ रहे।दंगे हुए,लोग मारे गए,लेकिन पीड़ितों का दर्द और त्रासदी गायब रही।यानी हम जब से वर्चुअल रियलिटी और इंटरनेट की दुनिया में दाखिल हुए हैं तब से यथार्थ का साक्षात अनुभव और उसकी विचारधारात्मक समझ गायब हुई है। सवाल यह है यथार्थ के अदृश्य हो जाने के पहले हमने यथार्थ को जानने की कितनी कोशिश की थी ॽ

यही हाल नोट नीति का है.आज नोट नीति के संकट को हम समझ नहीं पा रहे हैं और सरकार के इकतरफा प्रचार अभियान से सीधे प्रभावित हैं तो सबसे पहले तो यही सवाल उठता है हम बुद्धिजीवी नोट नीति लागू होने के पहले भारतीय अर्थव्यवस्था,कालेधन, आतंकवाद आदि के बारे में कितना जानते थे ॽ हिन्दी में बहुत छोटा अंश है जो इन समस्याओं के बारे में जानता है और उन समस्याओं का विश्लेषण करके लिखता रहा है। अधिकतर बुद्धिजीवियों में कॉमनसेंस से विचार विमर्श चलाने की प्रवृत्ति है।ऐसी स्थिति में यदि हिंदी का कोई लेखक-आलोचक-पत्रकार यदि नोट नीति का भक्त नजर आता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।

मसलन् आप हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएं उठाकर आसानी से देख सकते हैं कि हिंदी में अर्थशास्त्र के विषयों पर कितने हिंदी पत्रकार नियमित अखबारों में लिखते रहे हैं अथवा कितने हिंदी के आलोचक हैं जो साहित्यिक पत्रिकाओं या अपनी किताबों में अर्थशास्त्र के विषयों पर लिखते रहे हैं।यह ठोस हकीकत है अर्थशास्त्र के विषयों पर लिखने वाले समझदार किस्म के एक दर्जन बुद्धिजीवी भी हिंदी के पास नहीं हैं।ऐसी स्थिति में यदि किसी लेखक को नोट नीति में आशा की किरण नजर आए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

असल बात यह है कि यथार्थ के कारकों को जाने बिना यथार्थ पकड़ नहीं सकते.कल जब हिंदी के एक प्रतिष्ठित लेखक को मैं नोट नीति पर बलिहारी भाव-भंगिमा में फेसबुक पर लिखते देख रहा था तो मुझे उनकी स्थिति देखकर तकलीफ हो रही थी,मैं जानता हूँ कि उन्होंने अर्थशास्त्र को न तो पढा है और न कभी उस पर लिखा है,ऐसे में अर्थशास्त्र का सच वे कैसे बता सकते हैं ! वे तो अपनी चेतना के सबसे निचले धरातल पर खड़े होकर बातें कर रहे थे,उनकी भंगिमा अर्थशास्त्र के ज्ञान से नहीं मोदी की नोट नीति के प्रति आस्था से बनी थी।

नोट नीति से जुड़े अर्थशास्त्र के सवाल हैं,ये आस्था के सवाल नहीं हैं ,ये कॉमनसेंस के सवाल नहीं है,ये अर्थशास्त्र के गंभीर जटिल संबंधों और संश्लिष्ट प्रक्रिया से जुड़े सवाल हैं और इन सवालों पर हमें विशेषज्ञों की राय को पढ़ने और समझने की जरूरत है।

चूंकि हिंदी के बुद्धिजीवियों से हमारा संबंध ज्यादा है इसलिए हम यही कहना चाहते हैं कि कहानी या उपन्यास पर बात करने के लिए महज पाठक होना ही काफी नहीं है।यदि आलोचना करनी है तो आलोचकीय विवेक ,आलोचना के उपकरणों और आलोचना की विधागत परंपरा का ज्ञान होना भी जरूरी है।मात्र कृति पढ़कर पाठकीय अनुभव के आधार पर आलोचना विकसित नहीं हो सकती।



मसलन् ,किसी बड़े लेखक ने लिखा है इसलिए उसकी रचना अच्छी ही होगी,यह निष्कर्ष सही नहीं है।बड़े लेखक की रचनाएं भी कमजोर होती है,महज आस्था के आधार पर हम यह कहें कि प्रेमचंद या नागार्जुन की सभी रचनाएं क्लासिक हैं,तो गलत होगा।जिस तरह साहित्य में लेखक के प्रति आस्था के आधार पर रचना के बारे में मूल्य-निर्णय करना गलत है ठीक वैसे ही नोट नीति के बारे में मात्र मोदीजी के प्रति आस्था के आधार पर समर्थन देना ,नोट नीति के समर्थन में फतवे देना गलत है।

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