काव्य या साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने ज्यों ही जाते हैं बड़ी समस्या उठ खड़ी होती है। पहली अनुभूति यह पैदा होती है कि हिन्दी की कविता अन्य विदेशी भाषा की कविता से पीछे है। आलोचना का तुलनात्मक अध्ययन करने जाते हैं तो पाते हैं कि हिन्दी की आलोचना कितनी पीछे है। यही दशा अन्य विधाओं की है।
यानी तुलना करते ही बार-बार यह एहसास पैदा होता है कि हिन्दी का साहित्य अन्य भाषाओं के साहित्य से कितना पीछे है। ऐसा नहीं है कि हम हिन्दी वालों को ही ऐसी अनुभूति होती है। अंग्रेजी के साहित्यकारों को भी ऐसी ही अनुभूति होती है कि फ्रेंच या जर्मन साहित्य से उनका साहित्य कितना पीछे है।
मैथ्यू अर्नाल्ड पहले लेखक हैं जिन्होंने पहलीबार एकपत्र में 1848 में ‘तुलनात्मक साहित्य’ पर सुसंगत ढ़ंग से विचार किया था। सन् 1886 में पहलीबार एच.एम.पॉसनेट ने ,जो अंग्रेजी के प्रोफेसर थे, उन्होंने पहलीबार अपनी किताब का नाम इसी पदबंध से ऱखा था।
मैं निजीतौर पर महसूस करता हूँ कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ की बजाय ‘ साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’ कहना ज्यादा संगत होगा। ‘तुलनात्मक साहित्य’ मूलतः खोखला पदबंध है। इस प्रसंग में कॉरनेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लोन कूपर का उल्लेख करना समीचीन होगा। कूपर ने लिखा तुलनात्मक साहित्य खोखला शब्द है। इससे सही अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं होती। मुझे अनुमति दो तो मैं ‘तुलनात्मक आलूओं’ और ‘तुलनात्मक भुसी’ कहना ज्यादा पसंद करूँगा।‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध में ‘तुलनात्मक’ और ‘साहित्य’ दो पदबंध हैं। दिक्कत यह है कि साहित्य की परिभाषा में तेजी से परिवर्तन आया है जबकि ‘तुलनात्मक’ के उपकरण नहीं बदले हैं या उनमें कम बदलाव आया है। मसलन् साहित्य को अंग्रेजी में सीखना,साहित्य संस्कृति,साहित्यिक उत्पादन,लेखन का ढ़ांचा,लेखन आदि के नाम से विश्लेषित किया जा रहा है। इसी तरह सभी किस्म के ‘साहित्य उत्पादन’ को ‘साहित्य’ माना जाता है। 18वीं शताब्दी में साहित्य ‘राष्ट्रीय’ और ‘स्थानीय’ के साथ नत्थी होकर आया था। आज इस अर्थ की प्रासंगिकता कम हो गयी है। हमें इस संदर्भ को व्यापक फलक पर खोलकर विचार करना चाहिए।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध ‘सार्वभौम साहित्य’, ‘साहित्य’, ‘आम साहित्य’, ‘विश्व साहित्य’ से प्रतिस्पर्धा करते हुए आया है। वेन तिघेम के अनुसार तुलनात्मक साहित्य का लक्ष्य है विभिन्न साहित्यों का एक-दूसरे के संबंध के साथ अध्ययन करना। कुछ विचारक तुलनात्मक साहित्य को अंतर्राष्ट्रीय साहत्य संबंधों के इतिहास के संदर्भ में विश्लेषित करते हैं। इस क्रम में वे तथ्य,संपर्क और आध्यात्मिक संबंधों का अध्ययन करते हैं। इस क्रम में हमें यह भी ध्यान रखना होगा किकि लेखक की जिंदगी और आकांक्षाएं अनेक साहित्यों से जुड़ी होती हैं। एक मुश्किल यह है कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ और ‘जनरल साहित्य’ में विभाजक रेखा खींचना मुश्किल है।
तुलनात्मक साहित्य के नजरिए से देखें तो संस्कृत,उर्दू और हिन्दी में कुछ चीजें साझा हैं। इन तीनों भाषाओं के साहित्य पर दरबारी संस्कृति और सभ्यता का गहरा असर है। इनमें संस्कृत और उर्दू पर दरबारी संस्कृति का ज्यादा असर है। हिन्दी पर कम असर है। हिन्दी में वीरगाथाकाल और रीतिकाल पर दरबारी संस्कृति का व्यापक असर देखा जा सकता है। इसके अलावा हिन्दी की मध्यकालीन कविता जन-जीवन से जुड़ी कविता है। इसमें राम-कृष्ण के आख्यान की आंधी चली है। राम-कृष्ण के बहाने दरबारी संस्कृति का विकल्प निर्मित किया गया। राजा के सामने सिर झुकाने से बेहतर भगवान के सामने सिर झुकाने का भाव है जो कि प्रतिवादी भाव है।
इसके विपरीत संस्कृत काव्य परंपरा में राजा को अपदस्थ नहीं किया जा सका। संस्कृत काव्य का बड़ा हिस्सा राजा केन्द्रित आख्यानों से भरा है। इसमें जनता के भावों और सुख-दुख के लिए कोई जगह नहीं है। इसमें पशु हैं,पक्षी हैं,उपदेश हैं.काव्यमानक हैं और सबसे बड़ी बात यह कि इसमें सामाजिक यथार्थ का प्रतिबिम्बन नहीं है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रेखांकित किया है संस्कृत कविता जीवन से कटी हुई है।जबकि हिन्दी कविता सामाजिक जीवन से जुड़ी है। संस्कृत कविता जन्म से नियमों से बंधी रही है। काव्य नियमों का यथोचित निर्वाह करना कवि का लक्ष्य रहा है। इसके विपरीत हिन्दी के जनकवियों ने कभी भी काव्य नियमों का पालन नहीं किया। काव्य निर्माण के उपकरणों को उन्होंने जन प्रचलित काव्य रूपों से ग्रहण किया।काव्य नियमों के प्रति हिन्दी के जनकवियों का उपेक्षाभाव वह प्रस्थान बिंदु है जहां से हमें प्रतिवादी काव्य के आरंभ को देखना चाहिए। नियमों की उपेक्षा से पैदा हुआ प्रतिवादी काव्यरूप अपने साथ राजतंत्र का विकल्प भी लेकर आया।रामाश्रयी-कृष्णाश्रयी, सगुण- निर्गुण काव्य परंपरा से उसने अंतर्वस्तु ली।इन कवियों ने क्या लिखा और किस नजरिए से लिखा इसका उनकी मंशा से गहरा संबंध है।
मूल सवाल है मध्यकालीन हिन्दी कवियों की मंशा का।कवि की मंशा का कविता के उपकरणों और काव्य क्षेत्र चयन के साथ गहरा संबंध है। मध्यकालीन जनकवियों ने राम-कृष्ण,सगुण-निर्गुण आदि व्यापक अभिव्यक्ति का क्षेत्र चुना।उसमें धारावाहिकता बनाए रखी।यह मूलतः उनके दरबारी संस्कृति के प्रति विरोधभाव की अभिव्यक्ति है। इस प्रतिवाद के केन्द्र में काव्य के रूप और अंतर्वस्तु दोनों हैं।
कवि की मंशा लक्ष्यीभूत श्रोता की प्रकृति के साथ नाभिनालबद्ध होती है। संस्कृत के कवि का लक्ष्यीभूत श्रोता और हिन्दी के जनकवियों का लक्ष्यीभूत श्रोता भिन्न है। यह भिन्न ही नहीं बल्कि इनके हितों में गहरा अंतर्विरोध है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो संस्कृत-हिन्दी कवियों के काव्यजगत में गहरी विचारधारात्मक टकराहट नजर आएगी। संस्कृत -हिन्दी के कवियों के सामाजिक सरोकारों में गहरा अंतर नजर आएगा। यही वजह है कि हिन्दी के मध्यकालीन जनकवि संस्कृत काव्य परंपरा से अपने को पूरी तरह अलग करते हैं।
संस्कृत कवि दरबार के लिए लिखता है। हिन्दी का जनकवि भक्त के लिए लिखता है, सबके लिए लिखता है। संस्कृत कवि अपनी निजता को सार्वजनिक नहीं करता इसके विपरीत हिन्दी कवि अपनी निजता को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करता है। संस्कृत कवि अपने निजी जीवन के दुखों को छिपाता है,हिन्दी कवि उन्हें सार्वजनिक करता है। व्यक्तिगत को सामाजिक बनाता है और व्यक्तिगत और सार्वजनिक के सामंतीभेद को नष्ट करते हुए व्यक्तिगत को सार्वजनिक बनाता है। यहां से वह सचेत रूप से आधुनिकभावबोध के लक्षणों की नींव ड़ालता है।
उल्लेखनीय है मध्यकालीन कवियों ने अपने सारे उपकरण व्यापारिक पूंजीवाद से लिए हैं। ये कवि नई उदीयमान सामाजिक शक्तियों कारीगर-दस्तकार और उदीयमान व्यापारीवर्ग के भावबोध से संसार को देखते हैं। उपेक्षित शूद्रों और स्त्रियों को समानता और अभिव्यक्ति का मंच देते हैं। उनके यहां सब कुछ पर्सनल है,व्यक्तिगत है। भक्ति का रूप भी व्यक्तिगत है। व्यक्तिगत सत्ता का ऐसा महाराग इसके पहले कभी नहीं सुना गया। व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति के बहाने राजतंत्र की समूची सत्ता और उसके सांस्कृतिकबोध और मूल्य संरचना को सर्जनात्मक चुनौती दी गयी।
तुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में अध्ययन की कई पद्धतियां प्रचलन में हैं। फ्रांसीसी तुलनाशास्त्री ‘प्रभाव’के अध्ययन पर जोर देते हैं। रेने वैलेक ने ‘कारण-प्रभाव’ को महत्ता दी है। हंगरी के तुलनाशास्त्री ‘स्रोत’ और ‘मौलिकता’ को महत्वपूर्ण मानते हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने राष्ट्रीय चरित्रों की पहचान स्थापित की।उल्लेखनीय है कि ‘प्रभाव’ का ‘ग्रहण’ के साथ संबंध है। फलतः ग्रहणकर्ता मूल्यांकन के केन्द्र में रहेगा। वेन तेघम और अन्य विचारकों ने ‘ग्रहण’ के सिद्धांत के अनुरूप ही अपने तुलनात्मक नजरिए का विकास किया।
साहित्य संप्रेषण और ग्रहण के सवालों पर सामयिक तुलनाशास्त्री विभिन्न दृष्टियों से विचार करते रहे हैं। हंगरी के तुलनाशास्त्रियों ने ‘स्रोत’ और ‘मौलिकता’ पर जब जोर दिया था तो उस समय हंगरी में 19वीं शताब्दी का समय था और संस्थानों के निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी।तुलनात्मक साहित्य के मूल्यांकन और सिद्धान्त की किताबों को गौर से देखें तो पाएंगे कि कुछ महत्वपूर्ण पदबंधों का प्रयोग मिलता है। जैसे, फार्चून,डिफ्यूजन,रेडिएशन आदि इन पदबंधों का पाठक पर पड़ने वाले प्रभाव के संदर्भ में धडल्ले से प्रयोग चल रहा है। जबकि ग्रहणकर्त्ता के संदर्भ में प्रतिक्रिया, क्रिटिक,ओपिनियन,रीडिंग,ओरिएण्टेशन आदि का खूब प्रयोग हो रहा है। पुनर्रूत्पादन के संदर्भ में फेस,रिफ्लेक्शन, मिरर, इमेज, रिजोनेंस,इको,म्यूटेशन आदि का प्रयोग मिलता है।
फ्रांस में ग्रहण सिद्धांत का विरोध करने वालों का भी एक गुट है जो विषयवस्तु केन्द्रित अध्ययन पर जोर देता है। इस क्षेत्र में मनोवैज्ञानिक और शैलीवैज्ञानिक आलोचना दृष्टियों का जमकर प्रयोग हुआ है। इसके दायरे में मिखाइल बाख्तिन के ‘इंटरटेक्चुअलिटी’ से लेकर वाक्य-विन्यास, रूपकों,वाक्य की बहुअर्थी संरचना और रूपवाद आदि सब कुछ शामिल हैं।फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों ने इमेज और इमेनोलॉजी में अंतर किया है और इमेज के अध्ययन पर जोर दिया है। इन विचारकों ने विचारों के इतिहास,मनोदशा, संवेदनशीलता और मूल्यों का भी अध्ययन किया है। ये लोग वैविध्य और उदारता के आधार पर मूल्यांकन करते हैं।फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों ने रूपवादी दृष्टिकोण का विरोध करते हुए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। उनके द्वारा किए गए अध्ययनों को चार भागों में बांट सकते हैं। 1.काल्पनिकता का अध्ययन, 2. किसी महान् विषयवस्तु का अध्ययन, 3. प्रतीकों का अध्ययन, 4. विषयवस्तु का अध्ययन।
फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों के यहां सामान्य साहित्य और तुलनात्मक साहित्य का अंतर साफ दिखाई देता है। इन लोगों ने रिप्सेशन थ्योरी को सामान्य साहित्य के क्षेत्र के बाहर रखा है। इसके अलावा पद्धति की समस्याओं को भी उठाया है। तुलनात्मक साहित्य की जटिलता और समृद्धि को रेखांकित किया है। उनके मूल्यांकन के केन्द्र में पाठ है। किंतु यह काम उन्होंने रूपवादी और संरचनावादियों से भिन्न रूप में किया है। वे हमेशा इमेजरी और ओपिनियन पर केन्द्रित होकर काम करते रहे हैं। विधाओं के इतिहास का पुनर्लेखन,काव्य की व्याख्या के लिए इंटरटेक्चुअलिटी या अन्तर्पाठीयता की धारणा , इतिहास और अंतर्वस्तु का प्रयोग करते रहे हैं। इस क्रम में उन्होंने पाठ का विकेन्द्रीकरण किया है।
उल्लेखनीय है फ्रांस में ‘लिटरेचर’ पदबध का अर्थ ‘साहित्यिक अध्ययन’ है। वाल्तेयर ने अपने अधूरे लेख ‘लिटरेचर’ में, जो उन्होंने दर्शनकोश के लिए लिखा था, उसमें उन्होंने साहित्य को ‘अभिरूचि का ज्ञान’ कहा था। 19वीं सदी में फ्रांस में ‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध का प्रयोग मिलता है। खासकर ए.एफ.विल्हमैन की पत्रिकाओं के इतिहास संबंधी पुस्तक में इस पदबंध का सुसंगत प्रयोग मिलता है। यह पुस्तक 1828 में छपी थी। इस पुस्तक में तुलनात्मक साहित्य की पद्धति का इस्तेमाल करते हुए आधुनिककाल के अनेक साहित्यरूपों का विश्लेषण किया गया है।
सामान्य साहित्य का आंदोलनों और साहित्यिक फैशनों के साथ संबंध है। जबकि तुलनात्मक साहित्य दो भाषाओं के साहित्य के आपसी संबंध से बंधा है। मसलन् संस्कृत की कविता और हिन्दी की कविता के किसी कालखण्ड को लेकर या दो लेखकों का अध्ययन किया जा सकता है। तुलनात्मक स्रोतों और प्रभावों का अध्ययन किया जा सकता है. तुलनात्मक कारणों और परिणामों का अध्ययन किया जा सकता है।
तुलनात्मक अध्ययन के दौरान किसी कृति को पूरी तरह अन्य भाषा के प्रभावों में घटाया नहीं जा सकता। या अन्य भाषा के प्रभाव को आलोकित करने वाले प्रधान बिंदु के रूप में नहीं देखा जा सकता।तुलनात्मक सहित्य और सामान्य साहित्य के बीच में बनाबटी जंगल खड़े करने से बचना चाहिए। साहित्यिक वैदुष्य और साहित्येतिहास का एक ही लक्ष्य है साहित्य का मूल्यांकन करना। हमें तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य के वर्गीकरण से बचना चाहिए। यदि इस वर्गीकरण को लागू करते हैं तो हम तुलनात्मक साहित्य को केवल दूसरी श्रेणी के लेखकों ,अनुवादों, यात्रा-पुस्तकों,मध्यस्थ के संबंधों तक सीमित कर देंगे। तुलनात्मक साहित्य को एक छोटे अनुशासन में सीमित कर देंगे।
वेन तेघम के अनुसार तुलनात्मक साहित्य को राष्ट्रीय साहित्यों से अलगाने की जरूरत है। तुलनात्मक साहित्य का संबंध उन मिथकों और गाथाओं से है जो कवियों के चारों ओर हैं और इनका गौण और लघु लेखकों से संबध है। वेन तेघम और उनके अनुयायी साहित्यिक अध्ययन के बारे में 19वीं सदी के प्रत्यक्षवादी तथ्यवाद की शब्दावली में सोचते थे। ये लोग स्रोतों और प्रभावों का अध्ययन करते थे। साहित्य की सरसरी व्याख्या करते थे। सरसरी व्याख्या के लिए मूलभाव,विषयवस्तु, चरित्र, स्थितियां, कथानक ,कालक्रम आदि का इस्तेमाल करते थे। इन्होंने अपने यहां समानान्तरों, समानताओं और अस्मिताओं के अम्बार को एकत्रित कर रखा है।तुलनात्मक साहित्य या सामान्य साहित्य पर विचार करते हुए ध्यान रहे कि कोई भी रचना,स्रोतों और प्रभावों का जोड़ नहीं होती।वह पूर्ण होती है। उसमें कच्ची सामग्री कहीं से भी ली जा सकती है। कच्ची सामग्री निर्जीव नहीं होती। वह नई संरचनाओं में आसानी से रूपान्तरित हो जाती है।
सरसरी व्याख्या कहीं नहीं ले जाती और साहित्य में कार्य-कारण संबंध स्थापित करने में सफल नहीं होती। यदि कृति और कृतिकार को तुलनात्मक मूल्यांकन करने के चक्कर में स्रोतों और प्रभावों में रिड्यूज कर दिया जाता है तो इससे कृति और कृतिकार की समग्र अर्थवत्ता को ठेस लगती है। जो कृतियां पूर्ण होती हैं उनके अलगाव के कारण कृति में नहीं होते।तुलनात्मक साहित्य के उदय का प्रधान कारण था राष्ट्रवाद का निषेध करना। साहित्य की आधुनिक धारणा के उदय के साथ साहित्य में राष्ट्रवाद का जयघोष होने लगा। जातीय साहित्य की धारणा पर जोर देने के बहाने साहित्य में राष्ट्रवाद के एजेण्डे को प्रतिष्ठित किया गया।
हिन्दी में जातीय साहित्य की बहस के केन्द्र में मूलतः राष्ट्रवाद को ही प्रतिष्ठित करने का लक्ष्य है। साहित्य का आधुनिक धारणा के आलोक में मूल्यांकन करने के बजाय जातीय साहित्य की धारणा के आलोक में रामविलास शर्मा और अन्य के द्वारा जो गट्ठर भरकर लेखन हुआ है उसने राष्ट्रवाद को साहित्य में पुख्ता किया है। साहित्य में राष्ट्रवाद की प्रतिष्ठा का हिन्दी में खास अर्थ है प्रतिक्रियावादी राजनीतिक चेतना की हिन्दी विभागों में प्रतिष्ठा। इससे हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति हुई है।
राष्ट्रवाद एक तरह का अलगाव भी है। यह समूचे समाज और साहित्य से अलगाव है। अलगाव और राष्ट्रवाद को तुलनासाहित्य शास्त्रियों ने फ्रेंच,जर्मन,अंग्रेजी साहित्य में चुनौती दी। तुलनाशास्त्रियों ने साहित्य में प्रचलित विषयवस्तु और पद्धति विज्ञान के बनावटी विभाजन को अस्वीकार किया। स्रोतों और प्रभावों की यांत्रिक धारणा का निषेध किया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या राष्ट्रवाद का विरोध किया। मेरे कहने का यह आशय नहीं है कि तुलनाशास्त्री देशभक्त नहीं थे। वे देशभक्त थे लेकिन साहित्य को राष्ट्रवाद के साथ नत्थी करना नहीं चाहते थे।
तुलनाशास्त्री विलक्षण किस्म के हिसाबी लोग हैं। तुलना करते हुए और अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करते हुए तुलनात्मक साहित्य को सांस्कृतिक बही-खाते के रूप में इस्तेमाल करते हैं। वे मूल्यांकन के जरिए बताते हैं कि कैसे उनके देश ने दूसरे देश पर प्रभाव ड़ाला या उनकी भाषा ने अन्य भाषा के साहित्य को प्रभावित किया,इस तरह वे अपने देश के सांस्कृतिक बही-खाते को बढ़ाने का काम करते हैं। इसके जरिए वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनके देश ने दूसरे देशों पर यथासंभव प्रभाव ड़ाला। वे बारीकी से यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनके देश ने किसी विदेशी साहित्यकार को किसी अन्य देश की तुलना में अधिक आत्मसात किया और समझा है। हिन्दी में यह बीमारी सहज ही छायावादी कवियों के साथ रवीन्द्ननाथ टैगौर के साथ तुलना के संदर्भ में देख सकते हैं।
तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य के बीच विभाजन करने की पद्धति से हमें बचना चाहिए। यह विभाजन बनावटी है। आज तुलनात्मक साहित्य एक स्वतंत्र अनुशासन है। इसका लक्ष्य है राष्ट्रीय सीमाओं के परे जाकर साहित्य का अध्ययन करना।सच्चा साहित्यिक आलोचक वह है साहित्य को मृत तथ्यों का जखीरा होने से बचाता है। मृत तथ्यों की स्थापना करना पाण्डित्य नहीं है। आलोचक वह है जो साहित्य के मूल्यों और गुणों का उद्घाटन करता है।साहित्यिक इतिहास और आलोचना में कोई अंतर नहीं है। साहित्यिक इतिहास की सरलतम समस्या को बताने के लिए मूल्यांकन आवश्यक है। किसी लेखक ने किसी अन्य लेखक को प्रभावित किया इसके लिए लेखक की विशिष्टताओं का ज्ञान आवश्यक है। इसलिए उनकी परंपराओं के संदर्भ का ज्ञान और निरंतर तोलने,तुलना करने,विश्लेषण करने और अलगाने की क्रिया आवश्यक है। यह सारा कार्य-व्यापार आलोचनात्मक है।
आलोचना के बिना इतिहास नहीं लिखा जा सकता। इतिहास लिखते समय चयन, चरित्र- चित्रण और मूल्यांकन की जरूरत पड़ती है। इन तीनों तत्वों के बिना कोई भी इतिहास नहीं लिखा जा सकता। जो साहित्यिक इतिहासकार आलोचना की महत्ता को अस्वीकार करते हैं उन्हें अचेत आलोचक कहना समीचीन होगा।तुलनात्मक साहित्य ने इतिहास और आलोचना को अस्वीकार किया है। अपने को तथ्यात्मक संबंधों, स्रोतों,प्रभावों,मध्यस्थों और ख्यातियों तक सीमित रखा है। हमें इस तरह के नजरिए से बचना चाहिए।
साहित्य में विधाओं का एक-दूसरे से बैर नहीं है। हमें एक-दूसरे को अपदस्थ करने की कोशिशों से बचना चाहिए। बहुत सारे काम हैं जो इतिहास करता है, अनेक ऐसे काम हैं जो इतिहास से संभव नहीं हैं उन्हें आलोचना करती है, आलोचना और इतिहास से जो काम नहीं हो पाते उन्हें तुलनात्मक साहित्य के जरिए किया जा सकता है।अभिव्यक्ति और मूल्यांकन के अभावों की पूर्ति नयी विधाएं और संचार रूप करते हैं। एक रूप जब जन्म ले लेता है तो वह जाता नहीं है। अभी तक इतिहासकार और आलोचक की दिलचस्पी जिन बातों में थी,तुलनात्मक साहित्य उसके परे जाता है। इतिहासकार की दिलचस्पी इतिहास और साहित्य की सामाजिकता में थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने यह कार्य बेहतर ढ़ंग से किया। आलोचना की दिलचस्पी मूल्य की खोज में रही है। इन दोनों से भिन्न तुलनात्मक साहित्य की दिलचस्पी सामान्य सांस्कृतिक इतिहास में होती है। इसे वह समस्त मानवता के इतिहास के रूप में पेश करता है।
यानी तुलना करते ही बार-बार यह एहसास पैदा होता है कि हिन्दी का साहित्य अन्य भाषाओं के साहित्य से कितना पीछे है। ऐसा नहीं है कि हम हिन्दी वालों को ही ऐसी अनुभूति होती है। अंग्रेजी के साहित्यकारों को भी ऐसी ही अनुभूति होती है कि फ्रेंच या जर्मन साहित्य से उनका साहित्य कितना पीछे है।
मैथ्यू अर्नाल्ड पहले लेखक हैं जिन्होंने पहलीबार एकपत्र में 1848 में ‘तुलनात्मक साहित्य’ पर सुसंगत ढ़ंग से विचार किया था। सन् 1886 में पहलीबार एच.एम.पॉसनेट ने ,जो अंग्रेजी के प्रोफेसर थे, उन्होंने पहलीबार अपनी किताब का नाम इसी पदबंध से ऱखा था।
मैं निजीतौर पर महसूस करता हूँ कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ की बजाय ‘ साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’ कहना ज्यादा संगत होगा। ‘तुलनात्मक साहित्य’ मूलतः खोखला पदबंध है। इस प्रसंग में कॉरनेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लोन कूपर का उल्लेख करना समीचीन होगा। कूपर ने लिखा तुलनात्मक साहित्य खोखला शब्द है। इससे सही अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं होती। मुझे अनुमति दो तो मैं ‘तुलनात्मक आलूओं’ और ‘तुलनात्मक भुसी’ कहना ज्यादा पसंद करूँगा।‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध में ‘तुलनात्मक’ और ‘साहित्य’ दो पदबंध हैं। दिक्कत यह है कि साहित्य की परिभाषा में तेजी से परिवर्तन आया है जबकि ‘तुलनात्मक’ के उपकरण नहीं बदले हैं या उनमें कम बदलाव आया है। मसलन् साहित्य को अंग्रेजी में सीखना,साहित्य संस्कृति,साहित्यिक उत्पादन,लेखन का ढ़ांचा,लेखन आदि के नाम से विश्लेषित किया जा रहा है। इसी तरह सभी किस्म के ‘साहित्य उत्पादन’ को ‘साहित्य’ माना जाता है। 18वीं शताब्दी में साहित्य ‘राष्ट्रीय’ और ‘स्थानीय’ के साथ नत्थी होकर आया था। आज इस अर्थ की प्रासंगिकता कम हो गयी है। हमें इस संदर्भ को व्यापक फलक पर खोलकर विचार करना चाहिए।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध ‘सार्वभौम साहित्य’, ‘साहित्य’, ‘आम साहित्य’, ‘विश्व साहित्य’ से प्रतिस्पर्धा करते हुए आया है। वेन तिघेम के अनुसार तुलनात्मक साहित्य का लक्ष्य है विभिन्न साहित्यों का एक-दूसरे के संबंध के साथ अध्ययन करना। कुछ विचारक तुलनात्मक साहित्य को अंतर्राष्ट्रीय साहत्य संबंधों के इतिहास के संदर्भ में विश्लेषित करते हैं। इस क्रम में वे तथ्य,संपर्क और आध्यात्मिक संबंधों का अध्ययन करते हैं। इस क्रम में हमें यह भी ध्यान रखना होगा किकि लेखक की जिंदगी और आकांक्षाएं अनेक साहित्यों से जुड़ी होती हैं। एक मुश्किल यह है कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ और ‘जनरल साहित्य’ में विभाजक रेखा खींचना मुश्किल है।
तुलनात्मक साहित्य के नजरिए से देखें तो संस्कृत,उर्दू और हिन्दी में कुछ चीजें साझा हैं। इन तीनों भाषाओं के साहित्य पर दरबारी संस्कृति और सभ्यता का गहरा असर है। इनमें संस्कृत और उर्दू पर दरबारी संस्कृति का ज्यादा असर है। हिन्दी पर कम असर है। हिन्दी में वीरगाथाकाल और रीतिकाल पर दरबारी संस्कृति का व्यापक असर देखा जा सकता है। इसके अलावा हिन्दी की मध्यकालीन कविता जन-जीवन से जुड़ी कविता है। इसमें राम-कृष्ण के आख्यान की आंधी चली है। राम-कृष्ण के बहाने दरबारी संस्कृति का विकल्प निर्मित किया गया। राजा के सामने सिर झुकाने से बेहतर भगवान के सामने सिर झुकाने का भाव है जो कि प्रतिवादी भाव है।
इसके विपरीत संस्कृत काव्य परंपरा में राजा को अपदस्थ नहीं किया जा सका। संस्कृत काव्य का बड़ा हिस्सा राजा केन्द्रित आख्यानों से भरा है। इसमें जनता के भावों और सुख-दुख के लिए कोई जगह नहीं है। इसमें पशु हैं,पक्षी हैं,उपदेश हैं.काव्यमानक हैं और सबसे बड़ी बात यह कि इसमें सामाजिक यथार्थ का प्रतिबिम्बन नहीं है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रेखांकित किया है संस्कृत कविता जीवन से कटी हुई है।जबकि हिन्दी कविता सामाजिक जीवन से जुड़ी है। संस्कृत कविता जन्म से नियमों से बंधी रही है। काव्य नियमों का यथोचित निर्वाह करना कवि का लक्ष्य रहा है। इसके विपरीत हिन्दी के जनकवियों ने कभी भी काव्य नियमों का पालन नहीं किया। काव्य निर्माण के उपकरणों को उन्होंने जन प्रचलित काव्य रूपों से ग्रहण किया।काव्य नियमों के प्रति हिन्दी के जनकवियों का उपेक्षाभाव वह प्रस्थान बिंदु है जहां से हमें प्रतिवादी काव्य के आरंभ को देखना चाहिए। नियमों की उपेक्षा से पैदा हुआ प्रतिवादी काव्यरूप अपने साथ राजतंत्र का विकल्प भी लेकर आया।रामाश्रयी-कृष्णाश्रयी, सगुण- निर्गुण काव्य परंपरा से उसने अंतर्वस्तु ली।इन कवियों ने क्या लिखा और किस नजरिए से लिखा इसका उनकी मंशा से गहरा संबंध है।
मूल सवाल है मध्यकालीन हिन्दी कवियों की मंशा का।कवि की मंशा का कविता के उपकरणों और काव्य क्षेत्र चयन के साथ गहरा संबंध है। मध्यकालीन जनकवियों ने राम-कृष्ण,सगुण-निर्गुण आदि व्यापक अभिव्यक्ति का क्षेत्र चुना।उसमें धारावाहिकता बनाए रखी।यह मूलतः उनके दरबारी संस्कृति के प्रति विरोधभाव की अभिव्यक्ति है। इस प्रतिवाद के केन्द्र में काव्य के रूप और अंतर्वस्तु दोनों हैं।
कवि की मंशा लक्ष्यीभूत श्रोता की प्रकृति के साथ नाभिनालबद्ध होती है। संस्कृत के कवि का लक्ष्यीभूत श्रोता और हिन्दी के जनकवियों का लक्ष्यीभूत श्रोता भिन्न है। यह भिन्न ही नहीं बल्कि इनके हितों में गहरा अंतर्विरोध है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो संस्कृत-हिन्दी कवियों के काव्यजगत में गहरी विचारधारात्मक टकराहट नजर आएगी। संस्कृत -हिन्दी के कवियों के सामाजिक सरोकारों में गहरा अंतर नजर आएगा। यही वजह है कि हिन्दी के मध्यकालीन जनकवि संस्कृत काव्य परंपरा से अपने को पूरी तरह अलग करते हैं।
संस्कृत कवि दरबार के लिए लिखता है। हिन्दी का जनकवि भक्त के लिए लिखता है, सबके लिए लिखता है। संस्कृत कवि अपनी निजता को सार्वजनिक नहीं करता इसके विपरीत हिन्दी कवि अपनी निजता को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करता है। संस्कृत कवि अपने निजी जीवन के दुखों को छिपाता है,हिन्दी कवि उन्हें सार्वजनिक करता है। व्यक्तिगत को सामाजिक बनाता है और व्यक्तिगत और सार्वजनिक के सामंतीभेद को नष्ट करते हुए व्यक्तिगत को सार्वजनिक बनाता है। यहां से वह सचेत रूप से आधुनिकभावबोध के लक्षणों की नींव ड़ालता है।
उल्लेखनीय है मध्यकालीन कवियों ने अपने सारे उपकरण व्यापारिक पूंजीवाद से लिए हैं। ये कवि नई उदीयमान सामाजिक शक्तियों कारीगर-दस्तकार और उदीयमान व्यापारीवर्ग के भावबोध से संसार को देखते हैं। उपेक्षित शूद्रों और स्त्रियों को समानता और अभिव्यक्ति का मंच देते हैं। उनके यहां सब कुछ पर्सनल है,व्यक्तिगत है। भक्ति का रूप भी व्यक्तिगत है। व्यक्तिगत सत्ता का ऐसा महाराग इसके पहले कभी नहीं सुना गया। व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति के बहाने राजतंत्र की समूची सत्ता और उसके सांस्कृतिकबोध और मूल्य संरचना को सर्जनात्मक चुनौती दी गयी।
तुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में अध्ययन की कई पद्धतियां प्रचलन में हैं। फ्रांसीसी तुलनाशास्त्री ‘प्रभाव’के अध्ययन पर जोर देते हैं। रेने वैलेक ने ‘कारण-प्रभाव’ को महत्ता दी है। हंगरी के तुलनाशास्त्री ‘स्रोत’ और ‘मौलिकता’ को महत्वपूर्ण मानते हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने राष्ट्रीय चरित्रों की पहचान स्थापित की।उल्लेखनीय है कि ‘प्रभाव’ का ‘ग्रहण’ के साथ संबंध है। फलतः ग्रहणकर्ता मूल्यांकन के केन्द्र में रहेगा। वेन तेघम और अन्य विचारकों ने ‘ग्रहण’ के सिद्धांत के अनुरूप ही अपने तुलनात्मक नजरिए का विकास किया।
साहित्य संप्रेषण और ग्रहण के सवालों पर सामयिक तुलनाशास्त्री विभिन्न दृष्टियों से विचार करते रहे हैं। हंगरी के तुलनाशास्त्रियों ने ‘स्रोत’ और ‘मौलिकता’ पर जब जोर दिया था तो उस समय हंगरी में 19वीं शताब्दी का समय था और संस्थानों के निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी।तुलनात्मक साहित्य के मूल्यांकन और सिद्धान्त की किताबों को गौर से देखें तो पाएंगे कि कुछ महत्वपूर्ण पदबंधों का प्रयोग मिलता है। जैसे, फार्चून,डिफ्यूजन,रेडिएशन आदि इन पदबंधों का पाठक पर पड़ने वाले प्रभाव के संदर्भ में धडल्ले से प्रयोग चल रहा है। जबकि ग्रहणकर्त्ता के संदर्भ में प्रतिक्रिया, क्रिटिक,ओपिनियन,रीडिंग,ओरिएण्टेशन आदि का खूब प्रयोग हो रहा है। पुनर्रूत्पादन के संदर्भ में फेस,रिफ्लेक्शन, मिरर, इमेज, रिजोनेंस,इको,म्यूटेशन आदि का प्रयोग मिलता है।
फ्रांस में ग्रहण सिद्धांत का विरोध करने वालों का भी एक गुट है जो विषयवस्तु केन्द्रित अध्ययन पर जोर देता है। इस क्षेत्र में मनोवैज्ञानिक और शैलीवैज्ञानिक आलोचना दृष्टियों का जमकर प्रयोग हुआ है। इसके दायरे में मिखाइल बाख्तिन के ‘इंटरटेक्चुअलिटी’ से लेकर वाक्य-विन्यास, रूपकों,वाक्य की बहुअर्थी संरचना और रूपवाद आदि सब कुछ शामिल हैं।फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों ने इमेज और इमेनोलॉजी में अंतर किया है और इमेज के अध्ययन पर जोर दिया है। इन विचारकों ने विचारों के इतिहास,मनोदशा, संवेदनशीलता और मूल्यों का भी अध्ययन किया है। ये लोग वैविध्य और उदारता के आधार पर मूल्यांकन करते हैं।फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों ने रूपवादी दृष्टिकोण का विरोध करते हुए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। उनके द्वारा किए गए अध्ययनों को चार भागों में बांट सकते हैं। 1.काल्पनिकता का अध्ययन, 2. किसी महान् विषयवस्तु का अध्ययन, 3. प्रतीकों का अध्ययन, 4. विषयवस्तु का अध्ययन।
फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों के यहां सामान्य साहित्य और तुलनात्मक साहित्य का अंतर साफ दिखाई देता है। इन लोगों ने रिप्सेशन थ्योरी को सामान्य साहित्य के क्षेत्र के बाहर रखा है। इसके अलावा पद्धति की समस्याओं को भी उठाया है। तुलनात्मक साहित्य की जटिलता और समृद्धि को रेखांकित किया है। उनके मूल्यांकन के केन्द्र में पाठ है। किंतु यह काम उन्होंने रूपवादी और संरचनावादियों से भिन्न रूप में किया है। वे हमेशा इमेजरी और ओपिनियन पर केन्द्रित होकर काम करते रहे हैं। विधाओं के इतिहास का पुनर्लेखन,काव्य की व्याख्या के लिए इंटरटेक्चुअलिटी या अन्तर्पाठीयता की धारणा , इतिहास और अंतर्वस्तु का प्रयोग करते रहे हैं। इस क्रम में उन्होंने पाठ का विकेन्द्रीकरण किया है।
उल्लेखनीय है फ्रांस में ‘लिटरेचर’ पदबध का अर्थ ‘साहित्यिक अध्ययन’ है। वाल्तेयर ने अपने अधूरे लेख ‘लिटरेचर’ में, जो उन्होंने दर्शनकोश के लिए लिखा था, उसमें उन्होंने साहित्य को ‘अभिरूचि का ज्ञान’ कहा था। 19वीं सदी में फ्रांस में ‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध का प्रयोग मिलता है। खासकर ए.एफ.विल्हमैन की पत्रिकाओं के इतिहास संबंधी पुस्तक में इस पदबंध का सुसंगत प्रयोग मिलता है। यह पुस्तक 1828 में छपी थी। इस पुस्तक में तुलनात्मक साहित्य की पद्धति का इस्तेमाल करते हुए आधुनिककाल के अनेक साहित्यरूपों का विश्लेषण किया गया है।
सामान्य साहित्य का आंदोलनों और साहित्यिक फैशनों के साथ संबंध है। जबकि तुलनात्मक साहित्य दो भाषाओं के साहित्य के आपसी संबंध से बंधा है। मसलन् संस्कृत की कविता और हिन्दी की कविता के किसी कालखण्ड को लेकर या दो लेखकों का अध्ययन किया जा सकता है। तुलनात्मक स्रोतों और प्रभावों का अध्ययन किया जा सकता है. तुलनात्मक कारणों और परिणामों का अध्ययन किया जा सकता है।
तुलनात्मक अध्ययन के दौरान किसी कृति को पूरी तरह अन्य भाषा के प्रभावों में घटाया नहीं जा सकता। या अन्य भाषा के प्रभाव को आलोकित करने वाले प्रधान बिंदु के रूप में नहीं देखा जा सकता।तुलनात्मक सहित्य और सामान्य साहित्य के बीच में बनाबटी जंगल खड़े करने से बचना चाहिए। साहित्यिक वैदुष्य और साहित्येतिहास का एक ही लक्ष्य है साहित्य का मूल्यांकन करना। हमें तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य के वर्गीकरण से बचना चाहिए। यदि इस वर्गीकरण को लागू करते हैं तो हम तुलनात्मक साहित्य को केवल दूसरी श्रेणी के लेखकों ,अनुवादों, यात्रा-पुस्तकों,मध्यस्थ के संबंधों तक सीमित कर देंगे। तुलनात्मक साहित्य को एक छोटे अनुशासन में सीमित कर देंगे।
वेन तेघम के अनुसार तुलनात्मक साहित्य को राष्ट्रीय साहित्यों से अलगाने की जरूरत है। तुलनात्मक साहित्य का संबंध उन मिथकों और गाथाओं से है जो कवियों के चारों ओर हैं और इनका गौण और लघु लेखकों से संबध है। वेन तेघम और उनके अनुयायी साहित्यिक अध्ययन के बारे में 19वीं सदी के प्रत्यक्षवादी तथ्यवाद की शब्दावली में सोचते थे। ये लोग स्रोतों और प्रभावों का अध्ययन करते थे। साहित्य की सरसरी व्याख्या करते थे। सरसरी व्याख्या के लिए मूलभाव,विषयवस्तु, चरित्र, स्थितियां, कथानक ,कालक्रम आदि का इस्तेमाल करते थे। इन्होंने अपने यहां समानान्तरों, समानताओं और अस्मिताओं के अम्बार को एकत्रित कर रखा है।तुलनात्मक साहित्य या सामान्य साहित्य पर विचार करते हुए ध्यान रहे कि कोई भी रचना,स्रोतों और प्रभावों का जोड़ नहीं होती।वह पूर्ण होती है। उसमें कच्ची सामग्री कहीं से भी ली जा सकती है। कच्ची सामग्री निर्जीव नहीं होती। वह नई संरचनाओं में आसानी से रूपान्तरित हो जाती है।
सरसरी व्याख्या कहीं नहीं ले जाती और साहित्य में कार्य-कारण संबंध स्थापित करने में सफल नहीं होती। यदि कृति और कृतिकार को तुलनात्मक मूल्यांकन करने के चक्कर में स्रोतों और प्रभावों में रिड्यूज कर दिया जाता है तो इससे कृति और कृतिकार की समग्र अर्थवत्ता को ठेस लगती है। जो कृतियां पूर्ण होती हैं उनके अलगाव के कारण कृति में नहीं होते।तुलनात्मक साहित्य के उदय का प्रधान कारण था राष्ट्रवाद का निषेध करना। साहित्य की आधुनिक धारणा के उदय के साथ साहित्य में राष्ट्रवाद का जयघोष होने लगा। जातीय साहित्य की धारणा पर जोर देने के बहाने साहित्य में राष्ट्रवाद के एजेण्डे को प्रतिष्ठित किया गया।
हिन्दी में जातीय साहित्य की बहस के केन्द्र में मूलतः राष्ट्रवाद को ही प्रतिष्ठित करने का लक्ष्य है। साहित्य का आधुनिक धारणा के आलोक में मूल्यांकन करने के बजाय जातीय साहित्य की धारणा के आलोक में रामविलास शर्मा और अन्य के द्वारा जो गट्ठर भरकर लेखन हुआ है उसने राष्ट्रवाद को साहित्य में पुख्ता किया है। साहित्य में राष्ट्रवाद की प्रतिष्ठा का हिन्दी में खास अर्थ है प्रतिक्रियावादी राजनीतिक चेतना की हिन्दी विभागों में प्रतिष्ठा। इससे हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति हुई है।
राष्ट्रवाद एक तरह का अलगाव भी है। यह समूचे समाज और साहित्य से अलगाव है। अलगाव और राष्ट्रवाद को तुलनासाहित्य शास्त्रियों ने फ्रेंच,जर्मन,अंग्रेजी साहित्य में चुनौती दी। तुलनाशास्त्रियों ने साहित्य में प्रचलित विषयवस्तु और पद्धति विज्ञान के बनावटी विभाजन को अस्वीकार किया। स्रोतों और प्रभावों की यांत्रिक धारणा का निषेध किया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या राष्ट्रवाद का विरोध किया। मेरे कहने का यह आशय नहीं है कि तुलनाशास्त्री देशभक्त नहीं थे। वे देशभक्त थे लेकिन साहित्य को राष्ट्रवाद के साथ नत्थी करना नहीं चाहते थे।
तुलनाशास्त्री विलक्षण किस्म के हिसाबी लोग हैं। तुलना करते हुए और अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करते हुए तुलनात्मक साहित्य को सांस्कृतिक बही-खाते के रूप में इस्तेमाल करते हैं। वे मूल्यांकन के जरिए बताते हैं कि कैसे उनके देश ने दूसरे देश पर प्रभाव ड़ाला या उनकी भाषा ने अन्य भाषा के साहित्य को प्रभावित किया,इस तरह वे अपने देश के सांस्कृतिक बही-खाते को बढ़ाने का काम करते हैं। इसके जरिए वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनके देश ने दूसरे देशों पर यथासंभव प्रभाव ड़ाला। वे बारीकी से यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनके देश ने किसी विदेशी साहित्यकार को किसी अन्य देश की तुलना में अधिक आत्मसात किया और समझा है। हिन्दी में यह बीमारी सहज ही छायावादी कवियों के साथ रवीन्द्ननाथ टैगौर के साथ तुलना के संदर्भ में देख सकते हैं।
तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य के बीच विभाजन करने की पद्धति से हमें बचना चाहिए। यह विभाजन बनावटी है। आज तुलनात्मक साहित्य एक स्वतंत्र अनुशासन है। इसका लक्ष्य है राष्ट्रीय सीमाओं के परे जाकर साहित्य का अध्ययन करना।सच्चा साहित्यिक आलोचक वह है साहित्य को मृत तथ्यों का जखीरा होने से बचाता है। मृत तथ्यों की स्थापना करना पाण्डित्य नहीं है। आलोचक वह है जो साहित्य के मूल्यों और गुणों का उद्घाटन करता है।साहित्यिक इतिहास और आलोचना में कोई अंतर नहीं है। साहित्यिक इतिहास की सरलतम समस्या को बताने के लिए मूल्यांकन आवश्यक है। किसी लेखक ने किसी अन्य लेखक को प्रभावित किया इसके लिए लेखक की विशिष्टताओं का ज्ञान आवश्यक है। इसलिए उनकी परंपराओं के संदर्भ का ज्ञान और निरंतर तोलने,तुलना करने,विश्लेषण करने और अलगाने की क्रिया आवश्यक है। यह सारा कार्य-व्यापार आलोचनात्मक है।
आलोचना के बिना इतिहास नहीं लिखा जा सकता। इतिहास लिखते समय चयन, चरित्र- चित्रण और मूल्यांकन की जरूरत पड़ती है। इन तीनों तत्वों के बिना कोई भी इतिहास नहीं लिखा जा सकता। जो साहित्यिक इतिहासकार आलोचना की महत्ता को अस्वीकार करते हैं उन्हें अचेत आलोचक कहना समीचीन होगा।तुलनात्मक साहित्य ने इतिहास और आलोचना को अस्वीकार किया है। अपने को तथ्यात्मक संबंधों, स्रोतों,प्रभावों,मध्यस्थों और ख्यातियों तक सीमित रखा है। हमें इस तरह के नजरिए से बचना चाहिए।
साहित्य में विधाओं का एक-दूसरे से बैर नहीं है। हमें एक-दूसरे को अपदस्थ करने की कोशिशों से बचना चाहिए। बहुत सारे काम हैं जो इतिहास करता है, अनेक ऐसे काम हैं जो इतिहास से संभव नहीं हैं उन्हें आलोचना करती है, आलोचना और इतिहास से जो काम नहीं हो पाते उन्हें तुलनात्मक साहित्य के जरिए किया जा सकता है।अभिव्यक्ति और मूल्यांकन के अभावों की पूर्ति नयी विधाएं और संचार रूप करते हैं। एक रूप जब जन्म ले लेता है तो वह जाता नहीं है। अभी तक इतिहासकार और आलोचक की दिलचस्पी जिन बातों में थी,तुलनात्मक साहित्य उसके परे जाता है। इतिहासकार की दिलचस्पी इतिहास और साहित्य की सामाजिकता में थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने यह कार्य बेहतर ढ़ंग से किया। आलोचना की दिलचस्पी मूल्य की खोज में रही है। इन दोनों से भिन्न तुलनात्मक साहित्य की दिलचस्पी सामान्य सांस्कृतिक इतिहास में होती है। इसे वह समस्त मानवता के इतिहास के रूप में पेश करता है।