बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

मैं और मेरा स्वभाव-

         मेरी मुसीबत यह है कि मैं अपने स्वभाव का दास हूं,यह स्वभाव मुझे विरासत से नहीं मिला बल्कि यह मैंने सचेत रूप से अर्जित किया है।विरासत से जो चीजें स्वभाव में मिलीं वे बहुत ही पीडादायक थीं,अहंकार से भरी थीं,पुराने मूल्यों के बोझ से दबी हुई थीं,मेरी प्रकृति पुराने मूल्यों में जीने की नहीं है.पुराना मुझे एकदम पसंद नहीं है लेकिन दूसरों का मन रखने के लिए मैं अनेकबार पुराने को मान लेता हूं, लेकिन पुराना मेरे स्वभाव से गायब हो चुका है।

जीने के लिए न्यूनतम चीजें चाहिए और वे ही चीजें जुगाड़ करके मैं रखता हूं। मेरे पास कोई संपत्ति नहीं, कोई वैभव नहीं और न यश -मान-प्रतिष्ठा पाने की मन में कोई कामना है। यश-मान-प्रतिष्ठा-पद-गरिमा आदि अंतत: मुश्किलों में फँसा देते हैं। आए दिन प्रियजनों के उलाहने सुनता हूं कि यह नहीं किया वह नहीं किया, उसने तुमको सताया ,इसने तुमको सताया ,उन सबको करारा जवाब नहीं दिया, देखो वह कितना बडा आदमी बन गया और तुम वहीं के वहीं हो,तुम्हारे पास क्या है ?

मैं हकीकत में कुछ न कर पाना , संपत्ति न जोड़ पाना, यश की पगडंडियाँ न बना पाना अपनी असफलता मानता हूं।लेकिन अपने स्वभाव का दास हूं मुझे ये चीजें पसंद नहीं हैं, ये चीजें मुझे प्रभावित भी नहीं करतीं।यहां तक कि मेरे मन में कभी एक घर बनाने या ख़रीदने का कभी सपना तक नहीं आया , इसलिए कभी जीवन में कोई कर्ज किसी से नहीं लिया।जो मिल गया जैसा मिल गया उसके साथ एडजस्ट कर लिया।जीवन में एक ही सपना था विश्वविद्यालय शिक्षक बनूँ और नए नए विषयों पर लिखूँ और पढ़ूँ।ये दोनों चीजें हासिल करने में ही अब तक की सारी उम्र कट गयी।

अमूमन लोग संचय करने को ही जीवन का लक्ष्य मानकर चलतेहैं लेकिन मैं उलटा सोचता हूं।जीवन में सृष्टि करना चाहते हो तो संचय नहीं विसर्जित करने की आदत डालो।विसर्जन करने में कोई दायित्व नहीं होता , लाचारी नहीं होती।जैसाकि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है " हमारा आनंद,हमारा प्रेम,अकारण ही आत्म विसर्जन में अपने को चरितार्थ करता है।" "आत्मा भी लेने में खुश नहीं होती है, वह देने में खुश होती है।"

मेरी हमेशा से "क्षुदित अहं" वाले भावबोध से जंग रही है।जो लोग इस भाव में रहते हैं वे कंगाल की तरह सब कुछ अपनी मुट्ठी में भर लेना चाहते हैं।जो लेने के मतलब के अलावा कुछ देता नहीं है, वह फल पाने के अलावा और कुछ करता नहीं है।मैंने सचेत रुप से इस अहं से लडाई की है और यह अभी भी जारी है।



सवाल यह है जीवन को अहं से संचालित करना चाहते हैं या आत्मा के जरिए ? अहं बनाम आत्मा के संघर्ष में दाखिल होने से हम बचते रहे हैं जबकि होना चाहिए उलटा।टैगोर के अनुसार "अहं का स्वभाव है भीतर की ओर खींचना और आत्मा का स्वभाव है बाहर की तरफ देना।" इन दोनों में मेल बिठाना संभव नहीं है, तय करें हमें अहं से प्रेम है या आत्मा से!मुझे तो आत्मा से प्रेम है।

सहज जीवन जीना क्यों जरूरी है


       सामान्यतः यह माना जाता है कि मनुष्य सहज प्राणी है।लेकिन आचरण में यह चीज बहुत कम नजर आती है।हम यदि अपने पुराण-उपनिषद आदि को देखें तोवहां सहज जीवन और सहज स्वभाव का आधिक्य मिलेगा।सहज स्वभाव हमारे धर्म की आत्मा है।यह ऐसी आत्मा है जिसे वस्तुओं के प्रेम,आडम्बर, यश की कामना,सामाजिक हैसियत आदि अर्जित नहीं कर सकते।यह प्रदर्शन की चीज नहीं है।सहज जीना,स्वस्थ सामाजिक विकास का लक्षण है।यदि हमारा जीवन असहज हो रहा है,जटिल बन रहा है तो इसका प्रधान कारण है हमारे जीवन की अवस्था के साथ जीवन का अंतर्विरोध।हम सामाजिक अंतर्विरोधों पर बातें करते समय राजनीतिक—आर्थिक अंतर्विरोधों पर बहुत ध्यान देते हैं लेकिन जीवन और समाज के बीच बन रहे अंतर्विरोध,सरल और जटिल जीवन के बीच पैदा हो रहे अंतर्विरोध की आमतौर पर चर्चा नहीं करते।इससे हमारी समूची जीवनशैली सुखकी बजाय दुख देने लगी है।महात्मा बुद्ध,ईसा मसीह,महात्मा गांधी के जीवन को महान बनाने में उनकी सहज क्रियाओं और सहज-सरल मन की निर्णायक भूमिका थी।सहजता कोई फालतू तत्व नहीं है।वह कोई संयासियों और मूर्खों की चीज नहीं है।सरल को हम आमतौर पर मूर्ख मानकर चलते हैं।बोलते भी बड़े सरल हैं,मूर्ख भी हैं,चीजें समझते नहीं हैं।चालाकी,धूर्तता,तिकड़म आदि की इसकी तुलना में मूल्यवान समझते हैं।जो चालाक है-चतुर है वह दुनियादार है,उसकी आए दिन सफलताओं की चर्चा करते नहीं अघाते।

हमारे उपनिषद का सुंदर कथन है ´स्वाभाविकी ज्ञानवल क्रिया च।´यानी उस एक की ही ज्ञान क्रिया और बल क्रिया स्वाभाविक है।यानी हमारी इच्छा का मंगल-इच्छा से जब सामंजस्य हो जाता है तो सारी क्रियाएं सहज हो जाती हैं।उसके बाद अहंकार हमें धकेलता नहीं है। सामाजिक गुटबंदी,यश की कामना,किसी तरह का उत्पीड़न आदि हमारी इच्छाओं को धकेलता नहीं है। सामाजिक विकास के क्रम में हमारी इच्छाएं प्रबल होती गयी है लेकिन मंगल-इच्छा के साथ निजी इच्छाओं के सामंजस्य को हम भूल गए,फलतःहमारे जीवन में जटिलताओं ने जन्म ले लिया है।मसलन् ,हमारी इच्छा है कि दीपावली पर पटाखे चलाएं लेकिन इसका सामाजिक मंगल के साथ टकराव है,इसे हम अनदेखी कर रहे हैं।व्यक्ति की निजी इच्छा और सामाजिक मंगलइच्छा इन दोनों के बीच में सामंजस्य से ही ज्ञानबल और क्रियाबल की अभिव्यक्ति होती है। जो आदेश हमारी निजी इच्छा को सामाजिक मंगल की इच्छा से जोड़ते हैं वे हमें इन दिनों अच्छे नहीं लगते।

हम ज्ञान में पिछड़े क्यों क्योंकि हम स्वाभाविक नहीं रहे,सरल नहीं रहे।हमारे यहां सब कुछ जटिल है,तामझाम से युक्त है।मंगल इच्छा से संचालित नहीं है। कुछ साल पहले की घटना है इटली के प्रधान मार्क्सवादी और विश्व के जीवित सबसे बड़े बुद्धिजीवी उम्ब्रेतो इको दिल्ली आए थे,उनकी सादगी ,सरलता और सज्जनता देखने लायक थी।मैं कोलकता से चलकर उनके दिल्ली व्याख्यान को सुनने आया था।उनका जेएनयू में भी कार्यक्रम था, उन्होंने जेएनयू में ´टेस्ट´या ´अभिरूचि´ के सवाल पर बहुत सुंदर व्याख्यान दिया ,इसके लिए उन्होंने भरत के रस सिद्धांत को आधार बनाया था और अभिनव गुप्त-आनंदवर्द्धन की मदद ली।दिलचस्प बात यह थी कि इको कार्यक्रम शुरू होने के समय आ चुके थे,लेकिन बाहर कहीं बैठकर कॉफी पी रहे थे किसी ने उनसे कहा कि लोग सुनने आ गए हैं वे तुरंत कॉफी लेकर हॉल में चले आए और कॉफी का कप हाथ में लिए मंच पर चढ़ने वाली चीढ़ियों पर सहज भाव से बैठ गए और आराम से उन्होंने पहले कॉफी पी। उनकी इस सहजता को देखकर सभी लोग मंत्रमुग्ध थे।दिलचस्प बात थी कि हॉल में उपस्थिति अधिकांश अंग्रेजीदां लोग भरत-आनंदवर्द्धन-अभिनवगुप्त आदि के नाम तक से अपरिचित थे,अनेक फैकल्टी मेम्बर एक-दूसरे से पूछ रहे थे कि आनंदवर्द्धन कौन हैं,अभिनव गुप्त कौन हैं ॽ पहलीबार मुझे बड़ा झटका लगा कि जिस जेएनयू पर हम गर्व करते हैं वहां अनेक ऐसे भी विद्वान हैं जो आनंदवर्द्धन के नाम तक को नहीं जानते।





मंत्र यानी बांधने का उपाय-

      मेरा जब जनेऊ हुआ तो उस समय मेरी उम्र 7साल की थी,पिता ने बड़े जतन के साथ वैदिक रीति से हम सब भाईयों का जनेऊ कराया। साथ में दो और भाईयों का जनेऊ हुआ। स्व.कामेश्वर नाथ चतुर्वेदी,श्रीजी मंदिर –यमुनाजी धर्मराज मंदिर वाले मेरे दीक्षागुरू बने, उन्होंने ही मंत्र दीक्षा दी,पहले गायत्री मंत्र की दीक्षा दी,साथ में बाला और भुवनेश्वरी के मंत्रों की दीक्षा दी,पिता के पास पहले से ही महात्रिपुरसुंदरी यंत्र थे।यानी बचपन से तीन देवियों गायत्री,बाला और भुवनेश्वरी की उपासना पद्धतियां जीवन में शामिल हो गयीं।बचपन के तकरीबन 12साल सघन आराधना-उपासना में बीते।मैं सुबह 4बजे उठता था,उठकर पढ़ता था, आधा गिलास चाय माँ बनाकर 4बजे ही दे देती थी।सात साल की उम्र से लेकर 12 साल की उम्र तक तो सुबह उठकर संध्या आदि करने के अलावा समूची तांत्रिक पद्धति से पूजा उपासना में पाँच-छह घंटे खर्च करता था। घर में ही पूजा की बढ़िया व्यवस्था थी।बाद में 11 साल की उम्र से माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय पढ़ने जाने लगा तो दैनंदिन जीवन में बदलाव आया।पूजा के घंटे कम हो गए,पढाई के घंटे बढ़ गए। इनमें सुबह का पढ़ना शामिल हो गया,पहले सुबह उठकर कम पढ़ता था, पूजा-उपासना में मन ज्यादा लगाता था।

मेरा घर यमुना के किनारे है और यमुना के उस पार एक बगीची खरीदी गयी उसका एकमात्र मकसद ही यही था कि पूजा के लिए फूलों को लाना।मेरी पूजा में तकरीबन डेढ़ दो किलो फूल लगते थे।इतने फूल रोज खरीदना संभव नहीं था। यह बगीची आज भी है,दुर्वासा ऋषि के आश्रम के पास ही ईसापुर ग्राम में, वहां भी पिता ने एक मंदिर बनवाया था, मैं सुबह ही सुबह पांच बजे के करीब रोज पिता के साथ वहां नाव में बैठकर निकल जाता और वहां घंटों रहता,नहाना-धोना-पूजा-भजन आदि करना,नाश्ता के तौर पर वहीं पर फल आदि तोड़कर खाना,यह दैनिक क्रिया तकरीबन 7-8 साल चली। दिलचस्प बात यह है कि मैंने जितना भजन-पूजन किया मेरे जीवन के दुख कम नहीं हुए।इससे एक बात बचपन में ही समझ में आ गयी कि भजन-पूजन-ईश्वरोपासना का दुख दूर करने से कोई संबंध नहीं है। हकीकत यह थी कि जितना भजन मैंने किया शायद मेरे साथ के किसी मित्र ने नहीं किया।जितनी पूजा मैंने की,उतनी किसी ने नहीं की।सब कुछ मंत्रबद्ध,सही पद्धति के साथ बेहतरीन गुरूओं के निर्देश में किया।इस मामले मैं मेरे असल गुरू तो पिताजी ही थे,वे तंत्र के पारंगत विद्वान हैं,वेदों का उन्होंने गंभीरता से अध्ययन किया है। दीक्षागुरू कामेश्वरनाथ जी निजी तौर पर बेहतरीन इंसान थे, हमें बेहद प्यार करते थे। इस वाकया को बताने के दो प्रधान कारण हैं ,पहला, निजी जीवन की तलाश,दूसरा,मंत्र के साथ अपने संबंध की नए सिरे से खोज।मंत्र जप मुझे आज भी प्रिय है,मैं मंत्र जप करता हूँ।आमतौर पर अजपा-जप करता हूँ।यानी मन ही मन मंत्र जप चलता रहता है।

मंत्र का एक रूप वह है जिसे पूजा-उपासना के संदर्भ में हमलोग जानते और मानते हैं लेकिन मंत्र का एक दूसरा बड़ा अर्थ भी जिसे आमतौर पर लोग नहीं जानते।मंत्र जप के संदर्भ में पहली बात यह कि मंत्र जप से मनोकामना कभी पूरी नहीं होती,मंत्र जप से सिद्धियां प्राप्त नहीं होतीं,ये सब बातें पाखंडियों की रची गयी हैं।मंत्र का प्रयोजनमूलक उद्देश्य पाखंडियों की सृष्टि है।मंत्र तो असल में जीवन को बाँधने का उपाय है।आप अपने जीवन को किस तरह के तारों से बाँधना चाहते हैं यह मंत्र से तय होता रहा है।मंत्र यानी जीवन बाँधने की कला।मंत्र को यदि जीवन जीने की कला के रूप में लें और देखें तो हमारे धर्म के अनेक संकट और व्याधियां खत्म हो जाएं।अनेक पाखंड खत्म हो जाएं।मंत्र का मतलब पाखंड से किसने जोड़ा हमें नहीं मालूम, लेकिन यही सच्चाई है कि मंत्र आज पाखंड का अंग है।जीवन जीने के अनेक रूप हैं उनमें से आपको चुनना होगा कि कैसे जिओगे,मंत्र असल में जीने के मार्ग को बांधने, नियोजित करने,संगठित,अनुशासित होकर जीने की कला है।

जीवन आज सबसे ज्यादा बिखरा हुआ है, भयानक अराजकता है, जीवनशैली के रूपों में अराजकता है , हमारे पास जीवनशैली को बांधने,संगठित करने का कोई उपाय नहीं है, पुराने जमाने में मंत्र का आविष्कार असल में जीवन बाँधने की कला के रूप में हुआ ,उसके हजारों-लाखों रूप हमें परंपरा में मिलते हैं, लाखों मंत्र मिलते हैं।जीवन जीने के लिए मंत्र जरूरी है,मंत्र के बिना जीवनशैली के अव्यवस्थित और अराजक हो जाने के चांस ज्यादा हैं।मंत्र का दूसरा पहलू है उदात्तता।मंत्र हमें क्षुत्रताओं से परे ले जाता है, निहित-स्वार्थों से परे ले जाता है।

रवीन्द्र नाथ टैगोर ने सही लिखा है ´मंत्र नामक वस्तु जीवन बाँधने का एक उपाय है।मंत्र का सहारा लेकर हम चिंतन के विषय को मन के साथ बाँधे रहते हैं।यह मानो वीणा की खूँटी,उसके कान की तरह है।तार को ऐंठ कर बाँधे रखने का साधन,वह तार को खुलकर अलग नहीं होने देता,उसे कस कर बाँधे रखता है।विवाह के समय स्त्री-पुरूष के वस्त्रों को गाँठ लगाकर बाँध दिया जाता है।इसके साथ मंत्र पढ़ दिए जाते हैं,वे मंत्र मन में ग्रंथि-बंधन करते रहते हैं।ईश्वर के साथ हमारे ग्रंथि-बंधन की जो जरूरत है,मंत्र उसमें सहायता करता है। इस मंत्र के सहारे हम उनके साथ अपना कोई एक संबंध पक्का कर लेंगे। वैसा एक मंत्र है पिता नोsसि।आप मेरे पिता है।मंत्र के इस सुर में अपने जीवन को बाँध लेने पर सारी चिन्ताओं,सारे कर्मों में एक विशेष रागिनी झंकृत हो उठेगी।मैं उनका पुत्र हूँ यही उक्ति साकार होकर हमारे सारे कार्य कलापों में प्रकाशित होने लगेगी कि मैं उनका पुत्र हूं।´

कहने का आशय यह कि मंत्र के मर्म को हम भूल गए और उसे हमने व्यवहारवाद,अवसरवाद, फल प्राप्ति के उपायों का सहारा बना दिया।मैं भी कभी-कभी किसी के मन संतोष के लिए उपाय के तौर पर मंत्र सुझा देता हूँ लेकिन सच यही है कि मंत्र उपाय नहीं है बल्कि मंत्र जीवन को बाँधने की कला है।संगठित नियमित जीवन जीना है तो मंत्र से सीखो।किसी अन्य से नहीं।







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