मेरा जब जनेऊ हुआ तो उस समय मेरी उम्र 7साल की थी,पिता ने बड़े जतन के साथ वैदिक रीति से हम सब भाईयों का जनेऊ कराया। साथ में दो और भाईयों का जनेऊ हुआ। स्व.कामेश्वर नाथ चतुर्वेदी,श्रीजी मंदिर –यमुनाजी धर्मराज मंदिर वाले मेरे दीक्षागुरू बने, उन्होंने ही मंत्र दीक्षा दी,पहले गायत्री मंत्र की दीक्षा दी,साथ में बाला और भुवनेश्वरी के मंत्रों की दीक्षा दी,पिता के पास पहले से ही महात्रिपुरसुंदरी यंत्र थे।यानी बचपन से तीन देवियों गायत्री,बाला और भुवनेश्वरी की उपासना पद्धतियां जीवन में शामिल हो गयीं।बचपन के तकरीबन 12साल सघन आराधना-उपासना में बीते।मैं सुबह 4बजे उठता था,उठकर पढ़ता था, आधा गिलास चाय माँ बनाकर 4बजे ही दे देती थी।सात साल की उम्र से लेकर 12 साल की उम्र तक तो सुबह उठकर संध्या आदि करने के अलावा समूची तांत्रिक पद्धति से पूजा उपासना में पाँच-छह घंटे खर्च करता था। घर में ही पूजा की बढ़िया व्यवस्था थी।बाद में 11 साल की उम्र से माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय पढ़ने जाने लगा तो दैनंदिन जीवन में बदलाव आया।पूजा के घंटे कम हो गए,पढाई के घंटे बढ़ गए। इनमें सुबह का पढ़ना शामिल हो गया,पहले सुबह उठकर कम पढ़ता था, पूजा-उपासना में मन ज्यादा लगाता था।
मेरा घर यमुना के किनारे है और यमुना के उस पार एक बगीची खरीदी गयी उसका एकमात्र मकसद ही यही था कि पूजा के लिए फूलों को लाना।मेरी पूजा में तकरीबन डेढ़ दो किलो फूल लगते थे।इतने फूल रोज खरीदना संभव नहीं था। यह बगीची आज भी है,दुर्वासा ऋषि के आश्रम के पास ही ईसापुर ग्राम में, वहां भी पिता ने एक मंदिर बनवाया था, मैं सुबह ही सुबह पांच बजे के करीब रोज पिता के साथ वहां नाव में बैठकर निकल जाता और वहां घंटों रहता,नहाना-धोना-पूजा-भजन आदि करना,नाश्ता के तौर पर वहीं पर फल आदि तोड़कर खाना,यह दैनिक क्रिया तकरीबन 7-8 साल चली। दिलचस्प बात यह है कि मैंने जितना भजन-पूजन किया मेरे जीवन के दुख कम नहीं हुए।इससे एक बात बचपन में ही समझ में आ गयी कि भजन-पूजन-ईश्वरोपासना का दुख दूर करने से कोई संबंध नहीं है। हकीकत यह थी कि जितना भजन मैंने किया शायद मेरे साथ के किसी मित्र ने नहीं किया।जितनी पूजा मैंने की,उतनी किसी ने नहीं की।सब कुछ मंत्रबद्ध,सही पद्धति के साथ बेहतरीन गुरूओं के निर्देश में किया।इस मामले मैं मेरे असल गुरू तो पिताजी ही थे,वे तंत्र के पारंगत विद्वान हैं,वेदों का उन्होंने गंभीरता से अध्ययन किया है। दीक्षागुरू कामेश्वरनाथ जी निजी तौर पर बेहतरीन इंसान थे, हमें बेहद प्यार करते थे। इस वाकया को बताने के दो प्रधान कारण हैं ,पहला, निजी जीवन की तलाश,दूसरा,मंत्र के साथ अपने संबंध की नए सिरे से खोज।मंत्र जप मुझे आज भी प्रिय है,मैं मंत्र जप करता हूँ।आमतौर पर अजपा-जप करता हूँ।यानी मन ही मन मंत्र जप चलता रहता है।
मंत्र का एक रूप वह है जिसे पूजा-उपासना के संदर्भ में हमलोग जानते और मानते हैं लेकिन मंत्र का एक दूसरा बड़ा अर्थ भी जिसे आमतौर पर लोग नहीं जानते।मंत्र जप के संदर्भ में पहली बात यह कि मंत्र जप से मनोकामना कभी पूरी नहीं होती,मंत्र जप से सिद्धियां प्राप्त नहीं होतीं,ये सब बातें पाखंडियों की रची गयी हैं।मंत्र का प्रयोजनमूलक उद्देश्य पाखंडियों की सृष्टि है।मंत्र तो असल में जीवन को बाँधने का उपाय है।आप अपने जीवन को किस तरह के तारों से बाँधना चाहते हैं यह मंत्र से तय होता रहा है।मंत्र यानी जीवन बाँधने की कला।मंत्र को यदि जीवन जीने की कला के रूप में लें और देखें तो हमारे धर्म के अनेक संकट और व्याधियां खत्म हो जाएं।अनेक पाखंड खत्म हो जाएं।मंत्र का मतलब पाखंड से किसने जोड़ा हमें नहीं मालूम, लेकिन यही सच्चाई है कि मंत्र आज पाखंड का अंग है।जीवन जीने के अनेक रूप हैं उनमें से आपको चुनना होगा कि कैसे जिओगे,मंत्र असल में जीने के मार्ग को बांधने, नियोजित करने,संगठित,अनुशासित होकर जीने की कला है।
जीवन आज सबसे ज्यादा बिखरा हुआ है, भयानक अराजकता है, जीवनशैली के रूपों में अराजकता है , हमारे पास जीवनशैली को बांधने,संगठित करने का कोई उपाय नहीं है, पुराने जमाने में मंत्र का आविष्कार असल में जीवन बाँधने की कला के रूप में हुआ ,उसके हजारों-लाखों रूप हमें परंपरा में मिलते हैं, लाखों मंत्र मिलते हैं।जीवन जीने के लिए मंत्र जरूरी है,मंत्र के बिना जीवनशैली के अव्यवस्थित और अराजक हो जाने के चांस ज्यादा हैं।मंत्र का दूसरा पहलू है उदात्तता।मंत्र हमें क्षुत्रताओं से परे ले जाता है, निहित-स्वार्थों से परे ले जाता है।
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने सही लिखा है ´मंत्र नामक वस्तु जीवन बाँधने का एक उपाय है।मंत्र का सहारा लेकर हम चिंतन के विषय को मन के साथ बाँधे रहते हैं।यह मानो वीणा की खूँटी,उसके कान की तरह है।तार को ऐंठ कर बाँधे रखने का साधन,वह तार को खुलकर अलग नहीं होने देता,उसे कस कर बाँधे रखता है।विवाह के समय स्त्री-पुरूष के वस्त्रों को गाँठ लगाकर बाँध दिया जाता है।इसके साथ मंत्र पढ़ दिए जाते हैं,वे मंत्र मन में ग्रंथि-बंधन करते रहते हैं।ईश्वर के साथ हमारे ग्रंथि-बंधन की जो जरूरत है,मंत्र उसमें सहायता करता है। इस मंत्र के सहारे हम उनके साथ अपना कोई एक संबंध पक्का कर लेंगे। वैसा एक मंत्र है पिता नोsसि।आप मेरे पिता है।मंत्र के इस सुर में अपने जीवन को बाँध लेने पर सारी चिन्ताओं,सारे कर्मों में एक विशेष रागिनी झंकृत हो उठेगी।मैं उनका पुत्र हूँ यही उक्ति साकार होकर हमारे सारे कार्य कलापों में प्रकाशित होने लगेगी कि मैं उनका पुत्र हूं।´
कहने का आशय यह कि मंत्र के मर्म को हम भूल गए और उसे हमने व्यवहारवाद,अवसरवाद, फल प्राप्ति के उपायों का सहारा बना दिया।मैं भी कभी-कभी किसी के मन संतोष के लिए उपाय के तौर पर मंत्र सुझा देता हूँ लेकिन सच यही है कि मंत्र उपाय नहीं है बल्कि मंत्र जीवन को बाँधने की कला है।संगठित नियमित जीवन जीना है तो मंत्र से सीखो।किसी अन्य से नहीं।
मेरा घर यमुना के किनारे है और यमुना के उस पार एक बगीची खरीदी गयी उसका एकमात्र मकसद ही यही था कि पूजा के लिए फूलों को लाना।मेरी पूजा में तकरीबन डेढ़ दो किलो फूल लगते थे।इतने फूल रोज खरीदना संभव नहीं था। यह बगीची आज भी है,दुर्वासा ऋषि के आश्रम के पास ही ईसापुर ग्राम में, वहां भी पिता ने एक मंदिर बनवाया था, मैं सुबह ही सुबह पांच बजे के करीब रोज पिता के साथ वहां नाव में बैठकर निकल जाता और वहां घंटों रहता,नहाना-धोना-पूजा-भजन आदि करना,नाश्ता के तौर पर वहीं पर फल आदि तोड़कर खाना,यह दैनिक क्रिया तकरीबन 7-8 साल चली। दिलचस्प बात यह है कि मैंने जितना भजन-पूजन किया मेरे जीवन के दुख कम नहीं हुए।इससे एक बात बचपन में ही समझ में आ गयी कि भजन-पूजन-ईश्वरोपासना का दुख दूर करने से कोई संबंध नहीं है। हकीकत यह थी कि जितना भजन मैंने किया शायद मेरे साथ के किसी मित्र ने नहीं किया।जितनी पूजा मैंने की,उतनी किसी ने नहीं की।सब कुछ मंत्रबद्ध,सही पद्धति के साथ बेहतरीन गुरूओं के निर्देश में किया।इस मामले मैं मेरे असल गुरू तो पिताजी ही थे,वे तंत्र के पारंगत विद्वान हैं,वेदों का उन्होंने गंभीरता से अध्ययन किया है। दीक्षागुरू कामेश्वरनाथ जी निजी तौर पर बेहतरीन इंसान थे, हमें बेहद प्यार करते थे। इस वाकया को बताने के दो प्रधान कारण हैं ,पहला, निजी जीवन की तलाश,दूसरा,मंत्र के साथ अपने संबंध की नए सिरे से खोज।मंत्र जप मुझे आज भी प्रिय है,मैं मंत्र जप करता हूँ।आमतौर पर अजपा-जप करता हूँ।यानी मन ही मन मंत्र जप चलता रहता है।
मंत्र का एक रूप वह है जिसे पूजा-उपासना के संदर्भ में हमलोग जानते और मानते हैं लेकिन मंत्र का एक दूसरा बड़ा अर्थ भी जिसे आमतौर पर लोग नहीं जानते।मंत्र जप के संदर्भ में पहली बात यह कि मंत्र जप से मनोकामना कभी पूरी नहीं होती,मंत्र जप से सिद्धियां प्राप्त नहीं होतीं,ये सब बातें पाखंडियों की रची गयी हैं।मंत्र का प्रयोजनमूलक उद्देश्य पाखंडियों की सृष्टि है।मंत्र तो असल में जीवन को बाँधने का उपाय है।आप अपने जीवन को किस तरह के तारों से बाँधना चाहते हैं यह मंत्र से तय होता रहा है।मंत्र यानी जीवन बाँधने की कला।मंत्र को यदि जीवन जीने की कला के रूप में लें और देखें तो हमारे धर्म के अनेक संकट और व्याधियां खत्म हो जाएं।अनेक पाखंड खत्म हो जाएं।मंत्र का मतलब पाखंड से किसने जोड़ा हमें नहीं मालूम, लेकिन यही सच्चाई है कि मंत्र आज पाखंड का अंग है।जीवन जीने के अनेक रूप हैं उनमें से आपको चुनना होगा कि कैसे जिओगे,मंत्र असल में जीने के मार्ग को बांधने, नियोजित करने,संगठित,अनुशासित होकर जीने की कला है।
जीवन आज सबसे ज्यादा बिखरा हुआ है, भयानक अराजकता है, जीवनशैली के रूपों में अराजकता है , हमारे पास जीवनशैली को बांधने,संगठित करने का कोई उपाय नहीं है, पुराने जमाने में मंत्र का आविष्कार असल में जीवन बाँधने की कला के रूप में हुआ ,उसके हजारों-लाखों रूप हमें परंपरा में मिलते हैं, लाखों मंत्र मिलते हैं।जीवन जीने के लिए मंत्र जरूरी है,मंत्र के बिना जीवनशैली के अव्यवस्थित और अराजक हो जाने के चांस ज्यादा हैं।मंत्र का दूसरा पहलू है उदात्तता।मंत्र हमें क्षुत्रताओं से परे ले जाता है, निहित-स्वार्थों से परे ले जाता है।
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने सही लिखा है ´मंत्र नामक वस्तु जीवन बाँधने का एक उपाय है।मंत्र का सहारा लेकर हम चिंतन के विषय को मन के साथ बाँधे रहते हैं।यह मानो वीणा की खूँटी,उसके कान की तरह है।तार को ऐंठ कर बाँधे रखने का साधन,वह तार को खुलकर अलग नहीं होने देता,उसे कस कर बाँधे रखता है।विवाह के समय स्त्री-पुरूष के वस्त्रों को गाँठ लगाकर बाँध दिया जाता है।इसके साथ मंत्र पढ़ दिए जाते हैं,वे मंत्र मन में ग्रंथि-बंधन करते रहते हैं।ईश्वर के साथ हमारे ग्रंथि-बंधन की जो जरूरत है,मंत्र उसमें सहायता करता है। इस मंत्र के सहारे हम उनके साथ अपना कोई एक संबंध पक्का कर लेंगे। वैसा एक मंत्र है पिता नोsसि।आप मेरे पिता है।मंत्र के इस सुर में अपने जीवन को बाँध लेने पर सारी चिन्ताओं,सारे कर्मों में एक विशेष रागिनी झंकृत हो उठेगी।मैं उनका पुत्र हूँ यही उक्ति साकार होकर हमारे सारे कार्य कलापों में प्रकाशित होने लगेगी कि मैं उनका पुत्र हूं।´
कहने का आशय यह कि मंत्र के मर्म को हम भूल गए और उसे हमने व्यवहारवाद,अवसरवाद, फल प्राप्ति के उपायों का सहारा बना दिया।मैं भी कभी-कभी किसी के मन संतोष के लिए उपाय के तौर पर मंत्र सुझा देता हूँ लेकिन सच यही है कि मंत्र उपाय नहीं है बल्कि मंत्र जीवन को बाँधने की कला है।संगठित नियमित जीवन जीना है तो मंत्र से सीखो।किसी अन्य से नहीं।
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