मेरी मुसीबत यह है कि मैं अपने स्वभाव का दास हूं,यह स्वभाव मुझे विरासत से नहीं मिला बल्कि यह मैंने सचेत रूप से अर्जित किया है।विरासत से जो चीजें स्वभाव में मिलीं वे बहुत ही पीडादायक थीं,अहंकार से भरी थीं,पुराने मूल्यों के बोझ से दबी हुई थीं,मेरी प्रकृति पुराने मूल्यों में जीने की नहीं है.पुराना मुझे एकदम पसंद नहीं है लेकिन दूसरों का मन रखने के लिए मैं अनेकबार पुराने को मान लेता हूं, लेकिन पुराना मेरे स्वभाव से गायब हो चुका है।
जीने के लिए न्यूनतम चीजें चाहिए और वे ही चीजें जुगाड़ करके मैं रखता हूं। मेरे पास कोई संपत्ति नहीं, कोई वैभव नहीं और न यश -मान-प्रतिष्ठा पाने की मन में कोई कामना है। यश-मान-प्रतिष्ठा-पद-गरिमा आदि अंतत: मुश्किलों में फँसा देते हैं। आए दिन प्रियजनों के उलाहने सुनता हूं कि यह नहीं किया वह नहीं किया, उसने तुमको सताया ,इसने तुमको सताया ,उन सबको करारा जवाब नहीं दिया, देखो वह कितना बडा आदमी बन गया और तुम वहीं के वहीं हो,तुम्हारे पास क्या है ?
मैं हकीकत में कुछ न कर पाना , संपत्ति न जोड़ पाना, यश की पगडंडियाँ न बना पाना अपनी असफलता मानता हूं।लेकिन अपने स्वभाव का दास हूं मुझे ये चीजें पसंद नहीं हैं, ये चीजें मुझे प्रभावित भी नहीं करतीं।यहां तक कि मेरे मन में कभी एक घर बनाने या ख़रीदने का कभी सपना तक नहीं आया , इसलिए कभी जीवन में कोई कर्ज किसी से नहीं लिया।जो मिल गया जैसा मिल गया उसके साथ एडजस्ट कर लिया।जीवन में एक ही सपना था विश्वविद्यालय शिक्षक बनूँ और नए नए विषयों पर लिखूँ और पढ़ूँ।ये दोनों चीजें हासिल करने में ही अब तक की सारी उम्र कट गयी।
अमूमन लोग संचय करने को ही जीवन का लक्ष्य मानकर चलतेहैं लेकिन मैं उलटा सोचता हूं।जीवन में सृष्टि करना चाहते हो तो संचय नहीं विसर्जित करने की आदत डालो।विसर्जन करने में कोई दायित्व नहीं होता , लाचारी नहीं होती।जैसाकि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है " हमारा आनंद,हमारा प्रेम,अकारण ही आत्म विसर्जन में अपने को चरितार्थ करता है।" "आत्मा भी लेने में खुश नहीं होती है, वह देने में खुश होती है।"
मेरी हमेशा से "क्षुदित अहं" वाले भावबोध से जंग रही है।जो लोग इस भाव में रहते हैं वे कंगाल की तरह सब कुछ अपनी मुट्ठी में भर लेना चाहते हैं।जो लेने के मतलब के अलावा कुछ देता नहीं है, वह फल पाने के अलावा और कुछ करता नहीं है।मैंने सचेत रुप से इस अहं से लडाई की है और यह अभी भी जारी है।
सवाल यह है जीवन को अहं से संचालित करना चाहते हैं या आत्मा के जरिए ? अहं बनाम आत्मा के संघर्ष में दाखिल होने से हम बचते रहे हैं जबकि होना चाहिए उलटा।टैगोर के अनुसार "अहं का स्वभाव है भीतर की ओर खींचना और आत्मा का स्वभाव है बाहर की तरफ देना।" इन दोनों में मेल बिठाना संभव नहीं है, तय करें हमें अहं से प्रेम है या आत्मा से!मुझे तो आत्मा से प्रेम है।
जीने के लिए न्यूनतम चीजें चाहिए और वे ही चीजें जुगाड़ करके मैं रखता हूं। मेरे पास कोई संपत्ति नहीं, कोई वैभव नहीं और न यश -मान-प्रतिष्ठा पाने की मन में कोई कामना है। यश-मान-प्रतिष्ठा-पद-गरिमा आदि अंतत: मुश्किलों में फँसा देते हैं। आए दिन प्रियजनों के उलाहने सुनता हूं कि यह नहीं किया वह नहीं किया, उसने तुमको सताया ,इसने तुमको सताया ,उन सबको करारा जवाब नहीं दिया, देखो वह कितना बडा आदमी बन गया और तुम वहीं के वहीं हो,तुम्हारे पास क्या है ?
मैं हकीकत में कुछ न कर पाना , संपत्ति न जोड़ पाना, यश की पगडंडियाँ न बना पाना अपनी असफलता मानता हूं।लेकिन अपने स्वभाव का दास हूं मुझे ये चीजें पसंद नहीं हैं, ये चीजें मुझे प्रभावित भी नहीं करतीं।यहां तक कि मेरे मन में कभी एक घर बनाने या ख़रीदने का कभी सपना तक नहीं आया , इसलिए कभी जीवन में कोई कर्ज किसी से नहीं लिया।जो मिल गया जैसा मिल गया उसके साथ एडजस्ट कर लिया।जीवन में एक ही सपना था विश्वविद्यालय शिक्षक बनूँ और नए नए विषयों पर लिखूँ और पढ़ूँ।ये दोनों चीजें हासिल करने में ही अब तक की सारी उम्र कट गयी।
अमूमन लोग संचय करने को ही जीवन का लक्ष्य मानकर चलतेहैं लेकिन मैं उलटा सोचता हूं।जीवन में सृष्टि करना चाहते हो तो संचय नहीं विसर्जित करने की आदत डालो।विसर्जन करने में कोई दायित्व नहीं होता , लाचारी नहीं होती।जैसाकि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है " हमारा आनंद,हमारा प्रेम,अकारण ही आत्म विसर्जन में अपने को चरितार्थ करता है।" "आत्मा भी लेने में खुश नहीं होती है, वह देने में खुश होती है।"
मेरी हमेशा से "क्षुदित अहं" वाले भावबोध से जंग रही है।जो लोग इस भाव में रहते हैं वे कंगाल की तरह सब कुछ अपनी मुट्ठी में भर लेना चाहते हैं।जो लेने के मतलब के अलावा कुछ देता नहीं है, वह फल पाने के अलावा और कुछ करता नहीं है।मैंने सचेत रुप से इस अहं से लडाई की है और यह अभी भी जारी है।
सवाल यह है जीवन को अहं से संचालित करना चाहते हैं या आत्मा के जरिए ? अहं बनाम आत्मा के संघर्ष में दाखिल होने से हम बचते रहे हैं जबकि होना चाहिए उलटा।टैगोर के अनुसार "अहं का स्वभाव है भीतर की ओर खींचना और आत्मा का स्वभाव है बाहर की तरफ देना।" इन दोनों में मेल बिठाना संभव नहीं है, तय करें हमें अहं से प्रेम है या आत्मा से!मुझे तो आत्मा से प्रेम है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें