बोफोर्स
में दलाली और घूस दोनों दी गयीं,25साल से ज्यादा समय यह मुकदमा देश-विदेश के अनेक
अदालतों में खाक छान चुका है ,और अंत में दोषी लोग अभी तक सीना फुलाए घूम रहे हैं।
इसका अर्थ यह है न्यायालयों में सच के लिए न्याय की संभावनाएं घट गयी हैं।
बोफोर्स के मामले में सभी प्रामाणिक सबूत होने
के बावजूद दोषी व्यक्ति को सारी दुनिया की पुलिस नहीं पकड़ पायी। यहां तक कि
सीबीआई स्वयं यह मामला हार गयी,आयरनी देखिए बंगारू के मामले में सीबीआई अदालत में
जजमेंट आता है और बंगारू दोषी पाए जाते हैं।
सवाल
उठता है कि बंगारू लक्ष्मण ने यदि सच में किसी हथियार बनाने वाली कंपनी के लिए घूस
ली होती और हथियारों की सप्लाई हुई होती तो क्या वे दोषी पाए जाते ? चूंकि बंगारू के
मौजूदा मामले में कोई भी हथियार निर्माता कंपनी शामिल नहीं है तो न्याय अपना सीना
फुलाए खड़ा है लेकिन यही भारत के न्यायालय बोफोर्स मामले में निकम्मे साबित हो
चुके हैं। यूनियन कारबाइड के मामले में पीडितों को न्याय दिलाने में असफल साबित
हुए हैं।
न्याय
भी वर्गीय होता है। बंगारू लक्ष्मण की निजी तौर पर कोई सामाजिक हैसियत नहीं है,वे
एक मध्यवर्गीय नेता से ज्यादा हैसियत नहीं रखते।इसलिए आसानी से दोषी सिद्ध कर दिए
गए। यदि वे भी किसी बहुराष्ट्रीय हथियार कंपनी के दलाल होते तो संभवतः कुछ नहीं
होता। उल्लेखनीय है बिना अपराधी पकड़े बोफोर्स के मामले को सर्वोच्च न्यायालय ने हमेशा
के लिए दफन कर दिया है। इसे कहते हैं असली और नकली हथियार निर्माता कंपनी की ताकत
का अंतर।
विचारणीय सवाल यह है कि वास्तव हथियार निर्माता कंपनी
के अपराध के मामले में न्यायालय असहाय क्यों महसूस करते हैं ? कांग्रेस और सीबीआई जितना बंगारू लक्ष्मण को सजा मिलने पर हंगामा कर
रहे हैं , ये दोनों ही बोफोर्स के मामले में दोषी को पकडवाने में सफल क्यों नहीं
हुए ? इस असफलता के
लिए उन्होंने देश की जनता से माफी क्यों नहीं मांगी ?
ध्यान
रहे बोफोर्स दलालीकांड सच्चाई है । और बंगारू घूसकांड निर्मित सच्चाई है। निर्मित सच
को सच मानकर विभ्रम पैदा किया जा सकता है। लेकिन यथार्थ में नहीं बदला जा सकता।
यथार्थ यह है कि बहुराष्ट्रीय हथियार निर्माता कंपनियों के सामने हमारे जज, वकील
और तर्कशास्त्र बौने साबित हुए हैं।
बंगारू लक्ष्मण को सजा मिली, वे ऊपरी अदालत में जाएंगे और होसकता है सजा
बहाल रहे, हो सकता वे बरी हो जाएं,भविष्य के बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता। लेकिन
एक सवाल बार-बार मन में उठ रहा है कि तहलका की टीम आज तक किसी सच्ची हथियार
निर्माता कंपनी की दलाली की पोल खोलने में सफल क्यों नहीं हो पायी ? किसी वास्तव घूसखोर को क्यों नहीं पकड़ पायी ?
सारा
देश जानता है कि भारत सरकार विगत 5 सालों में अब तक 60हजार करोड रूपये से ज्यादा के
हथियार खरीद चुकी है। इनकी खरीद में 3 से 10 फीसदी कमीशन भी लोकल एजेंट को मिलता
है। कौन किस कंपनी का एजेंट है यह भी सब जानते हैं। यह भी जानते हैं कि कमीशनखोरी
भारत के कानून में अपराध है लेकिन विदेशी कंपनियों के विदेशी कानून में यह
पारिश्रमिक है। कहने का अर्थ यह है कि हथियारों की खरीद के सौदों में तहलका आदि
कोई भी संस्था या मीडिया ग्रुप ने कभी स्टिंग
ऑपरेशन क्यों नहीं किया ? क्यों
वे आजतक असली हथियार कंपनी के सौदे में दी गयी घूसखोरी के किसी भी घूसखोर को नहीं
पकड़ पाए ?
दूसरा सवाल यह है कि कल्पित स्टोरी,कल्पित कंपनी, असली घूस और असली घूसघोर
के आधार पर क्या हम हथियारों की खरीद-फरोख्त में चल रही व्यापक घूसखोरी को नंगा करके
जागरण पैदा कर रहे हैं या घूसखोरी को वैध बनाने का काम कर रहे हैं ? बंगारू
टाइप ऑपरेशन वास्तव में घूसखोरी को वैधता प्रदान करते हैं, नॉर्मल बनाते हैं।
बंगारू की सजा या अपराध को मीडिया जितना बताएगा,घूसखोरी-कमीशनखोरी को और भी वैधता
प्राप्त होगी।
भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारु लक्ष्मण को दोषी
करार देते हुए सीबीआई अदालत ने कहा,
हो सकता है कि न्यूज पोर्टेल का स्टिंग करने का तरीका गलत हो लेकिन
उद्देश्य गलत नहीं था। ऐसे में स्टिंग की सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है। न्यायाधीश
ने स्टिंग की सच्चाई को माना है। लेकिन क्या स्टिंग ऑपरेशन पत्रकारिता है ?एक वर्ग मानता है कि यह पत्रकारिता है,खोजी
पत्रकारिता है। हम यह मानते हैं कि स्टिंग ऑपरेशन जासूसी है, इसे पत्रकारिता नहीं
कह सकते। यह मूलतः पीत पत्रकारिता के उपकरणों से बना विधा रूप है। स्टिंग ऑपरेशन
और जासूसी के आधार पर पत्रकारिता करने के कारण रूपक मडरॉक और उनके बेटे को ब्रिटेन
और अमेरिका में तमाम किस्म के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है। पत्रकारिता में
लक्ष्य जितना पवित्र और महत्वपूर्ण है उसके तरीके भी उतने ही पवित्र और महत्वपूर्ण
माने गए हैं। कम से कम तहलका का स्टिंग ऑपरेशन इस आधार पर खरा नहीं उतरता। वह
स्टिंग ऑपरेशन है पत्रकारिता नहीं है।
इसके
बावजूद कायदे से भाजपा को बंगारू लक्ष्मण को लेकर अभी तक व्यक्त नजरिए के लिए
तहलका की खोजी टीम से सार्वजनिक तौर पर माफी मांगनी चाहिए,क्योंकि भाजपा
समर्थित मीडियातंत्र और नेताओं ने तहलका टीम के चरित्र और उत्पीड़न में कोई कमी
नहीं की ।
बंगारू
के खिलाफ आया फैसला मीडिया,खासकर खोजी पत्रकारों की बहुत बड़ी जीत है।आज तक मीडिया
और स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर किसी बड़े
नेता को सजा नहीं हुई है ,यह पहली घटना है और यह खोजी पत्रकारों की बड़ी विजय
है।यह जीत ऐसे समय में आई है जब पत्रकारों की साख पर बार बार अंगुली उठाई जा रही
थी।इस फैसले से ईमानदार पत्रकारों को जोखिम उठाने की प्रेरणा मिलेगी।
चिंता की बात यह है कि भाजपा और संघ परिवार अभी भी बंगारू लक्ष्मण की घूसखोरी को अपराध नहीं
मान रहा है,यही
वजह है कि उनकी भाजपा की सदस्यता अभी तक खत्म नहीं की गयी है। बंगारू ने अध्यक्ष
के नाते घूस ली थी ,व्यक्तिगत
रूप में नहीं । वे उस समय भाजपा अध्यक्ष थे।अतः यह उनका व्यक्तिगत मामला नहीं है।
उल्लेखनीय है यह मामला 2001 में तहलकाटीम ने
उन्हें 1लाख
रूपये घूस लेते हुए कैमरे में पकड़ा था।वे लंदन की एक फर्म से घूस लेते स्टिंग
ऑपरेशन में पकड़े गए थे।इस पूरे प्रकरण में तहलका के अनुसार- "बंगारू लक्ष्मण अकेले नहीं हैं. समता
पार्टी की तत्कालीन अध्यक्षा जया जेटली भी बिल्कुल उन्हीं परिस्थितियों में रक्षा
मंत्री जॉर्ज फर्नांडिज के सरकारी आवास में घूस लेते हुए कैमरे की जद में आईं, उनकी पार्टी के
कोषाध्यक्ष आरके जैन भी पैसा लेते हुए पकड़े गए. घूस का दलदल सिर्फ राजनीति महकमे
तक ही सीमित नहीं था. सेना और नौकरशाही के तमाम आला अधिकारी भी पैसे लेते हुए नजर
आए. लेफ्टिनेंट जनरल मंजीत सिंह अहलूवालिया, मेजर जनरल पीएसके चौधरी, मेजर जनरल मुर्गई,
ब्रिगेडियर अनिल सहगल उनमें से कुछेक नाम हैं. रक्षा मंत्रालय के दूसरे
सबसे बड़े अधिकारी आईएएस एलएम मेहता भी उसी सूची में हैं।"
तहलका टीम के अनुसार- "सरकार
ने हम पर सीधा हमला तो नहीं किया लेकिन हमें कानूनी कार्रवाई के एक ऎसे जाल में
उलझा दिया जिससे हमारा सांस लेना मुश्किल हो जाए.तहलका में पैसा निवेश करने वाले
शंकर शर्मा को बगैर कसूर जेल में डाल दिया गया और कानूनी कार्रवाई की आड़ में उनका
धंधा चौपट करने की हर मुमकिन कोशिश की गई. हमने कई बार खुद से पूछा कि तहलका और
उसके अंजाम को कौन सी चीज खास बनाती है. जवाब बहुत सीधा है- शायद इसका असाधारण
साहस. भ्रष्टाचार को इस कदर निडरता से उजागर करने की कोशिश ने ही शायद तहलका को
तहलका जैसा बना दिया.तहलका लोगों के जेहन में रच बस गया।"
जगदीश्वर चतुर्वेदी द्वारा डिजिटल युग में लिखे अपक्षपाती आलेख, बंगारू लक्ष्मण की सजा से उठे सवाल, पढ़ मुझे उनके लिए श्रद्धा और भारतीय पत्रकारिता में विश्वास होने लगा है| एक महत्वपूर्ण प्रश्न बिजली की तरह मेरे मन में भी कौंध गया है| क्या भारतीय संविधान घूस देने वाले को क्षमा करता है? संभवत: तहलका की खोजी टीम ने सरकार के आगे घुटने टेक दिए हों और फलस्वरूप स्टिंग ऑपरेशन में “लंदन की एक फर्म“ स्वयं भारत सरकार ही हो! यदि यह सच है तो क्या इसी लिए तहलका आदि आज तक असली हथियार कंपनी के सौदे में दी गयी घूसखोरी के किसी भी घूसखोर को नहीं पकड़ पाए हैं?
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