शनिवार, 21 अप्रैल 2012

नव्यउदार पूंजीवाद के नए ढिंढोरची अशोक वाजपेयी



         
हिन्दी आलोचना में नव्यउदार पूंजीवादी चारणों के बारे में जब भी सोचता हूँ तो रह-रहकर अशोक वाजपेयी याद आते हैं। इन जनाव की भजनमंडली में ऐसे 2 दर्जन लेखक हैं। अशोक वाजपेयी की शिक्षा-दीक्षा अव्वल दर्जे की रही है,सरकारी पद भी अव्वल रहे हैं ,उनके पास चमचे भी अव्वलदर्जे के रहे हैं , हिन्दी के अव्वल अखबार में वे नियमित कॉलम भी लिखते हैं। देश के अव्वल कांग्रेसी नेताओं का उन पर वरदहस्त रहा है। पूंजीवादी विनयपत्रिका भी वे अव्वल लिखते हैं।
    अशोक वाजपेयी की खूबी है कि वे अपने पूंजीवादी नजरिए से एकदम टस से मस होने को तैयार नहीं हैं। इन जनाव की खूबी है कि ये हर विषय के ज्ञानी हैं और जब भी जैसे मौका मिलता है सुंदर-असुंदर दोनों किस्म का लिखते हैं। इधर उन्होंने जनसत्ता में अपने कॉलम में मार्क्सवाद पर एक अज्ञान से भरी टिप्पणी लिखी है,जिसे पढ़कर सिर्फ एक ही बात कहने की इच्छा होती है कि इस तरह की बेसिर-पैर की बातें हिन्दी में ही छप सकती हैं और जनसत्ता जैसा अखबार ही छाप सकता है। इस अखबार का संपादकीय स्तर कितना गिर चुका है इससे यह भी पता चलता है।
     अशोक वाजपेयी और उनके जैसे लोग और जनसत्ता जैसे प्रतिष्ठानी अखबार आए दिन तथ्यहीन ढ़ंग से अमेरिकी ढिंढोरची की तरह मार्क्सवादी दर्शन पर हमले करते रहे हैं। दूसरी ओर मार्क्सवादी लोग चुपचाप पढ़ते रहते हैं और प्रतिवाद नहीं करते। पहले मार्क्सवाद के खिलाफ बोलने वाले के खिलाफ मार्क्सवादी जबाव दिया करते  थे। लेकिन इन दिनों हिन्दी में सर्वधर्म सदभाव की तरह सर्व विचारधारा मित्रमंडली का दौर चल रहा  है। यह अंतर करना मुश्किल होता है कि मार्क्सवादी कौन है और मार्क्सवाद विरोधी कौन है? मार्क्सवादी लोग इन दिनों अशोक वाजपेयी के लेखन की आलोचना तक नहीं करते,जबकि ये जनाव मार्क्सवाद विरोधी ढिंढोरची की तरह आए दिन मार्क्सवाद के बारे में कु-प्रचार करते रहते हैं।
      साहित्य और संस्कृति में अमेरिकी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का झंड़ा बुलंद करने वाले अशोक वाजपेयी के लेखन और साहित्य-प्रशासनिक कर्मकांड को अभी लोग भूले नहीं हैं। इन जनाव ने साहित्य में आधुनिकता के पतनशील मूल्यों की हमेशा हिमायत की है पूंजीवादी संसार और अमेरिकी संस्कृति के पैरोकार और एजेण्ट की तरह हिन्दी में भारत भवन की स्थापना के समय जमकर काम भी किया है।
     अशोक वाजपेयी को अचानक इलहाम हुआ है कि "इन दिनों अकसर यह लगता है कि हमने दुनिया बदलने या विकल्प खोजने का सपना देखना बंद कर दिया है: हम जो सपने देखते हैं वे अगर टुच्ची आकांक्षाओं के नहीं तो बहुत छोटी चीजों के लिए हो गए हैं।" सवाल यह है कि आखिरकार ऐसे हालत पैदा क्यों हुए कि लोगों ने बड़े सपने देखने बंद कर दिए ? समाजवादी या मार्क्सवादी विचारक इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं ,बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था और उसका आक्रामक रूख इसके लिए जिम्मेदार है। लेकिन अशोक वाजपेयी ने कभी विस्तार से पूंजीवाद के आक्रामक रवैय्ये की आलोचना नहीं की । उलटे भारत में अमेरिका के पहरूए की तरह काम करते रहे हैं।
     सपनों के मरने में पूंजीवाद की भूमिका को न देखना स्वयं पूंजीवाद की भूमिका पर पर्दा डालना है। अशोक वाजपेयी को गलतफहमी है कि भारत में बाहर भी लोगों ने सामाजिक परिवर्तन के सपने देखना बंद कर दिया है। सामाजिक परिवर्तन के सपने या दुनिया को बदलने के सपने लैटिन अमेरिका के क्रांतिकारियों ने देखने बंद नहीं किए हैं ,वहां पर वे विभिन्न देशों में सामाजिक परिवर्तन के नए विकल्पों की खोज और निर्माण में लगे हैं। लैटिन के साहित्यकारों ने भी बुनियादी परिवर्तन के सपने देखना बंद नहीं किया है। समाजवाद के पराभव के बाद वहां एक विशाल जनउभार आया है।लोकतंत्र और क्रांति में नए किस्म के अंतस्संबंध के निर्माण के प्रयास हो रहे हैं।
    समाजवादी यथार्थवाद और आलोचनात्मक यथार्थवाद से आगे की मंजिल के साहित्य के नए-नए प्रयोग वे ही लेखक कर रहे हैं जो लैटिन अमेरिका में किसी न किसी किस्म के सामाजिक परिवर्तन के वामपंथी आंदोलन से जुड़े हैं या उसके समर्थक हैं,मजदूरों और किसानों के संगठनों की जुझारू क्षमता भी इन देशों में जगजाहिर है ।और इसका सुपरिणाम है कि समूचे लैटिन अमेरिका में आज अमेरिकी साम्राज्यवाद हाशिए पर है और लैटिन अमेरिकी देशों में एकजुटता पैदा करने और संघर्ष करके समाज बदलने की भावना को निर्मित करने में मार्क्सवादी अग्रणी कतारों में हैं। यह सारा परिवर्तन सोवियत संघ और समाजवादी समूह के पूर्वी यूरोपीय देशो में समाजवादी व्यवस्था के पतन के बाद का है।
    अशोक वाजपेयी ने तारिक अली को उद्धृत करते हुए लिखा है- "मार्क्सवाद को धर्म बनाना गलत था और है तथा मार्क्स या अन्य चिंतकों के अंतर्विरोधों को नजरअंदाज करना भी गलत था और है।" यह धारणा भी गलत है। मार्क्सवाद कभी भी धर्म नहीं रहा है कम्युनिस्टों के यहां। कम्युनिस्ट पार्टी का अंधानुकरण और समाजवादी लोकतंत्र के अभाव के कारण समाजवादी व्यवस्था का पराभव हुआ और जनता को बड़े पैमाने पर कष्ट उठाने पड़े और इस तथ्य को रूस से लेकर अन्य देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों ने माना और फिर से लोकतंत्र की ओर देश को धकेला है। दूसरी बड़ी बात यह कि मार्क्सवादी चिन्तकों ने चाहे भारत हो या रूस हो,जर्मनी हो चीन हो, कहीं पर भी मार्क्स के अंतर्विरोधों  की अनदेखी नहीं की गयी है। अनेक मामलों में भारत के मार्क्सवादी अपने लेखन में एशियाई उत्पादन संबंधों के सवाल से लेकर जातिप्रथा तक, अंग्रेजों की भूमिका से लेकर सामंतवाद के चरित्र के सवालों पर मार्क्स से भिन्न नजरिए का प्रतिपादन करते रहे हैं।
    अशोक वाजपेयी ने अपने टिपिकल मार्क्सवाद विरोधी अंदाज में लिखा है - "यह सवाल उठता है कि मार्क्सवाद पर आधारित तानाशाहियों ने जो किया और उनका जो हश्र हुआ उनसे क्या सबक लिया जाए। जाहिर है कि मरणोत्तर आलोचना एक तरह का सुविधापरक लगभग अवसरवादी काम है, हालांकि इस वजह से आलोचना से बचना या उसे स्थगित नहीं करना चाहिए। मनुष्य की मुक्ति और समानता का सपना दृश्य पर फिर से आए यह जरूरी है, लेकिन अब क्या यह सपना फिर से मार्क्सवादी पदावली में देखा-समझा जा सकता है? एक तरह से सोवियत और चीनी साम्यवादियों और उनकी राजव्यवस्थाओं को इसके लिए माफ नहीं किया जा सकता कि उन्होंने एक महान मुक्ति-दर्शन को संहार और दमन का, मुक्ति के हनन का, अन्याय की व्यवस्था बनाकर उसे हमेशा के लिए लांछित-दूषित, विकृत करने का पाप किया है। पर दूसरी ओर इस सचाई को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि अगर एक दर्शन का इतने दशकों तक ऐसा दुर्विनियोजन संभव हुआ तो उस दर्शन के मूल में कहीं कोई खोट होगी, जिसने इतनी सारी सामाजिक-सांस्कृतिक विकृतियों को जन्मा और पोसा। अकेले लेनिन, स्टालिन और माओ भर दोषी नहीं हैं- मार्क्स की भी जिम्मेदारी बनती है।"
       इन जनाब को मार्क्सवादी दर्शन में खोट नजर आ रहा है और मार्क्स में भी खोट नजर आ रहा है। सवाल यह है कि मार्क्स में कौन सा खोट है जो इन जनाव को तकलीफ दे रहा है ? समाजवादी व्यवस्था में जो गड़बड़ियां हुईं उनके बारे में इन जनाब के पास कोई एक-दो बड़ी मिसाल नहीं हैं जो कही जाए। स्वयं कम्युनिस्ट पार्टियों और कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थिंकरों के द्वारा जो बातें आलोचना में कही गयी है वे ही समाजवादी व्यवस्था की गड़बड़ियों को समझने के लिए काफी है। इनमें सबसे खतरनाक है उदार बुर्जुआ मूल्यों का समाज में विकास किए बगैर सीधे सामंतवाद से समाजवाद में छलांग लगाना समाजवादी व्यवस्था को काफी महंगा साबित हुआ है। दूसरे बड़ी समस्या राज्यतंत्र के पर्याय के रूप में पार्टीतंत्र का उभरना था। इससे समाजवादी जनतंत्र का सपना नष्ट हुआ। सर्वहारा के अधिनायकवाद की जगह पार्टी के नेताओं का अधिनायकवादी तंत्र पैदा हुआ। लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक, साहित्यिक,वैज्ञानिक क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई। समूची दुनिया में पूंजीवाद को अपना रास्ता बदलने के लिए समाजवादी देशों ने दबाब पैदा किया और कल्याणकारी राज्य के पूंजीवादी सपने और कार्यक्रम का जन्म हुआ। मनुष्यों के लिए जिन अधिकारों की स्थापना समाजवाद ने की उनमें से अनेक अधिकारों को कालान्तर में पूंजीवादी देशों को अपने यहां भी लागू करना पड़ा।
    इससे भी बड़ा सवाल यह है कि समाजवाद को तानाशाही के रूप में नहीं देखा जा सकता। समाजवाद यदि तानाशाही है तो उसके बिखरने के बाद तो दुनिया में खुशहाली आनी चाहिए थी ? ऐसा क्यों हुआ कि अमेरिका और भी आक्रामक हो गया ? युद्ध दैनंदिन संस्कृति बन गए हैं ? परवर्ती पूंजीवाद की नई विश्व व्यवस्था सामने आई जो समाजवादी व्यवस्था के देशों के अभाव में और भी ज्यादा बर्बर ढ़ंग से विभिन्न देशों के साथ व्यवहार करती रही है।
    समाजवादी व्यवस्था का जन्म पूंजीवाद विरोधी व्यवस्था के रूप में हुआ था। अशोक वाजपेयी ने बड़ी ही चालाकी के साथ अमेरिकी बर्बरता पर कुछ भी नहीं कहा है। सवाल है कि  क्या पूंजीवाद पुण्यात्माओं की व्यवस्था है ? इस संसार पर दो-दो विश्वयुद्ध किसने थोपे ? इन युद्धों में करोड़ों लोग मारे गए हैं। इराक-अफगानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व में काम कर रही नाटो सेनाओं के अत्याचारों के खून के धब्बे अभी तक धुले नहीं हैं। अशोक वाजपेयी साहब अपने टिपिकल मार्क्सवाद विरोधी और पूंजीवाद के चारणों की पदावली का इस्तेमाल करते हुए पूंजीवाद को धर्म बताने का काम कर रहे हैं। पूंजीवाद के जरिए इस दुनिया की मुक्ति संभव नहीं है। यह बात सबसे पहले मार्क्स ने ही कही थी और उनकी यही भविष्यवाणी बार बार सही साबित हुई है। अशोक वाजपेयी भूल गए है कि चीन ने बहुत ही कम समय में अपने देश की अर्थव्यवस्था में जो लंबी छलांग लगाई है वैसी छलांग पहले किसी भी पूंजीवादी मुल्क ने नहीं लगाई है।  पूंजीवाद से मुक्ति का आज भी एक ही विज्ञान है और वह है मार्क्सवाद। मार्क्स ने कभी नहीं कहा कि वे जो लिख रहे हैं वह पत्थर की लकीर है और उनके अनुयायियों को उनकी बातों को आँखें बंद करके मानना चाहिए. मार्क्सवाद का नाम अनुकरण नहीं है। यह जीवन का विज्ञान है, विश्व दृष्टिकोण है। दुनिया के परिवर्तन का सबसे प्रभावशाली दर्शन है ,और करोड़ों लोग आज भी अपनी मुक्ति के संघर्ष में मार्क्सवाद से प्रेरणा ले रहे हैं। 

3 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा विश्लेषण किया है, अशोक वाजपेयी के मनोविज्ञान का, और उनकी तथा जनसत्ता की जुगलबंदी का. जनसत्ता के संपादक भी बिना प्रसंग-संदर्भ देखे वाम-विरोध के सक्रिय पुरोधा की भूमिका निभा ही रहे हैं.अवसर उपयुक्त हो या नहीं, ऐसा कुछ कहते मिल ही जाते हैं. ऐसा नहीं है कि वामपंथी लोग प्रतिवाद नहीं करते/कर रहे. हां, यह कहा जा सकता है कि उतना संगठित/सु-संयोजित प्रतिवाद नहीं हो पा रहा है, जितना होना चाहिए.

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  2. बहुत सारगर्भित,तर्कसंगत लेख ! CIA के साहित्य के जरिये मार्क्सवाद के विरोध का प्रोग्राम लगभग पूरे विश्व में चलाया जाता रहा है ! भारत में भी उसके साहित्यिक एजेंट फैले हुए हैं और तत्कालीन पूंजीवाद समर्थक सरकारों के संकेत और सहयोग से शीर्ष पदों पर विराजमान हैं और अपने प्रभाव का इस्तेमाल मार्क्सवाद विरोध के लिए कर रहे हैं ! इनसे सावधान करता है आपका यह सुविचारित लेख !

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  3. अशोक वाजपेयी की खास बात यही है कि एक ओर वह मार्क्सवाद को खत्म हुआ मानते हैं, दूसरी ओर मार्क्सवाद को कोसने के अलावा उन्हें कोई काम नहीं है। इस बार वे मार्क्स की गलती तलाश रहे हैं। अशोक वाजपेयी की खासियत यही रह गई है कि वे अफवाह फैलाने वाले घटिया तंत्र जैसी बातें लिखते रहते हैं। मार्क्सवाद के कमजोर होने भर से (अशोक वाजपेयी अपनी सुविधा से इस पूंजीवाद के निरंकुश होने से भी पढ़ें) दुनियाभर में जिस तरह के हालात हैं, वे उन्हें दिखाई नहीं देते। पांच सितारा नुमा सभागारों में साहित्य-संस्कृति की किटी पार्टियां करने वाले को बुरे हालातों में फंसे आम आदमी के संघर्षों से मतलब भी क्या हो सकता है?
    यह सही है कि अधिकांश मार्क्सवादियों ने अशोक वाजपेयी जैसे साबहों का प्रतिरोध करना छोड़ दिया है। नामवर, केदारनाथ टाइप्स की बात क्या, दूसरे बड़े संगठनों के बड़े लोगों को अशोक वाजपेयी की मनुहार करते देख शर्म आती है।

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