भारत में
जब से फोर्ड फाउंडेशन जैसी अमेरिकी संस्थाओं का कला,साहित्य,संस्कृति,सिक्षा आदि
में पैसा आना आरंभ हुआ है उसके बाद तेजी से आलोचना और अकादमिक अवमूल्यन आरंभ हुआ
है। हिन्दी आलोचना और साहित्य में अमेरिकी हस्तक्षेप कोई नयी चीज नहीं है। कॉग्रेस
फॉर कल्चरल फ्रीडम के हिन्दी में आगमन के साथ यह सिलसिला 1951-52 के आसपास से आरंभ
होता है।भारत भवन में फोर्ड फाउंडेशन के सहयोग से अशोक वाजपेयी एंड कंपनी का वैभव नई
बुलंदियों को प्राप्त करता है।
कांग्रेस का और खासकर स्व.अर्जुनसिंह का अक्षम्य सांस्कृतिक अपराध यह है कि
इन लोगों ने भारत के शिक्षा संस्थानों और संस्कृति केन्द्रों के द्वार अमेरिकी
संस्थाओं और फाउण्डेशनों के लिए खोल दिए।आज संस्कृति और शिक्षा के विभिन्न
क्षेत्रों में अमेरिकी दानदाता संस्थाओं की पूंजी का कृषि से लेकर संस्कृति तक व्यापक
नेटवर्क फैला हुआ है। खासकर कृषि विश्वविद्यालयों से लेकर स्पीकमैके जैसी
संस्थाओं, अकादमिक फैलोशिप से लेकर लाइब्रेरी तक यह नेटवर्क काम कर रहा है।
अमेरिकी दानदाता संस्थाओं की व्यापक भूमिका को विस्तार देने में स्वयंसेवी
संस्थाओं की भी बड़ी भूमिका रही है। इन संस्थाओं में अमेरिकी दौलत का खेल कई हजार
करोड़ रूपये सालाना तक फैला हुआ है।शोध संस्थानों से लेकर विश्वविद्यालयों तक इस
पैसे की नेटवर्किंग काम करती रही है।
अमेरिकी
बहुराष्ट्रीय सांस्कृतिकनिगमों की दान राशि के आने के बाद से ज्ञान,विज्ञान,
कृषि,साहित्य,संस्कृति आदि के क्षेत्र में अवमूल्यन की प्रक्रिया ने तेज गति पकड़ी
है। संयोग की बात है कि कॉग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम के साथ जुड़ने में जयप्रकाश
नारायण,अज्ञेय,रामवृक्ष बेनीपुरी,पीलू मोदी आदि की भूमिका के बारे में कभी बहस ही
नहीं हुई। इसी तरह एक जमाने में भारत भवन और फोर्ड फाउंडेशन के अंन्तस्संबंधों को
लेकर थोड़ी बहुत बहस भी हुई ,लेकिन इस संबंध का हिन्दी आलोचना और साहित्य पर क्या
असर हो सकता है इसकी ओर कभी ध्यान ही नहीं गया। प्रगतिशील लेखकों को राजनीतिरहित
लेखक ते रूप में पेश करने में अशोक वाजपेयी के जमाने में भारत भवन से छपने वाली पत्रिकाओं
की बड़ी भूमिका रही है और इस काम को प्रोत्साहन देने में प्रगतिशील लेखक संघ की
पूरी लेखकमंडली का सक्रिय सहयोग रहा है।नामवर सिंह जैसे बड़े आलोचक ने भी अमेरिकी
पूंजी के सांस्कृतिक प्रभाव को लेकर कभी एक शब्द भी नहीं बोला। यह आश्चर्य की बात
है कि वे भारतभवन के सभी कार्यक्रमों में पूरी टीम के साथ हमेशा उपलब्ध रहते थे।
साहित्य में अमेरिकी प्रभाव का सबसे प्रभावशाली मंत्र है साहित्य और
साहित्यकार को राजनीति से मुक्त करके विश्लेषित करो। साहित्य को ग्लैमर बनाओ।
इवेंट बनाओ। इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर साक्षात्कार और पूर्वाग्रह
पत्रिकाओं ने हिन्दी के तमाम प्रगतिशील लेखकों पर अमेरिकी साहित्यवादी नजरिए से
मोटे-मोटे अंक निकाले और इन अंकों में लिखने वाले लेखकों में हिन्दी के जाने-माने
लेखकों की बड़ी भूमिका थी और इस भूमिका को नियोजित करने में अशोक वाजपेयी का
मूल्यवान योगदान रहा है।
यह तथ्य रेखांकित किया जाना चाहिए तकि फोर्ड
फाउंडेशन ,कॉग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम आदि संस्थाओं के फंड के जरिए और अमेरिकी
लक्ष्यों के अनुरूप लेखकों-साहित्यकारों –चित्रकारों-संगीतकारों और बुद्धिजीवियों
को गोलबंद करने में भारत भवन ,अशोक वाजपेयी,अज्ञेय आदि की बड़ी भूमिका रही है।
भारत भवन ,अमेरिकी नजरिए, प्रगतिशीलता की
जुगलबंदी का यह दुष्परिणाम निकला कि प्रगतिशील लेखकों का एक बड़ा धड़ा भारतभवन और
उसके 'सुकार्यों' का खुशी खुशी हिस्सा बन गया। ये 'भोले
लेखक' यह भूल ही गए
कि सत्ता और अमेरिकी कारपोरेट पूंजी के सहमेल से महान समीक्षा और महान साहित्य
नहीं रचा जाता। इतिहास ने यह सच साबित किया है कि भारतभवन से न तो कोई साहित्य आंदोलन
पैदा हुआ और न नया साहित्य ही सामने आया। बल्कि साहित्य के आयोजनों के जरिए लेखकों
के वैचारिक पंख कतर दिए गए। इस काम को अशोक वाजपेयी ने बड़ी दक्षता के साथ अंजाम तक
पहुँचाया।
संक्षेप में कहें तो भारतभवन और उनके प्रकाशनों के जरिए प्रगतिशील लेखकों
के राजनीतिविहीन-विचारधाराविहीन मूल्यांकन करते हुए जो विशेष अंक आए उन्होंने
आलोचना के अवमूल्यन का मार्ग प्रशस्त किया। इस समूची प्रक्रिया के सूत्रधार बने
अशोक वाजपेयी।इस अर्थ में आलोचना के अवमूल्यन के भी वे ही प्रमुख सूत्रधार हैं।
हिन्दी आलोचना की यह त्रासदी है वह इस प्रवृत्ति को पहचानने से भागती रही है और
तकरीबन सभी समर्थ आलोचक इन दिनों अशोक वाजपेयी की मित्रमंडली का हिस्सा हैं और अब
वे लोग मित्र-संवाद करते हैं, आलोचना नहीं करते।अशोक वाजपेयी के नजरिए में निहित आलोचना
के अवमूल्यन का ताजा नमूना है 'जनसत्ता'( 23अप्रैल 2012) में एंड्रीन रीच पर लिखी छोटी
सी टिप्पणी। इस टिप्पणी में अनेक बातें हैं जो रीच के आलोचक व्यक्तित्व पर रोशनी
डालती हैं। इस सामान्य सी टिप्पणी में भी अशोक वाजपेयी अपने विचारधारात्मक खेल को
खेलने से बाज नहीं आए हैं। अशोक वाजपेयी ने लिखा है " रीच का मत था कि सच्ची कविता विचारधारात्मक
आज्ञापालक वृत्ति से बिलकुल अलग होती है।वह अज्ञात, अपरिचित,अनचीन्हे के बोझ को
सहती है। उसे मनुष्य का भविष्य याद रहता है।" रीच के समग्र नजरिए के संदर्भ में देखें तो मामला
कुछ और ही है।
रीच की चर्चित किताब है ," What is Found There: Notes on Poetry and Politics" , इसमें
उन्होंने लिखा है कि 'कविता पढ़ना नजारे देखना नहीं है और कविता ठंड़ेपन के साथ
ग्रहण भी नहीं की जाती। कविता का अस्तित्व तब है जब वो पढ़ी जाए। कविता का
अस्तित्व पाठक से है और कविता में पाठक को होना चाहिए।'
रीच
असल में लेखक और पाठक दोनों की भूमिका को देखती हैं। उनका मानना है ' तुम जरूर लिखो और पढो, क्योंकि आपकी जिंदगी इस
पर निर्भर है।... लिखो इसलिए क्योंकि जीवन निर्भर है अपने विश्वासों और पढ़ने पर। लेखन में स्नप्निल संसार की तरंगे और सामान्य
जीवन की कायिक संवेदनाएं व्यक्त होती हैं। '
रीच ने सवाल उठाया है लेखक जो लिखता है क्या उस
पर विश्वास किया जाय ? क्या लेखन
भाषा का दुरूपयोग है ? होसकता
है लेखक की कोई अप्रत्यक्ष मंशा हो ,जिसमें वह पाठक को कारण की तरह शामिल कर रहा
हो, पाठक को गलियों में भेज रहा हो और आपकी संवेदनाओं की जानी-परखी प्राथमिकताओं
की क्षमता को भाषा के जरिए अस्थिर करने की कोशिश कर रहा हो ?
रीच
की कविता की विशेषता है कि वे अपने ही लिखे पाठ के साथ निरंतर संवाद करती हैं ,
उनकी कोई अप्रत्यक्ष मंशा नहीं होती। अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि 'एड्रीन रिच कविता के महत्त्व को
अतिरंजित करने से गुरेज करती रहीं, हालांकि वे मानती थीं कि हमारे कठिन
समय में कविता की अनिवार्य भूमिका है। पर वे स्पष्ट थीं कि कविता राहत देने वाला
कोई मरहम, कोई भावात्मक मालिश, एक तरह की भाषिक एरोमाथेरापी नहीं
होती। न ही वह कोई ब्लूप्रिंट, कोई निर्देश-संहिता, न
ही बिलबोर्ड होती है। कोई सार्वभौम कविता नहीं है- कई तरह की कविता और कई
काव्यशास्त्र हैं।'
'रिच यह लक्ष्य करने से नहीं चूकी थीं कि कविता
के बारे में आलोचना-विमर्श में हमारे भौतिक अस्तित्व, वर्तमान
और अतीत के बारे में बहुत कम कहा जाता है। वह इन छोटी सच्चाइयों को हिसाब में नहीं
लेता कि कैसे हमारे भावात्मक जीवन पर यही छोटी चीजें अपनी छाप छोड़ती हैं: हम कैसे
देखते हैं हवा में धुएं का एक धब्बा, दुकान की शो-विंडो में जूतों की एक
जोड़ी, अपनी कार में सोई एक स्त्री, सड़क के मोड़ पर
जमा लोगों का एक समूह, कैसे हम सुनते हैं एक हेलीकॉप्टर की मंडराती
आवाज, छत पर बारिश, ऊपर की मंजिल पर रेडियो से आता संगीत,
कैसे हम पड़ोसी की आंखों में या कि किसी अजनबी की आंखों में ताकते हैं
या उन्हें बरकाते हैं। ये सभी दबाव हमारे देखने को प्रभावित करते हैं। अच्छी कविता
इन्हें हिसाब में लेती है, इन्हीं से अपनी काया गढ़ती है।रिच का मत
था कि सच्ची कविता विचारात्मक आज्ञापालक वृत्ति से बिलकुल अलग होती है। वह अज्ञात,
अपरिचित, अनचीन्हे के बोझ को सहती है। उसे मनुष्य का
भविष्य याद रहता है।'
सवाल यह है कि कविता की विचारधारा
होती है या नहीं ? अशोक वाजपेयी अच्छी तरह जानते हैं कि एंड्रीन रीच की विचारधारा
क्या है और वे कविता को किस रूप में देखती हैं और किस तरह अमेरिका के प्रगतिशील
साहित्य,स्त्रीवादी आंदोलन,स्त्री साहित्य आदि के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण
भूमिका रही है। वाजपेयी की रीच की आलोचना में जो चीज गायब है वह है अन्तर्विरोध का
सवाल। एंड्रीनी रीच ने इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा है कि कुछ लेखक आत्म-सेंसरशिप का इस्तेमाल करते हैं,इसका गहरा
संबंध उनके मूल्यबोध से है। इससे उनके सौंदर्यबोध का निर्माण भी होता है। खासकर
राजनीतिक कविता के संदर्भ में रीच ने लिखा है कि राजनीतिक कविता के जल्द ही
नारेबाजी में तब्दील हो जाने का खतरा रहता है। फलतः वह एकायामी,सरल,दैनंदिन
आंदोलनवाली हो जाती है और उसे ही हम 'प्रतिवादी साहित्य' कहते हैं। इस तरह की
कविता पुंस,गौरवर्ण,हैट्रोसेक्सुअल या मध्यवर्गीय परिप्रेक्ष्य की नहीं होती बल्कि
हम उसमें सार्वभौम की कुर्बानी देते हैं। सिर्फ अन्याय पर कविताएं लिखकर हम कविता
का दायरा सीमित करते हैं।
अशोक वाजपेयी जानते हैं कि रीच की कविता
राजनीतिक कविता है। रीच ने लिखा है राजनीतिक कविता में अन्तर्विरोध का केन्द्रीय
महत्व है। राजनीतिक कविता को अनेक लोग बुरी कविता मानते हैं। उसमें सब-वर्सिब
शक्ति मानते हैं। रीच ने इस तरह की आलोचना का खंडन करते हुए लिखा है कि "बुरे
लेखन" में शक्ति कैसे आ सकती है ? इस प्रसंग में एंड्रीन रीच ने "सिएटल
टाइम्स "(फरवरी,1999) को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि राजनीतिक कविता पदबंध
का आलोचकों के द्वारा प्रयोग होस्टाइल मनोभाव से हुआ है।वे यह मानते हैं कि
प्रौपेगैण्डा के लिए काव्य- सौंदर्य की बलि चढ़ा दी गयी है। लेकिन कविता की दुनिया
बहुत बड़ी होती है। कविता में सार्वभौम क्षमता होती है,वह अपने अंदर विभिन्न
विमर्श समेटे होती है ,फलतः सौंदर्य और राजनीति दोनों की अभिव्यक्ति करती है। रीच
के अनुसार 'कविता को कवि के दैनंदिन जीवन से अलग नहीं किया जा सकता।सामाजिक-राजनीतिक
परिवर्तन कवि के भावों को पुष्ट करते हैं।वह उनके साथ दीर्घकालिक तौर पर बंधा और
व्यस्त होता है। फलतः कवि की कविता में ऐतिहासिक निरंतरता होती है इसके कारण वह न
तो ऐतिहासिक निरंतरता से ऊपर होता है और न इतिहास के बाहर होता है।'
.
पढा। अशोक वाजपेयी जैसे चेहरे आलोचना के ही लायक हो सकते हैं।
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