रविवार, 28 अक्टूबर 2012

सिंगूरग्रंथि और ममता की चौदह घंटे की चुप्पी


सिंगूर–माकपा-मीडिया-पूंजीपतिग्रंथि ने पश्चिम बंगाल को पंगु बना दिया है। कमोबेश सभी दल इसकी गिरफ्त में हैं। राज्य के विकास और सांस्कृतिक उन्नयन के लिए जरूरी है कि इन चारों ग्रंथियों से राज्य को निकाला जाय। दुर्भाग्य की बात यह है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इनमें कैद हैं। ममता के मार्ग में पग-पग पर ये ग्रंथियां बाधा बनकर खड़ी हुई हैं। राज्य के मुखिया के नाते उनका इन चारों ग्रंथियों से मुक्त होकर प्रशासन चलाना बेहद जरूरी है। 

पश्चिम बंगाल का दुर्भाग्य है कि पहले वामशासन बुर्जुआग्रंथि से ग्रस्त था और उन तमाम चीजों को रोक रहा था जिनका पूंजीपतिवर्ग से संबंध है। ममता के शासन में आने पर यह लग रहा था कि राज्य प्रशासन को राजनीतिक ग्रंथियों से मुक्ति मिलेगी। लेकिन अब तक का अनुभव बताता है कि राज्य प्रशासन पहले से चली आ रही बुर्जुआग्रंथि से अभी तक मुक्त नहीं हुआ है,उलटे प्रशासन में सिंगूर-माकपा-मीडियाग्रंथि ने वायरस की तरह प्रसार कर लिया है।

प्रशासन में ग्रंथियां पूर्वाग्रह पैदा करती हैं और सहज-त्वरित फैसले से रोकती हैं। ममता को यदि सही मायने में राज्य के प्रभावशाली मुखिया की भूमिका अदा करनी है तो उसे इन चारों ग्रंथियों से मुक्त होना होगा। ग्रंथियां एकाकी मन और राजनीतिकदल को नकारात्मक दिशा में सक्रिय रखती हैं। ग्रंथियां हाइपर एक्टिव रखती हैं। ममता से लेकर माकपा तक सबमें यह हाइपर सक्रियता सहज ही देखी जा सकती है।

हाल ही ममता की सिंगूर -मीडियाग्रंथि का नया रूप सामने आया है जो निश्चित रूप से चिंता की बात है। बांग्ला के प्रसिद्ध साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय का 23 अक्टूबर को जब आकस्मिक निधन हुआ तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को शोक व्यक्त करने में चौदह घंटे से ज्यादा समय लगा। वैसे निजी तौर पर वे इसके लिए स्वतंत्र हैं कि वे कब शोक व्यक्त करें या शोक व्यक्त न करें,लेकिन एक मुख्यमंत्री के नाते उनके पास यह स्वतंत्रता नहीं है।

राजनीतिक हलकों में ममता बनर्जी को स्वतःस्फूर्त्त प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले राजनेता के रूप में जाना जाता है। लेकिन सुनील गंगोपाध्याय की मृत्यु पर मुख्यमंत्री के शोकसंदेश का चौदह घंटे तक न आना स्वयं में चिन्ता की बात है,साथ ही यह राज्य प्रशासन की मनोदशा की भी अभिव्यक्ति है। चौदह घंटे बाद अचानक फेसबुक पर ममता ने शोकसंदेश पोस्ट किया।

सवाल उठता है मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सुनील गंगोपाध्याय के घर जाकर शोक व्यक्त क्यों नहीं किया ? किसी संदेशवाहक के जरिए तत्काल शोकसंदेश उनके घर क्यों नहीं भेजा ? ममता इतने समय तक क्या कर रही थीं ? वे किसी राजनीतिक काम में व्यस्त थीं ? किसी प्रशासनिक काम में घिरी हुई थीं ? उनको किसी सलाहकार ने मना किया कि शोकसंदेश मत दो या ममता ने स्वयं ही इतना समय लिया ? ममता को इन सवालों का जबाव देना होगा। सच यह है कि ममता न तो किसी राजनीतिक काम में व्यस्त थीं और न किसी उधेडबुन में घिरी थीं।बल्कि ममता अपने ही मन में सिंगूर -मीडियाग्रंथि के आधार पर सुनील गंगोपाध्याय की मौत को देख रही थीं। उनके लिए सुनील ‘अपने’ नहीं ‘उनके’ (माकपा) लेखक थे। सच यह है सुनील गंगोपाध्याय सामान्य लेखक नहीं थे,उनको बांग्ला साहित्य के साथ बांग्ला जाति की पहचान के रूप में सारे देश में प्रतिष्ठा हासिल थी। उन्होंने 200 से ज्यादा किताबें लिखी हैं। राज्य में बांग्ला भाषा आंदोलन के प्रतिष्ठाताओं में से एक थे। उनका मानना था आम बंगाली अपनी भाषा में पढ़े ,लिखे और दैनंदिन जीवन में उसका व्यवहार करे। वे बांग्ला में अंग्रेजी शब्दों के व्यवहार के विरोधी नहीं थे। उनका मानना था कि भाषा के चालू शब्द मिलते हों तो अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। सुनील गंगोपाध्याय ने जो सामाजिक-राजनीतिक स्वीकृति अर्जित की थी वह कम लेखकों को नसीब होती है। वे सबके चहेते थे। वे राज्य में नेताओं पर अंकुश का काम करते थे। उन्होंने सत्ता की निरंकुशता की हमेशा तीखी आलोचना की। वे ममता बनर्जी की नीतियों के कटु आलोचक भी थे,सिंगूर आंदोलन के समय उन्होंने वाम सरकार का साथ दिया था और ममता के आंदोलन की आलोचना की थी। ममता की सारी मुश्किलें इसी सिंगूर ग्रंथि से जुड़ी हैं।इस सिंगूरग्रंथि के कारण ही ममता को शोक व्यक्त करने में चौदह घंटे लगे। ममता का 14 घंटे तक चुप रहना,बाद में फेसबुक पर संदेश देना, ममता का उनके घर जाकर तत्काल दुख व्यक्त न करना और अंत में अपनी इज्जत बचाने के लिए अंतिमयात्रा में शामिल होना, बताता है कि ममता का राजनीतिक भावबोध निरंतर राज्य को पीछे ले जा रहा है।

बांग्ला टीवी चैनलों ने सुनील गंगोपाध्याय की मौत पर ममता की चुप्पी का अहर्निश प्रचार करके ममता को मजबूर किया कि वे बयान दें। वे मजबूर हुईं और उनका फेसबुक पर चौदह घंटे बाद बयान आया, कोई प्रेस रिलीज जारी न करके, शोकसंदेश को किसी के हाथों लेखक के घर न पहुँचाकर उन्होंने चुपके से फेसबुक पर पोस्ट करके अपने कर्म की इतिश्री समझ ली। लेकिन टीवी चैनल ,खासकर एबीपी आनंद टीवी चैनल शांत नहीं बैठा उसके दबाब के कारण ही ममता को सुनील गंगोपाध्याय की अंतिमयात्रा में शामिल होने के लिए मजबूर होना पड़ा।

ममता के ये सारे एक्शन एक ही तथ्य बयां करते हैं कि ममता पर बांग्ला चैनलों का तेज दबाव है और वे मजबूर होकर वे सब काम कर रही हैं जो उनको पसंद नहीं हैं। उल्लेखनीय है 21 से 24 अक्टूबर तक बांग्ला के सभी समाचारपत्र बंद थे।राज्य में ऐसा कभी नहीं हुआ। हॉकरों ने वस्तुतःहड़ताल कर दी या उनसे हड़ताल करा दी गयी। किसी भी राज्य में वेबजह 4दिन तक अखबार बंद रहने की यह विरल घटना है। इसके पीछे कौन लोग हैं उनका पर्दाफाश किया जाना चाहिए। राज्य सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह प्रेस की आजादी को सुनिश्चित बनाए। लेकिन हॉकरों की 4दिन की हड़ताल(जिसे वे पूजा की छुट्टी कह रहे हैं) ने ममता सरकार के मीडियाविरोधी रवैय्ये को एकसिरे उजागर कर दिया है। ममता सभी किस्म की हड़तालों पर बोलती रही हैं लेकिन प्रेस में जबरिया करायी गयी इस चार दिन व्यापी हड़ताल पर वे चुप रहीं। हो सकता है ममता के सलाहकार मानते हों कि कम से कम चार तक दीदी को मानसिक शांति दी जाय।लेकिन मीडियाशांत नहीं था। सुनील गंगोपाध्याय की मौत ने समूचे मीडिया को उद्वेलित रखा साथ ही ममता को भी।




















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