आत्मकथा का पद्धतिशास्त्र-
इन दिनों अस्मिता साहित्य के कई रूप प्रचलन में इन तमाम प्रवृत्तियों का बहुराष्ट्रीय बुर्जुआ विचारधारा से गहरा संबंध है। नई अस्मिता संस्कृति आमलोगों में 'निजी संतुष्टि' की भावना पैदा कर रही है। आम लोगों से कहा जा रहा है 'निजी संतुष्टि' पर ध्यान दें। 'निजी संतुष्टि' की भावना ने नागरिकबोध और नागरिकचेतना को कमजोर बनाया है।' निजी संतुष्टि' के नाम पर उपभोक्ता की स्वतंत्रता की बातें कही जा रही हैं।
'निजी संतुष्टि' पर आधारित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर साहित्य में इनदिनों आत्मकथाओं की बाढ़ आ गयी है। 'निजी संतुष्टि' का सामाजिक मूल्यों के तानेबाने के साथ गहरा अन्तर्विरोध है। अनेक मामलों में आत्मकथाओं के विवरण और ब्यौरे नैतिक तौर पर अपमानजनक चीजों को पेश करते हैं। खासकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजी संतुष्टि की धारणा की आड़ में व्यक्ति के एकाकी भावबोध को खूब बढ़ावा दिया जा रहा है। यह ग्लोबलाइजेशन का ग्लोबल फिनोमिना है। यह ऐसे व्यक्ति की आत्मकथा है जो निजी तौर पर किसी विचार या विचारधारा से बंधा नहीं है। इसके पास किसी विचार या विचारधारा की परंपरा नहीं है। इसका प्रत्येक चीज और व्यक्ति के साथ बिनाशर्त संबंध है।
रामविलास शर्मा ने अपनी आत्मकथा 'अपनी धरती अपने लोग' में व्यक्ति और विचारधारा के अनतस्संबंध को उभारा है। लेखक की नागरिकचेतना और वर्गीयचेतना को उभारा है। लेकिन इन दिनों आने वाली स्त्री और दलित लेखकों की आत्मकथाओं में इसके विपरीत लक्षण देखने में आए हैं। वे ऐसे व्यक्ति का चित्रण करते हैं जो अंतर्वैयक्तिक (इंटरपर्सनल) संबंधों और नागरिक शिरकत के लिए किसी विचारधारा से जुड़ा नहीं है। उस पर उसकी मास्टरी नहीं है।
इस पूरी प्रक्रिया में सार्वजनिक मनुष्य की अवधारणा का क्षय हुआ है। इससे यह भी पता चलता है कि सार्वजनिक जीवन का क्षय हो रहा है। सार्वजनिक राजनीतिक स्पेस का क्षय हुआ है। वस्तुकरण और नौकरशाही की प्रवृत्ति बढ़ी है। इसके अलावा सामाजिक बंधनों की कीमत पर आत्म-संतुष्टि, संवेदनात्मक अभिव्यक्ति और आत्म-क्षय की प्रवृत्ति बढ़ी है। यह सामाजिक नार्सीज्म है। इसमें दैनंदिन जीवन की छोटी –छोटी आपातकालीन कथाएं हैं । इसमें सामाजिक प्रतिबद्धता और निजी लगाव का अन्तस्संबंध बड़े पैमाने पर टूटा है। अनेक स्थानों पर आत्मकथाओं में निजी लगाव की बातों पर जोर है और सामाजिक वचनवद्धता की उपेक्षा की गयी है।
यह नए किस्म का व्यक्तिवाद है। जिसका लक्ष्य है भौतिक लाभ पाना और निजी सफलता पाना। इसके पास छद्म प्रतिबद्धता है। इसके अन्य के सरोकार से बेखबर है। कहीं कहीं यह व्यक्तिवाद, सांस्कृतिक परंपरा,राजनीतिक संस्कृति और सामाजिक इतिहास के रूप में भी आया है।
कई आत्मकथाओं में ऐसी भाषा का इस्तेमाल हुआ है जिससे भाषा की मानवीयक्षमता का क्षय हुआ है। भाषा का काम है मानवीयक्षमता में इजाफा करना।साहित्य और सामाजिक जीवन में गाली-गलौज की भाषा मानवीयक्षक्षमता के क्षय का संकेत है।गाली-गलौज की भाषा या भाषा के असभ्य प्रयोग अंततः मानवीय क्षमता और व्यक्ति की निजी क्षमता को विकृत करते हैं। इस तरह के भाषिक प्रयोग इस बात का संकेत है कि निजी जीवन का ह्रास हो रहा है।
अस्मिता साहित्य के तहत जो आत्मककथाएं आई हैं उनमें एक अन्य फिनोमिना भी दिखाई दे रहा है और वह है निजी जीवन के सारतत्व और उसके ताने-बाने को पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था खाए जा रही है। यहां अनेक मामलों में वह अपने को सामाजिक प्राणी के रूप में नहीं देखता । आत्मकथाओं में सेल्फ ऑब्शेसन और अबाधित आत्ममोह मुख्य चिंता की बात है। लेखक अपने निजी आंसुओं,कर्म और कष्टों का अतिरंजित वर्णन कर रहे हैं। इससे उन्हें 'सांस्कृतिक शांति' मिलती है। इसे समीक्षा में 'कल्चरल कूलिंग' या 'सांस्कृतिक शांति ' कहते हैं।
'सांस्कृतिक शांति' के फ्रेमवर्क में जब चीजें पेश की जाती हैं तो वे दलित और स्त्री दोनों का ही अपहरण करती हैं। वे आत्मकथाओं में ऐसा समाज रच रहे हैं जो अपने ही घेरे में बंद हैं। सेल्फ ऑब्शेसन और बाजार निर्मित अस्मिता के तत्वों को अपने अंदर समेटे है। यहां एक तरह से मानवीय व्यवहार का निजीकरण मिलेगा। यह सामयिक सांस्कृतिक अवस्था का लक्षण है। यहां निजी जीवन के अ-राजनीतिक और व्यक्तिगत विवरण और ब्यौरे छाए हुए हैं। इन कथाओं में सार्वजनिक और निजी के बीच में अंतर की दीवार भी धराशायी हो गई है। आत्मककथाओं में जो राजनीति आ रही है वह बाहरी राजनीतिक मसलों के संदर्भ में आ रही है। पहले निजी मसलों और राजनीति का संबंध मिलता है। खासकर रामविलास शर्मा की आत्मकथा में यह फिनोमिना नजर आता है। लेकिन इनदिनों आने वाली आत्मकथाओं में निजी को राजनीति से अलग एक भिन्न सामाजिक केटेगरी में रख दिया गया है। इस चक्कर में संस्कृति और राजनीति के बीच में फांक पैदा हो गयी है। इसके कारण लेखक का निजी जीवन अलग और राजनीतिक प्रसंग अलग नजर आते हैं।
आत्मकथा लेखन में एक और फिनोमिना नजर आता है वह है 'सांस्थानिक व्यक्तिवाद'। इसमें व्यक्ति अपनी आत्मकथा का आख्यान रचते हुए निज के द्वारा तय की गयी परिभाषाओं को पुनर्परिभाषित कर रहे हैं। इस तरह की प्रस्तुतियां दलितलेखकों ने खूब लिखी हैं। यह आज के भूमंडलीकरण का प्रतिगामी बुनियादी लक्षण है।
इस धारणा के मानने वाले कहते हैं मौजूदा कनेक्टविटी के दौर में मनुष्य अपनी बार बार यात्रा करता है।नए सिरे से काम करता है।पुनर्पाठ करता है।व्यक्तिगत आदतों और अस्मिताओं की रोशनी में राज्य को देखता है। समाज को देखता है और बताने की कोशिश करता है कि यह विश्व किस दिशा में जा रहा है। यह पद्धति रामविलास शर्मा की आत्मकथा में भी इस्तेमाल की गयी है। इस पद्धति का प्रयोग करते हुए लेखक परंपरा से आधुनिकता की ओर प्रयाण करता नजर आता है। आत्म-निर्माण की प्रक्रिया नजर आती है लेकिन सांस्कृतिक वैविध्य या क्षेत्रीय सांस्कृतिक भिन्नताएं नजर नहीं आतीं।
पश्चिम और भारत में आत्मकथा लेखन में एक अंतर है, पश्चिम में आत्मकथा लेखक को इतिहास बहुत कम परेशान करता है। लेखक आसानी से अपने को इतिहास से मुक्त होकर लिखता है। लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। भारत में आत्मकथा या जीवनी में इतिहास आसानी से पीछा नहीं छोड़ता। पश्चिम के लेखक की अस्मिता ,इतिहास से अपने को अलग कर लेती है। भारत में लेखक की अस्मिता ,इतिहास से अपने को अलग नहीं कर पाती। परंपरागत समाज में व्यक्ति के पास न्यूनतम स्वायत्तता भी नहीं होती। जबकि आधुनिक धर्मनिरपेक्ष समाज उसे पूरी स्वायत्तता देता है।
पश्चिम में लेखक को परंपरा और सामाजिक इतिहास के ज्ञान के आधार पर समझने में मुश्किल से मदद मिलती है।जबकि भारत में उसके बिना समझना मुश्किल है। मसलन् ,रामविलास शर्मा की आत्मकथा या उनके द्वारा लिखी 'निराला की साहित्य साधना" में 1857 और परंपराएं व्यक्तित्व निर्माण के प्रमुख तत्वों में हैं। इसी तरह ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा में जातिप्रथा ऐतिहासिकता के साथ दाखिल होती है।
आधुनिकता के आने के साथ आधुनिकीकरण की अपार संभावनाएं पैदा होती हैं। व्यक्तिवादी ढ़ंग से विकास के अवसर पैदा होते हैं। आधुनिक संगठनों का उदय होता है। ये संगठन व्यक्ति के आत्म को नए सिरे से निर्मित करते हैं। उसके जीवन में अभिव्यंजित होते हैं। इनमें खासतौर पर शिक्षा और राजनीति के संगठनों के द्वारा व्यक्तित्व के नए रूपों के निर्माण में खाससतौर पर मदद मिलती है। इनसे विगत जीवन की अनिश्चितता और असुरक्षा से मुक्ति मिलती है।आत्मनिर्भर व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इसी क्रम में कैरियर,परिवार,मित्र,कार्यक्षेत्र,प्रेम आदि के अंतर्विरोधों को हल करने में मदद मिलती है। यानी व्यक्ति एक नए किस्म के आधुनिक व्यक्तिवाद के जरिए अपना विकास करता है। इससे आत्म संचालित संस्कृति और आत्म निर्धारित आत्मकथा के रूपों का निर्माण होता है।
एक मर्तबा फ्रांसीसी लेखक जॉन पाल सार्त्र ने कहा था कि बुर्जुआ की तरह जन्म लेना ही काफी नहीं है ,बल्कि बुर्जुआजी की तरह जीना भी आवश्यक है। इसी नजरिए को आधार बनाकर रामविलास शर्मा और ओमप्रकाश बाल्मीकि अपनी आत्मकथाओं में यह दर्शाने की कोशिश करते हैं कि उनका व्यक्तित्व सेल्फमेड है। वे यह भी दर्शाते हैं कि उन्होंने अपना ही नहीं अपने परिवार,मित्र और संबंधियों के भी निर्माण में मदद की है। साथ ही यह भी संदेश देते हैं कि व्यक्तित्व निर्माण के प्रमाण समाज और आत्मकथा में चारों ओर पारदर्शी रूप में फैले हैं। इन दोनों लेखकों की आत्मकथाओं में जीवन के बारे में पुरानी निश्चितता नष्ट होती है और ये दोनों ही लेखक नए किस्म की निश्चित जिंदगी जीने के विकल्पों की ओर मुखातिब होते हैं।
रामविलास शर्मा और ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा वस्तुतःआत्मनिर्माण या सेल्फमेड व्यक्ति की आत्मकथा है। इस तरह की आत्मकथा में एक जोखिम है ,इसमें जो चीजें चुनी जा रही हैं उनमें जोखिम भी है। मसलन् रामविलास शर्मा कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाइमर थे । लेकिन भयानक असुविधाओं का सामना करना पड़ा। फलतः उन्हें होलटाइमरशिप छोड़नी पड़ी।
लेखक जो कैरियर या जीवनशैली चुनना चाहता है।वह वैसा नहीं बन पाता । अतःजिस आत्मकथा को वह सेल्फमेड रूप में पेश करना चाहता है उसी आत्मकथा में वह ब्रेकडाउन जीवनी को भी पेश करता है।ब्रेकडाउन जीवनी के अनेक पहलुओं को बड़ी खूबी के साथ रामविलास शर्मा ने 'निराला की साहित्य साधना' में भी दरशाया है। निराला के सपने किस कदर टूटते हैं और वे जो बनना चाहते हैं वह नहीं बन पाते।जैसे जीना चाहते हैं वैसे जी नहीं पाते। जीवनी लेखन की यह पद्धति पूरी तरह उत्तर आधुनिक पद्धति है।मसलन् निराला चाहते थे कि महिषादल का राजा उनको गोद ले और वे राजकुमार की तरह जिंदगी व्यतीत करें। यह नहीं हो पाता और यह उनके जीवन की बड़ी पीड़ा बनती है।
लेखकद्वय ( रामविलास शर्मा-ओमप्रकाश बाल्मीकि) की आत्मकथाओं में परिवार बना रहता है और इन दोनों के व्यक्तित्व निर्माण में परिवार की भूमिका साफ नजर आती है। आधुनिक समाज में व्यक्तित्व निर्माण में राज्य की बड़ी भूमिका होती है लेकिन इन लेखकों के व्यक्तित्व निर्माण में परिवार की बड़ी भूमिका सामने आती है। दूसरा बड़ा संस्थान है शिक्षा व्यवस्था। शिक्षा की इनके व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका नजर आती है। वहीं निराला का परिवार बिखर जाता है और परिवार उनके विकास में बहुत बड़ी बाधा बन जाता है।ठीक यही पहलू नामवरसिंह की आत्मकथा के अंशों में है। वहां परिवार नदारत है।परिवार के नाम पर विस्तारित परिवार के लोग भूमिका में नजर आते हैं। यही स्थिति अनेक लेखिकाओं की आत्मकथाओं में भी नजर आती है।
निराला-नामवरसिंह-मन्नूभंडारी आदि की जीवनी-आत्मकथाओं में सामाजिक परिस्थितियां,खासकर पारिवारिक परिस्थितियां ऐसी हैं जो इन व्यक्तियों को दंडित करती हैं। इन सभी लेखकों का व्यक्तिवाद इनको आगे ठेलता है और इसके कारण इनके सामाजिक अंतर्विरोध और भी गहराने लगते हैं।
रामविलास शर्मा,नामवरसिंह,ओमप्रकाश बाल्मीकि,मन्नू भंडारी आदि की आत्मकथाओं में व्यक्त तथ्य इस बात को पुष्ट करते हैं कि इन लेखकों के जीवन में व्यक्तिवादी दबाब इनको भविष्य की ओर ठेलते रहे हैं। व्यक्तिवादीकरण एक अपरिहार्य अवस्था है। इससे बचा नहीं जा सकता। लेखक के नाते ये लोग उसे नियोजित करके पेश करते हैं। ये अपने व्यक्तिवाद का विभिन्न बदली परिस्थितियों में इस्तेमाल करते हैं।
इन लोगों ने निजी तौर पर व्यक्तिवाद की आलोचना की लेकिन व्यक्तिवादीकरण इनकी मजबूरी है।यहीं पर इस प्रवृत्ति की बिडम्वना सामने आती है। इस क्रम में जहां एक ओर वे अपनी जीवनी बनाते हैं ,साथ ही अपने आसपास नेटवर्क भी बनाते हैं। यह नेटवर्क शिक्षा संस्थान,राजनीतिक दल,सांस्कृतिक संगठन आदि से बन रहा है। मसलन् ,रामविलास शर्मा,ओमप्रकाश बाल्मीकि, निराला आदि की आत्मकथा-जीवनी में परिवार और गांव के सामुदायिक जीवन या कॉमरेडशिप वाले दौर की अनिश्चितता सामने आती है। यह अनिश्चितता इनके आख्यान का सबसे बड़ा संसाधन है।
इन लेखकों के यहां एक चीज साझा है कि वे आधुनिक जीवन जीना चाहते हैं लेकिन आधुनिक जीवन जीना इनके लिए असंभव हो जाता है।ये रूटिन के बाहर रहकर जीना चाहते हैं लेकिन दैनंदिन रूटिन जीवन इनको अपनी ओर खींचता है। रूटिन चीजें इनके विचार और कर्म दोनों को प्रभावित करती हैं।
'रुटिन' की अमूमन आत्मकथा-जीवनी पढ़ते हुए हम उपेक्षा करते हैं। दैनंदिन रूटिन को व्यक्ति किस तरह आत्मसात करता है और आगे बढ़ता है इन सब बातों की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। 'रुटिन' के कारण व्यक्ति में सामुदायिक आदतों-संस्कारों आदि का निर्माण होता है। मसलन् प्रगतिशीलों में रहना, उनकी बातें करना,उनकी आदतों और व्यवहार को जीवन में उतारना आदि रूटिन सामूहिक आदतें हैं, इन्हें हम लेखक के प्रतिवादी कर्म के रूप में देखते हैं।
सामयिक भूमंडलीकरण के ग्लोबल फिनोमिना के अंग के रूप में आत्मकथाओं में नए किस्म का व्यक्तिवाद नजर आ रहा है। यहां लेखक नए रूप में अपनी खोज करता है। वह लिखता है अपने अतीत को बताने के लिए,लेकिन बताता है अपने व्यक्तित्व के रूपान्तरण को । वह यह भी दरशाता है कि वह ग्लोबल परिवर्तनों के साथ खुद भी बदल रहा है। लेखक अपनी जीवनी को नया रूप देने और दिशा देने में सक्षम है। यह ऐसा लेखक है जो अपने सांस्कृतिक प्रतीकों की स्वयं खोज करता है। नए भूमंडलीकरण में व्यक्ति की अस्मिता और सांस्कृतिक रूपों का वो सर्जक है।
दलितों की आत्मकथाओं में जीवनशैली का खूब चित्रण मिलता है। इसके विपरीत रामविलास शर्मा के यहां जीवनशैली के चित्रण पर जोर नहीं है। जीवनशैली वाला तत्व ग्लोबलाईजेशन का हिस्सा है। दलित की जीवनशैली के साथ एक बागी व्यक्तित्व सामने आता है। लाइफस्टाइल और रिवेल या बागी ये दोनों भूमंडलीकरण के फिनोमिना हैं। वे ऐसे व्यक्ति का चित्रण करते हैं जिसे यथास्थितिवाद पसंद नहीं है।
यथास्थितिवाद का बागी तेवरों के साथ निषेध करने वाले तत्व मासकल्चर में खूब मिलेंगे। जिस तरह मासकल्चर को बागी हीरो पसंद आते हैं. उनके संवादों को हम उद्धृत करते हैं। ठीक वैसे ही दलितसाहित्य और स्त्री साहित्य में भी बागी लेखक को पसंद किया जाता है। उनके चुभते संवाद पसंद आते हैं। उनका अविश्वास पसंद आता है। उनका इन चीजों का महिमामंडन पसंद आता है। इस तरह की प्रस्तुतियों की खूबी है कि आप उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते। चूंकि ये बदले हुए समय की तस्वीरें हैं,इनमें चीजें बदलती नजर आती हैं। वे अपनी अस्मिता को खोजते हैं,नया रूप देते हैं। ये तस्वीरें प्रेरक का काम भी करती है।
दलित आत्मकथाओं में मासकल्चर के बागी नायकों की तरह एक तरह का सांस्कृतिक अंतर्विरोध अंतर्ग्रथित है। वे सब कुछ अभी चाहते हैं। इनमें समाज,जाति,जीवनशैली आदि को तत्काल बदलने की आकांक्षा जमकर व्यक्त हुई है। वे अपने पाठक को 'ट्रांसफार्म' और 'इंप्रूब' करने की ओर ध्यान खींचते हैं।
आत्मकथाओं की हाल ही में जो बाढ़ आई है उसका एक और मकसद है सेल्फ थेरेपी करना। यह उपभोक्तावाद से जुड़ा फिनोमिना है। इसमें अस्मिता की इंस्टेंट इमेजों का खूब प्रक्षेपण हो रहा है। इस तरह की अस्मिता की एक ही मुश्किल है कि इसमें प्रभावित करने की क्षमता नहीं है। यह मीडिया में चल रहे अस्मिता के इंस्टेंट फ्लो से प्रभावित है इसमें तत्काल संप्रेषित करने और तत्काल परिणाम पाने की मंशा काम कर रही है। ये आत्मकथाएं मासकल्चर के फार्मूलों के आधार पर लिखी जा रही हैं।
मासकल्चर का फार्मूला है कि आप अपने अंदर कुछ भी इन्वेंट कर सकते हैं। इस काम से आपको कोई नहीं रोक सकता। सिर्फ तुमको चुनना है कि क्या इन्वेंट करना चाहते हो। जिस तरह माउस का बटन दबाते ही आप शिफ्ट कर जाते हैं। उसी तरह अस्मिता पर लिखी एक किताब से दूसरी किताब की ओर शिफ्ट कर जाते हैं। इसमें आपकी कोई विचारधारात्मक प्रतिबद्धता नहीं होती।
इन आत्मकथाओं में एक खास किस्म की जीवनशैली की ओर रूझान नजर आ रहा है और उसकी ब्रॉण्डिंग भी हो रही है। दलित अस्मिता का आधुनिक जीवनशैली में रूपान्तरण उसके व्यक्तित्व के छोटे –छोटे विवरण और ब्यौरों से भरा है। इन सभी आत्मकथाओं में व्यक्तित्व की लोचदार इमेज सामने आ रही है। इस इमेज का दलित की उपलब्धि और संभावनाओं के आधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता। बल्कि इन आत्मकथाओं के बारे में हमें व्यक्तित्व के रूपान्तरण और लोच के आधार पर देखना चाहिए।
दलित आत्मकथाओं में दलित को शोषण और जाति उत्पीड़न के वैविध्यपूर्ण चित्रों के जरिए सजाने की कोशिश की जा रही है। इनमें चार फिनोमिना हैं। पहला फिनोमिना है नकारात्मक-सकारात्मक चीजों का। दूसरा है ,अलगाव और स्वाधीनता का। इसका सांस्कृतिक महत्व है। इसके अलावा इकसार सामाजिक संदर्भ बार बार सामने आया है। इसके कारण सामाजिक संदर्भ अप्रासंगिक हो गया है।सामाजिक संदर्भ को परंपरा और जातिप्रथा के इकसार या स्टीरियोटाइप संदर्भ ने अपदस्थ कर दिया है। सामाजिक संदर्भ की विभिन्न सीमारेखाओं को इनके जरिए अप्रासंगिक बनाया गया है।
दलित आत्मकथाओं में भूमंडलीकरण की तीन संवृत्तियां नजर आती हैं। प्रथम, परंपरा को कम करके देखा गया है। खासकर परंपरागत जीवनशैली की उपेक्षा की गयी है। इसी क्रम में वि-परंपरावाद का विकास हुआ है। पहले से चली आरही चीजें अब दलित आत्मकथाओं में सुरक्षाबोध पैदा नहीं करती।
दूसरी संवृत्ति है ,व्यक्ति की सामाजिकरेखाएं और परंपराएं टूट रही हैं। मसलन् ,शादी एक संस्थान है जो आत्मकथाओं में टूट रहा है या शादी पर पर्दा पड़ा है। तीसरा फिनोमिना है ,व्यक्ति के जीवन में बदलाव आ रहे हैं, उनकी व्याख्या विचारधारात्मक आधार पर होनी चाहिए।
व्यक्ति में आए बदलाव इनदिनों जितने ज्यादा आज नजर आ रहे हैं ,उतने पहले नजर नहीं आते थे। इसका प्रधान कारण है नव्य आर्थिक उदारीकरण। इसने निजीकरण की प्रक्रिया तेज की है। फलत आत्मकथाओं में निजी जीवन के दैनंदिन पहलू सामने आए हैं। निजी गुस्सा,भय,असंतोष ,संशय और अविश्वास ,सामाजिक अव्यवस्था और हिंसाचार के विवरण और ब्यौरे भी चले आए हैं।
दलित आत्मकथाओं के विवरण यह भी बताते हैं कि भारत में सामाजिक असमानता कम हो रही है। यह कम होती असमानता उनमें ज्यादा दिख रही है जो दलितवर्ग की निम्न अवस्था से रूपान्तरित होते हुए मध्यवर्ग या निम्न-मध्यवर्ग में आ गए हैं। इस क्रम में ये लोग अपने वर्ग से भिन्न वर्ग में रूपान्तरित हो गए हैं।
इन दिनों आत्मकथा विधा का दायरा लगातार विकसित हो रहा है। रामविलास शर्मा ने निराला के निजी पत्रों को शामिल करके पत्रों को साहित्य में शामिल करा दिया,लेकिन इसके दायरे में यात्रा संस्मरण,निजी डायरी और भाषण भी आते हैं। इस प्रसंग में मुख्य सवाल यह है कि हिन्दी में आत्मकथा को जनप्रिय होने में इतना समय क्यों लगा ? अंग्रेजी में आत्मकथा लंबे समय से विधा के रूप में लोकप्रिय रही है। हिंदी में यह 1990 के बाद ही लोकप्रिय हो पायी है और उस पर विभिन्न कोणों से बहसें हो रही हैं। इन बहसों में विधा और अंतर्वस्तु को जोड़कर नहीं देखा जा रहा। अधिकांश समय अंतर्वस्तु की विवेचना में ही आलोचकगण व्यस्त हैं।
यह भी देखने में आया है कि हिंदी में अनुदित होकर विदेशी लेखकों की आत्मकथाएं आ रही हैं और ये आत्मकथाएं बड़ी मात्रा में बिक रही हैं। आत्मकथा का पाठकवर्ग तैयार करने में इन अनुदित किताबों की बड़ी भूमिका है। हिंदी के साहित्यकारों की आत्मकथा और जीवनियां सिर्फ साहित्य के विद्यार्थियों के एक छोटे समूह में बिकती हैं। लेकिन अनुदित आत्मकथा की किताबें व्यापक जनसमूह में अपना पाठकवर्ग तैयार करने में सफल रही हैं।
आत्मकथा या जीवनी को हमें अस्मितासाहित्य की कोटि में रखकर विचार करना चाहिए। अभी तक हम इसे अस्मिता के दायरे में रखकर नहीं सोच रहे। किस दलितलेखक की आत्मकथा को हम अस्मिता के आधार पर देखने को तैयार हो जाते हैं लेकिन किसी गैर-दलित लेखक की आत्मकथा को अस्मिता के आधार पर देखने में असमर्थ रहे हैं। मसलन् ओमप्रकाश बाल्मीकि और रामविलास शर्मा की आत्मकथाएं अस्मिता की केटेगरी में रखकर पढ़ जानी चाहिए।
आत्मकथा या जीवनी मूलतः अस्मितासाहित्य है।इसके साथ ही जनजाति,अनुसूचित जाति,लिंग और वर्ग का साहित्य अस्मितासाहित्य है। किसी आदिवासी या स्त्री या दलितलेखकों की आत्मकथाओं में साझा सांस्कृतिक रूप,साझा सामाजिक परिस्थितियां और संघर्ष के साझा मुद्दों के दर्शन होते हैं। ये मुद्दे हैं- छूत-अछूत,शिक्षा में भेदभाव,श्रमविभाजन में भेदभाव, कृषिशोषण, जमीन के अधिकार, ऊँच-नीच के सवाल,वर्ण और जातिप्रथा, सेक्स, शारीरिक शोषण, पति-पत्नी में असमानता, स्त्री की अधिकारहीनता, मातहत भावबोध आदि। इन सभी में एक साझा तत्व है कि ये सभी स्वयं की पहचान को बनाने के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं।
इनमें दूसरा साझा तत्व है कि लेखक जैसा महसूस करता है वैसा लिखता है। अन्य क्या महसूस करते हैं उस पर उसकी नजर नहीं है। कहानी-उपन्यास लिखते समय लेखक अन्य कैसे सोचता है इसके बारे में भी सोचता है लेकिन आत्मकथा में खासकर दलित और स्त्री की आत्मकथा में वह अपनी भाषा में ही सोचता है। निजी और सामाजिक जीवन के अछूते पक्षों को बताते समय उसकी नजर स्वयं पर होती है। वह स्वयं कैसे देखता है उसका ही चित्रण करता है। ऐसा करके लेखक दो काम करता है ,जहां वह अपनी बात कहता है वहीं पाठक के सामने यह स्थितियां पैदा करता है कि वह अन्य के साथ उसकी तुलना करे। अन्य हो सकता है समान हो ,भिन्न हो या उसके साथ अन्तर्विरोध हों।
एक और फिनोमिना है जिस पर ध्यान देना चाहिए कि आत्मकथाओं में अभी हम लेखक या लेखिकाओं की आत्मकथाओं पर ही ध्यान दे रहे हैं,लेकिन जो लेखक और लेखिका नहीं हैं,सामान्य लोग हैं उनकी आत्मकथा की ओर हम ध्यान नहीं दे रहे।
आत्मकथा मूलतः लेखक की सांस्कृतिक क्षति पूर्ति करती है। आत्मकथा के बहाने लेखक-लेखिका ने अपने सामाजिक जीवन में जो सांस्कृतिक क्षति उठायी है उसको वे हासिल करती हैं। वे उन बाधाओं की ओर ध्यान खींचते हैं जिनके कारण उनका विकास बाधित हुआ। मसलन्, दलितों या स्त्रियों या आदिवासी के जीवन में जिन बातों को छिपाया गया, जिस शोषण को छिपाया गया, जिस उत्पीड़न को छिपाया गया उससे उनकी सांस्कृतिक क्षति हुई और वे अपनी आत्मकथा लिखकर इस सांस्कृतिक नुकसान की भर पायी करते हैं।
आज जिस तरह आत्मकथा को सम्मान की नजर से देखा जाता है वह एक तरह से इन लेखकों की सांस्कृतिक क्षति की सामाजिक स्वीकृति है। उनका जो सांस्कृतिक स्थान समाज में छीना गया था उसे वे इसके जरिए हासिल करते हैं। वे अदृश्य थे और अदृश्य होना उनकी क्षति थी, आत्मकथा उनको दृश्य बनाती है, उनकी उपस्थिति का एहसास कराती है और इस तरह वे अपना खोया हुआ स्थान हासिल करते हैं। दलित या स्त्री या आदिवासी का दिखना स्वयं में बड़ी सांस्कृतिक उपलब्धि है। इसके अलावा आत्मकथा से साहित्य की प्रचलित विधागत मान्यताएं भी टूटती हैं। मसलन् लिंग,भाषा,जातिवाद,धर्म आदि के पूर्वाग्रह टूटते हैं।
आत्मकथा में व्यक्ति के विवरण ही नहीं होते बल्कि उसमें इस धरती या भूगोल का भी ब्यौरा चला आता है। मसलन् एक आदिवासी या दलित जब आत्मकथा लिखता है तो उसके लेखन में निजी जीवन के साथ उसका स्थानीय संसार भी चला आता है। जमीन या कृषि संबंध भी चले आते हैं। हमें देखना चाहिए कि जमीन और घर से लेखक का क्या संबंध है ? आत्मकथा में समय (टाइम) भी चला आता है। यह भी अंदाजा लगा सकते हैं कि उसके कानूनी अधिकार क्या हैं ?
स्त्री और दलित आत्मकथाओं से यह भी पता चलता है कि ये लोग अपने अतीत से कैसे मुक्त हो रहे हैं। इनका अतीत में जाना तीन काम करता है,पहला, स्त्री और दलित के अतीत के यथार्थ को सामने लाता है ,दूसरा, इस यथार्थ से मुक्त करता है।तीसरा, वे जिन चीजों को सबसे ज्यादा प्रतीकात्मक रूप में व्यक्त करते हैं वह है श्रम,श्रम के विविध रूपों के चित्रण के जरिए वे श्रम को जीवन लाइफ लाइन के रूप में चित्रित करते हैं। साथ ही लाइफलाइन के अन्य रूप हैं खेत,कसाईघर,घरेलू काम,बच्चे पालना आदि। इनका चित्रण अंततः प्रतीकात्मक रूप में साहित्य में लाइनलाइन की अभिव्यक्ति है। इसमें जीवन के प्राचीनरूपों से लेकर मध्यकालीन रूपों को सहज ही देखा जा सकता है। इसके कारण आत्मकथा में प्रामाणिकता आती है।
आदिवासी,स्त्री और दलित की आत्मकथाओं में अनेक स्थानों पर इस तरह की लोकल भाषा मिलती है जो आमजीवन में सुनाई नहीं देती ,लेकिन आत्मकथा में है ,वह उनके जीवन में भी है। वहां ऐसे भाषिक प्रयोग मिल जाएंगे जो सामान्य भाषा में इस्तेमाल नहीं किए जाते। इनका विशिष्ट अर्थ है जो दलित या स्त्री के संदर्भ में ही इस्तेमाल किया जाता है। गिली देलुत्ज एवं फेलिक्स गुइतारी ने इसे “ मीनार लैग्वेज” यानी वर्चस्ववादी भाषा कहा है। इसकी इन दोनों आलोचकों ने काफ्का की भाषा के संदर्भ में “ काफ्काः टुवर्ड ए मीनार लिटरेचर ” (1975) में इस अवधारणा की चर्चा की है। यह ऐसी भाषा है जो इडियम की अस्मिता के वर्चस्ववादी रूप को सामने लाती है। इसके आमफहम अर्थ को सामान्य जीवन में खोजना मुश्किल है।फलतः यह मुख्यधारा के विमर्श को पटरी से उतार देती है।
स्त्री ,दलित और आदिवासी अल्पसंख्यक हैं और इसी नाते वे हाशिए पर हैं। ये लोग जब आत्मकथा लिखते हैं तो वे हाशिए की संस्कृति बनाते हैं। आमतौर पर हाशिए के लोगों को गैर-महत्वपूर्ण माना जाता है। यह बार बार कहा गया है कि हाशिए के लोगों का साहित्य मुख्यधारा के साहित्य की कोटि में नहीं आता। साहित्य की कोटि में स्त्रीसाहित्य और दलितसाहित्य नहीं आता। यह ऐसा साहित्य है जिसका अपना क्षेत्र नहीं था, साहित्य में कोई स्थान नहीं था।समाज में कोई स्थान नहीं था। लेकिन यह सीधे राजनीतिक साहित्य है। सवाल यह नहीं है कि स्त्रीसाहित्य या दलित साहित्य को साहित्य में जगह मिली या नहीं ? सवाल यह है कि यह साहित्य पाठक को साहित्य और राजनीति के बारे में सोचने के लिए मजबूर करता है या नहीं ? दलित और स्त्रीसाहित्य की भाषा इसी अर्थ में प्रचलित वर्चस्ववादी भाषा से भिन्न होती है। भिन्न भाषा में ही वे भिन्नसंसार पेश करते हैं। इसे वैकल्पिक भाषा भी कह सकते हैं इसकी समूची रणनीति इस बात से तय होगी कि लेखक, स्त्री और दलित के यथार्थ का कितनी गहराई में जाकर चित्रण करना चाहता है।
रामविलास शर्मा ने “घर की बात” किताब संपादित की है उसमें उनके परिवार के लोगों के बयान हैं। इसे आत्मकथा की कोटि में नहीं रख सकते। इसका प्रधान कारण है कि आत्मकथा वस्तुतः साझा लेखन नहीं है। आत्मकथा व्यक्तिगत लेखन है। एकल लेखन है।
आत्मकथा के अनेकरूप मिलते हैं जो भिन्न भी हैं, जैसे आत्मकथा, आत्मकथात्मक आख्यान, जीवन इतिहास,जीवनी,जीवन परिचय,आत्मकथ्य,इतिहास, स्थानीय इतिहास,वाचिक इतिहास,जनजातीय आत्मकथा और उपन्यास। ये सभी विधारूप स्वतंत्र हैं और किसी न किसी रूप में जुड़े हुए भी हैं।क्योंकि इन सबमें साझा तत्व है निजी जीवनानुभव। इनमें जो भेद है वो प्रच्छन्न और अंतर्वस्तु के स्तर पर है।
मसलन् किसी लेखक की आत्मकथा लिखने के लिए लेखन,भाषण और वाचिक संस्मरणों,जीवनानुभवों का महत्व है। इसमें जीवन के आरंभिक छोटे पक्ष से लेकर बड़े पहलुओं तक सारा संसार फैला हुआ है। एक सवर्ण लेखक की आत्मकथा में व्यक्तिगत जीवन विशिष्ट रूप में आता है,लेकिन स्त्री और दलित की आत्मकथा में निजी अनुभव विशिष्ट हैं और सामुदायिक भी हैं। इसमें वाचिक पृष्ठभूमि और तथ्यों की बड़ी भूमिका होती है।आत्मकथा को लेखक स्वयं लिखता है,जीवनी को अन्य कोई लिखता है। फलतः इनके उत्पादन और श्रवण में अंतर भी है। आत्मकथा क्या है यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी आत्मकथा की अवधारणा क्या है ? किस तरह उसे परिभाषित करते हैं ?
प्रसिद्ध समाजशास्त्री मादाम द स्तेल के शब्दों में आत्मकथा में फ्रेंगमेंटेड यथार्थ विमर्श है। लेकिन रामविलास शर्मा ने आत्मकथा लिखते समय इस नियम का पालन नहीं किया बल्कि जीवनी लेखन के नियमों और संस्मरणशैली का पालन किया है। आत्मकथा में निष्कर्षों से बचा जाता है और पाठ खुला रहता है लेकिन “अपनी धरती अपने लोग” में वे ऐसा नहीं करते। जीवनकथा में लेखक के लिए तथ्य और सत्य की क्रमबद्ध प्रस्तुति महत्वपूर्ण होती है,जबकि आत्मकथा के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है। रामविलास शर्मा अपनी आत्मकथा में कहे हुए को लेकर बेहद सजग हैं, वे समस्त चीजों को एक ही नजरिए से पेश करते हैं।चीजों को एक ही नजरिए से पेश करना आत्मकथा का तत्व है।
एक शिक्षक और एक कम्युनिस्ट के रूप में रामविलास शर्मा के जो अनुभव रहे हैं उनको आत्मकथा में बहुत कम स्थान मिला है।इसका प्रधान कारण है कि एक शिक्षक के बहुत सारे व्यक्तिगत आचरण और अनुभव को कॉलेज-विश्वविद्यालय के लोग शेयर करते हैं अतःउनको बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती। दूसरी बात यह भी है अकादमिक जीवन में आम पाठकों की कम दिलचस्पी रहती है इसलिए भी कम लिखा है।
रामविलास शर्मा ने अपनी आत्मकथा को लिखते समय यह बताने की कोशिश की है कि उनके व्यक्तित्व का निर्माण कैसे हुआ? साथ ही प्रगतिशील साहित्य और संस्कृति का हिंदी में सृजन कैसे हुआ ? हिन्दी साहित्य और हिन्दीजाति के विकास की प्रक्रिया क्या है ? ये तीन बातें हैं जिनको वे आत्मकथा के बहाने संप्रेषित करना चाहते हैं। इसमें संस्मरण बिखरे पड़े हैं। वे संस्मरण की शैली में लिखते हैं और सजगता के साथ क्रमबद्धता को बनाए रखते हैं।
हिंदीसमाज,हिंदीजाति और रामविलास शर्मा का 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से गहरा संबंध सामने आता है। 1857 का संदर्भ प्रमुख संदर्भ है। जिसका वे व्यापक इस्तेमाल करते हैं। खासकर अवध का इलाका इन सबकी धुरी है। अवध की संस्कृति और उसका नॉस्टेल्जिया बार बार क्रांति तक के विचार और यूटोपिया को अपदस्थ कर देता है।
आत्मकथा में अनेक लोग हैं जो लेखक के जीवन की सफलताएं पढ़ना चाहते हैं। उनकी सफलताएं एक लेखक की सफलताओं के रूप में आती हैं। इसमें लेखन,साहित्य और राजनीति के व्यापक अनुभवों को पेश किया जाता है। रामविलास शर्मा ने इसी परिप्रेक्ष्य में व्यक्तित्व निर्माण में सफलताओं की कम और कला,राजनीति,दर्शन आदि की बड़ी भूमिका का व्यापक स्तर पर जिक्र किया है। साथ ही एक मार्क्सवादी के स्वप्न व्यक्त हुए हैं। लेखक के रूप में एक आंदोलनकारी लेखक,एक ऐसा लेखक जो विवाद पैदा करे।आलोचना के नए प्रश्नों को उठाए और अपनी जाति पर गर्व करे।
रामविलास शर्मा की आत्मकथा को पढ़कर यह लगता है कि वे मिलते थे सबसे लेकिन प्रभावित वे अपने मन से होते थे। वे अन्य को प्रभावित करते थे। उनकी आत्मकथा में यह तत्व उभरकर कम आया है कि वे किससे प्रभावित हुए अथवा उन पर प्रच्छन्नतः किसका प्रभाव था।
रामविलास शर्मा ने अपनी आत्मकथा को ’टाइप ’ के आधार पर लिखा है। यह इकरंगा टाइप है। रैनेसां के सद गुणों से युक्त व्यक्तित्व इसमें उभरकर सामने आता है। उन्होंने अपने लेखन के जरिए बताया कि हिंदी नवजागरण का साम्राज्यवाद के साथ अंन्तर्विरोध था। हिंदी में प्रतिवादी साहित्य का आरंभ नवजागरण से होता है। यह प्रतिवादी स्वर जितना नवजागरण में नहीं है उससे ज्यादा रामविलास शर्मा के व्यक्तित्व में है। आलोचना में उन्होंने नवजागरण को प्रतिवादी नजरिए से देखने की परंपरा डाली।
रामविलास शर्मा की आत्मकथा और नवजागरण विमर्श में गहरा संबंध है। मसलन् , हिंदी नवजागरण का आरंभ 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से होता है और आत्मकथा में भी 1857 का संदर्भ लाकर वे अपने को इसी परंपरा से जोड़ते हैं। निराला पर जीवनी लिखते समय भी वे यही पद्धति अपनाते हैं। यानी सन् 1857 का संग्राम किसी न किसी रूप में उनके आत्मकथा और जीवनी लेखन में संदर्भ के रूप में प्रस्थान बिंदु बना रहता है। इसका समग्र मॉडल पुंसवादी है।
पुंसवादी मॉडल अपनाते हुए रामविलास शर्मा ने स्वयं को निष्पाप,निष्कलंक और भूलों से रहित मर्द के रूप में पेश किया है। इसमें निजी कम है और सामाजिक ज्यादा है और सब कुछ व्यवस्थित और सुनिश्चित दिशा में पाठक को ले जाने वाला है। तकरीबन इसी शैली में नामवर सिंह ने भी लिखा है। इन दोनों में आत्म की वैधता की पुष्टि का भाव प्रबल है। इन दोनों से सवाल किया जाना चाहिए कि उनके जीवन में किसी स्त्री का प्रभाव पड़ा या नहीं ? उसके विवरण और ब्यौरे कहां हैं ? क्या मर्द लेखक के लिए स्त्री सिर्फ जन्म देने,ब्याह करने अथवा बेटी मात्र के संदर्भ के रूप में जिंदा है ? आश्चर्य की बात है इन दोनों के यहां मैँ,पत्नी और बेटी पर भी न्यूनतम लिखा गया है। औरत की आत्मकथा से एकसिरे से अनुपस्थिति सामाजिक सत्य के साथ पर्दादारी है।
आत्म की अभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा लिखी जाती है और अंतमें आत्म पर ही सवाल खड़े करती है। इसे ही पाल दे मान ने ‘डिफेसमेंट’ की संज्ञा दी है। यह व्यक्ति विशेष के सरोकारों का ‘डिफेसमेंट’ है। लेकिन रामविलास शर्मा की आत्मकथा में ऐसा कुछ भी नहीं घटता, बल्कि सब कुछ नियोजित,तर्कपूर्ण और वैध दिशा में घटित होता है। हिंदीसमाज में ‘आत्मगोपन’ का महत्व है। ‘आत्मगोपन’ और ‘गोपन’ से समूचा समाज घिरा हुआ है। यह भाव रामविलास शर्मा और नामवर सिंह तोड़ नहीं पाए हैं।
'निजी संतुष्टि' पर आधारित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर साहित्य में इनदिनों आत्मकथाओं की बाढ़ आ गयी है। 'निजी संतुष्टि' का सामाजिक मूल्यों के तानेबाने के साथ गहरा अन्तर्विरोध है। अनेक मामलों में आत्मकथाओं के विवरण और ब्यौरे नैतिक तौर पर अपमानजनक चीजों को पेश करते हैं। खासकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजी संतुष्टि की धारणा की आड़ में व्यक्ति के एकाकी भावबोध को खूब बढ़ावा दिया जा रहा है। यह ग्लोबलाइजेशन का ग्लोबल फिनोमिना है। यह ऐसे व्यक्ति की आत्मकथा है जो निजी तौर पर किसी विचार या विचारधारा से बंधा नहीं है। इसके पास किसी विचार या विचारधारा की परंपरा नहीं है। इसका प्रत्येक चीज और व्यक्ति के साथ बिनाशर्त संबंध है।
रामविलास शर्मा ने अपनी आत्मकथा 'अपनी धरती अपने लोग' में व्यक्ति और विचारधारा के अनतस्संबंध को उभारा है। लेखक की नागरिकचेतना और वर्गीयचेतना को उभारा है। लेकिन इन दिनों आने वाली स्त्री और दलित लेखकों की आत्मकथाओं में इसके विपरीत लक्षण देखने में आए हैं। वे ऐसे व्यक्ति का चित्रण करते हैं जो अंतर्वैयक्तिक (इंटरपर्सनल) संबंधों और नागरिक शिरकत के लिए किसी विचारधारा से जुड़ा नहीं है। उस पर उसकी मास्टरी नहीं है।
इस पूरी प्रक्रिया में सार्वजनिक मनुष्य की अवधारणा का क्षय हुआ है। इससे यह भी पता चलता है कि सार्वजनिक जीवन का क्षय हो रहा है। सार्वजनिक राजनीतिक स्पेस का क्षय हुआ है। वस्तुकरण और नौकरशाही की प्रवृत्ति बढ़ी है। इसके अलावा सामाजिक बंधनों की कीमत पर आत्म-संतुष्टि, संवेदनात्मक अभिव्यक्ति और आत्म-क्षय की प्रवृत्ति बढ़ी है। यह सामाजिक नार्सीज्म है। इसमें दैनंदिन जीवन की छोटी –छोटी आपातकालीन कथाएं हैं । इसमें सामाजिक प्रतिबद्धता और निजी लगाव का अन्तस्संबंध बड़े पैमाने पर टूटा है। अनेक स्थानों पर आत्मकथाओं में निजी लगाव की बातों पर जोर है और सामाजिक वचनवद्धता की उपेक्षा की गयी है।
यह नए किस्म का व्यक्तिवाद है। जिसका लक्ष्य है भौतिक लाभ पाना और निजी सफलता पाना। इसके पास छद्म प्रतिबद्धता है। इसके अन्य के सरोकार से बेखबर है। कहीं कहीं यह व्यक्तिवाद, सांस्कृतिक परंपरा,राजनीतिक संस्कृति और सामाजिक इतिहास के रूप में भी आया है।
कई आत्मकथाओं में ऐसी भाषा का इस्तेमाल हुआ है जिससे भाषा की मानवीयक्षमता का क्षय हुआ है। भाषा का काम है मानवीयक्षमता में इजाफा करना।साहित्य और सामाजिक जीवन में गाली-गलौज की भाषा मानवीयक्षक्षमता के क्षय का संकेत है।गाली-गलौज की भाषा या भाषा के असभ्य प्रयोग अंततः मानवीय क्षमता और व्यक्ति की निजी क्षमता को विकृत करते हैं। इस तरह के भाषिक प्रयोग इस बात का संकेत है कि निजी जीवन का ह्रास हो रहा है।
अस्मिता साहित्य के तहत जो आत्मककथाएं आई हैं उनमें एक अन्य फिनोमिना भी दिखाई दे रहा है और वह है निजी जीवन के सारतत्व और उसके ताने-बाने को पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था खाए जा रही है। यहां अनेक मामलों में वह अपने को सामाजिक प्राणी के रूप में नहीं देखता । आत्मकथाओं में सेल्फ ऑब्शेसन और अबाधित आत्ममोह मुख्य चिंता की बात है। लेखक अपने निजी आंसुओं,कर्म और कष्टों का अतिरंजित वर्णन कर रहे हैं। इससे उन्हें 'सांस्कृतिक शांति' मिलती है। इसे समीक्षा में 'कल्चरल कूलिंग' या 'सांस्कृतिक शांति ' कहते हैं।
'सांस्कृतिक शांति' के फ्रेमवर्क में जब चीजें पेश की जाती हैं तो वे दलित और स्त्री दोनों का ही अपहरण करती हैं। वे आत्मकथाओं में ऐसा समाज रच रहे हैं जो अपने ही घेरे में बंद हैं। सेल्फ ऑब्शेसन और बाजार निर्मित अस्मिता के तत्वों को अपने अंदर समेटे है। यहां एक तरह से मानवीय व्यवहार का निजीकरण मिलेगा। यह सामयिक सांस्कृतिक अवस्था का लक्षण है। यहां निजी जीवन के अ-राजनीतिक और व्यक्तिगत विवरण और ब्यौरे छाए हुए हैं। इन कथाओं में सार्वजनिक और निजी के बीच में अंतर की दीवार भी धराशायी हो गई है। आत्मककथाओं में जो राजनीति आ रही है वह बाहरी राजनीतिक मसलों के संदर्भ में आ रही है। पहले निजी मसलों और राजनीति का संबंध मिलता है। खासकर रामविलास शर्मा की आत्मकथा में यह फिनोमिना नजर आता है। लेकिन इनदिनों आने वाली आत्मकथाओं में निजी को राजनीति से अलग एक भिन्न सामाजिक केटेगरी में रख दिया गया है। इस चक्कर में संस्कृति और राजनीति के बीच में फांक पैदा हो गयी है। इसके कारण लेखक का निजी जीवन अलग और राजनीतिक प्रसंग अलग नजर आते हैं।
आत्मकथा लेखन में एक और फिनोमिना नजर आता है वह है 'सांस्थानिक व्यक्तिवाद'। इसमें व्यक्ति अपनी आत्मकथा का आख्यान रचते हुए निज के द्वारा तय की गयी परिभाषाओं को पुनर्परिभाषित कर रहे हैं। इस तरह की प्रस्तुतियां दलितलेखकों ने खूब लिखी हैं। यह आज के भूमंडलीकरण का प्रतिगामी बुनियादी लक्षण है।
इस धारणा के मानने वाले कहते हैं मौजूदा कनेक्टविटी के दौर में मनुष्य अपनी बार बार यात्रा करता है।नए सिरे से काम करता है।पुनर्पाठ करता है।व्यक्तिगत आदतों और अस्मिताओं की रोशनी में राज्य को देखता है। समाज को देखता है और बताने की कोशिश करता है कि यह विश्व किस दिशा में जा रहा है। यह पद्धति रामविलास शर्मा की आत्मकथा में भी इस्तेमाल की गयी है। इस पद्धति का प्रयोग करते हुए लेखक परंपरा से आधुनिकता की ओर प्रयाण करता नजर आता है। आत्म-निर्माण की प्रक्रिया नजर आती है लेकिन सांस्कृतिक वैविध्य या क्षेत्रीय सांस्कृतिक भिन्नताएं नजर नहीं आतीं।
पश्चिम और भारत में आत्मकथा लेखन में एक अंतर है, पश्चिम में आत्मकथा लेखक को इतिहास बहुत कम परेशान करता है। लेखक आसानी से अपने को इतिहास से मुक्त होकर लिखता है। लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। भारत में आत्मकथा या जीवनी में इतिहास आसानी से पीछा नहीं छोड़ता। पश्चिम के लेखक की अस्मिता ,इतिहास से अपने को अलग कर लेती है। भारत में लेखक की अस्मिता ,इतिहास से अपने को अलग नहीं कर पाती। परंपरागत समाज में व्यक्ति के पास न्यूनतम स्वायत्तता भी नहीं होती। जबकि आधुनिक धर्मनिरपेक्ष समाज उसे पूरी स्वायत्तता देता है।
पश्चिम में लेखक को परंपरा और सामाजिक इतिहास के ज्ञान के आधार पर समझने में मुश्किल से मदद मिलती है।जबकि भारत में उसके बिना समझना मुश्किल है। मसलन् ,रामविलास शर्मा की आत्मकथा या उनके द्वारा लिखी 'निराला की साहित्य साधना" में 1857 और परंपराएं व्यक्तित्व निर्माण के प्रमुख तत्वों में हैं। इसी तरह ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा में जातिप्रथा ऐतिहासिकता के साथ दाखिल होती है।
आधुनिकता के आने के साथ आधुनिकीकरण की अपार संभावनाएं पैदा होती हैं। व्यक्तिवादी ढ़ंग से विकास के अवसर पैदा होते हैं। आधुनिक संगठनों का उदय होता है। ये संगठन व्यक्ति के आत्म को नए सिरे से निर्मित करते हैं। उसके जीवन में अभिव्यंजित होते हैं। इनमें खासतौर पर शिक्षा और राजनीति के संगठनों के द्वारा व्यक्तित्व के नए रूपों के निर्माण में खाससतौर पर मदद मिलती है। इनसे विगत जीवन की अनिश्चितता और असुरक्षा से मुक्ति मिलती है।आत्मनिर्भर व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इसी क्रम में कैरियर,परिवार,मित्र,कार्यक्षेत्र,प्रेम आदि के अंतर्विरोधों को हल करने में मदद मिलती है। यानी व्यक्ति एक नए किस्म के आधुनिक व्यक्तिवाद के जरिए अपना विकास करता है। इससे आत्म संचालित संस्कृति और आत्म निर्धारित आत्मकथा के रूपों का निर्माण होता है।
एक मर्तबा फ्रांसीसी लेखक जॉन पाल सार्त्र ने कहा था कि बुर्जुआ की तरह जन्म लेना ही काफी नहीं है ,बल्कि बुर्जुआजी की तरह जीना भी आवश्यक है। इसी नजरिए को आधार बनाकर रामविलास शर्मा और ओमप्रकाश बाल्मीकि अपनी आत्मकथाओं में यह दर्शाने की कोशिश करते हैं कि उनका व्यक्तित्व सेल्फमेड है। वे यह भी दर्शाते हैं कि उन्होंने अपना ही नहीं अपने परिवार,मित्र और संबंधियों के भी निर्माण में मदद की है। साथ ही यह भी संदेश देते हैं कि व्यक्तित्व निर्माण के प्रमाण समाज और आत्मकथा में चारों ओर पारदर्शी रूप में फैले हैं। इन दोनों लेखकों की आत्मकथाओं में जीवन के बारे में पुरानी निश्चितता नष्ट होती है और ये दोनों ही लेखक नए किस्म की निश्चित जिंदगी जीने के विकल्पों की ओर मुखातिब होते हैं।
रामविलास शर्मा और ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा वस्तुतःआत्मनिर्माण या सेल्फमेड व्यक्ति की आत्मकथा है। इस तरह की आत्मकथा में एक जोखिम है ,इसमें जो चीजें चुनी जा रही हैं उनमें जोखिम भी है। मसलन् रामविलास शर्मा कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाइमर थे । लेकिन भयानक असुविधाओं का सामना करना पड़ा। फलतः उन्हें होलटाइमरशिप छोड़नी पड़ी।
लेखक जो कैरियर या जीवनशैली चुनना चाहता है।वह वैसा नहीं बन पाता । अतःजिस आत्मकथा को वह सेल्फमेड रूप में पेश करना चाहता है उसी आत्मकथा में वह ब्रेकडाउन जीवनी को भी पेश करता है।ब्रेकडाउन जीवनी के अनेक पहलुओं को बड़ी खूबी के साथ रामविलास शर्मा ने 'निराला की साहित्य साधना' में भी दरशाया है। निराला के सपने किस कदर टूटते हैं और वे जो बनना चाहते हैं वह नहीं बन पाते।जैसे जीना चाहते हैं वैसे जी नहीं पाते। जीवनी लेखन की यह पद्धति पूरी तरह उत्तर आधुनिक पद्धति है।मसलन् निराला चाहते थे कि महिषादल का राजा उनको गोद ले और वे राजकुमार की तरह जिंदगी व्यतीत करें। यह नहीं हो पाता और यह उनके जीवन की बड़ी पीड़ा बनती है।
लेखकद्वय ( रामविलास शर्मा-ओमप्रकाश बाल्मीकि) की आत्मकथाओं में परिवार बना रहता है और इन दोनों के व्यक्तित्व निर्माण में परिवार की भूमिका साफ नजर आती है। आधुनिक समाज में व्यक्तित्व निर्माण में राज्य की बड़ी भूमिका होती है लेकिन इन लेखकों के व्यक्तित्व निर्माण में परिवार की बड़ी भूमिका सामने आती है। दूसरा बड़ा संस्थान है शिक्षा व्यवस्था। शिक्षा की इनके व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका नजर आती है। वहीं निराला का परिवार बिखर जाता है और परिवार उनके विकास में बहुत बड़ी बाधा बन जाता है।ठीक यही पहलू नामवरसिंह की आत्मकथा के अंशों में है। वहां परिवार नदारत है।परिवार के नाम पर विस्तारित परिवार के लोग भूमिका में नजर आते हैं। यही स्थिति अनेक लेखिकाओं की आत्मकथाओं में भी नजर आती है।
निराला-नामवरसिंह-मन्नूभंडारी आदि की जीवनी-आत्मकथाओं में सामाजिक परिस्थितियां,खासकर पारिवारिक परिस्थितियां ऐसी हैं जो इन व्यक्तियों को दंडित करती हैं। इन सभी लेखकों का व्यक्तिवाद इनको आगे ठेलता है और इसके कारण इनके सामाजिक अंतर्विरोध और भी गहराने लगते हैं।
रामविलास शर्मा,नामवरसिंह,ओमप्रकाश बाल्मीकि,मन्नू भंडारी आदि की आत्मकथाओं में व्यक्त तथ्य इस बात को पुष्ट करते हैं कि इन लेखकों के जीवन में व्यक्तिवादी दबाब इनको भविष्य की ओर ठेलते रहे हैं। व्यक्तिवादीकरण एक अपरिहार्य अवस्था है। इससे बचा नहीं जा सकता। लेखक के नाते ये लोग उसे नियोजित करके पेश करते हैं। ये अपने व्यक्तिवाद का विभिन्न बदली परिस्थितियों में इस्तेमाल करते हैं।
इन लोगों ने निजी तौर पर व्यक्तिवाद की आलोचना की लेकिन व्यक्तिवादीकरण इनकी मजबूरी है।यहीं पर इस प्रवृत्ति की बिडम्वना सामने आती है। इस क्रम में जहां एक ओर वे अपनी जीवनी बनाते हैं ,साथ ही अपने आसपास नेटवर्क भी बनाते हैं। यह नेटवर्क शिक्षा संस्थान,राजनीतिक दल,सांस्कृतिक संगठन आदि से बन रहा है। मसलन् ,रामविलास शर्मा,ओमप्रकाश बाल्मीकि, निराला आदि की आत्मकथा-जीवनी में परिवार और गांव के सामुदायिक जीवन या कॉमरेडशिप वाले दौर की अनिश्चितता सामने आती है। यह अनिश्चितता इनके आख्यान का सबसे बड़ा संसाधन है।
इन लेखकों के यहां एक चीज साझा है कि वे आधुनिक जीवन जीना चाहते हैं लेकिन आधुनिक जीवन जीना इनके लिए असंभव हो जाता है।ये रूटिन के बाहर रहकर जीना चाहते हैं लेकिन दैनंदिन रूटिन जीवन इनको अपनी ओर खींचता है। रूटिन चीजें इनके विचार और कर्म दोनों को प्रभावित करती हैं।
'रुटिन' की अमूमन आत्मकथा-जीवनी पढ़ते हुए हम उपेक्षा करते हैं। दैनंदिन रूटिन को व्यक्ति किस तरह आत्मसात करता है और आगे बढ़ता है इन सब बातों की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। 'रुटिन' के कारण व्यक्ति में सामुदायिक आदतों-संस्कारों आदि का निर्माण होता है। मसलन् प्रगतिशीलों में रहना, उनकी बातें करना,उनकी आदतों और व्यवहार को जीवन में उतारना आदि रूटिन सामूहिक आदतें हैं, इन्हें हम लेखक के प्रतिवादी कर्म के रूप में देखते हैं।
सामयिक भूमंडलीकरण के ग्लोबल फिनोमिना के अंग के रूप में आत्मकथाओं में नए किस्म का व्यक्तिवाद नजर आ रहा है। यहां लेखक नए रूप में अपनी खोज करता है। वह लिखता है अपने अतीत को बताने के लिए,लेकिन बताता है अपने व्यक्तित्व के रूपान्तरण को । वह यह भी दरशाता है कि वह ग्लोबल परिवर्तनों के साथ खुद भी बदल रहा है। लेखक अपनी जीवनी को नया रूप देने और दिशा देने में सक्षम है। यह ऐसा लेखक है जो अपने सांस्कृतिक प्रतीकों की स्वयं खोज करता है। नए भूमंडलीकरण में व्यक्ति की अस्मिता और सांस्कृतिक रूपों का वो सर्जक है।
दलितों की आत्मकथाओं में जीवनशैली का खूब चित्रण मिलता है। इसके विपरीत रामविलास शर्मा के यहां जीवनशैली के चित्रण पर जोर नहीं है। जीवनशैली वाला तत्व ग्लोबलाईजेशन का हिस्सा है। दलित की जीवनशैली के साथ एक बागी व्यक्तित्व सामने आता है। लाइफस्टाइल और रिवेल या बागी ये दोनों भूमंडलीकरण के फिनोमिना हैं। वे ऐसे व्यक्ति का चित्रण करते हैं जिसे यथास्थितिवाद पसंद नहीं है।
यथास्थितिवाद का बागी तेवरों के साथ निषेध करने वाले तत्व मासकल्चर में खूब मिलेंगे। जिस तरह मासकल्चर को बागी हीरो पसंद आते हैं. उनके संवादों को हम उद्धृत करते हैं। ठीक वैसे ही दलितसाहित्य और स्त्री साहित्य में भी बागी लेखक को पसंद किया जाता है। उनके चुभते संवाद पसंद आते हैं। उनका अविश्वास पसंद आता है। उनका इन चीजों का महिमामंडन पसंद आता है। इस तरह की प्रस्तुतियों की खूबी है कि आप उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते। चूंकि ये बदले हुए समय की तस्वीरें हैं,इनमें चीजें बदलती नजर आती हैं। वे अपनी अस्मिता को खोजते हैं,नया रूप देते हैं। ये तस्वीरें प्रेरक का काम भी करती है।
दलित आत्मकथाओं में मासकल्चर के बागी नायकों की तरह एक तरह का सांस्कृतिक अंतर्विरोध अंतर्ग्रथित है। वे सब कुछ अभी चाहते हैं। इनमें समाज,जाति,जीवनशैली आदि को तत्काल बदलने की आकांक्षा जमकर व्यक्त हुई है। वे अपने पाठक को 'ट्रांसफार्म' और 'इंप्रूब' करने की ओर ध्यान खींचते हैं।
आत्मकथाओं की हाल ही में जो बाढ़ आई है उसका एक और मकसद है सेल्फ थेरेपी करना। यह उपभोक्तावाद से जुड़ा फिनोमिना है। इसमें अस्मिता की इंस्टेंट इमेजों का खूब प्रक्षेपण हो रहा है। इस तरह की अस्मिता की एक ही मुश्किल है कि इसमें प्रभावित करने की क्षमता नहीं है। यह मीडिया में चल रहे अस्मिता के इंस्टेंट फ्लो से प्रभावित है इसमें तत्काल संप्रेषित करने और तत्काल परिणाम पाने की मंशा काम कर रही है। ये आत्मकथाएं मासकल्चर के फार्मूलों के आधार पर लिखी जा रही हैं।
मासकल्चर का फार्मूला है कि आप अपने अंदर कुछ भी इन्वेंट कर सकते हैं। इस काम से आपको कोई नहीं रोक सकता। सिर्फ तुमको चुनना है कि क्या इन्वेंट करना चाहते हो। जिस तरह माउस का बटन दबाते ही आप शिफ्ट कर जाते हैं। उसी तरह अस्मिता पर लिखी एक किताब से दूसरी किताब की ओर शिफ्ट कर जाते हैं। इसमें आपकी कोई विचारधारात्मक प्रतिबद्धता नहीं होती।
इन आत्मकथाओं में एक खास किस्म की जीवनशैली की ओर रूझान नजर आ रहा है और उसकी ब्रॉण्डिंग भी हो रही है। दलित अस्मिता का आधुनिक जीवनशैली में रूपान्तरण उसके व्यक्तित्व के छोटे –छोटे विवरण और ब्यौरों से भरा है। इन सभी आत्मकथाओं में व्यक्तित्व की लोचदार इमेज सामने आ रही है। इस इमेज का दलित की उपलब्धि और संभावनाओं के आधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता। बल्कि इन आत्मकथाओं के बारे में हमें व्यक्तित्व के रूपान्तरण और लोच के आधार पर देखना चाहिए।
दलित आत्मकथाओं में दलित को शोषण और जाति उत्पीड़न के वैविध्यपूर्ण चित्रों के जरिए सजाने की कोशिश की जा रही है। इनमें चार फिनोमिना हैं। पहला फिनोमिना है नकारात्मक-सकारात्मक चीजों का। दूसरा है ,अलगाव और स्वाधीनता का। इसका सांस्कृतिक महत्व है। इसके अलावा इकसार सामाजिक संदर्भ बार बार सामने आया है। इसके कारण सामाजिक संदर्भ अप्रासंगिक हो गया है।सामाजिक संदर्भ को परंपरा और जातिप्रथा के इकसार या स्टीरियोटाइप संदर्भ ने अपदस्थ कर दिया है। सामाजिक संदर्भ की विभिन्न सीमारेखाओं को इनके जरिए अप्रासंगिक बनाया गया है।
दलित आत्मकथाओं में भूमंडलीकरण की तीन संवृत्तियां नजर आती हैं। प्रथम, परंपरा को कम करके देखा गया है। खासकर परंपरागत जीवनशैली की उपेक्षा की गयी है। इसी क्रम में वि-परंपरावाद का विकास हुआ है। पहले से चली आरही चीजें अब दलित आत्मकथाओं में सुरक्षाबोध पैदा नहीं करती।
दूसरी संवृत्ति है ,व्यक्ति की सामाजिकरेखाएं और परंपराएं टूट रही हैं। मसलन् ,शादी एक संस्थान है जो आत्मकथाओं में टूट रहा है या शादी पर पर्दा पड़ा है। तीसरा फिनोमिना है ,व्यक्ति के जीवन में बदलाव आ रहे हैं, उनकी व्याख्या विचारधारात्मक आधार पर होनी चाहिए।
व्यक्ति में आए बदलाव इनदिनों जितने ज्यादा आज नजर आ रहे हैं ,उतने पहले नजर नहीं आते थे। इसका प्रधान कारण है नव्य आर्थिक उदारीकरण। इसने निजीकरण की प्रक्रिया तेज की है। फलत आत्मकथाओं में निजी जीवन के दैनंदिन पहलू सामने आए हैं। निजी गुस्सा,भय,असंतोष ,संशय और अविश्वास ,सामाजिक अव्यवस्था और हिंसाचार के विवरण और ब्यौरे भी चले आए हैं।
दलित आत्मकथाओं के विवरण यह भी बताते हैं कि भारत में सामाजिक असमानता कम हो रही है। यह कम होती असमानता उनमें ज्यादा दिख रही है जो दलितवर्ग की निम्न अवस्था से रूपान्तरित होते हुए मध्यवर्ग या निम्न-मध्यवर्ग में आ गए हैं। इस क्रम में ये लोग अपने वर्ग से भिन्न वर्ग में रूपान्तरित हो गए हैं।
इन दिनों आत्मकथा विधा का दायरा लगातार विकसित हो रहा है। रामविलास शर्मा ने निराला के निजी पत्रों को शामिल करके पत्रों को साहित्य में शामिल करा दिया,लेकिन इसके दायरे में यात्रा संस्मरण,निजी डायरी और भाषण भी आते हैं। इस प्रसंग में मुख्य सवाल यह है कि हिन्दी में आत्मकथा को जनप्रिय होने में इतना समय क्यों लगा ? अंग्रेजी में आत्मकथा लंबे समय से विधा के रूप में लोकप्रिय रही है। हिंदी में यह 1990 के बाद ही लोकप्रिय हो पायी है और उस पर विभिन्न कोणों से बहसें हो रही हैं। इन बहसों में विधा और अंतर्वस्तु को जोड़कर नहीं देखा जा रहा। अधिकांश समय अंतर्वस्तु की विवेचना में ही आलोचकगण व्यस्त हैं।
यह भी देखने में आया है कि हिंदी में अनुदित होकर विदेशी लेखकों की आत्मकथाएं आ रही हैं और ये आत्मकथाएं बड़ी मात्रा में बिक रही हैं। आत्मकथा का पाठकवर्ग तैयार करने में इन अनुदित किताबों की बड़ी भूमिका है। हिंदी के साहित्यकारों की आत्मकथा और जीवनियां सिर्फ साहित्य के विद्यार्थियों के एक छोटे समूह में बिकती हैं। लेकिन अनुदित आत्मकथा की किताबें व्यापक जनसमूह में अपना पाठकवर्ग तैयार करने में सफल रही हैं।
आत्मकथा या जीवनी को हमें अस्मितासाहित्य की कोटि में रखकर विचार करना चाहिए। अभी तक हम इसे अस्मिता के दायरे में रखकर नहीं सोच रहे। किस दलितलेखक की आत्मकथा को हम अस्मिता के आधार पर देखने को तैयार हो जाते हैं लेकिन किसी गैर-दलित लेखक की आत्मकथा को अस्मिता के आधार पर देखने में असमर्थ रहे हैं। मसलन् ओमप्रकाश बाल्मीकि और रामविलास शर्मा की आत्मकथाएं अस्मिता की केटेगरी में रखकर पढ़ जानी चाहिए।
आत्मकथा या जीवनी मूलतः अस्मितासाहित्य है।इसके साथ ही जनजाति,अनुसूचित जाति,लिंग और वर्ग का साहित्य अस्मितासाहित्य है। किसी आदिवासी या स्त्री या दलितलेखकों की आत्मकथाओं में साझा सांस्कृतिक रूप,साझा सामाजिक परिस्थितियां और संघर्ष के साझा मुद्दों के दर्शन होते हैं। ये मुद्दे हैं- छूत-अछूत,शिक्षा में भेदभाव,श्रमविभाजन में भेदभाव, कृषिशोषण, जमीन के अधिकार, ऊँच-नीच के सवाल,वर्ण और जातिप्रथा, सेक्स, शारीरिक शोषण, पति-पत्नी में असमानता, स्त्री की अधिकारहीनता, मातहत भावबोध आदि। इन सभी में एक साझा तत्व है कि ये सभी स्वयं की पहचान को बनाने के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं।
इनमें दूसरा साझा तत्व है कि लेखक जैसा महसूस करता है वैसा लिखता है। अन्य क्या महसूस करते हैं उस पर उसकी नजर नहीं है। कहानी-उपन्यास लिखते समय लेखक अन्य कैसे सोचता है इसके बारे में भी सोचता है लेकिन आत्मकथा में खासकर दलित और स्त्री की आत्मकथा में वह अपनी भाषा में ही सोचता है। निजी और सामाजिक जीवन के अछूते पक्षों को बताते समय उसकी नजर स्वयं पर होती है। वह स्वयं कैसे देखता है उसका ही चित्रण करता है। ऐसा करके लेखक दो काम करता है ,जहां वह अपनी बात कहता है वहीं पाठक के सामने यह स्थितियां पैदा करता है कि वह अन्य के साथ उसकी तुलना करे। अन्य हो सकता है समान हो ,भिन्न हो या उसके साथ अन्तर्विरोध हों।
एक और फिनोमिना है जिस पर ध्यान देना चाहिए कि आत्मकथाओं में अभी हम लेखक या लेखिकाओं की आत्मकथाओं पर ही ध्यान दे रहे हैं,लेकिन जो लेखक और लेखिका नहीं हैं,सामान्य लोग हैं उनकी आत्मकथा की ओर हम ध्यान नहीं दे रहे।
आत्मकथा मूलतः लेखक की सांस्कृतिक क्षति पूर्ति करती है। आत्मकथा के बहाने लेखक-लेखिका ने अपने सामाजिक जीवन में जो सांस्कृतिक क्षति उठायी है उसको वे हासिल करती हैं। वे उन बाधाओं की ओर ध्यान खींचते हैं जिनके कारण उनका विकास बाधित हुआ। मसलन्, दलितों या स्त्रियों या आदिवासी के जीवन में जिन बातों को छिपाया गया, जिस शोषण को छिपाया गया, जिस उत्पीड़न को छिपाया गया उससे उनकी सांस्कृतिक क्षति हुई और वे अपनी आत्मकथा लिखकर इस सांस्कृतिक नुकसान की भर पायी करते हैं।
आज जिस तरह आत्मकथा को सम्मान की नजर से देखा जाता है वह एक तरह से इन लेखकों की सांस्कृतिक क्षति की सामाजिक स्वीकृति है। उनका जो सांस्कृतिक स्थान समाज में छीना गया था उसे वे इसके जरिए हासिल करते हैं। वे अदृश्य थे और अदृश्य होना उनकी क्षति थी, आत्मकथा उनको दृश्य बनाती है, उनकी उपस्थिति का एहसास कराती है और इस तरह वे अपना खोया हुआ स्थान हासिल करते हैं। दलित या स्त्री या आदिवासी का दिखना स्वयं में बड़ी सांस्कृतिक उपलब्धि है। इसके अलावा आत्मकथा से साहित्य की प्रचलित विधागत मान्यताएं भी टूटती हैं। मसलन् लिंग,भाषा,जातिवाद,धर्म आदि के पूर्वाग्रह टूटते हैं।
आत्मकथा में व्यक्ति के विवरण ही नहीं होते बल्कि उसमें इस धरती या भूगोल का भी ब्यौरा चला आता है। मसलन् एक आदिवासी या दलित जब आत्मकथा लिखता है तो उसके लेखन में निजी जीवन के साथ उसका स्थानीय संसार भी चला आता है। जमीन या कृषि संबंध भी चले आते हैं। हमें देखना चाहिए कि जमीन और घर से लेखक का क्या संबंध है ? आत्मकथा में समय (टाइम) भी चला आता है। यह भी अंदाजा लगा सकते हैं कि उसके कानूनी अधिकार क्या हैं ?
स्त्री और दलित आत्मकथाओं से यह भी पता चलता है कि ये लोग अपने अतीत से कैसे मुक्त हो रहे हैं। इनका अतीत में जाना तीन काम करता है,पहला, स्त्री और दलित के अतीत के यथार्थ को सामने लाता है ,दूसरा, इस यथार्थ से मुक्त करता है।तीसरा, वे जिन चीजों को सबसे ज्यादा प्रतीकात्मक रूप में व्यक्त करते हैं वह है श्रम,श्रम के विविध रूपों के चित्रण के जरिए वे श्रम को जीवन लाइफ लाइन के रूप में चित्रित करते हैं। साथ ही लाइफलाइन के अन्य रूप हैं खेत,कसाईघर,घरेलू काम,बच्चे पालना आदि। इनका चित्रण अंततः प्रतीकात्मक रूप में साहित्य में लाइनलाइन की अभिव्यक्ति है। इसमें जीवन के प्राचीनरूपों से लेकर मध्यकालीन रूपों को सहज ही देखा जा सकता है। इसके कारण आत्मकथा में प्रामाणिकता आती है।
आदिवासी,स्त्री और दलित की आत्मकथाओं में अनेक स्थानों पर इस तरह की लोकल भाषा मिलती है जो आमजीवन में सुनाई नहीं देती ,लेकिन आत्मकथा में है ,वह उनके जीवन में भी है। वहां ऐसे भाषिक प्रयोग मिल जाएंगे जो सामान्य भाषा में इस्तेमाल नहीं किए जाते। इनका विशिष्ट अर्थ है जो दलित या स्त्री के संदर्भ में ही इस्तेमाल किया जाता है। गिली देलुत्ज एवं फेलिक्स गुइतारी ने इसे “ मीनार लैग्वेज” यानी वर्चस्ववादी भाषा कहा है। इसकी इन दोनों आलोचकों ने काफ्का की भाषा के संदर्भ में “ काफ्काः टुवर्ड ए मीनार लिटरेचर ” (1975) में इस अवधारणा की चर्चा की है। यह ऐसी भाषा है जो इडियम की अस्मिता के वर्चस्ववादी रूप को सामने लाती है। इसके आमफहम अर्थ को सामान्य जीवन में खोजना मुश्किल है।फलतः यह मुख्यधारा के विमर्श को पटरी से उतार देती है।
स्त्री ,दलित और आदिवासी अल्पसंख्यक हैं और इसी नाते वे हाशिए पर हैं। ये लोग जब आत्मकथा लिखते हैं तो वे हाशिए की संस्कृति बनाते हैं। आमतौर पर हाशिए के लोगों को गैर-महत्वपूर्ण माना जाता है। यह बार बार कहा गया है कि हाशिए के लोगों का साहित्य मुख्यधारा के साहित्य की कोटि में नहीं आता। साहित्य की कोटि में स्त्रीसाहित्य और दलितसाहित्य नहीं आता। यह ऐसा साहित्य है जिसका अपना क्षेत्र नहीं था, साहित्य में कोई स्थान नहीं था।समाज में कोई स्थान नहीं था। लेकिन यह सीधे राजनीतिक साहित्य है। सवाल यह नहीं है कि स्त्रीसाहित्य या दलित साहित्य को साहित्य में जगह मिली या नहीं ? सवाल यह है कि यह साहित्य पाठक को साहित्य और राजनीति के बारे में सोचने के लिए मजबूर करता है या नहीं ? दलित और स्त्रीसाहित्य की भाषा इसी अर्थ में प्रचलित वर्चस्ववादी भाषा से भिन्न होती है। भिन्न भाषा में ही वे भिन्नसंसार पेश करते हैं। इसे वैकल्पिक भाषा भी कह सकते हैं इसकी समूची रणनीति इस बात से तय होगी कि लेखक, स्त्री और दलित के यथार्थ का कितनी गहराई में जाकर चित्रण करना चाहता है।
रामविलास शर्मा ने “घर की बात” किताब संपादित की है उसमें उनके परिवार के लोगों के बयान हैं। इसे आत्मकथा की कोटि में नहीं रख सकते। इसका प्रधान कारण है कि आत्मकथा वस्तुतः साझा लेखन नहीं है। आत्मकथा व्यक्तिगत लेखन है। एकल लेखन है।
आत्मकथा के अनेकरूप मिलते हैं जो भिन्न भी हैं, जैसे आत्मकथा, आत्मकथात्मक आख्यान, जीवन इतिहास,जीवनी,जीवन परिचय,आत्मकथ्य,इतिहास, स्थानीय इतिहास,वाचिक इतिहास,जनजातीय आत्मकथा और उपन्यास। ये सभी विधारूप स्वतंत्र हैं और किसी न किसी रूप में जुड़े हुए भी हैं।क्योंकि इन सबमें साझा तत्व है निजी जीवनानुभव। इनमें जो भेद है वो प्रच्छन्न और अंतर्वस्तु के स्तर पर है।
मसलन् किसी लेखक की आत्मकथा लिखने के लिए लेखन,भाषण और वाचिक संस्मरणों,जीवनानुभवों का महत्व है। इसमें जीवन के आरंभिक छोटे पक्ष से लेकर बड़े पहलुओं तक सारा संसार फैला हुआ है। एक सवर्ण लेखक की आत्मकथा में व्यक्तिगत जीवन विशिष्ट रूप में आता है,लेकिन स्त्री और दलित की आत्मकथा में निजी अनुभव विशिष्ट हैं और सामुदायिक भी हैं। इसमें वाचिक पृष्ठभूमि और तथ्यों की बड़ी भूमिका होती है।आत्मकथा को लेखक स्वयं लिखता है,जीवनी को अन्य कोई लिखता है। फलतः इनके उत्पादन और श्रवण में अंतर भी है। आत्मकथा क्या है यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी आत्मकथा की अवधारणा क्या है ? किस तरह उसे परिभाषित करते हैं ?
प्रसिद्ध समाजशास्त्री मादाम द स्तेल के शब्दों में आत्मकथा में फ्रेंगमेंटेड यथार्थ विमर्श है। लेकिन रामविलास शर्मा ने आत्मकथा लिखते समय इस नियम का पालन नहीं किया बल्कि जीवनी लेखन के नियमों और संस्मरणशैली का पालन किया है। आत्मकथा में निष्कर्षों से बचा जाता है और पाठ खुला रहता है लेकिन “अपनी धरती अपने लोग” में वे ऐसा नहीं करते। जीवनकथा में लेखक के लिए तथ्य और सत्य की क्रमबद्ध प्रस्तुति महत्वपूर्ण होती है,जबकि आत्मकथा के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है। रामविलास शर्मा अपनी आत्मकथा में कहे हुए को लेकर बेहद सजग हैं, वे समस्त चीजों को एक ही नजरिए से पेश करते हैं।चीजों को एक ही नजरिए से पेश करना आत्मकथा का तत्व है।
एक शिक्षक और एक कम्युनिस्ट के रूप में रामविलास शर्मा के जो अनुभव रहे हैं उनको आत्मकथा में बहुत कम स्थान मिला है।इसका प्रधान कारण है कि एक शिक्षक के बहुत सारे व्यक्तिगत आचरण और अनुभव को कॉलेज-विश्वविद्यालय के लोग शेयर करते हैं अतःउनको बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती। दूसरी बात यह भी है अकादमिक जीवन में आम पाठकों की कम दिलचस्पी रहती है इसलिए भी कम लिखा है।
रामविलास शर्मा ने अपनी आत्मकथा को लिखते समय यह बताने की कोशिश की है कि उनके व्यक्तित्व का निर्माण कैसे हुआ? साथ ही प्रगतिशील साहित्य और संस्कृति का हिंदी में सृजन कैसे हुआ ? हिन्दी साहित्य और हिन्दीजाति के विकास की प्रक्रिया क्या है ? ये तीन बातें हैं जिनको वे आत्मकथा के बहाने संप्रेषित करना चाहते हैं। इसमें संस्मरण बिखरे पड़े हैं। वे संस्मरण की शैली में लिखते हैं और सजगता के साथ क्रमबद्धता को बनाए रखते हैं।
हिंदीसमाज,हिंदीजाति और रामविलास शर्मा का 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से गहरा संबंध सामने आता है। 1857 का संदर्भ प्रमुख संदर्भ है। जिसका वे व्यापक इस्तेमाल करते हैं। खासकर अवध का इलाका इन सबकी धुरी है। अवध की संस्कृति और उसका नॉस्टेल्जिया बार बार क्रांति तक के विचार और यूटोपिया को अपदस्थ कर देता है।
आत्मकथा में अनेक लोग हैं जो लेखक के जीवन की सफलताएं पढ़ना चाहते हैं। उनकी सफलताएं एक लेखक की सफलताओं के रूप में आती हैं। इसमें लेखन,साहित्य और राजनीति के व्यापक अनुभवों को पेश किया जाता है। रामविलास शर्मा ने इसी परिप्रेक्ष्य में व्यक्तित्व निर्माण में सफलताओं की कम और कला,राजनीति,दर्शन आदि की बड़ी भूमिका का व्यापक स्तर पर जिक्र किया है। साथ ही एक मार्क्सवादी के स्वप्न व्यक्त हुए हैं। लेखक के रूप में एक आंदोलनकारी लेखक,एक ऐसा लेखक जो विवाद पैदा करे।आलोचना के नए प्रश्नों को उठाए और अपनी जाति पर गर्व करे।
रामविलास शर्मा की आत्मकथा को पढ़कर यह लगता है कि वे मिलते थे सबसे लेकिन प्रभावित वे अपने मन से होते थे। वे अन्य को प्रभावित करते थे। उनकी आत्मकथा में यह तत्व उभरकर कम आया है कि वे किससे प्रभावित हुए अथवा उन पर प्रच्छन्नतः किसका प्रभाव था।
रामविलास शर्मा ने अपनी आत्मकथा को ’टाइप ’ के आधार पर लिखा है। यह इकरंगा टाइप है। रैनेसां के सद गुणों से युक्त व्यक्तित्व इसमें उभरकर सामने आता है। उन्होंने अपने लेखन के जरिए बताया कि हिंदी नवजागरण का साम्राज्यवाद के साथ अंन्तर्विरोध था। हिंदी में प्रतिवादी साहित्य का आरंभ नवजागरण से होता है। यह प्रतिवादी स्वर जितना नवजागरण में नहीं है उससे ज्यादा रामविलास शर्मा के व्यक्तित्व में है। आलोचना में उन्होंने नवजागरण को प्रतिवादी नजरिए से देखने की परंपरा डाली।
रामविलास शर्मा की आत्मकथा और नवजागरण विमर्श में गहरा संबंध है। मसलन् , हिंदी नवजागरण का आरंभ 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से होता है और आत्मकथा में भी 1857 का संदर्भ लाकर वे अपने को इसी परंपरा से जोड़ते हैं। निराला पर जीवनी लिखते समय भी वे यही पद्धति अपनाते हैं। यानी सन् 1857 का संग्राम किसी न किसी रूप में उनके आत्मकथा और जीवनी लेखन में संदर्भ के रूप में प्रस्थान बिंदु बना रहता है। इसका समग्र मॉडल पुंसवादी है।
पुंसवादी मॉडल अपनाते हुए रामविलास शर्मा ने स्वयं को निष्पाप,निष्कलंक और भूलों से रहित मर्द के रूप में पेश किया है। इसमें निजी कम है और सामाजिक ज्यादा है और सब कुछ व्यवस्थित और सुनिश्चित दिशा में पाठक को ले जाने वाला है। तकरीबन इसी शैली में नामवर सिंह ने भी लिखा है। इन दोनों में आत्म की वैधता की पुष्टि का भाव प्रबल है। इन दोनों से सवाल किया जाना चाहिए कि उनके जीवन में किसी स्त्री का प्रभाव पड़ा या नहीं ? उसके विवरण और ब्यौरे कहां हैं ? क्या मर्द लेखक के लिए स्त्री सिर्फ जन्म देने,ब्याह करने अथवा बेटी मात्र के संदर्भ के रूप में जिंदा है ? आश्चर्य की बात है इन दोनों के यहां मैँ,पत्नी और बेटी पर भी न्यूनतम लिखा गया है। औरत की आत्मकथा से एकसिरे से अनुपस्थिति सामाजिक सत्य के साथ पर्दादारी है।
आत्म की अभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा लिखी जाती है और अंतमें आत्म पर ही सवाल खड़े करती है। इसे ही पाल दे मान ने ‘डिफेसमेंट’ की संज्ञा दी है। यह व्यक्ति विशेष के सरोकारों का ‘डिफेसमेंट’ है। लेकिन रामविलास शर्मा की आत्मकथा में ऐसा कुछ भी नहीं घटता, बल्कि सब कुछ नियोजित,तर्कपूर्ण और वैध दिशा में घटित होता है। हिंदीसमाज में ‘आत्मगोपन’ का महत्व है। ‘आत्मगोपन’ और ‘गोपन’ से समूचा समाज घिरा हुआ है। यह भाव रामविलास शर्मा और नामवर सिंह तोड़ नहीं पाए हैं।
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