मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

10 अक्टूबर रामविलास शर्मा के जन्मदिन पर विशेष - अस्मिता,आत्मकथा , हिन्दी जाति और रामविलास शर्मा (3 ) समापन किश्त



जीवनी –“ निराला की साहित्य साधना” तीन खण्डों में है। पहले खंड़ में व्यक्तित्व विवेचन है। दूसरे में उनकी विचारधारा और कला का विवेचन है और तीसरे खंड में उनके जीवन और साहित्य से संबंधित सामग्री और पत्र हैं। प्रकाशन वर्ष है सन् 1969। रामविलास शर्मा ने पहले खंड में लिखा है, “ यह पुस्तक मुख्यतः उनके साहित्य की आलोचना नहीं है। निराला के पारिवारिक,सामाजिक परिवेश से ,उस युग की सांस्कृतिक परिस्थितियों से, उनके जीवन के बाह्य रूपों के साथ उनके अन्तर्जगत् से पाठकों को परिचित कराना मेरा उद्देश्य है।”

समूची जीवनी धारावाहिक रूप में विकसित होती है और रामविलास शर्मा ने बड़े ही कौशल के साथ व्यक्तिगत को सामाजिक और सामाजिक को व्यक्तिगत में रूपान्तरित होते हुए दिखाया है। लेखक के अंतर्मन और सामाजिक अभिव्यक्ति के रूपों में सामंजस्य बिठाने की कोशिश की है। इस क्रम वे निराला को निज जगत से बाहर निकालते हैं। देसी ठाट, अनुभूतियां, गुण-अवगुण, मनोदशा,वातावरण,जनसमुदाय के बीच में रखकर निराला के व्यक्तित्व का वर्णन करते हैं।



निराला की जीवनी को पाठक आराम से नहीं पढ़ सकता। यह जीवनी विचलित, उद्वेलित और उत्तेजित करती है। इसमें समाज,राजनीति,आचरण और मूल्य आदि के क्षेत्र में चल रहे संघर्षों और अन्तर्विरोधों का चित्रण है। इससे निराला का भी अन्तर्विरोधी व्यक्तित्व उभरकर सामने आया है। साथ ही स्वयं रामविलास शर्मा का व्यक्तित्व और नजरिया भी इसमें घुलमिलकर सामने आया है। इसमें “मंशा” की अवधारणा का इस्तेमाल किया गया है और “ईमानदार मंशा” पर ध्यान दिया है। इसके अलावा निराला के “प्रेरक” तत्वों को भी रेखांकित किया है।

रामविलास शर्मा ने जीवनी के प्रधान चारों तत्वों स्वायत्तता,आत्मानुभूति,प्रामाणिकता और व्यक्तित्वान्तरण का इस्तेमाल किया है। यह किताब आख्यान शैली में लिखी है। इस क्रम में निराला के बारे में प्रचलित किस्से, कहानियों और वृत्तान्तों का व्यापक रूप में इस्तेमाल किया है। इससे उनके जीवन में पाठक की दिलचस्पी बनी रहती है। असल में किसी के बहाने व्यक्तित्व को प्रस्तुत करने की कला रोमैंटिक आत्म उदघाटन की कला है। फलतःनिराला के इर्द-गिर्द का वैविध्य भी जीवनी में चला आया है।

जीवनीकार जब किसी व्यक्ति का उदघाटन किसी घटना अथवा अन्य के बहाने करता है तो जीवनीकार स्वयं को घटना से दूर कर लेता है,साथ ही लेखक की वस्तुगत भूमिका को भी सामने लाता है। इस क्रम में लेखक के व्यक्तित्व निर्माण में ‘चंद’ लोगों की भूमिका और उसके चारों ओर के वैविध्यमय संसार को पेश करते हुए विभिन्न साहित्य संबंधी अवधारणाओं,सामाजिक व्यवस्था और आंदोलनों की सटीक व्याख्या पेश करता है इससे अनेक धारणाएं बनतीं हैं। जब व्यक्तित्व विवेचन के बहाने अवधारणाओं का निर्माण किया जाता है तो जाने-अनजाने परिस्थितियों और अवधारणाओं की सीमाएं भी व्यक्त हो जाती हैं। यह भी तय हो जाता है कि आप सच बोल रहे हैं। फलतःआप कल्पना से सत्य को अलगाने में सफल हो जाते हैं।

रामविलास शर्मा ने निराला पर लिखते समय व्यक्तिवाद और मानवतावाद को कॉमनसेंस के आधार पर उभारा है। इसके कारण वे निराला की जीवनी को अन्तहीन विस्तार देते हैं। कॉमनसेंस के आधार पर जीवनी लिखी जाएगी तो उसे अंतहीन विस्तार दिया जा सकता है।

“निराला की साहित्य साधना” का आरंभ 1857 के जिक्र के साथ होता है। उस समय बैसवाड़ा के लोग कैसे थे, उस इलाके के लोगों का स्वभाव कैसा था,निराला के पूर्वज कैसे थे,कैसे ये लोग माइग्रेट करके पश्चिम बंगाल आए,निराला का जन्म कैसे हुआ और किस तरह उनके बहाने बंगाल,भारत,बैसवाड़ा,हिन्द साहित्य,समाजवादीचेतना, किसान आंदोलन, स्वाधीनता आंदोलन,गांधी, नेहरू,निराला के आसपास के लोग,रिश्तेदार-नातेदार, छायावाद, निराला के समकालीन छायावादी कवि,प्रगतिवाद,कविता का शिल्प,सौंदर्य, स्थापत्य, कहानीकला, वेदान्त,अवचेतन आदि अनेक विषयों को विस्तार के साथ व्याख्यायित किया है।

व्यक्तित्व विवेचन का यह अंतहीन रूप है। जो व्यक्तित्व विवेचन को असहज बनाता है। इस क्रम में निराला का व्यक्तित्व विवेचन कम और अन्यचीजों का विवेचन ज्यादा हुआ है। इससे यह भी पता चलता है कि जीवनीकार की निराला के व्यक्तित्व से ज्यादा अन्य चीजों के बारे में ज्यादा दिलचस्पी है। रामविलास शर्मा ने यह भी बताने की कोशिश की है वे संबंधित विषयों के प्रामाणिक जानकार हैं। उन्हें निराला के बारे में प्रामाणिक और वस्तुगत जानकारी है। इस समूची प्रक्रिया में निराला की जीवनी के अंशों पर कम और उनके वातावरण संबंधित विवादों और साहित्य संबंधी नजरिए पर ज्यादा ध्यान गया है। निराला के युग विवेचन को ज्यादा स्थान मिला है। निराला के जीवन के निजी ब्यौरे कम स्थान घेरते हैं और अन्य के ब्यौरे और विवरण ज्यादा स्थान घेरते हैं।अनेक स्थानों पर रामविलास शर्मा स्वयं की समझ को सही और निराला की समझ को गलत ठहराते हैं।

निराला पर लिखते समय वे घटनाओं का वर्णन करते जाते हैं,घटनाओं के वर्णन के दौरान उनके द्वारा जो विवरण और ब्यौरे दिए गए हैं वह लेखक के ऐतिहासिक क्षण,उससे जुड़े व्यक्तियों,विवाद,किंवदन्तियों आदि के सहारे निराला का आख्यान निर्मित करते हैं। इस क्रम में अनेक स्थानों पर रामविलास शर्मा अपने नजरिए का इजहार करने लगते हैं।वे स्वयं समस्या को किस तरह देखते हैं उसको प्रस्तुत करते हैं।

“निराला की साहित्य साधना” के बहाने रामविलास शर्मा ने निराला की खोज के साथ अपने नजरिए की खोज की है। वह जो पद्धति अपनाते हैं वह दो रूपों में सामने आती है , इसमें एक ओर निराला है और वे हैं ,तो दूसरी ओर अन्य लोग हैं। अनेक स्थानों पर निराला और अन्य एक साथ हैं और निराला दूसरी ओर हैं। आमतौर पर यह सारी प्रक्रिया किसी न किसी मसले पर विवाद के दौरान घटित होती है।

रामविलास शर्मा ने निराला के व्यक्तित्व विवेचन के दौरान उन्हें हमेशा ऐतिहासिकता के पैमाने से बांधकर रखा है। वह निराला का ऐतिहासिक पैराडाइम से विचलन नहीं होने देते। निराला के आत्म को ऐतिहासिकता के खूंटे से बांधकर रखते हैं। इसके कारण कई जगहों पर चीजों की पुनरावृत्ति हुई है।

निराला की बातों को रामविलास शर्मा जब उद्धृत करते हैं तो निराला के पक्ष को मजबूत करने के इरादे से ऐसा करते हैं साथ ही जो लोग निराला पर हमला कर रहे थे उनकी काट पेश करते हैं।इस प्रक्रिया में पुरानी घटनाओं और साहित्यिक-राजनीतिक प्रवृत्तियों की नई व्याख्याओं को जन्म देते हैं।

हिंदी संस्कृति और जाति -

रामविलास शर्मा ने रैनेसां का जो महाख्यान निर्मित किया है उसमें दो चीजें प्रमुख हैं पहला है 'अनुमानाधारित ज्ञान 'और दूसरा है 'तर्क की एकता'। अनुमानाधारित तर्कशास्त्र के आधार पर निर्मित हिन्दी जाति का सारा तर्कशास्त्र रचा है।यह उत्तर आधुनिक तर्कप्रणाली है। उत्तर आधुनिक तर्कप्रणाली अनुमानाधारित ज्ञान पर आधारित है। वे अपने अनुमानों को स्थापित करने के लिए हिंदी जाति के महाख्यान को निर्मित करते हैं। इस चक्कर में वे उसे 'सत्य' बनाकर पेश करते हैं। हिंदी जाति का स्वायत्त विमर्श निर्मित करते हैं। इसमें 1960 के आसपास पैदा हुई भाषावार राज्यों के गठन की राजनीतिक तात्कालिकता अभिव्यंजित होती है। इसमें हिन्दी जाति की वैधता सिद्ध करने का भावबोध भी काम कर रहा है जो अनेक नए विवादास्पद संदर्भों को खोलता है। इस क्रम में रामविलास शर्मा भाषा और समाज,हिन्दीभाषा-भाषीक्षेत्र की बोलियों और भाषाओं के बारे में एक सुंदर काल्पनिक भाषायीखेल तैयार करते हैं और इस भाषाखेल के जरिए हिंदी जाति की धारणा को वैध ठहराने की कोशिश करते हैं। वे भाषा के साथ वस्तुओं,संस्कृति आदि को जोड़कर पेश करते हैं। भाषा के साथ ऑब्जेक्ट को पेश करने का यह उत्तर आधुनिक तरीका है, इसे बहुत सारे लोग मार्क्सवादी तरीका समझने की भूल करते हैं।

रामविलास शर्मा इसके बहाने राज्यों के गठन के बारे में अनेक ऐसी बातें भी उठाते हैं जो अव्यावहारिक हैं। उनके हिंदी विमर्श ने असल में हिंदी में 'स्पेकुलेटिव' आदर्शवाद की नींव रखी जिस पर खड़े होकर हिंदी के अधिकांश आलोचकों ने जो कुछ भी लिखा वो अंततः उत्तर आधुनिक विमर्श की कोटि में आता है।

मजेदार बात है कि रामविलास शर्मा और उनके अनुयायी यह मानने को तैयार नहीं है कि वे उत्तर आधुनिक हो गए हैं या हिंदी जाति का विमर्श उत्तर आधुनिक विमर्श है। उलटे रामविलास शर्मा और उनके अनुयायियों ने उत्तर आधुनिकता पर अतार्किक हमले किए हैं। असल में आलोचकों का एक समूह हिंदी जाति के विमर्श के नाम पर आलोचना में अपनी जगह बनाने का प्रयास करता रहा है। इस क्रम में रामविलास शर्मा यांत्रिक ढ़ंग से स्टालिन के भाषा पर आधारित जाति और जातीयता की अवधारणा का अनुकरण करते हैं और हिंदी जाति के प्रकल्प को एक मार्क्सवादी प्रकल्प के रूप में पेश करते हैं जो कम से कम और कुछ हो मार्क्सवादी प्रकल्प नहीं है। यह विशुद्ध भाववादी प्रकल्प है। इस क्रम में रामविलास शर्मा ने जो पद्धति अपनायी है वह बेहद खतरनाक और आकर्षक है। वे भाषा और विचार के अन्तस्संबंध को तो मानते हैं लेकिन विचार और उसके तर्कशास्त्र के विकास की ऐतिहासिकता को नहीं देखते। मसलन् जाति का विचार या चेतना बंगाल में जैसी है वैसी ही हिंदीभाषीक्षेत्र में नहीं है। अथवा यों भी कह सकते हैं कि विचार के सामाजिक आधार के साथ उसे जोड़कर ही नहीं देखते। समाजवाद का अर्थ सारे देश के लिए एक ही नहीं सारे विश्व के लिए किताबी तौर पर एक है ,लेकिन वास्तव अर्थों में विचार और यथार्थ के बीच के अन्तस्संबंध को देखना चाहिए।

मसलन कोई विचार कब आता है, किस प्रक्रिया में आता है,किन सामाजिक वर्गों और किस संदर्भ में अपना विकास करता है। एक ही विचार विभिन्न संदर्भ में अपनी सत्ता और महत्ता एक जैसी नहीं बनाए रख सकता। वे विचार के साथ जुड़े ऐतिहासिक-सांस्कृतिक भेद पैदा करने वाले कारकों को नोटिस ही नहीं लेते। वे हेगेल की तरह महज 'तर्क'(रीजन) का सहारा लेते हैं और हिंदी जाति को सिद्ध करते हैं। यहां तक कि भाषाभेद में भी ऐतिहासिक- सांस्कृतिक कारणों के कारण भेद या अंतर आता है उसे भी नहीं देखते और हर चीज 'तर्क ' से सिद्ध करते हैं। इस चक्कर में हिंदी जाति के विचार को महाविचार,महाख्यान और साहित्य की महाप्रस्तुति बना देते हैं। उसे एबसोल्युट की हद तक विकसित करते हैं और बाकी काम उनके भक्तों ने कर दिया है। यानी हिंदी जाति का विचार परमविचार बन जाता है। इसमें सभी किस्म के कल्पनाजीवी हिंदीसाधक शामिल हो सकते हैं।

हिन्दी में वाम से लेकर दक्षिण तक 'संस्कृति' एक विषय के रूप में बड़ा परिदृश्य घेरे हुए है। व्यक्ति को समग्र संस्कृति के आवयविक अंग के रूप में देखा गया है।इसी क्रम में हिन्दी संस्कृति के विशिष्ट रूपों और अधिकारों की ओर भी ध्यान खींचने की कोशिश की गयी है। फलतः वाम से लेकर हिन्दुत्व तक संस्कृति एक राजनीतिक विचारधारा की शक्ल अख्तियार कर लेती है। हिन्दुत्ववादी हिन्दू संस्कृति के श्रेष्ठत्व पर जोर दे रहे हैं तो वाम विचारक जातीय संस्कृति पर जोर दे रहे हैं और उदारवादी लेखक, सांस्कृतिक बहुलतावाद पर जोर दे रहे हैं।

सांस्कृतिक बहुलतावाद को वाम से लेकर दक्षिण तक सभी रंगत के लेखक मानते हैं और अपनी अपनी संस्कृति का जयगान करते हैं। बहुलतावादी संस्कृति के नजरिए से एकमत लोग यह भी कह रहे हैं कि जहां तक कोई भी संस्कृति अपने क्षेत्र में सक्रिय रहती है उसकी स्वायत्तता की रक्षा की जानी चाहिए। इस प्रक्रिया में जो इमिग्रेंट हैं उनसे कहा जा रहा है कि वे इलाके की संस्कृति में घुलमिल जाएं। अपनी संस्कृति को भूल जाएं। अथवा लौटकर अपनी जन्मभूमि की ओर चले जाएं। मूलबात यह है संस्कृति की इस राजनीति में किसी न किसी रूप में राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता शामिल रहती है । मजेदार बात यह है कि देशज या जातीयसंस्कृति पर जोर देने के कारण जाने-अनजाने हम संस्कृतिवाद की कैद में चले गए हैं।

संस्कृति के राजनीति के केन्द्र में आने के कारण हिन्दू संस्कृति बनाम बहुलतावादी संस्कृति, बहुलतावाद बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, इस्लामिक संस्कृति बनाम बोलने-लिखने की आजादी,मराठी बनाम हिन्दीभाषी आदि के सवाल विवाद में आते रहे हैं। मकबूल फिदा हुसैन और सलमान रूशदी के संदर्भ में चली बहसों में यह भी कहा गया है कि अभिव्यक्ति की आजादी से ज्यादा महत्वपूर्ण है हिन्दू संस्कृति और इस्लामिक संस्कृति । इस क्रम में संस्कृति और धर्म को स्थानीय और अभिव्यक्ति की आजादी को विजातीय अवधारणा कहा गया।इस तरह की धारणाओं को सत्ता का भी सहयोग मिला है। यहां तक कि उन लोगों को कानूनी संरक्षण तक दिया गया है। इसके समानान्तर वामदलों ने स्थानीयतावादी संस्कृति के पल्लवन के नाम पर सबसे पिछड़ी मान्यताओं और मूल्यों को स्थापित करने या स्वीकृत करने की मांग की है। हिन्दी संस्कृति और हिन्दी जातीयता इसी अर्थ में एक खतरनाक प्रस्थान बिंदु है।

वाम के सांस्कृतिक दबाब का आलम यह है कि कलकत्ता का नाम बदलकर कोलकाता कर दिया गया। यह मूलतः संस्कृतिवाद है इसका ही एक अन्य रूप है जिसके तहत तस्लीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से तत्कालीन राज्य सरकार ने निकाल दिया बाद में कांग्रेस ने उसे दिल्ली से भगा दिया।दुख की बात यह है कि सलमान रूशदी के सैटेनिक वर्शेज से लेकर तस्लीमा के निष्कासन तक मौटे तौर पर वाम और उदार दोनों ही किस्म के राजनीतिकदलों की नीति को संस्कृति हांक रही है। यह मूलतः संस्कृतिवाद है और संस्कृतिवाद सामाजिक विभाजन को और भी बढ़ाता है।

इसी तरह जब आप हिन्दी जाति की बात करते हैं और उसकी पहचान को स्थापित करने की कोशिश करते हैं तो इससे मूलतः राज्यविभाजन की वैचारिक प्रक्रियाओं को मदद मिलती है। हिन्दी में हिन्दीजाति,हिन्दी संस्कृति और हिन्दी जातीयता की बहस जितनी ज्यादा हुई उसने हिन्दीभाषी राज्यों में विभाजन को वैचारिक मदद प्रदान की है। विभाजन का आधार बनाया है। यह भी कह सकते हैं इस बहस का बाई-प्रोडक्ट है सामाजिक विभाजन और हिन्दी राज्यों का विभाजन।

हिंदीजाति की धारणा मूलतःएक प्रतिक्रियावादी अवधारणा है। हिंदी समीक्षकों का बड़ा हिस्सा इसकी प्रगतिशील व्याख्याएं करता रहा है। हिंदी में इस धारणा का सांस्कृतिक श्रेष्ठत्व को स्थापित करने के भावबोध के साथ इस्तेमाल होता रहा है। संस्कृति का आधार जब राष्ट्रीयता,राष्ट्रवाद और धर्म को बनाएंगे तो इससे विभाजन बढ़ेगा और ये तीनों एक-दूसरे के साथ अंतर्क्रियाएं करते हैं। मसलन् जो हिंदी जाति के पक्षधर हैं वे जाति(नेशनेलिटी) के श्रेष्ठत्व पर जोर देते हैं।

जातीयता का श्रेष्ठत्व सबसे खतरनाक राजनीतिक तत्व है। हिंदीजाति के विचार को रामविलास शर्मा साहित्य के सुपीरियर विचार के रूप में प्रचारित करते हैं। सतह पर हिन्दीजाति का विचार बड़ा ही हार्मलेस लगता है लेकिन बुनियादी तौर पर बेहद खतरनाक और विभाजनकारी विचार है। नेशनेलटी को आधार बनाकर जब भी बात की जाएगी उसकी वैचारिक परिणति संस्कृतिवाद और सामाजिक विभाजन की ओर ले जाएगी। यह एक खास भाषा(खड़ी बोली हिन्दी) की उन्नति, क्षमता,सामाजिक दायरे और श्रेष्ठत्व के दर्प में डूबा विचार है। यह आधुनिक राजनीति की एंटीथीसिस है। साहित्य में इस विचार में सभी को अपने अंदर समाहित कर लेने और खड़ीबोली हिंदी के मातहत कर लेने का विचार काम करता रहा है। हिंदीजाति के विचार के तहत हमारी समीक्षा के एक बड़े हिस्से ने रैनेसां से लेकर सार्वभौमवाद तक के सभी विषयों को समाहित करके आधुनिक विमर्श में एक विलक्षण अवरोध पैदा किया है जिसमें से तब ही निकल सकते हैं जब हिंदी जाति और हिंदी संस्कृति को मानें। इनको माने बिना कोई आलोचना नहीं लिखी जा रही। इससे आलोचना में लोकतंत्र खत्म हो गया है। आलोचना में हिंदीजाति और हिंदी संस्कृति की बात करने वाले श्रेष्ठ और इससे बाहर के लोग निकृष्ट मान लिए गए हैं।

हिंदीजाति और हिंदी संस्कृति की अवधारणा का मूलतः स्त्री,दलित और भाषायी वैविध्य और समानता का विरोध है। इसमें वर्चस्व का भाव है। हाशिए के लोगों और विषयों के लिए इसमें कोई जगह नहीं है। यह अचानक नहीं है कि हिंदीजाति की अवधारणा पर जिनलोगों ने सबसे ज्यादा काम किया है उन्होंने स्त्रीसाहित्य और दलित साहित्य की अवधारणाओं के प्रति दोयमदर्जे का व्यवहार किया है या उसकी उपेक्षा की है। हिन्दीजाति के पक्षधरों के द्वारा बार बार हिन्दीजाति की मुक्ति में ही सामाजिक मुक्ति को खोजने की कोशिश की गयी है। सभी सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान उसमें खोजने की कोशिश की गई है। इस प्रक्रिया में खड़ीबोली हिंदी के साथ हिन्दीभाषी क्षेत्र की अन्य भाषाओं और बोलियों का साहित्य र इन भाषाओं के साथ समान व्यवहार के सवाल हाशिए पर भी नजर नहीं आते। हिन्दीभाषीक्षेत्र की बोलियों भाषाओं का खड़ीबोली हिंदी के साथ अन्तर्विरोध तेज हुआ है। हिन्दीभाषी प्रान्तों का विभाजन हुआ है और इसके कारण नए प्रांतों में खड़ीबोली हिंदी की जगह स्थानीय भाषा और बोलियों को प्राथमिकता दी जा रही है।नए बने राज्यों उत्तराखंड,झारखंड और छत्तीससगढ़ में प्रधान सरकारी भाषा के रूप में खड़ीबोली की जगह लोकल भाषाओं को वरीयता मिली है।

दूसरी ओर हिंदीजाति और हिंदीसंस्कृति के नाम पर संस्कृति के पुराने और पिछड़े रूपों को बनाए रखने की कोशिशें भी हुई हैं। इसके लिए परंपरा और पुरानी संस्कृति की प्रामाणिकता को खासतौर पर उभारा गया है। यह अजीब संयोग है वाम समीक्षकों के एक समूह ने विगत 40-45 सालों में हिंदीजाति और हिंदीसंस्कृति को उभारा, वहीं दूसरी ओर समाज की सबसे प्रतिक्रियावादी विचारधारा के रूप में हिन्दुत्ववादी और जातिवादी राजनीति और संस्कृति का उभार पैदा हुआ। वामपंथी हिंदीजातिधर्मी आलोचकों ने हिंदीजाति की अवधारणा से हिन्दुत्व और जातिवाद को धोने की काफी कोशिश की लेकिन वे असफल रहे। इसका प्रधान कारण है कि वे समझने में असमर्थ रहे कि हिंदीजाति और हिंदीसंस्कृति जिस विचारधारा के आधार पर खड़ी है वह आधार हिन्दुत्व और जातिवादी राजनीति का भी है। वे एकही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों ने अपने अपने तरीके से संस्कृति के अंधलोकवाद की हिमायत की है। दोनों ही अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता का दावा करते हैं।दोनों में लोकतंत्र और समानता के लिए कोई जगह नहीं है। दोनों ही भाषायी और सांस्कृतिक समानता के विरोधी हैं। दोनों ही अपने राजनतिक वैचारिक बंधनों में बंधे हैं और दोनों में विकास की कोई संभावना नहीं है। दोनों ने जिस तरह की राजनीति,संस्कृति,धर्म,विचारधारा आदि की हिमायत की है उसके कारण इनकी कोई प्रसंगिकता नहीं है। ये चीजें वोट की राजनीति के कारण उठती रही हैं।

हिंदीजाति और हिदी संस्कृति के सवालों को आलोचना में जिन लोगों ने प्रतिष्ठित किया है वे आलोचना में राजनीतिक विचारधारात्मक वैविध्य या यों कहें वैविध्यपूर्ण समीक्षा के विषय पेश करने में असमर्थ रहे हैं। मसलन् रैनेसां पर जितना लिखा गया है उतना अन्य किसी विषय पर नहीं लिखा गया। नवजागरण,हिन्दीजाति,हिंदी संस्कृति,हिंदी जातीयता,साम्प्रदायिकता,क्षेत्रवाद आदि एक ही विषयक्षेत्र है जिस पर अधिकांश आलोचना लिखी गयी है। इस समूची प्रक्रिया में विभिन्न किस्म की राजनीतिक अवधारणाओं और यूटोपियाओं की ओर कभी ध्यान ही नहीं गया।

हिंदीजाति और हिंदी संस्कृतिपंथी आलोचकों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वे अन्य साहित्यरूपों और साहित्यांदोलनों के बारे में आज तक कोई नया विवेचन पेश नहीं कर पाए हैं। कुंजी और नोट्स मार्का विवेचनों के जरिए हमने अन्य प्रवृत्तियों को सिलटाने की कोशिश की है। मसलन् प्रयोगवाद से लेकर स्त्रीसाहित्य,दलित साहित्य से लेकर दलित राजनीति तक का सारा क्षेत्र अछूता पड़ा है। इन सभी क्षेत्रों के बारे में वामपंथी आलोचना चुप है।

हम अगर गंभीरता से सोचें तो आज हमारे सामने संस्कृति और साहित्य के गंभीर सवाल आ खड़े हुए हैं लेकिन हमारे पास उनका कोई संतोषजनक विश्लेषण तक नहीं है। साहित्यिक-राजनीतिक समस्याओं का समाधान हिंदीजाति और हिंदीसंस्कृति के फ्रेमवर्क में खोजने की कोशिशें की जा रही हैं। हिंदीजाति की अवधारणा हमारी सामयिक राजनीतिक,सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान पेश नहीं करती बल्कि यह तो आलोचना की पलायनवादी प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति है।

हिंदीजाति और हिंदीसंस्कृति वस्तुतः फेक या कृत्रिम धारणा है। इसका वास्तव जगत से कोई संबंध नहीं है। यह एक ऐसे यूटोपिया पर आधारित है जिसका भौतिक आधार नहीं है। यह एक ऐसी आइडेंटिटी की हिमायत करती है जो विभाजनकारी है। यह संस्कृति को क्षेत्रविशेष से जोड़कर देखती है।

संस्कृति को राजनीतिकक्षेत्र के साथ बांधकर नहीं देखा जा सकता।इसके आधार पर हिंदीजाति और हिंदीभाषाभाषी राज्यों के बीच के अन्तस्संबंध पर अतिरिक्त जोर दिया गया। उन्हें हिंदीसंस्कृति की वायवीय अवधारणा से बांधने की असफल कोशिश की गयी है। हिंदी को एक सांस्कृतिक अस्मिता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। इस क्रम में देश के विभिन्न इलाकों में जातिवाद ,क्षेत्रवाद और धर्म के नाम सामाजिक समूहों को संगठित करने के प्रयासों की अनदेखी की गयी। संस्कृति के नाम पर संगठित हो रहे समूहों की अनदेखी की गयी।

वाम आलोचना ने बहुलतावादी संस्कृतिवाद को खूब हवा दी है और रामविलास शर्मा भी हवा देने वालों में प्रमुख हैं। ब्रिटिश दार्शनिक ब्रायन बेरी ने लिखा है कि बहुलतावादी संस्कृतिवाद ने खास सामाजिक हितों के प्रसार को हवा दी है। यह एक तरह से सामाजिक विभाजन की फूट डालो और राज करो की यथास्थितिवादी राजनीति है। यह वंचितों को और भी वंचित बनाने वाली राजनीति है। यह वंचितों की साझा समस्याओं जैसे बेकारी, गरीब,निम्नस्तरीय जीवनशैली,रोटी,कपड़ा,मकान,शिक्षा,स्वास्थ्य,चिकित्सा आदि से ध्यान हटाती है।

हम गंभीरता से विचार करें और सोचें कि राज्यों के विभाजन या पुनर्गठन की मांग क्या सचमुच में यथार्थवादी मांग है ? क्या इस तरह की मांगें समाज की बुनियादी साझा समस्याओं के समाधान की ओर ले जाती हैं ? आखिरकार इनदिनों ही राज्यों के विभाजन या पुनर्गठन की मांगों पर ध्यान क्यों दिया जा रहा है ? इसी तरह इनदिनों जातियों की दशा सुधारने या दलितों और अल्पसंख्यकों की दशा सुधारने के कार्यक्रमों पर ढिंढोरची तरह हल्ला क्यों बोला जा रहा है। यह सारा खेल बहुलतावादी संस्कृतिवाद के फ्रेमवर्क में चल रहा है। वोटरों को भी इन्हीं आधारों पर वाम से लेकर दक्षिणपंथी दलों तक भरमाने की कोशिश कर रहे हैं।

देश में इनदिनों वंचितों और अभावग्रस्तों को धर्म,संस्कृति और अस्मिता के सवालों के आधार पर संगठित किया जा रहा है। जाहिरा तौर पर इससे सामाजिक विभाजन और बढ़ेगा और ठोस राजनीतिक सवालों की अनदेखी भी बढ़ेगी।

हिंदी में संस्कृतिवाद का रूप है हिंदीजाति और हिंदीसंस्कृति । इसके प्रचारक खासकिस्म के सरलीकरण से काम लेते रहे हैं। पहलीबात इन दो धारणाओं के संदर्भ में यह कि ये दोनों धारणाएं सार्वभौम मानवाधिकारों को नहीं मानतीं। सार्वभौम मानवाधिकार की धारणा मानने का अर्थ है संस्कृति विशेष की हिमायत को छोड़ना होगा। क्योंकि सार्वभौम मानवाधिकार की धारणा वस्तुतःसंस्कृतिविशेष के आधार से परे ले जाती है। हिंदीवाला किंतु हिंदीजाति और हिंदीसंस्कृति को त्यागने के लिए तैयार नहीं है। यह अचानक नहीं है कि रामविलासशर्मा ने हिंदीजाति और हिंदीसंस्कृति पर खूब लिखा है कि लेकिन सार्वभौम मानवाधिकारों की धारणा को वे नहीं उठाते और यह सारी दुनिया में वामपंथी बुद्धिजीवियों की समस्या है।

हिंदीजाति और हिंदीसंस्कृति की अवधारणा के नाम पर प्रचलित संस्कृतिवाद और मार्क्सवाद में एक चीज साझा हैं। दोनों का मानना है वंचित-पीड़ित हमेशा सही होते हैं। इस आधार पर वे कहते हैं कि वंचित-पीड़ित को अपने दमन-उत्पीड़न से मुक्त होने का अधिकार है। अतः इनकी सांस्कृतिक मान्यताएं भी सही हैं। वे कभी ठंड़े दिमाग से यह सोचने की कोशिश नहीं करते कि वे जिन सांस्कृतिक मान्यताओं को उठा रहे हैं वे सही और न्यायपूर्ण हैं ? वे जिन सांस्कृतिक रूपों को मानते हैं वे क्या सही हैं ? इस तरह वे ‘मजदूरवर्ग’ को ‘वंचित’ , ‘उत्पीडित’ या ‘दलित’ के नाम से अपदस्थ करना चाहते हैं। मुक्ति या मूलगामी सामाजिक परिवर्तन को संस्कृतिवाद,हिंदजाति और हिंद संस्कृति के जरिए अपदस्थ करना चाहते हैं। यह असलमें मार्क्सवाद का एकदम विलोम है, यह वाम राजनीति का भी विलोम है।

हिंदीजाति और हिंदीसंस्कृति के प्रचारक एक ओर अधिनायकवादी राजनीति का विरोध करते हैं वहीं दूसरी ओर साम्राज्यवाद विरोध और वि-उपनिवेशीकरण की तेजी से वकालत करते हैं। यह फिनोमिना रामविलास शर्मा के लेखन में भी है। लंबे समय से इस थ्योरी के आधार पर लिखा जा रहा है। संकट उसके बाद आरंभ होता है जब फंडामेंटलिस्ट हिन्दुत्ववादी और इस्लामिस्ट भी इसी एजेण्डे पर सक्रिय होते हैं। वे भी साम्राज्यवादविरोधी वि-उपनिवेशीकरण को अपना लक्ष्य बनाते हैं। दोनों में साझा तत्व है संस्कृति। दोनों संस्कृति के आधार पर ही विरोध करते हैं। रोचक बात यह है वाम ने बहुलतावादी संस्कृतिवाद को तरजीह दी और फंडामेंटलिस्टों ने संस्कृति विशेष को तरजीह दी।

इन दोनों के नजरिए में वाम के यहां संस्कृति ज्यादा है ,जबकि फंडामेंटलिस्टों के यहां संस्कृति कम है। ये दोनों ही व्यक्ति को इस आधार पर अस्मिता प्रदान करते हैं। इसके आधार पर व्यक्ति के अधिकारों को परिभाषित करते हैं और उन अधिकारों के संरक्षण के बारे में बात करते हैं। मजेदार पहलू यह है कि फंडामेंटलिस्टों के लिए संस्कृति निर्धारक तत्व है ,जबकि वाम के लिए संस्कृति निर्धारक नहीं आर्थिक-सामाजिक कारण निर्धारक तत्व हैं। वाम के लिए संस्कृति फालतू चीज है। वाम के लिए सांस्कृतिक संगठन गौण और वर्गीय संगठन प्रधान हैं।








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