रामविलास शर्मा के लेखन में अस्मिता विमर्श को मार्क्सवादी नजरिए से देखा गया है। वे वर्गीय नजरिए से जातिप्रथा पर विचार करते हैं। आमतौर पर अस्मिता साहित्य पर जब भी बात होती है तो उस पर हमें बार-बार बाबासाहेब के विचारों का स्मरण आता है। दलित लेखक अपने तरीके से दलित अस्मिता की रक्षा के नाम बाबा साहेब के विचारों का प्रयोग करते हैं। दलित लेखकों ने जिन सवालों को उठाया है उन पर बड़ी ही शिद्दत के साथ विचार करने की आवश्यकता है। आम्बेडकर-ज्योतिबा फुले का महान योगदान है कि उन्होंने दलित को सामाजिक विमर्श और सामाजिक मुक्ति का प्रधान विषय बनाया।
अस्मिता विमर्श का एक छोर महाराष्ट्र के दलित आंदोलन और उसकी सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से जुड़ा है ,दूसरा छोर यू.पी-बिहार की दलित राजनीति और सांस्कृतिक प्रक्रिया से जुड़ा है। अस्मिता विमर्श का तीसरा आयाम मासमीडिया और मासकल्चर के राष्ट्रव्यापी उभार से जुड़ा है। इन तीनों आयामों को मद्देनजर रखते हुए अस्मिता की राजनीति और अस्मिता साहित्य पर बहस करने की जरूरत है।
अस्मिता के सवाल आधुनिकयुग की देन हैं। आधुनिक युग के पहले अस्मिता की धारणा का जन्म नहीं होता। आधुनिककाल आने के साथ व्यक्तिगत को सामाजिक करने और अपने अतीत को जानने-खोजने का जो सिलसिला आरंभ हुआ उसने अस्मिता विमर्श को संभव बनाया।
अस्मिता राजनीति में विगत 150 सालों में व्यापक परिवर्तन हुए हैं।खासकर नव्य आर्थिक उदारीकरण और उपग्रह मीडिया प्रसारण आने बाद परिवर्तनों का सिलसिला तेज हुआ है। खासकर उत्तर आधुनिकतावाद आने के साथ सारी दुनिया में उत्तर आधुनिक अस्मिता की धारणा का तो बबंडर ही चल निकला।मसलन् अस्मिता निर्माण के उपरकरणों के रूप में मोबाइल,आई पोड,मर्दानगी आदि पर जमकर चर्चाएं हुई हैं।
उत्तर आधुनिकता के साथ आई अस्मिता ने सेल्फ (निज ) के तरल, विखंडित, विश्रृंखलित,अ-केन्द्रित, अवसादमय, वर्णशंकर, रूपों को जन्म दिया। उत्तर आधुनिक अस्मिता का अर्थ है तर्क,सत्य,प्रगति और सार्वभौम स्वतंत्रता वाले आधुनिक आख्यान का अंत। इन दिनों अस्मिता के छोटे छोटे आख्यान केन्द्र में आ गए हैं। स्त्री से लेकर दलित तक,भाषा से लेकर संस्कृति तक, साम्प्रदायिकता, पृथकतावाद, राष्ट्रवाद आदि तक अस्मिता की राजनीति का विमर्श फैला हुआ है।
आखिरकार आधुनिक युग में अछूत कैसे जीएंगे हम नहीं जानते थे। हम कबीर को जानते थे,रैदास को जानते थे। ये हमारे लिए कवि थे। साहित्यकार थे। संत थे। किंतु ये अछूत थे और इसके कारण इनका संसार भिन्न किस्म का था यह सब हम नहीं जानते थे। अछूत की खोज आधुनिकयुग की महानतम सामाजिक उपलब्धि है।
अछूत के उद्धाटन के बाद पहलीबार देश के विचारकों को पता चला वे भारत को कितना कम जानते हैं। भारत एक खोज को अछूत की खोज ने ढंक दिया। आज भारत एक खोज सिर्फ किताब है, सीरियल है,एक प्रधानमंत्री के द्वारा लिखी मूल्यवान किताब है। इस किताब में भी अछूत गायब है। उसका इतिहास और अस्तित्व गायब है। आंबेडकर ने भारत को सभ्यता की मीनारों पर चढ़कर नहीं देखा बल्कि शूद्र के आधार पर देखा। शूद्र के नजरिए से भारत के इतिहास को देखा, शूद्र की संस्कृतिहीन अवस्था के आधार पर खड़े होकर देखा। इसी अर्थ में आंबेडकर की अछूत की खोज आधुनिक भारत की सबसे मूल्यवान खोज है।
भारत एक खोज से सभ्यता विमर्श सामने आया,अछूत खोज ने परंपरा और इतिहास की असभ्य और बर्बरता की परतों को खोला। आंबेडकर इस अर्थ में सचमुच में बाबासाहेब हैं कि उन्होंने भारत के आधुनिक एजेण्डे के रूप में अछूत को प्रतिष्ठित किया। आधुनिक युग की सबसे जटिल समस्या के रूप में अछूत समस्या को पेश किया।
आधुनिकाल में किसी के लिए स्वाधीनता,किसी के लिए समाजसुधार, किसी के लिए औद्योगिक विकास , किसी के लिए क्रांति और साम्यवादी समाज से जुड़ी समस्याएं प्रधान समस्या थीं किंतु आंबेडकर ने इन सबसे अलग अछूत समस्या को प्रधान समस्या बनाया।
अछूत समस्या पर बातें करने ,पोजीशन लेने का अर्थ था अपने बंद विचारधारात्मक कैदघरों से बाहर आना। जो कुछ सोचा और समझा था उसे त्यागना। अछूत और उसकी समस्याओं पर संघर्ष का अर्थ है पहले के तयशुदा विचारधारात्मक आधार को त्यागना और अपने को नए रूप में तैयार करना। अछूत समस्या से संघर्ष किसी क्रांति के लिए किए गए संघर्ष से भी ज्यादा दुष्कर है। आधुनिककाल में क्रांति संभव है,आधुनिकता संभव है,औद्योगिक क्रांति संभव है किंतु आधुनिक काल में अछूत समस्या का समाधान तब ही संभव है जब मानवाधिकार के प्रकल्प को आधार बनाया जाए।
बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर के बारे में रामविलास शर्मा ने जिस नजरिए से विचार किया है उसके आधार पर अस्मिता की राजनीति को समझने में हमें मदद मिल सकती है। इस प्रसंग में रामविलास शर्मा की 'गाँधी,आम्बेडकर ,लोहिया और इतिहास की समस्याएँ' (2000) किताब बेहद महत्वपूर्ण है।
सामंतवाद,साम्राज्यवाद ,क्रांति,आधुनिकता,औद्योगिक क्रांति इन सबका आधार मानवाधिकार नहीं हैं। बल्कि किसी न किसी रूप में इनमें मानवाधिकारों का हनन होता है। अछूत समस्या मानवीय समस्या है इसके खिलाफ संघर्ष करने का अर्थ है स्वयं के खिलाफ संघर्ष करना और इससे हमारा बौध्दिकवर्ग, राजनीतिज्ञ और मध्यवर्ग भागता रहा है। ये वर्ग किसी भी चीज के लिए संघर्ष कर सकते हैं किंतु अछूत समस्या के लिए संघर्ष नहीं कर सकते। अछूत समस्या अभी भी मध्यवर्ग और पूंजीपतिवर्ग के चिन्तन को स्पर्श नहीं करती। अछूत समस्या को वे महज घटना के रूप में दर्शकीय भाव से देखते हैं। अछूत समस्या न तो घटना है और न परिघटना और न संवृत्ति ही है। बल्कि मानवीय समस्या है मानवाधिकार की समस्या है। मानवाधिकारों के विकास की समस्या है। हमारे समाज में मानवाधिकारों के विकास को लेकर जितनी जागृति पैदा होगी अछूत समस्या उतनी ही कम होती जाएगी। जिस समाज में मानवाधिकारों का अभाव होगा वहां पर अछूत समस्या,बहिष्कार की समस्या उतनी प्रबल रूप में नजर आएगी।
रामविलास शर्मा ने लिखा है '' भारत में वर्ग हैं, जाति बिरादरी हैं।दोनों यथार्थ हैं। परंतु वर्ग ऐसा य़थार्थ है जो जीवंत है,जो आगे बढ़ रहा है और जाति बिरादरी ऐसा यथार्थ है जो मर रहा है और पिछड़ रहा है। आम्बेडकर ने कहा थाः जब परिवर्तन आरंभ होता है,तब सदा पुराने पुराने और नए के बीच संघर्ष होता है। नए का समर्थन न किया जाए तो यह खतरा बना रहता है कि वह इस संघर्ष में निरस्त कर दिया जाएगा।"[1]
रामविलास शर्मा ने आम्बेडकर की विश्वदृष्टि की खोज करते हुए रेखांकित किया कि उनके दृष्टिकोण का आधार वर्ग हैं।मजदूरवर्ग है। न कि जाति। उन्होंने लिखा है, " यदि इस समय अभ्युदयशील वर्गों का समर्थन न किया गया, जाति-बिरादरी का समर्थन किया गया, तो यह संभव है,जाति-बिरादरी बनी रहे और वर्गों की भूमिका पीछे छूट जाए। जाति-बिरादरी के भेद वर्गों के संगठन और वर्ग संघर्ष द्वारा ही संभव किए जा सकते हैं।आम्बेडकर ने कहा था,मजदूरवर्ग को मार्गदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा थाःमजदूरों को केवल अपने संघ कायम करने से संतोष नहीं करना चाहिए उन्हें घोषित करना चाहिए कि उनका उद्देश्य शासन-तंत्र पर अधिकार करना है।"[2] दुखद बात यह है कि आम्बेडकर की वर्गीय दृष्टि की बजाय अस्मिता की राजनीति करने वालों ने जाति और वर्ण के बारे में लिखी बातों को अपना लिया है और बाकी सारी बातों को त्याग दिया है।
भारतीय समाज में शूद्र सिर्फ अछूत नहीं है। बल्कि गुमशुदा भी है। हम उसे कम से कम जानते हैं। हम उसे देखकर भी अनदेखा करते हैं। उसका कम से कम वर्णन करते हैं। अछूतों के जीवन के व्यापक ब्यौरे तब ही आए जब हमें आधुनिककाल में ज्योतिबा फुले और आंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली विचारक मिले। यह सोचने वाली चीज है कि आंबेडकर ने जाति व्यवस्था के मर्म का उद्धाटन करते हुए जितने विस्तार के साथ अछूतों की पीड़ा को सामने रखा और उससे मुक्त होने के लिए सामाजिक-राजनीतिक प्रयास आरंभ किए वैसे प्रयास पहले कभी नहीं हुए।
आधुनिककाल के पहले शूद्र हैं किंतु अनुपस्थित और अदृश्य हैं। जातिव्यवस्था है किंतु जातिव्यवस्था के अनुभव गायब हैं। जाति सिर्फ मनोवैज्ञानिक चीज नहीं है। उसका ठोस आर्थिक आधार है। जाति के ठोस आर्थिक आधार को बदले बगैर जाति की संरचनाओं को बदलना संभव नहीं है। संत और भक्त कवियों के यहां जाति एक मनोदशा के रूप में दाखिल होती है। मनोदशा के धरातल पर ही ईश्वर सबका था और सब ईश्वर के थे। भक्ति में भेदभाव नहीं था। भक्ति का सर्वोच्च रूप वह था जो मनसा भक्ति से जुड़ा था। वास्तविकता इसके एकदम विपरीत थी। ईश्वर और धर्म की सत्ता के वर्चस्व के कारण भेद और वैषम्य के सभी समाधान मनोदशा के धरातल पर ही तलाशे गए। मन में ही सामाजिक समस्याओं के समाधान तलाशे गए। सामाजिक यथार्थ से भक्त कवियों का लगाव एकदम नहीं था। यही वजह है कि वे जातिभेद के सामाजिक रूपों को देखने में असमर्थ रहे। इस कमजोरी के बावजूद भक्तकवियों ने जातिभेद के खिलाफ मनोदशा के स्तर पर संघर्ष करके कम से कम सामंजस्य का वातावरण तो बनाया। यह दीगर बात है कि सामंजस्य के पीछे वर्चस्वशाली वर्गों की हजम कर जाने की मंशा काम कर रही थी। उल्लेखनीय है सामंजस्य की बात तब उठती है जब अन्तर्विरोध हों, टकराव हो,तनाव हो। वरना सामंजस्य पर इतना जोर क्यों ?
अनेक विचारक वर्णभेद को नस्लभेद के रूप में चित्रित करते हैं। इस चित्रण को बड़े ही चलताऊ ढ़ंग से साहित्य में इस्तेंमाल किया जा रहा है। आम्बेडकर के नजरिए की पहली विशेषता है कि वे वर्णव्यवस्था को नस्लभेद के पैमाने से नहीं देखते।[3] दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि आम्बेडकर की चिंतन-प्रक्रिया स्थिर या जड़ नहीं थी ,वे लगातार अपने विचारों का विकास करते हैं। विचारों की विकासशाल प्रक्रिया के दौरान ही हमें उस विकासशील सत्य के भी दर्शन होंगे जो वे बताना चाहते थे। आम्बेडकर के विचारों को निरंतरता या गतिशीलता के आधार पर पढ़ना चाहिए। आमतौर पर हम यह मानते हैं कि आर्य एक जाति थी,नस्ल थी। आमेहेडकर ने इस धारणा का खंडन किया है। आर्य एक समुदाय था। "आम्बेडकर ने लिखाः आर्य एक जन समुदाय का नाम है। जो चीज उन्हें आपस में बैंधे हुए थी,वह एक विशेष संस्कृति,जो आर्य संस्कृति कहलाती थी,को सुरक्षित रखने में उनकी दिलचस्पी थी। जो भी आर्य संस्कृति स्वीकार करता था,वह आर्य था।आर्य नाम की कोई नस्ल नहीं थी।"[4] आम्बेडकर ने यह भी लिखा है कि " आर्यों में रंग संबंधी द्वेषभाव था जिससे उनकी समाज व्यवस्था निर्धारित हुई,यह बात निहायत बेसिर-पैर की है।यदि कोई ऐसा जन-समुदाय था जिसमें रंग सम्बन्धी द्वेषभाव का अभाव था तो वह आर्यों का समुदाय था और ऐसा इसलिए कि उनमें कोई ऐसा रंग प्रधान नहीं था जिससे वे अलग पहचाने जाते।"[5]
भीमराव आम्बेडकर ने इस धारणा का भी खंडन किया है कि दस्यु लोग अनार्य थे।[6] वे यह भी नहीं मानते कि आर्य भारत के बाहर से आए थे। वे यह भी मानते हैं कि शूद्र भी आर्य हुआ करते थे।
भीमराव आम्बेडकर ने सन् 1946 में 'शूद्र कौन थे ?' ( हू वेयर द शूद्राज ) नामक किताब लिखी। इस किताब में पश्चिमी विद्वानों की तमाम धारणाओं का उन्होंने खंडन किया। " आम्बेडकर ने इन विद्वानों की 7 मुख्य स्थापनाएँ प्रसुत की हैः 1. जिन लोगों ने वैदिक साहित्य रचा था, वे आर्य नस्ल के थे। 2. यह आर्य नस्ल बाहर से आई थी और उसने भारत पर आक्रमण किया था ।3. भारत के निवासी दास और दस्यु के रूप में जाने जाते थे और ये आर्यों से नस्ल के विचार से भिन्न थे।4. आर्य श्वेत नस्ल के थे, दास और दस्यु काली नस्ल के थे।5. आर्यों ने दासों और दस्युओं पर विजय प्राप्त की।6.दास और दस्यु विजित होने के बाद दास बना लिए गए और शूद्र कहलाए।7. आर्यों में रंगभेद की भावना थी और इसलिए उन्होंने चातुर्वर्ण्य का निर्माण किया। इसके द्वारा उन्होंने श्वेत नस्ल को काली नस्ल से, यथा दासों और दस्युओं से अलग किया। आगे आम्बेडकर ने इन सातों स्थापनाओं का खंडन किया।"[7] इन सभी मतों का इन दिनों प्राच्यवादी पश्चिमी विचारक खूब प्रचार कर रहे हैं।इन विचारों से हिंदी लेखकों का एक तबका भी प्रभावित है।
रामविलास शर्मा ने सवाल उठाया है कि शूद्र अनार्य नहीं थे तो वे कौन थे ? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने आम्बेडकर के विचारों का निचोड़ पेश करते हुए लिखा है, " इस प्रश्न के उत्तर में आम्बेडकर की तीन स्थापनाएँ हैः (1) शूद्र आर्य थे।(2) शूद्र क्षत्रिय थे। (3) क्षत्रियों में शूद्र ऐसे महत्वपूर्ण वर्ग के थे कि प्राचीन आर्य समुदायों के कुछ सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली राजा शूद्र हुए थे।"[8]
रामविलास शर्मा ने आम्बेडकर का मूल्यांकन करते हुए अनेक महत्वपूर्ण धारणाएं दी हैं। ये अवधारणाएं अनेक मामलों में आम्बेडकर के चिंतन से भिन्न मार्क्सवादी नजरिए को व्यक्त करती हैं। रामविलास शर्मा ने लिखा है, " आम्बेडकर के विचार से हिंदुओं का जो साहित्य पवित्र या धार्मक कहलाता है,वह प्रायःसबका सब ब्राह्मणों का रचा हुआ है।ब्राह्मण विद्वान् उसका आदर करें, यह स्वाभाविक है।उसी तरह अब्राह्मण विद्वान उसके प्रति आदर प्रकट न करें, यह भी स्वाभाविक है। यहाँ ब्राह्मण और अब्राह्मण का भेद करने के बदले पुरोहित और अपुरोहित का भेद करना उचित होगा। बहुत से ब्राह्मणों ने पुरोहित वर्ग के विरुद्ध साहित्य रचा है।इसके सिवा प्राचीन साहित्य का कुछ अंश क्षत्रियों का रचा हुआ भी है।और जो सबसे पवित्र ग्रंथ ऋग्वेद है,उसे रचने वाले सामंती व्यवस्था के ब्राह्मण थे,इसका कोई प्रमाण नहीं है। ब्राह्मण और क्षत्रिय जब अवकाशभोगी वर्ग बनते हैं,तब उत्पादन से उनका संबंध टूट जाता है। अपने से भिन्न श्रमिक वर्ग के बिना वे अवकाश में जीवन बिता नहीं सकते। ऋग्वेद में शूद्र शब्द केवल एक बार पुरूष सूक्त में आया है और वह सूक्त बाद में जोडा गया है,यह बहुत से लोगों की मान्यता है।यदि ऋग्वेद में शूद्र नहीं हैं, तो उस में ब्राह्मण और क्षत्रिय भी नहीं हैं।"[9]
रामविलास शर्मा इस धारणा का भी खंडन किया है कि साहित्य का उदभव किसी धार्मिक पाठ से हुआ है। वे मानते हैं कि साहित्य का उदभव लौकिक या सेक्युलर होता है। इस मिथ का भी खंडन किया है कि प्राचीनकाल में ब्राह्णणों की प्रधानता थी। उनका मानना है कि " भारयीय समाज में पहले क्षत्रियों की प्रधानता थी,ब्राह्मणों की नहीं,यह उस साहित्य से प्रमाणित होता है जिसे ब्राह्मणों का रचा हुआ माना जाता है।" [10]
रामविलास शर्मा ने यह भी लिखा है कि रामायण,महाभारत के नायक क्षत्रिय माने गए हैं।किसी भी प्राचीन महाकाव्य का नायक ब्राह्मण नहीं है। यही नहीं, महाभारत में धर्म और ज्ञान का उपदेश देने वाले अब्राह्मण ही हैं। युधिष्ठिर को धर्म और राजनीति की बातें भीष्म समझाते हैं और अर्जुन को दर्शन और धर्म का ज्ञान कृष्ण देते हैं। महाभारत में एक प्रसिद्ध ब्राह्मण है द्रोणाचार्य। वह राजकुमारों को धनुर्विद्या सिखाते हैं और युद्ध में सेनापति का कार्य करते हैं।इन कथाओं में शस्त्रयुक्त क्षत्रिय और शस्त्रविहीन ब्राह्मण वर्गों का अस्तित्व नहीं है।"[11]
बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर ने शूद्रों के बारे में प्रचलित मतों का खंडन करते हुए लिखा "शूद्रों के लिए कहा जाता है कि वे अनार्य थे,आर्यों के शत्रु थे।आर्यों ने उन्हें जीता था और दास बना लिया। ऐसा था तो यजुर्वेद और अथर्ववेद के ऋषि शूद्रों के लिए गौरव की कामना क्यों करते हैं ? शूद्रों का अनुग्रह पाने की इच्छा प्रकट क्यों करते हैं ?शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो शूद्र सुदास् ऋग्वेद के मंत्रों के रचनाकार कैसे हुए ? शूद्रों के लिए कहा जाता है, उन्हें यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो सुदास् ने अश्वमेध कैसे किया ?शतपथ ब्राह्मण शूद्र को यज्ञकर्ता के रूप में कैसे प्रस्तुत करता है ? और उसे कैसे सम्बोधन करना चाहिए,इसके लिए शब्द भी बताता है।शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं है।यदि आरंभ में ऐसा था तो इस बारे में विवाद क्यों उठा ? बदरि और संस्कार गणपति क्यों कहते हैं कि उसे उपनयन का अधिकार है? शूद्र के लिए कहा जाता है कि वह संपत्ति संग्रह नहीं कर सकता।ऐसा था तो मैत्रायणी और कठक संहिताओं में धनी और समृद्ध शूद्रों उल्लेख कैसे है ? शूद्र के लिए कहा जाता है कि वह राज्य का पदाधिकारी नहीं हो सकता। ऐसा था तो महाभारत के राजाओं के मंत्री शूद्र थे,ऐसा क्यों कहा गया ? शूद्र के लिए कहा जाता है कि सेवक के रूप में तीनों वर्णों की सेवा करना उसका काम है। यदि ऐसा था तो शूद्र राजा कैसे हुए जैसा कि सुदास् के उदाहरण से,तथा सायण द्वारा दिए गए अन्य उदाहरणों से मालूम होता है।"[12]
आधुनिकाल आने के बाद पहलीबार ईश्वर की विदाई होती है। धर्म के वैचारिक आवरण के बाहर पहलीबार मनुष्य झांकता है। उसे सारी दुनिया और अपनी परंपराएं, सामाजिक यथार्थ वास्तव रूप में दिखाई देता है और उसकी वास्तव रूप में ही अभिव्यक्ति भी करता है। आधुनिककाल में दुख पहले गद्य में अभिव्यक्त होता है। मध्यकाल में दुख पद्य में अभिव्यक्त होता है। दुख और अन्तर्विरोध की अभिव्यक्ति गद्य में हुई या पद्य में इससे भी दुख के संप्रेषण की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। मध्यकाल में मनुष्य अपने दुख और पिछडेपन के लिए भाग्य को दोष देता था,पुनर्जन्म के कर्मों को दोष देता था,ईश्वर की कृपा को दोषी ठहराता था। किंतु आधुनिक युग में मनुष्य को पहलीबार अपने दुख और कष्ट के कारण के तौर पर शिक्षा का अभाव सबसे बड़ी चीज नजर आती है। यही वजह है कि शूद्रों में सामाजिक समानता,उन्नति के मंत्र के तौर पर शिक्षा को प्राथमिक महत्व पहलीबार ज्योतिबा फुले ने दिया। सन् 1948 में पुणे में फुले ने एक पाठशाला खोली, यह शूद्रों की पहली पाठशाला थी। भारत के ढाई हजार साल के इतिहास में शूद्रों की यह पहली पाठशाला थी। असल में पाठशाला तो प्रतीकमात्र है उस आने वाले तूफान का जो ज्योतिबा फुले महसूस कर रहे थे।
सन् 1848 में शूद्रों की शिक्षा का आरंभ करके कितना बड़ा क्रांतिकारी कार्य किया था यह बात आज कोई नहीं समझ सकता। उस समय शूद्रों को पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं मिलते थे अत: ज्योतिबा फुले ने अपनी अशिक्षित पत्नी को सुशिक्षित कर अध्यापिका बना दिया। इस उदाहरण में अनेक अर्थ छिपे हैं। पहला अर्थ यह कि शूद्रों के साथ अतीत में सबकुछ अच्छा नहीं होता रहा है। भारत का अतीत जाति सामंजस्य की बजाय जातीय घृणा के आधार पर टिका हुआ था। जातीय घृणा के कारण शूद्रों के लिए स्वतंत्र शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ी। दूसरा अर्थ यह संप्रेषित होता है कि शूद्र सामाजिक तौर पर अति पिछडे थे। तीसरा अर्थ यह कि भारत में शूद्रों के पठन-पाठन की परंपरा ही नहीं थी। सामंजस्य और भक्ति के नाम पर सामाजिकभेदों से जुड़ी सभी चीजों को छिपाया हुआ था। यही वजह है कि शूद्रों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की शुरूआत की गई तो चारों ओर जबर्दस्त हंगामा हुआ।
आधुनिककाल में पहलीबार शूद्रों को यह बात समझाने में ज्योतिबा फुले को सफलता मिली कि मनुष्य के अस्तित्व की पहचान शिक्षा से होती है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य पशु समान होता है। शूद्रों के लिए शिक्षा का अर्थ वही नहीं था जो सवर्णों के लिए था। शूद्रों के लिए शिक्षा अस्तित्वरक्षा, स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और आत्मोध्दार के साथ अस्मिता की स्थापना का उपकरण भी थी। यही वजह है कि शिक्षा का शूद्रों में जितना प्रसार हुआ है अस्मिता की राजनीति का भी उतना ही प्रसार हुआ है।
ज्योतिबाफुले -आंबेडकर के द्वारा शुरू की गई अस्मिता की राजनीति विदेश से लायी गई चीज नहीं है। साम्राज्यवादी साजिश का अंग नहीं है। बल्कि यह तो भारत के संतुलित विकास के परिप्रेक्ष्य के गर्भ से उपजी राजनीति है। इसका आयातित अस्मिता की मौजूदा राजनीति के साथ तुलना करना सही नहीं होगा। शूद्रों की शिक्षा का लक्ष्य था, सामाजिक भेदभाव को खत्म करना, मानवाधिकारों के प्रति सचेतनता पैदा करना और समानता को व्यापक मूल्य के रूप में स्थापित करना।
आम्बेडकर ने अछूत के रूप में जिन जातियों को रखा उनका चयन अंग्रेजों ने किया था।सन् 1935 के कानून में उन जातियों की सूची बना दी गयी जिनको अनुसूचित जातियां कहा जाता है। इस तरह के वर्गीकरण पर रामविलास शर्मा ने लिखा है "अछूत हमेसा अचूत बने रहें,यह स्थिति अंग्रेज पक्की कर रहे थे।"[13] अछूतप्रथा से हिंदुओं को आर्थिक लाभ था और यह धर्म पर आधारित थी। आम्बेडकर का मानना था कि हिंदू सामाजिक गठन की विशेषता है और वह अन्य सभी जन समुदायों से हिन्दुओं को अलग करती है।[14]
अछूत समस्या हमारे देश में कई हजार सालों से है। किंतु इसके खिलाफ कभी सामाजिक आंदोलन नहीं हुए। आखिरकार क्या कारण है कि भारत में विगत ढाई हजार सालों में कभी क्रांति नहीं हुई ? क्या अछूत समस्या को खत्म किए बगैर क्रांति संभव है ? क्या वजह है कि आधुनिककाल में ही अछूत समस्या के खिलाफ सामाजिक आंदोलन संभव हो पाया ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत में जातिभेद खत्म हो सकता है ? इन सभी सवालों का एक-दूसरे के साथ गहरा संबंध है।
भारत में जातिव्यवस्था के खिलाफ क्रांति अथवा सामाजिक क्रांति न हो पाने के तीन प्रधान कारण हैं , पहला ,अंधविश्वासों में आस्था,दूसरा ,पुनर्जन्म की धारणा में विश्वास और तीसरा ,कर्मफल के सिध्दान्त के प्रति विश्वास। इन तीन विचारधारात्मक बाधाओं के कारण भारत में सामाजिक क्रांति नहीं हो पायी। अंधविश्वासों में आस्था के कारण हमने कभी जातिभेद क्यों है ? गरीब गरीब क्यों है और अमीर अमीर क्यों है ? क्या पीपल के पेड़ को पूजने से मनोकामना पूरी होती है ? क्या साहित्य में जो रूढ़ियां चलन में हैं वे वास्तव में भी हैं ? इत्यादि चीजों को यथार्थ में कभी परखा नहीं। हम यही मानकर चलते रहे हैं कि मनुष्य गरीब इसलिए है क्योंकि पहले जन्म में कभी बुरे कर्म किए थे। उसका ही फल है कि इस जन्म में गरीब है। अमीर इसलिए अमीर है क्योंकि वह पहले जन्म में पुण्य करके आया है।
अच्छे कर्म करोगे अच्छे घर में जन्म लोगे। बुरे कर्म करोगे नीच कुल में जन्म होगा। निचली जाति में उन्हीं लोगों का जन्म होता है जिन्होंने पहले बुरे कर्म किए थे। निचली जातियों को नरक के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया और एक नए किस्म के प्रचार अभियान की शुरूआत हुई। इससे जातिभेद को वैधता मिली। कर्मफल के सिध्दान्त की सबसे बड़ी किताब है श्रीमद्भगवतगीता इसके आधार पर कर्मफल के सिध्दान्त को खूब प्रचारित किया गया। कर्म किए जा फल की चिन्ता मत कर। उल्लेखनीय है गीता को आदर्श दार्शनिक किताब के रूप में तिलक से लेकर गांधी तक सभी ने प्रधानदर्जा दिया था। गीता आज भी मध्यवर्ग की आदर्श किताब है।
उल्लेखनीय है कि बाबासाहेब आंबेडकर ने जातिप्रथा को इन तीनों विचारधारात्मक बाधाओं के दायरे बाहर निकालकर पेश किया। संभवत: बाबासाहेब अकेले बड़े स्वाधीनतासेनानी थे जिनकी कर्मफल के सिध्दान्त,पुनर्जन्म और अंधविश्वासों में आस्था नहीं थी। यदि इन तीनों चीजों में आस्था रही होती तो अछूत समस्या को राष्ट्रीय समस्या बनाना संभव ही न होता। कहने का तात्पर्य यह है अछूत समस्या से मुक्ति के लिए, जातिप्रथा से मुक्ति के लिए चार प्रमुख कार्य किए जाने चाहिए।
पहला- अंधविश्वासों के खिलाफ जंग।
दूसरा- पुनर्जन्म की धारणा के खिलाफ जनजागरण।
तीसरा- कर्मफल के सिध्दान्त के खिलाफ सचेतनता।
चौथा- अछूत जातियों के साथ रोटी-बेटी के संबंध और पक्की दोस्ती।
ये चारों कार्यभार एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। इनमें से किसी एक को भी त्यागना संभव नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है शिक्षा ,नौकरी अथवा आरक्षण मात्र से अछूत समस्या का समाधान संभव नहीं है। अछूत समस्या को खत्म करने के लिए आमलोगों में खासकर दलितों में विज्ञानसम्मत चेतना का प्रसार करना बेहद जरूरी है। विज्ञानसम्मतचेतना के अभाव में दलित हमेशा दलित रहेगा। उसकी दलितचेतना से मुक्ति नहीं होगी। जातिभेद कभी खत्म नहीं होगा। हमें इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि हमारी शिक्षा हमें कितना विज्ञानसम्मत विवेक देती है ? सच यही है कि हमारी शिक्षा में कूपमंडूकता कूटकूटकर भरी पड़ी है। पैंतीस साल के शासन के वाबजूद पश्चिम बंगाल की शिक्षा व्यवस्था में से कूपमंडूकता को पूरी तरह विदा नहीं कर पाए हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जातिप्रथा एक तरह का पुराने किस्म का सामाजिक अलगाव है। जातिप्रथा को आज नष्ट करने के लिए सामाजिक अलगाव को नष्ट करना बेहद जरूरी है। सामाजिक अलगाव आज के दौर में व्यापक शक्ल में सामने आया है। हम एक-दूसरे के दुख-सुख में साझीदार नहीं बनते। कभी एक-दूसरे के बारे में खबर-सुध नहीं लेते। यही सामाजिक अलगाव पहले जातियों में भी था। खासकर निचली कही जाने वाली जातियों के प्रति सामाजिक अलगाव यकायक पैदा नहीं हुआ। बल्कि इसे पैदा होने में सैंकड़ों साल लगे। सामाजिक अलगाव को अब हमने वैधता प्रदान कर दी है। सामाजिक अलगाव को हम स्वाभाविक मानने लगे हैं। नए युग की विशेषता मानने लगे हैं। नए आधुनिक जीवन संबंधों की अनिवार्य परिणति मानने लगे हैं। सामाजिक अलगाव की अवस्था में जातिभेद और जातिघृणा बढ़ेगी। क्योंकि सामाजिक अलगाव से जातिघृणा को ऊर्जा मिलती है। यह अचानक नहीं है कि सन् 1970 के बाद के वर्षों में पूंजीवादी विकास जितना तेज गति से हुआ है। सामाजिक अलगाव में भी इजाफा हुआ है। जाति संगठनों में भी इजाफा हुआ है। जातिघृणा और जाति संघर्ष बढ़े हैं। जातिघृणा,जातिसंघर्ष और जातिगत तनाव तब ही पैदा होते हैं जब हम अलगाव की अवस्था में होते हैं।
सामाजिक अलगाव पूंजीवादी विकास की स्वाभाविक परिणति है ,इसका सचेत रूप से प्रतिवाद किया जाना चाहिए। अचेत रूप से सामाजिक अलगाव को स्वीकार लेने का अर्थ है आपसी अलगाव में इजाफा। अलगाव खत्म होगा तो संगठन की महत्ताा भी समझ में आती है। सामाजिक शिरकत,सामाजिक साझेदारी, व्यक्तिगत और सामाजिक भावनात्मक विनिमय और आर्थिक सहयोग ये चीजें जितनी बढ़ेंगी उतनी ही भेद की दीवार गिरेगी।
हमें सोचना चाहिए आरक्षण किया,संविधान में संरक्षण दिया, तमाम किस्म के कानून बनाए,सभी दल इन कानूनों के प्रति वचनबध्द हैं,इसके बावजूद जाति उत्पीड़न थमने का नाम नहीं लेरहा। एससी,एसटी का अलगाव कम नहीं हो रहा। उनकी असुरक्षा की भावना कम नहीं हो रही। इस प्रसंग में पश्चिम बंगाल के उदाहरण से समझाना चाहूँगा।यहां पर जातियाँ हैं। जातिभेद भी है। किंतु निचले स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठनों का तंत्र इस कदर फैला हुआ है कि आप उसकी परिधि के बाहर जा नहीं सकते। यह तंत्र सामाजिक संपर्क,सामाजिक संबंध और आपसी भाईचारा बनाए रखने और विनिमय का काम करता है। इसका सुफल यह निकला है कि आमलोगों में अभी शिरकत और सहयोग का भाव बचा हुआ है। वे एक-दूसरे के सुख-दुख में सहयोग करते हैं। यही वजह है पश्चिम बंगाल में जातिगत तनाव और जाति संघर्ष नहीं हैं।
जबकि सच यह है आरक्षण यहां कम लागू हुआ है। राजनीति में दलितों का नहीं सवर्णों का बोलवाला है। इसके बावजूद जातिसंघर्ष नहीं हैं। यथासंभव निचली जातियों को जमीन का हिस्सा भी मिला है। संगठन के कारण उनकी आवाज सुनी भी जाती है। इसके कारण उत्पीडन करने की हिम्मत नहीं होती। आंबेडकर ने स्वयं संगठन को महत्ता दी थी, संगठन के तौर पर आदर्श सांगठनिक संरचना कम्युनिस्टों के पास है। मुश्किल यहां से शुरू होती है। कम्युनिस्ट कतारें अभी भी उपरोक्त तीन विचारधारात्मक बाधाओं को नष्ट नहीं कर पायी हैं। अभी भी कम्युनिस्ट कतारों में अंधविश्वासों में आस्था रखने वाले, पुनर्जन्म में विश्वास करने वाले,कर्मफल के सिध्दान्त में विश्वास करने वाले बचे हुए हैं। किंतु इनकी संख्या में तुलनात्मक तौर पर गिरावट आयी है।
किंतु एक चीज जरूर हुई है कि जातिभेद का जितना प्रत्यक्ष तांडव देश के अन्य इलाकों में नजर आता है वैसा यहां नजर नहीं आता। इसका प्रधान कारण है सामाजिक रूप से कम्युनिस्ट संगठनों का सामाजिक संरचनाओं में घुलामिला रहना। आंबेडकर के इस विचार को कि जातिप्रथा को नष्ट करने के लिए जरूरी है कि शूद्रों और गैर शूद्रों में रोटी-बेटी के संबंध हों। यही चीज कमोबेश पश्चिम बंगाल में लागू करने में वामपंथियों को सफलता मिली है। इस अर्थ में वे इस राज्य में सामाजिक क्रांति में एककदम आगे जा पाए हैं। दूसरी बात यह है कि दलितों पर उत्पीडन की घटनाएं इस राज्य में कम से कम होती हैं। यदि कभी दलित उत्पीड़न की कोई घटना प्रकाश में आती है तो प्रशासन से लेकर राजनीतिक स्तर तक ,यहां तक कि मध्यवर्गीय कतारों में भी उसके खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया होती है। यह इस बात का संकेत है कि सामाजिक संवेदनशीलता अभी बची हुई है। अन्य राज्यों में स्थिति बेहद खराब है।
जिस राज्य में दलित मुख्यमंत्री हो,दलित पार्टी का शासन हो,वहां दलित उत्पीडन की घटनाएं रोजमर्रा की बात हो गयी हैं। इन घटनाओं के प्रति आम जनता में संवेदनशीलता कहीं पर भी नजर नहीं आती। क्योंकि उन राज्यों में सामाजिक अलगाव को कम करने का कोई भी प्रयास राजनीतिक दल नहीं करते। बल्कि राजनीतिक लाभ और क्षुद्र सांगठनिक लाभ हेतु सामाजिक अलगाव का इस्तेमाल करते हैं।
एक वाक्य में कहें तो उत्तरप्रदेश,बिहार आदि राज्यों में जातिदलों ने सामाजिक अलगाव को अपनी राजनीतिक पूंजी में तब्दील कर दिया है। वे सामाजिक अलगाव का निहितस्वार्थी लक्ष्यों को अर्जित करने के लिए दुरूपयोग कर रहे हैं। इससे जातिसंघर्ष बढ़े हैं। सामाजिक असुरक्षा बढ़ी है। सामाजिक अस्थिरता बढ़ी है। अछूत समस्या बढ़ी है। अछूत समस्या को खत्म करने के लिए सामाजिक अलगाव को खत्म करना बेहद जरूरी है। सामाजिक अलगाव का राजनीतिक दुरूपयोग बंद करना जरूरी है।
दलित का राजनीतिक दुरूपयोग सामाजिक टकराव और तनावों को बनाए रखता है और विगत साठ सालों में हमारे विभिन्न राजनीतिक दलों ने दलित समस्या के समाधान के नाम पर यही किया है। उनके लिए दलित मनुष्य नहीं है बल्कि वोट है। एक अमूर्त पहचान है। बेजान चीज है। सत्ताा का स्रोत है। यही दलित की आयरनी भी है। अब हम दलित को मनुष्य के तौर पर नहीं वोटबैंक के तौर पर जानते हैं। आरक्षण के नाम से जानते हैं। वोटबैंक और आरक्षण में दलित की पहचान का रूपान्तरण दलित को वर्चुअल बना देता है। दलित का वर्चुअल बनना मूलत: मध्यकाल में लौटना है। वर्चुअल बनने के बाद दलित और भी दुर्लभ हो गया है। हमें दलित को वर्चुअल होने से बचाना होगा। दलित के वर्चुअल बनने का अर्थ है वह है भी और नहीं भी। वर्चुअल दलित मायावती जैसे नेताओं की पूंजी है। ये दोनों एक-दूसरे के चौखटे में फिट बैठते हैं। मायावती के यहां दलित वर्चुअल है। ठोस हाड़मांस का इन्सान नहीं है। यही वजह है दलित की किसी भी समस्या को ठोस रूप में मायावती अपने चुनावी घोषणापत्र में व्यक्त नहीं करती। बल्कि यह कहना सही होगा कि मायावती स्वयं वर्चुअल है। उसने कोई भी ठोस चुनावी घोषणापत्र भी जारी नहीं किया। यही हाल दलितों के मसीहा लालू-मुलायम का है। ये दलितों के हैं और दलितों के नहीं भी हैं। दलित इनके यहां वर्चुअल है और दलित के लिए ये वर्चुअल हैं। कहने का तात्पर्य यह है दलित को वर्चुअल होने से बचाना होगा। दलित के वर्चुअल होने का अर्थ है दलित का लोप । यह एक तरह से बेहद त्रासद और भयावह है।