मंगलवार, 5 अगस्त 2014

सी-सैट और फेसबुक



यूपीएससी की परीक्षा में सी-सैट का पेपर हटाए जाने की मांग को लेकर आंदोलन जारी है। यह आंदोलन मूलतःलोकतांत्रिक है और अभ्यर्थियों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को अभिव्यंजित करता है । हर जिम्मेदार नागरिक को इस आंदोलन का समर्थन करना चाहिए। इस आंदोलन में अनेक रंगत की विचारधारा के युवा सक्रिय हैं । इसके बावजूद इसकी प्रकृति अभी तक शांतिपूर्ण आंदोलन की बनी हुई है जो युवाओं की राजनीति करने वालों के लिए बड़ी उपलब्धि है । इस आंदोलन के असर से हमारी संसद भी प्रभावित हुई है और विपक्ष के प्रमुखदल अभी भी सी-सैट को हटाने की मांग पर अड़े हुए हैं। मोदी सरकार ने इस आंदोलन के प्रति जो रुख व्यक्त किया है वह अलोकतांत्रिक और युवाविरोधी है। हम यहां पर इस आंदोलन पर फेसबुक लिखी अपनी टिपप्णियां दे रहे हैं।

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एप्टीट्यूट और कॉम्प्रिहेंशन परीक्षा का सी- सैट से भिन्न प्रारूप तलाश करने में मुश्किल कहाँ है ?

लोकतंत्र में यदि यूपीएससी की परीक्षा का पूरा ढाँचा ही नए सिरे से तैयार करना पड़े तो इसमें कौन सी परेशानी है? यूपीएससी को युवाओं के विरोध की मूल स्प्रिट को समझना चाहिए ।

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क़ायदे से़ यूपीएससी को मोदी सरकार के द्वारा सी-सैट आंदोलन पर दिए गए वायदे को ठुकरा देना चाहिए । साथ ही पहल करके सी- सैट के नए विकल्प की तलाश के लिए कमेटी बनाकर युवाओं के द्वारा उठायी गयी आपत्तियों पर गंभीरता से विचार करके जल्द समाधान पेश करना चाहिए।

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मोदी सरकार की तुग़लक़ी शैली का नमूना है यूपीएससी के विवाद पर लिया गया आज का फ़ैसला !

समस्या सी- सैट को हटाने की थी और सरकार ने अंग्रेज़ी के नम्बरों को हटा दिया ।

सी- सैट का विकल्प खोजा जाय और नए विकल्पों पर सोचने के लिए यूपीएससी से सरकार कहे। मोदी सरकार ने आज जो फ़ैसला लिया है वह ग़लत है । इस फ़ैसले को सरकार वापस ले।

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यूपीएससी के काम में मोदी सरकार हस्तक्षेप करके गलत मिसाल कायम न करे ।

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जेएनयू में परीक्षा देने वाले अधिकांश छात्र किस भाषा में परीक्षा देते हैं ? मेरे ज़माने ( १९७९-१९८७)में समाजविज्ञान से लेकर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, लाइफ़ साइंस से लेकर बायोटैक्नोलाॅजी में सभी छात्र अंग्रेज़ी माध्यम से परीक्षा देते थे , जबकि विदेशी छात्र एक फ़ीसद थे। यही हाल संभवत: अभी भी है ।

सवाल यह है भारतीय भाषाओं के प्रति युवाओं का भाषाप्रेम एमए या एमफिल करते समय कहाँ चला जाता है? वे मीडियम के रुप में अपनी भाषा के बारे में उस समय क्यों नहीं सोचते ? जो लोग भारतीय भाषाओं की हिमायत कर रहे हैं वे कभी भारतीय भाषाओं में उच्चशिक्षा में पठन- पाठन करने के लिए आंदोलन क्यों नहीं करते ?

सी-सैट का आंदोलन युवा प्रतिवाद का प्रतीक है।वे परिवर्तन चाहते हैं इसका भाषा के साथ कोई संबंध नहीं है । यह आंदोलन जायज़ है ,और युवाओं की राय का सरकार को सम्मान करते हुए सही समाधान खोजना चाहिए साथ ही युवाओं के साथ बर्बरता बंद होनी चाहिए ।

सी - सैट को हटाकर नई प्रणाली आ भी जाएगी तो उससे भारतीय भाषाओं का कोई उपकार यूपीएससी के ज़रिए संभव नहीं है ।

अब तक का अनुभव यही बताता है कि यूपीएससी के ज़रिए सरकारी पदों पर पहुँचने वाले लोग कभी भी भारतीय भाषाओं या हिन्दी के प्रति अनुरागी भाव से काम करते नहीं मिले, भारतीय भाषाओं के प्रति अधिकांश आईएएस-आईपीएस आदि का तदर्थ या कामचलाऊ संबंध रहा है । भारतीय भाषाओं को यह तबक़ा महज़ कम्युनिकेशन की भाषा के तौर पर इस्तेमाल करता रहा है ,यह उसकी पेशागत मजबूरी है ,इससे भारतीय भाषाएँ मज़बूत नहीं हुई हैं.यही काम हर अंग्रेज़ अफ़सर भी करता था ,वह जहाँ नौकरी करता था वहाँ की भाषा सीख लेते थे जिससे जनता से कम्युनिकेट कर सकें। यही बात हमें उनकी परंपरा में ले जा रही है ।

यूपीएससी तो सत्ता की सीढ़ी है और सत्ता में शामिल होकर सत्ता की भाषा को पालना पोसना ही काम होता है इससे भारतीय भाषाओं का कोई लेना- देना नहीं है। भारतीय भाषाएँ सत्ता की भाषा नहीं हैं ।
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ग़ज़ब स्थिति है अब प्रतियोगिता (यूपीएससी) परीक्षा में भागलेने वाले तय करेंगे कि क्या पूछा जाय और किस तरह पूछा जाय और किसको चुना जाय ! दुनिया हंस रही है हमारे युवाओं के ऊपर ! इस तरह के सवाल कभी अमेरिका में दाख़िला का प्रयास करने वाले युवा या डाक्टरी ,आईआईटी या इंजीनियरिंग परीक्षा देने वाले युवा क्यों नहीं उठाते ? क्या भारतीय भाषाओं का हिसाब वहाँ ठीक है ?

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पता चला है दिल्ली के मुखर्जी नगर को पुलिस छाबनी बना दिया है मोदी बाबू ने। मोदी बाबू युवाओं द्वारा जनधुलाई के लिए तैयार रहिए। दिल्ली में भाजपा साफ समझो।

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सी- सैट हटाओ आंदोलनकारियों पर मोदी सरकार के निंदनीय पुलिसिया हमले जारी।

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यूपीएससी के मौजूदा आंदोलन में एक तथ्य बार बार दोहराया गया कि हिन्दी में जो पेपर अनुवाद करके आया उसका अनुवाद बड़ा ख़राब था। हमारा कहना है कि यह अनुवाद तो किसी हिन्दी पढ़े-लिखे 'योग्य 'व्यक्ति ने ही किया होगा ? और इन सज्जन की नौकरी भी किसी हिन्दीवालों ने ही लगायी होगी !

इसका अर्थ यह भी है कि हम कितने ख़राब हिन्दी के छात्र तैयार कर रहे हैं और हमने अनुवाद का कितना घटिया सिस्टम विकसित किया है ।

मज़ेदार बात है कि हिन्दी के पठन पाठन की दुर्दशा पर कोई बात नहीं कर रहा। एक सवाल और भी है कि क्या हिन्दी को सभी क्षेत्रों में युवालोग समान रुप से समझते हैं ?





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