अजीब संयोग है कि केदारनाथ सिंह को जब से ज्ञानपीठ मिला है लगातार उसकी आलोचना हो रही है। इस आलोचना की नई कड़ी अशोक वाजपेयी हैं। उनका मानना है 'ज्ञानपीठ उनसे पहले, मुझ नाचीज की राय में, हमारे दो बड़े गद्यकारों कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद को मिलना चाहिए था। केदारजी अच्छे कवि हैं, लेकिन उन्हें बड़ा कवि कहने में मुझे संकोच होगा। हो सकता है कि मैं गलत होऊं अपने इस आकलन में, मेरे हिसाब से अज्ञेय-मुक्तिबोध-शमशेर-नागार्जुन की चतुर्थी के बाद हिंदी में पिछले लगभग पचास वर्षों में कोई बड़ा कवि नहीं हुआ है। लेकिन बड़े गद्यकार हुए हैं।' (जनसत्ता,17अगस्त 2014)
वाजपेयी की यह धारणा एकदम निराधार है। हिन्दी में 'कवि चतुष्टयी' तो कृत्रिम ढ़ंग से आलोचकों ने रची है। इस तरह की टीम अपने आप में बेमेल है,क्योंकि इसमें केदारनाथ अग्रवाल नहीं हैं,रघुवीर सहाय नहीं हैं,सर्वेश्वर नहीं हैं,हरीश भादानी शामिल नहीं हैं। ये सभी लेखक वाजपेयी के शीतयुद्धीय नजरिए के बाहर पड़ते हैं।
यह अजीब स्थिति है कि अशोक वाजपेयी पहले एक चतुष्टयी बनाते हैं फिर उसके आधार पर कौन महान कवि है और कौन अ-महान कवि है; आदि के बारे में फतवेबाजी करते हैं। अशोक बाजपेयी बुनियादी तौर पर जब शीतयुद्धीय नजरिए से लेखकों की चतुष्टयी बनाकर देखेंगे तो उनको बाहर कुछ भी नजर नहीं आएगा।
वाजपेयीजी की आदत रही है चौखटे बनाने की, जिसे वे आलोचना के मानक कहते हैं,असल में ये मानक कम आलोचना के शीतयुद्धीय पूर्वाग्रह हैं। इनका किसी भी किस्म के रेशनल आलोचनात्मक विवेक के साथ सम्बन्ध नहीं है। अशोक वाजपेयी से पूछा जाय कि बड़ा कवि किस आधार पर चुना जाएगा ? बड़े कवि के पैमाने बदलते रहे हैं और इनमें वस्तुगत कारणों के अलावा सब्जेक्टिव कारण भी रहे हैं। अशोक बाजपेयी चयन समिति में नहीं थे वरना क्या वही करते जो उन्होंने लिखा है ?
जीवित लेखकों में 'जनोन्मुख आधुनिकता' के केदारनाथ सिंह बड़े कवि हैं । यही वह सबसे दुर्लभ चीज है जो बार-बार उनकी कविताओं की ओर ध्यान खींचती है। इन दिनों 'जनोन्मुख आधुनिकता' की चिन्ताओं को हमने कभी खुलकर देखा नहीं है। दूसरी बड़ी बात यह कि वे अकेले ऐसे कवि हैं जो लगातार शीतयुद्धीय राजनीति के फ्रेमवर्क के बाहर रहकर कविताएं लिख रहे हैं। जिन लेखकों को अशोक वाजपेयी ने अपनी 'चतुष्टयी' में शामिल किया है वे सभी शीतयुद्धीय फ्रेम के बाहर नहीं देखते। इसके विपरीत केदारनाथ अग्रवाल,केदारनाथ सिंह,रघुवीर सहाय,सर्वेश्वरदयाल सक्सेना आदि की कविताएं शीतयुद्धीय फ्रेमवर्क के बाहर आती हैं।
केदारजी की कविता का दूसरा बड़ा पहलू है कि वे मध्यवर्गीय और बुर्जुआ संवेदनशीलता के सकारात्मक लक्षणों के साथ कविता में बगैर प्रत्यक्ष राजनीति किए खेलते हैं। विगत 30सालों में 'जनोन्मुख आधुनिकता' और उससे जुड़ी संवेदना के लक्षणों की जिस सतर्कता से सर्जनात्मक रक्षा केदारजी ने की है वह उनको बड़ा कवि बनाती है।
वाजपेयी की यह धारणा एकदम निराधार है। हिन्दी में 'कवि चतुष्टयी' तो कृत्रिम ढ़ंग से आलोचकों ने रची है। इस तरह की टीम अपने आप में बेमेल है,क्योंकि इसमें केदारनाथ अग्रवाल नहीं हैं,रघुवीर सहाय नहीं हैं,सर्वेश्वर नहीं हैं,हरीश भादानी शामिल नहीं हैं। ये सभी लेखक वाजपेयी के शीतयुद्धीय नजरिए के बाहर पड़ते हैं।
यह अजीब स्थिति है कि अशोक वाजपेयी पहले एक चतुष्टयी बनाते हैं फिर उसके आधार पर कौन महान कवि है और कौन अ-महान कवि है; आदि के बारे में फतवेबाजी करते हैं। अशोक बाजपेयी बुनियादी तौर पर जब शीतयुद्धीय नजरिए से लेखकों की चतुष्टयी बनाकर देखेंगे तो उनको बाहर कुछ भी नजर नहीं आएगा।
वाजपेयीजी की आदत रही है चौखटे बनाने की, जिसे वे आलोचना के मानक कहते हैं,असल में ये मानक कम आलोचना के शीतयुद्धीय पूर्वाग्रह हैं। इनका किसी भी किस्म के रेशनल आलोचनात्मक विवेक के साथ सम्बन्ध नहीं है। अशोक वाजपेयी से पूछा जाय कि बड़ा कवि किस आधार पर चुना जाएगा ? बड़े कवि के पैमाने बदलते रहे हैं और इनमें वस्तुगत कारणों के अलावा सब्जेक्टिव कारण भी रहे हैं। अशोक बाजपेयी चयन समिति में नहीं थे वरना क्या वही करते जो उन्होंने लिखा है ?
जीवित लेखकों में 'जनोन्मुख आधुनिकता' के केदारनाथ सिंह बड़े कवि हैं । यही वह सबसे दुर्लभ चीज है जो बार-बार उनकी कविताओं की ओर ध्यान खींचती है। इन दिनों 'जनोन्मुख आधुनिकता' की चिन्ताओं को हमने कभी खुलकर देखा नहीं है। दूसरी बड़ी बात यह कि वे अकेले ऐसे कवि हैं जो लगातार शीतयुद्धीय राजनीति के फ्रेमवर्क के बाहर रहकर कविताएं लिख रहे हैं। जिन लेखकों को अशोक वाजपेयी ने अपनी 'चतुष्टयी' में शामिल किया है वे सभी शीतयुद्धीय फ्रेम के बाहर नहीं देखते। इसके विपरीत केदारनाथ अग्रवाल,केदारनाथ सिंह,रघुवीर सहाय,सर्वेश्वरदयाल सक्सेना आदि की कविताएं शीतयुद्धीय फ्रेमवर्क के बाहर आती हैं।
केदारजी की कविता का दूसरा बड़ा पहलू है कि वे मध्यवर्गीय और बुर्जुआ संवेदनशीलता के सकारात्मक लक्षणों के साथ कविता में बगैर प्रत्यक्ष राजनीति किए खेलते हैं। विगत 30सालों में 'जनोन्मुख आधुनिकता' और उससे जुड़ी संवेदना के लक्षणों की जिस सतर्कता से सर्जनात्मक रक्षा केदारजी ने की है वह उनको बड़ा कवि बनाती है।
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