ग़ज़ल पर फ़िदा पाठकों की
किल्लत नहीं है। सवाल यह है ग़ज़ल पर इतने
पाठक फ़िदा क्यों हैं ? भारत में जिस तरह
श्रृंगार रस के चाहने वालों की परंपरा रही है, उसी तरह फारसी और उर्दू की परंपरा
में ग़ज़ल के चाहने वालों की परंपरा भी रही है। नवरसों में जिस तरह श्रृंगार रस का
वर्चस्व रहा है। उसी तरह उर्दू कविता में ग़ज़ल का वर्चस्व रहा है। ग़ज़ल की
लोकप्रियता के कारण ही उसको अनेक स्तरों पर रचने वाले शायरों की जमात पैदा हुई।
ग़ज़ल के बहुस्तरीय रुपों को देखकर यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि ग़ज़ल
दरबारी और बाजारु है।
ग़ज़ल एक तरह की नहीं
बल्कि अनेक किस्म की लिखी गयी है। फिर भी यह सवाल अपनी जगह कायम है कि ग़ज़ल क्या है
? क्या वह स्थायी रुप में कायम है अथवा
बदलती रही है ? लेकिन यह बात सच है
कि ग़ज़ल पर श्रृंगार –रस का गहरा असर है। जिस तरह श्रृंगारवादी कवि
स्त्रीकेन्द्रित पुंसवादी नजरिए का प्रतिपादन करते थे वैसे ही ग़ज़ल लेखक भी औरतों
पर पुंसवादी नजरिए से लिखते थे।
फारसी में 'ग़ज़ल' का अर्थ था औरतोंका
जिक्र करना,उनके इश्क़का दम भरना और उनकी मुहब्बतमें मरना। दिलचस्प बात यह थी कि
ग़ज़ल में शायर लोग इश्को-मुहब्बतमें इस तरह व्यस्त थे कि उनको परिवारके अन्य
सदस्यों के साथ मुहब्बत का ख्याल ही नहीं आया। आरंभिक दौर में ग़ज़ल में काम-भावना
से संबंधित विषयों की भरमार थी। इस दौर में कोमल और रसभरी भावनाओं पर केन्द्रित
रचनाएं लिखी गयीं। लेकिन ग़ज़ल यहीं तक रुकी नहीं रही। उसमें कालान्तर में ईश्वर
और दार्शनिक विषयों का समावेश होने लगा। इससे ग़ज़ल में मिश्रण की परंपरा शुरु
हुई।
आरंभिक दौर के
प्रेमकेन्द्रित ग़ज़ल शायरों का हाल यह था कि वे विचारों की जंग तो लड़ना जानते थे
लेकिन विचारों का जोखिम उठाना नहीं जानते थे, मसलन् , वे प्रेम या इश्क पर कविता
लिखना जानते थे लेकिन सामाजिक बन्धनों से संघर्ष करना नहीं जानते थे। वे पारिवारिक
मर्यादाओं को तोड़ना नहीं जानते थे। इनके अलावा इस तरह के शायरों में 'हकीकी ' और 'मजाज़ी ' दो किस्म के शायर
थे। इनमें 'हकीकी' शायरों
में निराकार ईश्वर का जलवा मिलता है । वे उसे इसी संसार में प्रेयसी के रुप में
साकारभाव में देखना चाहते हैं। सूफी शायरों ने इस परंपरा का जमकर विकास किया। उनकी
शायरी में मानवीय प्रेम खूब व्यक्त हुआ है।मसलन्, 'रियाज़' खैराबादीने लिखा-
'' हम आँख
बन्द किये तसव्वुरमें पड़े हैं।
ऐसेमें कहीं छमसे वोह आ
जाय तो क्या हो ??''
इसी भाव को इकबाल ने इसतरह व्ययक्त
किया-
'' कभी ऐ हक़ीक़ते -मुन्तजिर! नज़र आ
लिबासे-मज़ाज़में।
कि हजारों सजदे तड़प रहे हैं,मेरी
जबीने-नियाजमें।।''
इश्क के सूफियाना अंदाज़ को 'मीर' ने लिखा -'' इश्क
बिन यह –अदब नहीं आता।''
आधुनिककाल
में इश्क पर लिखने वाले शायरों में दो तरह के शायर मिलते हैं एक वे हैं जो 'स्वानुभव'
के आधारपर लिख रहे थे,दूसरे वे हैं जिन्हें कभी तिरछी नजरसे न तो घायल होना नसीब
हुआ , न कभी किसी की चौखट पर सर टेकना मयस्सर हुआ। इनमें अधिकतर नकली आशिक शायर
हैं। ये वे शायर हैं जिनकी शायरी में आँसुओं का दरिया बहता नजर आएगा लेकिन जिन्दगी
में आंसू की कभी इन शायरों ने एक बूँद भी नहीं गिरायी।
ऐसे भी शायर रहे हैं जिन्होंने एकबार जिसे दिल
दे दिया फिर दिल सारी जिन्दगी उसके नाम कर दिया। ये अनुभवहीन शायर हैं, ये लोग 'खुदा
मुहब्बत है, और मुहब्बत खुदा है।'के नारे इर्द-गिर्द शायरी करते रहे हैं। 'मीर'
संभवतः पहले शायर हैं जिनके यहां यह परंपरा आरंभ होती है ,'मीर' ने लिखा-
'' चाहें तो तुमको चाहें,देखें तो तुमको
देखें।
ख़्बाहिश दिलोंकी तुम हो.आंखोंकी आरजू
तुम।।''
''ज़ौक़''
ने लिखा
'' मैं ऐसे साहिबे –अस्मत परी-पैकरै आशिक हूँ।
नमाजैं पढ़ती हैं हूरें,हमेशा जिसके दामन पर।''
इनमें
ही दूसरी कोटि बाजारु शायरों की है।यह कामलोलुप,विषयासक्त लोगों की शायरी है।इस
तरह की शायरी पर वेश्याओं के संपर्क और दरबारी संस्कृति का गहरा असर है। चंचल और
खण्डिता नायिका का विचार इनके असर से ही आया है। इस तरह के शायरों को कामुक शायर
कहना समीचीन होगा। बाजारी इश्क के अलावा बेवफ़ा माशूक आदि विषयों को शायरों ने
दरबारों से ग्रहण किया।
मुश्किल यह भी है कि दिल्ली के शायरों और लखनऊ
के शायरों का अनेक विषयों पर नजरिया एक जैसा नहीं था। मसलन्, लखनऊ के शायरों में
निराशा और असफलता की अभिव्यंजना बहुत कम मिलती है जबकि दिल्ली के शायरों में यह
खूब है, इसका प्रधान कारण है लखनऊ में जिन दिनों अवधप्रांत के दरबारों चमक मार रही
थी ,, इसके कारण अवध के शायरों में एक बड़ा अंश श्रृंगार रस और दरबारी संस्कृति से
प्रभावित था। वहीं उस समय दिल्ली के शायरों ने कष्ट में जिन्दगी गुजारी। यह कष्ट
उनकी शायरी के लिए वरदान साबित हुआ। इसलिए देहलवी शायरों ने दुख दर्द,
पीड़ा,भरण-पोषण की चिन्ताएं,असफलता आदि विषयों पर जमकर लिखा।
जोश मलाहाबादी ने लिखा- '' मेरे रोनेका जिसमें
क़िस्सा है।
उम्रका बहतरीन हिस्सा है।।''
जिगर
मुरादाबादी ने लिखा - '' इससे बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं ।
सब जुदा हो
जायें,लेकिन ग़म जुदा होता नहीं ।।
कहने
का आशय यह कि लखनऊ और दिल्ली के शायरों के परिवेशगत अंतर ने उनकी शायरी और नजरिए
को गहरे प्रभावित किया। दिल्ली के शायरों की आपदाओं में जवानियाँ गुजरीं. वहीं
दूसरी ओर लखनवी शायरोंने भोग-विलास में आँखें खोली थीं ।
यह भी हकीकत है कि 'मीर' जब लखनऊ जाते तो
उनको भी लखनऊ की रंगीन फ़िजा आकर्षित करती और कह बैठते-'' मिलो इन दिनों हमसे
एकरात जानी। कहीँ हम कहाँ तुम कहाँ फिर जवानी।'
सन् 1780 ई. के पूर्व 'हबीब' का तसव्वुर
स्पष्ट नहीं था। उसके लिए संज्ञा,विशेषण,क्रिया,सम्बोधन आदि सब स्त्री लिंग के न
होकर पुलिंग के व्यवहृत होते थे। हबीब का अर्थ है 'प्यारा' । यानी जिसे प्यार किया
जाय वोह हबीब है। ग़ज़लमें सबसे पहले हसरत देहलवी (1772-1797 ई.) ने स्त्री को
हबीब का दर्जा दिया। तबसे लखनवी शायरी में स्त्री के लिए हबीब का प्रयोग होने लगा।
धीरे धीरे यही शायरी जनानी शायरी होती चली
गयी। उसमें श्रृंगार रस का वर्चस्व बढ़ता चला गया।
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