सोमवार, 1 जून 2015

मथुरा के तीन कमाल के साथी

             
       
हम सबकी आदत है कि हम महान लोगों को खोजते हैं और महान लोगों की संगति में रहने का सपना देखते हैं,लेकिन महान लोग मिलते नहीं हैं,खासकर मध्यवर्ग-निम्न मध्यवर्ग के लोगों का जीवन सामान्य और साधारण किस्म के लोगों के बीच में ही आगे बढ़ता है। सामान्य लोगों में ही असामान्य मेधावी और परिश्रमी लोग पैदा होते हैं। मथुरा के अपने अनुभव ने बार-बार यह शिक्षा दी है कि अपने आसपास के लोगों को देखो और उनमें मित्र बनाओ,वहां आपको ऊर्जा मिलेगी,प्रेरणा मिलेगी। प्रेरणा कभी दूर के लोगों से नहीं मिलती,वह तो आसपास के लोगों से मिलती है। आसपास के लोगों में ही अच्छे विचार और अच्छे आचरण की खोज करो तो यथार्थपरक जीवनशैली निर्मित करने में मदद मिलेगी।

आपातकाल के दिनों में जिन तीन मित्रों से परिचय हुआ वे तीनों मेरी यादगार का अभिन्न हिस्सा हैं। इन तीनों से मैंने बहुत कुछ सीखा। ये तीन थे कॉमरेड सव्यसाची (श्यामलाल वशिष्ठ), कॉमरेड ऋषिकांत और कॉमरेड वीरेन्द्र सिंह। इन तीनों से एक साथ मुलाकात नहीं हुई ,सबसे पहले सव्यसाची मिले,बाद में इन दोनों से मुलाकात हुई और फिर तो हम चारों की रोज मुलाकात होती, कभी सव्यसाची के यहां, कभी पार्टी दफ्तर में,कभी पार्टी मीटिंग के दौरान,कभी वैसे ही। लेकिन हम चारों को रोज मिलना ही था। बाद में इस कड़ी में डा.हरीशंकर जुड़ गए,जिन पर मैं बाद में कभी लिखूँगा।

सामान्यतौर पर मित्रों को हम स्वार्थवश याद करते हैं लेकिन हम चारों रोज मिलते थे लेकिन हमारा कोई निजी स्वार्थ नहीं था, हम चारों में सव्यसाची बीएसए कॉलेज में राजनीतिविभाग में प्रवक्ता थे। बाकी हम तीनों छात्र थे। अलग-अलग कॉलेजों में पढ़ते थे। सव्यसाची,वीरेन्द्र और ऋषि के पास साइकिल थी,मैं पैदलयात्री था। बाद में मुझे भी पिता की कृपा से साइकिल मिल गयी। हम चारों में एक-दूसरे की समस्याओं को सुनने और जानने की बेहद उत्सुकता हुआ करती थी, लेकिन कभी कोई एक-दूसरे की समस्याओं में हस्तक्षेप नहीं करता। हमने आपस में अघोषित तौर पर तय कर रखा था कि निजी समस्याओं से निजी तौर पर लड़ेंगे,लेकिन उन पर आपस में विचार-विनिमय जरुर करेंगे। इस तरह हमने निजी और सार्वजनिक जीवन में लक्ष्मणरेखा खींच ली थी।

मथुरा का माहौल बड़ा विलक्षण था वहां आम लोगों में सजगता तो बहुत थी, लेकिन दृष्टिगत सजगता का अभाव था। आम मध्यवर्गीय लोगों में राजनीतिक खबरों पर तीखी बहस करने की आदत थी,हर गली-मुहल्ले के नुक्कड़ पर विभिन्न किस्म के राजनीतिक विषयों पर बहस करते लोग मिल जाते थे,चाय की दुकान, पार्क, मंदिर के बाहर अमूमन बहस करते लोग मिल जाते थे और इन बहसों में कोई अपरिचित भी शामिल हो सकता था । इससे पता चलता था कि आमलोगों में सजगता है, राजनीतिक सचेतनता है, लेकिन दृष्टिकोण का अभाव है। हमलोग रोज अपने तजुर्बों को एक-दूसरे के साथ साझा करते,विश्लेषित करते । इस प्रक्रिया में हमलोगों की समस्याओं पर खुलकर सोचने की बुद्धि का तेजी से विकास हुआ। संयोग की बात थी कि सव्यसाची,ऋषि और वीरेन्द्र पहले से माकपा के सदस्य थे,मैं भी जल्द पार्टी सदस्य बना लिया गया।

सव्यसाची की मथुरा शहर में एक आदर्शवादी कम्युनिस्ट के रुप में साख थी,आम मध्यवर्गके राजनेता, बुद्धिजीवी,शिक्षक,छात्र आदि में उनको बेहद सम्मान की नजर से देखा जाता था। वे ऋषि के घर में एक छोटे से कमरे मे भाड़े पर रहते थे। उनकी बेहद सरल और छोटी जीवनशैली थी। बमुश्किल उनके पास तीन-चार जोड़ी कुत्ता-पाजामा थे,एक चारपाई,एक स्टोव,एक साइकिल तीन मूड़ा यही कुल जमा उनकी संपत्ति थी। आरंभ में वे खाना बाजार से खरीदकर खाते थे। उन दिनों सव्यसाची रिक्शाचालक यूनियन के सचिव हुआ करते थे और डेम्पियर में जहां से रिक्शावाले खाना खाते थे वहीं से सव्यसाची एक रुपये की 6 रोटी दाल खरीदकर लाते और दिन में दोबार वही खाकर रहते, जिस दुकानदार से वह रोटी लाते थे वह भी रिक्शा चलाता था ,बाद में सव्यसाची ने उसे भी पार्टी मेम्बर बना लिया और रिक्शाचालक यूनियन का पदाधिकारी बना दिया।

सव्यसाची में मित्र बनाने और दिल जीतने की अद्भुत क्षमता थी,वे अपनी सादगी और विचारों से सहज ही प्रभावित कर लेते। सव्यसाची सहज,ईमानदार, निष्ठावान मनुष्य थे। वे गंभीर मार्क्सवादी साहित्य कम पढ़ते थे लेकिन दैनंदिन जीवन की घटनाओं को मार्क्सवादी ढ़ंग से कम्युनिकेट करने की उनमें विलक्षण क्षमता थी। सव्यसाची की पार्टीलाइफ की लाइफलाइन थे वीरेन्द्र और ऋषि। इन दोनों की मदद के बिना वे कोई काम नहीं कर पाते।

सव्यसाची का एक गुण यह भी था कि वे संस्कृति और उससे जुड़े सवालों पर स्वतंत्र रुप से संगठन बने,इसकी जरुरत को बड़ी गहराई से महसूस करते थे। वे मानते थे कि कम्युनिस्ट पार्टी के सांगठनिक ढॉंचे में रहकर संस्कृति के कामों को करना संभव नहीं है,यही वजह थी कि मथुरा में उनकी प्रेरणा और युवामित्रों के सहयोग से लोकतांत्रिक संस्कृति के प्रचार-प्रचार के लिए 'जन सांस्कृतिक मंच' नामक संगठन का निर्माण हुआ । इस संगठन का मकसद था बृहत्तर समाज में फैले युवाओं को अपने करीब लाना,उनमें लोकतांत्रिक मूल्यों का बोध पैदा करना । इस संगठन का मुख्य लक्ष्य था संस्कृति और समाजसेवा के सवालों पर युवाओं में सजगता पैदा करना। उन दिनों छात्रों के लिए एसएफआई जैसा संगठन था लेकिन युवाओं के लिए कोई संगठन नहीं था,इसके लिए प्रगतिशील युवा मोर्चा नामक संगठन बनाया गया। उल्लेखनीय है कि माकपा के पास उनदिनों युवाओं के लिए कोई संगठन नहीं था, डीवाईएफआई का गठन बहुत बाद में हुआ।

चौधरी वीरेन्द्र के व्यक्तित्व की विशेषता थी कि वह बेइंतिहा मेहनती,निष्ठावान और मिलनसार था। वह इन दिनों यूपी पुलिस में उच्चपदस्थ पुलिस अधिकारी है। पुलिस में रहते हुए उसने कभी अपने व्यक्तित्व पर दाग नहीं लगने दिया। वह यूपी के उन चंद पुलिस अफसरों में है जो ईमानदारी से अपनी पगार में ही अपना गुजारा करते हैं,उसने कभी जीवन में रिश्वत नहीं ली। वीरेन्द्र के बारे में हम सभी यही मानकर चल रहे थे कि वह तो आगे चलकर होलटाइमर बनेगा,उसकी काम करने की अपार क्षमता हम सबको प्रभावित करती थी। खासकर सव्यसाची का जितना प्रकाशन का काम था,उसे वही संभालता था,उसकी मदद के बिना 'उत्तरार्द्ध' जैसी पत्रिका का सारे देश में पहुँचना संभव ही नहीं था। सव्यसाची के साहित्य को आम जनता में पहुँचाने की उन दिनों एकमात्र वीरेन्द्र पर जिम्मेदारी थी।

वीरेन्द्र,ऋषिकांत और मैं हर रोज कभी सुबह तो कभी शाम को लंबी बातचीत के लिए मिलते, हम तीनों के पास असंख्य राजनीतिक समस्याएं हुआ करतीं जिन पर हमें बहस करनी होती थी, सुबह मिलते तो होलीगेट पर पहलवान कचौड़ीवाले की दुकान पर पहले कचौड़ी-जलेबी का कलेवा करते, बाद में ,भाटिया रेस्टोरैंट में जाकर बैठकर कई कप चाय पीते और जमकर बहस करते। हम तीनों में ऋषिकांत उग्र मार्क्सवादी की तरह पेश आता,वीरेन्द्र शांत मार्क्सवादी की तरह पेश आता,ये दोनों किसी भी समस्या के अनंत विकल्प बनाकर सोचने में माहिर थे। विकल्पों में रखकर मार्क्सवाद को कैसे लागू करें शायद यह पद्धति इसी दौर में हमतीनों में विकसित हुई। हमने विकल्प की परिधि को बहुत ही लोचदार बनाया हुआ था। हम विकल्प को वहां तक रखते जहां तक आदमी हमारे हाथ में रहे,हमारे संपर्क में रहे।

सही विकल्प वह जो आदमी को साथ में बनाए रखे। अमूमन कॉमरेड विकल्प के चक्कर में आदमी को भगा देते हैं,लेकिन उनके पास विकल्प रह जाता था । कोरा विकल्प मार्क्सवाद की मौत है। मार्क्सवाद तब ही काम का है जब आदमी केन्द्र में रहे और विकल्प हाशिए पर रहे। वह विकल्प किसी काम का नहीं है जो आदमी को भगा दे। हमने आदमी को केन्द्र में रखा विकल्प को हाशिए पर रखा, इससे हमें सैंकड़ों युवाओं को मित्र बनाने में सफलता मिली। मथुरा जैसे शहर में इसी आधार पर मैं सैंकड़ों छात्राओं को एसएफआई में शामिल करने में सफल रहा। हमतीनों की रणनीति थी कि मित्र बनाओ,अपना दायरा बड़ा करो, इसके चाहे कुछ देर के लिए विचारों को स्थगित भी करना पड़े । हमारे लिए आदमी प्रधान था,विकल्प गौण था।

हमने जिन युवाओं को मित्र बनाया उनको कभी नहीं छोड़ा ,उनपर कभी कोई विचार नहीं थोपा ,साथ ही उनको कभी अपने विचारों की परिधि के बाहर जाने नहीं दिया। हमारे लिए विचार की परिधि वहां तक फैली हुई थी जहां तक हम मनुष्य को बांधे रख सकें। विचार का काम है मनुष्य को बांधना, विचार को हम वहां तक लचीला रखें जहां तक मनुष्य को आराम मिले,सहजता का अनुभव हो। हम तीनों यही सोचते थे विचार तो मनुष्यों की सेवा के लिए हैं,मार्क्सवाद तो मनुष्यों की सेवा के लिए।

हम मनुष्य को मार्क्सवादी बनाने की कोशिश नहीं करते बल्कि आदमी की जिंदगी के ढांचे में मार्क्सवाद को ढालने की कोशिश करते थे, और इससे हमें अनेक लाभ हुए,हमें सैंकड़ों दोस्त बनाने,उनका दिल जीतने का मौका मिला। विचारों में लचीलेपन की कला मथुरा में इन मित्रों के बीच में ही विकसित हुई। खासकर वीरेन्द्र और ऋषिकांत की बुद्धि विकल्पों की खोज में खूब चलती थी। हम तीनों ने मिलकर सैंकड़ों किताबें पढ़ीं,उन पर आपस में जमकर बहस की,हमारे बीच में किताबें ईंधन की तरह हुआ करती थीं। हम सबमें वीरेन्द्र बहुत ज्यादा किताबें पढ़ता था। दिलचस्प बात यह थी कि वीरेन्द्र और ऋषिकांत में होलटाइमर बनने की इच्छा थी, लेकिन संयोग की बात कि हंसी-हंसी में वीरेन्द्र ने यूपी में थानेदारी परीक्षा दी और वह पास होकर हमारे बीच सेअचानक गायब हो गया। वह मन ही मन किसी नौकरी की तलाश में था, यह बात कभी -कभी कहता था लेकिन कोई प्रयत्न नहीं करता था। पहलीबार प्रयास किया और वह सफल रहा। वह थानेदार हो गया। हम सब बड़े दुखी हुए,मास्साब तो एकदम टूट से गए,क्योंकि वीरेन्द्र उनकी नींव था। हम सब सोचने लगे कि क्या मार्क्सवाद की शिक्षा असफल रही ? कई लोग मानते थे कि मार्क्सवादी को पुलिस में नहीं जाना चाहिए, लेकिन मेरी और कई लोगों की राय थी कि नौकरी के लिए कहीं पर भी जाया जा सकता है। मार्क्सवादी होने का मतलब यह नहीं है कि होलटाइमर ही बना जाय।

एक नागरिक के नाते हम मार्क्सवाद से बहुत कुछ ऐसा सीखते हैं जिससे बेहतरीन नागरिक की भूमिका निभा सकें। मार्क्सवाद का मतलब है बेहतरीन नागरिक बनाना। मार्क्सवाद का मतलब सिर्फ क्रांतिकारी या होलटाइमर बनाना नहीं है। हम तीनों बार –बार इस सवाल पर बातें करते कि भारत जैसे समाज में मार्क्सवाद का लक्ष्य क्या हो सकता है ? कई बार लगता पेशेवर कम्युनिस्ट बनना ही महान कार्य है, लेकिन भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की दशा देखकर अंत में यही सोचते कि पेशेवर कम्युनिस्ट की जिंदगी संभालने लायक कम्युनिस्ट पार्टी के पास संसाधन ही नहीं हैं। एक बेहतर कम्युनिस्ट वह है जो आत्मनिर्भर हो, नौकरी करता हो,जो कम्युनिस्ट नौकरी नहीं करता ,वह न तो मार्क्सवाद को बचा सकता है और न अपने को बचा सकता है। आजीविका कमाने का काम छोड़कर सभी मार्क्सवादी यदि पेशेवर कम्युनिस्ट बन जाएं तो न तो कम्युनिस्ट पार्टी बनेगी और न समाज बनेगा। एक अवस्था के बाद आम लोग कम्युनिस्ट पार्टी में आना बंद कर देंगे। इसलिए बेहतर है कम्युनिस्ट समाज में घुलेमिले रहें,वैसे ही जिस तरह पानी में मछली रहती है। वीरेन्द्र के पुलिस में जाने के बाद मथुरा एसएफआई का महामंत्री मुझे बनाया गया।

ऋषिकांत की खूबी यह थी कि वह शानदार कार्यकर्ता के अलावा बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी भी था। के.आर. कॉलेज की ग्राउण्ड पर इसकी गेंदबाजी के कहर को मैंने कईबार देखा है, वह कम्युनिस्ट न बनता तो यह तय था नामी क्रिकेटर बनता,उसकी क्रिकेटर के रुप में मथुरा में धाक थी। ऋषिकांत बेहद संवेदनशील था। हम सबमें संवेदनशीलता के मामले में वह सबसे आगे था। उसने अनेक चीजें साथ में काम करते हुए विकसित कीं इनमें मूल्यवान चीज थी उसकी विलक्षण विश्लेषण क्षमता। वीरेन्द्र और ऋषिकांत में एक और गुण था कि वे दोनों बहुत सुंदर पोस्टर भी बनाते थे। उनके बनाए पोस्टरों से आए दिन मथुरा की दीवारें भरी रहती थीं। हमलोग हर छह महिने में कॉलेजों में दीवार रंगने , नारे लिखने आदि के काम करते थे। मथुरा में जब भी नुक्कड़ सभाओं का सिलसिला शुरु होता था,सव्यसाची,मैं,वीरेन्द्र और ऋषिकांत हमेशा साथ ही रहते। ऋषिकांत ने बाद में अपनी नौकरी की और कुछ समय बाद नौकरी छोड़कर कई सालों तक पार्टी होलटाइमर के रुप में दिल्ली और अंत में मथुरा में काम किया। कालांतर में उसकी परिस्थितियां इतनी तेजी से बदलीं कि उसने होलटाइमरी छोड़ दी और आजीविका के कामों में व्यस्त हो गया।


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