बुधवार, 3 जून 2015

मध्यकालीन पापुलर कल्चर है मुशायरा


पापुलर कल्चर के मध्यकालीन अरब रुपों में मुशायरा सबसे प्रसिद्ध है। मुशायरे की परंपरा का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है, इस्लाम धर्म के उदय के पहले से अरब देशों में मुशायरे हुआ करते थे। यह पुरानी पापुलर कल्चर का प्रभावशाली रुप है और आज भी इसकी साख बरकरार है।
अरब देशों में कबाइली समुदायों के मेले,जलसों आदि के समय सामान्य अशिक्षित जनता के मनोरंजन में मुशायरों की बड़ी भूमिका थी। इसके अनेक रुप हैं।एक है सीमित शायरों में शेरगोई ,दूसरा है विशाल जनसमूह में शेरगोई,तीसरा है शायरों में प्रतिद्वंद्विता। इसमें खास किस्म तुकबंदी की भी महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी।
मथुरा में इस परंपरा का बड़ा असर लावनी,झूलना,सवैया आदि कहनेवाले कवि दलों पर सहज ही देखा जा सकता है। इसे साहित्यिक अखाड़ेबाजी का मध्यकालीन रुप कहें तो समीचीन होगा। इसे कवियों ने शौकिया अपनाया। यह उनके पेशेवर लेखन का अंग नहीं था।
इस शौकिया शैली की खूबी यह थी कि इसके जरिए किसी को भी निशाना बनाया जा सकता था चाहे वह व्यक्ति कितना ही बड़ा हो। बारातों से लेकर अन्य जलसों में इसके शानदार प्रयोग देखने को मिलते थे। बारातियों को सम्बोधित कविता की परंपरा इससे ही निकली है जिसमें सभी बारातियों को कवित्तों के जरिए निशाने पर लाकर खड़ा किया।इससे बारातियों का मनोरंजन होता था। सामने जब कोई परिहास में कवित्त कहता था तो उसका सामने वाले को जवाब कवित्त में ही देना होता था, चौबों में शादी के समय शाखोच्चार और बाद में कवित्तगोई की परंपरा यहीं से निकली है। बारात जब खाने जाती तो छतों पर चढ़कर कवितों के जरिए औरतें बारातियों पर काव्य हमले किया करती थीं, अनेक जातियों में इसके भिन्न रुप भी देखने को मिलते थे।
असल बात यह कि बाराती और घराती एक-दूसरे पर कवित्तों के जरिए नहले पर दहला मारने की कोशिश किया करते। यही मुकाबलेबाजी मुशायरोंं में आम रही है। यही स्थिति लावनी कहने वाले दलों की काव्यभिड़ंत में भी नजर आती थी।
ईरान में मुशायरे 10वीं शताब्दी में सामने आते हैं जबकि भारत में 16वीं शताब्दी में मुशायरे का जन्म होता है। आरंभ में फारसी के मुशायरे होते थे क्योंकि विदेशों से फारसी के शायर बड़ी संख्या में भारत आने लगे थे। खासकर दिल्ली,गोलकुंडा,बीजापुर इसके बड़े केन्द्र थे। कालान्तर में मगलशासन के पतन के दौर में रेख्ते (उर्दू का पूर्व नाम) के मुशायरे होने लगे। फारसी रस्मी रह गयी थी और उसकी जगह रेख्ता ने ले ली थी। रेख्ता के मुशायरों को मुराख्ते कहा गया। आरंभ में मुराख्ते दरबार तक सीमित थे बाद में आम जनता के बीच होने लगे।कालान्तर में मुशायरे के नियम बनाए गए, कहने के तरीके तय किए गए, मसलन गजल कैसे कहें, सभ्यता और असभ्यता के दायरे तय किए गए.अध्यक्ष तय किया गया। नियमों के पालन न करने को बदतमीजी कहा गया। एक झलक देखें-
कमर बान्धे हुए चलनेको याँ सब यार बैठे हैं
बहुत आगे गये,बाकी जो हैं तैयार बैठे हैं ।।

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