रविवार, 26 जून 2016

यूरोपीयन आर्थिक यूनियन से ब्रिटेन के अलग होने का मतलब

       ब्रिटेन के जनमत संग्रह का मूल संदेश - शासकदल आम जनता की भावनाओं और संवेदनाओं से पूरी तरह कट चुका है।वे आम जनता के असंतोष को सही ढ़ंग से समझ ही नहीं पाए। शासकवर्ग का जनता के दिलोदिमाग से कट जाना कोई नई बात नहीं है,हमारे यहां मनमोहन सिंह सरकार का पतन इसके कारण ही हुआ।इसी तरह स्कोटिस जनमत संग्रह,स्पेन के आम चुनाव,ग्रीस के चुनाव,डोनाल्ड डम्प के समर्थन में उठ रही आवाजों में इस जन -को देखा जा सकता है।

ब्रिटेन के जनमत संग्रह में मजदूरों ( औद्योगिक और खान मजदूरों) के बड़े तबके ने यूरोपीयन यूनियन से बाहर निकलने के पक्ष में वोट दिया है,इसका प्रधान कारण यह है कि मजदूरों का यह अनुभव है कि यूनियन में रहने के कारण उनकी आर्थिकदशा में कोई बडा परिवर्तन नहीं आया ।उलटे बहुत ही सीमित अमीरवर्ग को इससे लाभ हुआ।गरीबी,बेकारी और हाशिए पर ठेलकर रखने की घटनाएं बढ़ी हैं,इसलिए मजदूरों ने निकलने के पक्ष में वोट दिया।

ब्रिटेन के जनमत संग्रह का पहला साइड इफेक्ट -सारे पीआए एजेंसियों के जनमतसंग्रह के बारे में पूर्वानुमान गलत साबित हुए हैं।अधिकांश पूर्वानुमान बता रहे थे कि लघु बहुमत से ब्रिटेन ईयू में बना रहेगा।लेकिन हुआ एकदम उलटा।

यूरोपियन आर्थिक यूनियन से ब्रिटेन के निकलने को लेकर मीडिया से लेकर प्रचार अभियान तक एक खास किस्म का स्टीरियोटाइप प्रचार किया गया।इसमें खासकर ईयू देशों के माइग्रेंट वर्करों को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की गयी,इसके अलावा आईएसआईएस के खतरे को खूब उछाला गया ,यह कहा गया कि ईयू के सस्ते मजदूरों,घरों की कमी,खस्ता हाल जनसेवाओं के कारण ब्रिटेनवासी परेशान हैं।

तथ्य यह है कि ईयू के मजदूर ज्यादा टैक्स देते थे,इसकी तुलना में उनको लाभ कम मिलता था,सेवाएं कम मिलती थीं।ब्रिटेन के शासन को उनसे सालाना 2बिलियन पॉण्ड का लाभ मिलता था।ब्रिटेन में घरों की कमी और महंगे मकानों का सबसे बड़ा कारण नव्य आर्थिक उदार नीतियां और लोभी मकान मालिकों का रवैय्या है।

विगत 25सालों नव्य आर्थिक उदारीकरण के कारण निजीकरण और कल्याण के कामों में सरकारी निवेश में आई कटौती के कारण जनसेवाएं पूरी तरह खस्ताहाल होकर रह गयी हैं।इन सबके खिलाफ वहां कोई न तो आंदोलन हुआ और न सरकार ने ही कोई कदम उठाए,इसके कारण जनसेवाएं लगातार महंगी होती चली गयी हैं।

एक जमाना था ब्रिटेन कल्याणकारी राज्य था लेकिन विगत 25 सालों से नव्य आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद से वह बाजार का राज्य हो गया है।अब कल्याण की बजाय बाजार के हितों को ध्यान में रखकर फैसले लिए जाते हैं।इसी तरह नव्य आर्थिक नीतियों का अनुकरण करने के कारण यूरोप भी बदला है,पहले सामाजिक यूरोप था,अब मुक्त बाजार यूरोप है।इसके कारण मजदूरों के हितों,मजूरी और अवस्था पर लगातार हमले बढ़े हैं।यही वह बृहद परिप्रेक्ष्य है जिसमें ब्रिटेन में जनमत संग्रह हुआ है।

ब्रिटेन के जनमत संग्रह की सबसे बड़ी कमी यह थी कि इसमें मतदाता के सामने दो ही विकल्प थे,कायदे से दो से अधिक विकल्प रहते तो बेहतर होता,मसलन् यह विकल्प था कि यूरोपीय यूनियन में रहोगे या निकलोगे,असल में ये दोनों विकल्प समस्यामूलक हैं और इनमें से कोई भी विकल्प मूल समस्या को सम्बोधित नहीं करता।



यूरोपीय यूनियन और ब्रिटेन दोनों ने कल्याणकारी राज्य का रास्ता त्यागकर बैंकरों और कारपोरेट घरानों के हितों की सेवा करने का मार्ग अपना लिया,जिसके कारण समूचे यूरोप और ब्रिटेन में अशांति फैली हुई है।ब्रिटेन की अशांति जनमत संग्रह से कम होने वाली नहीं है।क्योंकि जनमत संग्रह तो नव्य आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को हटाने की मांग नहीं कर रहा।बैंकरों और कारपोरेट घरानों की साजिशों से जन्मी समस्याओं को जनमत संग्रह सम्बोधित नहीं करता।बैंकरों और कारपोरेट घरानों को राष्ट्र की संप्रभुता से ऊपर स्थापित किया गया है। जनमत संग्रह से इसे चुनौती नहीं मिलती।आज वास्तविकता यह है कि बैंकरों-कारपोरेट घरानों की सत्ता के मातहत राष्ट्र की सभी शक्तियों को रख दिया गया है।एक जमाना था आम जनता की शक्तियों को सर्वोपरि दर्जा हासिल था आजकल बैंकरों और कारपोरेट घरानों को सर्वोपरि दर्जा हासिल है।जनता के हितों के ऊपर मुनाफे के हितो को सर्वोच्च बना दिया गया है।लोकतंत्र को बैंकरतंत्र बना दिया गया।जनमत संग्रह में पेश दोनों विकल्प इस समस्या को स्पर्श ही नहीं करते।इसलिए जनमत संग्रह से बेहतर ब्रिटेन के निकलने की कोई संभावना नहीं है।

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