शुक्रवार, 17 जून 2016

आलोचना की समस्याएँ -



हिन्दी में रचनाएँ हैं, रचनाकार भी हैं।लेकिन कोई बहस नहीं है।एक ज़माना था हमारे पास नामवर सिंह ,रामविलास शर्मा थे, लेकिन आज आलोचक नहीं है। आज के लेखक के पास जीवन के व्यापक अनुभव हैं और उन पर वह जमकर लिख रहा है।वह अपनी अनुभूतियों से इस तरह चिपका हुआ है कि वह निजी अनुभूतियों के परे कुछ भी देख नहीं पा रहा। इस पूरे परिदृश्य में यह सवाल उठा है कि क्या साहित्य के लिए अनुभूतियों का होना ही ज़रूरी है ? क्या दुख या उत्पीड़न के अनुभवों के आधार पर ही महान रचना बन सकती ? ग़ौर से सोचें नामवरजी ने भी दुख देखा है, ग़रीबी भी देखी है, लेकिन क्या ग़रीबी और दुख की अनुभूति या उसे देखने मात्र से बेहतरीन साहित्य रचा जा सकता है ? कहने का आशय यह कि लिखने के लिए अनुभूति के अलावा भी चीज़ें चाहिए। अनुभूतियों अलावा सबसे बड़ी चीज़ है विचारधारा , लेकिन लेखक के पास जब तक एक सुसंगत वैचारिक दृष्टि न हो वह चीज़ों को देख ही नहीं सकता।दूसरी चीज़ चाहिए अकादमिक अनुशासन।अनुभूति, वैचारिकदष्टि और अकादमिक अनुशासन इन तीनों चीज़ों के सहमेल से साहित्य का सर्जनात्मक फलक बनता है।
अभी जितने बडे पैमाने पर लेखन आ रहा है वैसा लेखन प्रवाह पहले कभी नहीं देखा गया, इस प्रवाह में बहुत कुछ "लेखन के लिए लेखन"की तर्ज़ पर लिखा हुआ है।

आलोचना के अनुपलब्ध क्षेत्र-

भारत में चार बडे पैराडाइम शिफ़्ट हुए हैं, पहला है लोकतंत्र का उदय,दूसरा,भारत विभाजन,तीसरा है आपातकाल और चौथा है इंटरनेट -डिजिटल क्रांति । सवाल यह है कि हिन्दी साहित्य और आलोचना इन चारों पैराडाइम को कैसे अभिव्यंजित करती है ।
पहले हिंसा थी इन दिनों डिजिटल हिंसा है।पहले कम्युनिकेशन था आज नेट कम्युनिकेशन है।अहिंसा का व्यापक चित्रण है लेकिन मानवतावाद ग़ायब है। पहले अभिव्यक्ति थी अब कोलाहल है।अब चुप रहनेवालों की निंदा ख़ूब होती है। पहले किताब आती थी अब किताब का इवेंट्स होता है। किताब पर बातें कम और इवेंट्स पर बातें ज़्यादा होती हैं।इन दिनों हिंसा पर टीवी या नेट पर आलोचना ज़्यादा दिखती है नीचे ज़मीनी स्तर पर आलोचना नज़र नहीं आती।यह एक तरह से हाइपर वायरलेंस है।उसी तरह स्त्री भी हाइपर सैक्सुअलिटी में रूपान्तरित हो गयी है। अब हम स्त्री के नहीं हाइपर स्त्री के रूपों और विमर्शों में उलझे हैं।फलत: रीयल औरत और रीयल हिंसा को लेकर यथार्थजीवन में चुप्पी साधे हैं। इसी तरह आजाद भारत में दंगे कभी आलोचना का मूल विषय नहीं बन पाए।साम्प्रदायिकता के वैचारिक स्वरूप पर तो लिखा गया लेकिन दंगा पीड़ितों पर कुछ भी नहीं लिखा गया।दंगाई संगठनों की सांगठनिक और वैचारिक सारणियों को हमने कभी खोला तक नहीं। भारत विभाजन हमारे समाज का सबसे भयानक पहलू है लेकिन आलोचना उस पर चुप है, यह चुप्पी क्यों? इस सवाल को बहसयोग्य क्यों नहीं माना गया ? इससे भी भयानक पहलू है दोनों विश्वयुद्ध का समीक्षा से ग़ायब रहना, अकाल का मुख्य एजेंडा न बन पाना ।

यथार्थहीन समीक्षा -

सवाल यह है क्या अकाल, दो विश्वयुद्ध और भारत विभाजन के बिना आधुनिककाल और आधुनिक समीक्षा पर बातें करना संभव है। आलोचना का काम है अनुपब्ध को उपलब्ध कराना। लेकिन अधिकतर मामलों में आलोचना उपलब्ध को ही उपलब्ध कराती रही है। युद्ध और भारत विभाजन ने अमानवीकरण के सवालों को केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया लेकिन हमने अमानवीकरण पर बातें ही नहीं कीं।साहित्य और मानवीयता के अंतस्संबंधपर विचार करने की बजाय अन्य मसलों पर बहस करते रहे।अत:इसे "यथार्थहीन समीक्षा" कहना समीचीन होगा। "यथार्थहीन समीक्षा" वह है जिसमें समसामयिक सामाजिक जीवन नदारत है। यह जीवंत यथार्थ से संवाद नहीं करती।यह ऐसी आलोचना है जो पब्लिक ओपिनियन नहीं बनाती ।यह लोकतांत्रिक संस्थानों की समस्याओं को नहीं उठाती।
हिन्दी आलोचकों ने स्थिर यथार्थ पर ख़ूब लिखा है, लेकिन रूपान्तरित यथार्थ पर कम लिखा है।रूपान्तरित यथार्थ के सवालों का वर्तमान से संबंध है जबकि स्थिर यथार्थ का अतीत से संबंध है।टीवी इमेजों से प्रभावित आक्रामकता का अभिव्यक्ति के रूपों के साथ गहरा संबंध है।टीवी से प्रभावित समीक्षा और इमेज स्वभक्षक है।यह लेखक और आलोचक के स्थान को छीन रही है।
मज़ेदार बात है कि साहित्य और समीक्षा की किताबें आ रही हैं, तरह तरह के विषयोंपर प्रस्तुतियाँ आ रही हैं, लेखकों के जमघट लग रहे हैं , साहित्यमेले हो रहे हैं लेकिन हार्दिकता और संवेदनाएँ ग़ायब हैं। साहित्य की इस तरह की हृदयहीन प्रस्तुतियाँ ने व्यापक फलक को घेर लिया है।आज आलोचना और साहित्य की यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह वर्तमान के ज्वलंत सवालों पर बोले। वह उन विषयों पर समर्पण न करे जो मीडिया या सत्ता निर्मित हैं या फिर तात्कालिकता के दबाव में हैं। वह सवालों से भी बचे जो कुछ क्षण बाद ख़त्म हो जाते हैं। आलोचना और कला में रीयल सवाल ग़ायब हुए हैं उसके दो बडे कारण हैं, पहला, भूमण्डलीकरण और दूसरा है तकनीकी-वैज्ञानिक प्रौपेगैण्डा ।इन दोनों ने मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण किया है जो वास्तविकता से नहीं मिलता।इन दोनों के कारण यथार्थ की बजाय निर्मित यथार्थ सामने आया , मनुष्य ग़ायब हो गया है।

यहाँ उदाहरण के लिए निर्मल वर्मा के लिखे आलोचना निबंधों को लें, जब यह भाषण दिया गया तो देश को आजाद हुए ५० साल हो गए थे। उस मौक़े पर उन्होंने विषय चुना " मेरे लिए भारतीय होने का अर्थ " सतह पर देखने पर यह विषय सुंदर है लेकिन , निर्मल वर्मा के यहाँ भारत और भारतीयता की धारणा स्थिर और सामयिक सच से कोसों दूर है, " भारतीय" और " भारतीयता " या किसी भी अवधारणा का सामयिकता और प्रक्रियाओं से संबंध होता है ? यदि हाँ तो निर्मल वर्मा ने इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया ? भारतीयता या देशप्रेम या राष्ट्र राज्य आदि की धारणाएँ प्रक्रिया में ही समझी जा सकती हैं ।
(जामिया मिलिया में आज रिफ्रेशर कोर्स में दिए व्याख्यान का अंश)


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