गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

- संस्कृत आलोचना के अनुत्तरित सवाल -

         इन दिनों प्रशंसा महान है और आलोचना गुम ! आलोचना के गुम होने की स्थिति में उन पक्षों को देखना जरुरी है जिनके कारणो से आलोचना गुम हुई है। आलोचना गुम तब होती है जब समाज पर साहित्यकार-आलोचक की पकड़ ढ़ीली पड़ जाती है अथवा आलोचना रुपवादी मार्ग पर चल निकले।आधुनिककाल में आलोचना का रुपवादी मार्ग सीधे सर्वसत्तावाद तक ले जाता है। जिन देशों में रुपवादी आलोचना आई वहां पर आगे-पीछे सर्वसत्तावाद या अधिनायकवादी शासन भी आया,रुपवादी आलोचना के राजनीतिक आयामों को हमने कभी खोलकर देखने की कोशिश ही नहीं की।रुपवादी समीक्षा का श्रेष्ठतम रुप देखना हो तो हमें संस्कृत काव्यशास्त्र की यात्रा करनी चाहिए।आलोचना के ह्रास के मर्म को समझने में संस्कृत काव्यशास्त्र का पुनर्मूल्यांकन हमारी बेहतर ढ़ंग से मदद कर सकता है। इससे हमें उन विचार-सरणियों को समझने में भी मदद मिलेगी जिन पर चलकर संस्कृत काव्यशास्त्र का मूल्यांकन विगत दो सौ सालों में विकसित हुआ है।

भरत कृत नाट्यशास्त्र और समाज-

संस्कृत काव्यशास्त्र को देखने के कई दृष्टिकोण मिलते हैं। पहला, विंटरनित्स,मैक्समूलर,कीथ आदि पाश्चात्य भारतविदों का नजरिया है, जिसमें बद्धमूल धारणाओं के आधार पर संस्कृत परंपरा को देखने की कोशिश की गयी है। इन लोगों ने भारत के अतीत को अत्यधिक सहानुभूति के रुप में देखा। प्रजातिगत श्रेष्ठता और आध्यात्मिक श्रेष्ठता के आधार पर आदर्श समाज के तत्वों को संस्कृत परंपरा में खोजने की कोशिश की और इन्हीं लोगों ने आर्य जाति की परिकल्पना भी पेश की। इन लोगों ने पुराने समाज में वर्गसंघर्ष और तनाव देखने की बजाय आपसी मेलजोल को प्रमुखता से पेश किया। प्राच्यविदों ने तुलनात्मक भाषा के सिद्धान्त का निर्माण किया ,भाषा को प्रजाति से जोड़ा।इस क्रम में आर्य-अनार्य,आर्य-द्रविड का भेद पैदा किया।एक ऐसा यूटोपिया निर्मित किया जिसमें सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद और धार्मिक पुनरुत्थानवाद के बीज छिपे थे। दूसरा, संस्कृत काव्य परंपरा को रूपवादी नजरिए से देखने का दृष्टिकोण है। ये लोग सिर्फ अवधारणाओं की व्याख्याओं में मशगूल हैं।वे अवधारणाओं के साथ जुड़ी सांस्कृतिक प्रक्रियाओं की एकसिरे से उपेक्षा करते हैं।वे समाज और आलोचना के अन्तस्संबंध को नहीं मानते।वे बौद्धिक उत्पादन और भौतिक उत्पादन के अन्तस्संबंधों की ओर ध्यान ही नहीं देते। इन लोगों ने एक खास किस्म का सुविधावाद विकसित कर लिया है।इस सुविधावाद का आदर्शलेखन राममूर्ति त्रिपाठी के लेखन में मिलता है।इस संबंध में उनकी आदर्श कृति है “भारतीय काव्यशास्त्र के नए क्षितिज” ।

संस्कृत काव्यशास्त्रीय आलोचना का आरंभ भरत कृत ‘नाट्यशास्त्र’ से माना जाता है। जिस दौर में यह रचना लिखी गयी वह दौर बहुत ही रोचक है और महान कृतियों के सृजन से भरा है।सतह पर देखें तो यह दौर सामाजिक विकास की दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। लेकिन इस दौर में बेहतरीन रचनाओं का जन्म हुआ है। यहीं पर हमें साहित्य और समाज के अन्तस्संबंध के आधार पर देखने की यांत्रिक दृष्टि की असफलता नजर आती है,समाज के अनुरुप यदि साहित्य की अभिव्यक्ति होती है तो हमें इस सवाल का उत्तर खोजना होगा कि पिछड़े समाज में बेहतरीन कलारुप और साहित्य का जन्म क्यों और कैसे हुआ ?और यहीं हमें कार्ल मार्क्स सबसे प्रासंगिक लगते हैं। जिस दौर में ‘नाट्यशास्त्र’ का जन्म होता है उसी दौर में ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे महाकाव्य रचे गए। मजेदार बात यह है कि इन तीनों रचनाओं ने कालांतर में रचना और आलोचना को सैंकड़ों साल तक प्रभावित रखा।‘नाट्यशास्त्र’ में रंगमंच से जुड़े सभी पहलुओं पर विचार किया गया,इसे ‘पंचमवेद’ कहा गया,वहीं पर ‘महाभारत’ सभी के लिए सम्बोधित रचना है और इसे भी ‘पंचमवेद’ कहा गया।जबकि ‘रामायण’ शहरीजनों को सम्बोधित रचना है।

‘नाट्यशास्त्र’ को उत्तर वैदिककाल की रचना माना जाता है।इसका रचनाकाल ईसापूर्व दूसरी सदी से लेकर ईसा की दूसरी शताब्दी के मध्य का माना जाता है।यह वह दौर है जब वैदिक समाज टूट रहा था,वैदिक धर्म और ब्राह्मण धर्म के खिलाफ संघर्ष तेज हो चुका था। लोहे की उत्पत्ति,धान की रोपाई और अतिरिक्त धन की उत्पत्ति के कारण अनेक किस्म के व्यवसायी वर्गों का उदय हो चुका था।निजी संपत्ति का उदय हो चुका था और कबीलाई समाज समाज का अंत हो रहा था।अनेक विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों का जन्म हो चुका था। ये वे वर्ग थे जो अतिरिक्त उत्पादन का उपयोग करते थे तथा राजनीति से लेकर समाज तक उनका वर्चस्व था। वहीं दूसरी ओर पैदावार के साधनों को नियमित करने के लिए धर्मशास्त्रों की मदद ली जा रही थी।

उल्लेखनीय है कि ईसापूर्व पाँचवीं शताब्दी के आसपास ‘राज्य’ का उदय हुआ और इसी के आसपास धर्मशास्त्र रचे गए। इसी युग में नाट्यशास्त्र,कौटिल्य कृत ‘अर्थशास्त्र’(ईसा की पहली शताब्दी) ,पाणिनी कृत ‘अष्टाध्यायी’(ईसापूर्व पांचवीं शताब्दी) ,ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में पतंजलि भाष्य,मनुस्मृति (ईसा की पहली या दूसरी शताब्दी) आदि ग्रंथ आ चुके थे, इसके अलावा अनेक महत्वपूर्ण रचनाएं लिखी जा चुकी थीं।

भरत का ‘नाट्यशास्त्र’ जिन परिस्थितियों में रचा गया वे परिस्थितियां बेहद तनावपूर्ण और अंतर्विरोधपूर्ण थीं।‘तनाव’ और ‘अन्तर्विरोध’ का भरत पर गहरा असर था,इसीलिए उन्होंने ‘सहमेल’ की धारणा पर जोर दिया।भरत पर कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ का ज्यादा असर था।भरत ने जिस दृष्टिकोण को ‘नाट्यशास्त्र’ में व्यक्त किया वह सम्राट अशोक के नजरिए से काफी मेल खाता है।क्योंकि जब इस कृति रचना हुई है उस समय अशोक का शासन समाप्ति की ओर था या समाप्त हो चुका था। अशोक ने सभी वर्गों के ‘सहमेल’ पर जोर दिया,भरत ने भी सभी वर्गों के ‘सहमेल’ पर जोर दिया।डी.डी.कोशाम्बी ने ‘प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता’ में लिखा जिस युग में ‘समन्वय’ की धारणा आई ,वह युग खेत मजदूरों,दासों,छोटे किसानों का था,जिसमें अधिकतर शूद्र थे।दूसरी ओर प्रभुवर्गों के रुप में प्रभावशाली तबका सामने आ चुका था। इन दोनों के बीच में गहरा तनाव था,जिससे बचने के लिए ‘समन्वय’ की प्रक्रिया राज्य ने शुरु की।प्रजा को नए दृष्टिकोण से देखा गया।नये प्रयत्नों को सार्वभौमिक अर्थ देने वाले ‘धम्म’ पदबंध का चलन भी इसी दौर में आरंभ हुआ।

‘नाट्यशास्त्र’ में उस दौर के संकट के संकेत मिलते हैं।मसलन्, उस समय नाटकों में देव-दानव संघर्ष पर केन्द्रित रचनाएं ही लिखी जाती थीं और उनका ही मंचन होता था।ऐसी ही एक घटना का जिक्र वहां पर है। जिसमें नाटक देखते समय दर्शकों में जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई और वे देव-दानव संघर्ष केन्द्रित नाटक का विरोध करने लगे, मंचन के दौरान हंगामा हो गया। इस विषय की रचनाओं में आमतौर पर देवता जीतते थे और दानव हारते थे और यही बात दर्शकों को नागवार लगी। तथ्य बताते हैं कि देव-दानव संघर्ष केन्द्रित रचनाओं का विरोध करने वाले लोग वे थे जो वंचित थे,वे लोग परेशान थे कि आमतौर दानव ही नाटक में हारते हुए दिखाए जाते हैं। इस तरह की एक प्रस्तुति और हंगामे का भरत ने वर्णन किया है, जिसमें जनता भड़क उठी थी और काबू के बाहर हो गयी, बाद में इन्द्र के हस्तक्षेप और प्रहारों के बात जनता नियंत्रण में आई। यही वह संदर्भ है जिसको ध्यान में रखकर भरत ने लिखा कि भविष्य में नाटक देव-दानव संघर्ष पर ही नहीं लिखे जाएंगे बल्कि त्रैलोक्य के सभी विषयों पर लिखे जाएंगे। उन्होंने नाट्यकारों से अपील की है कि वे देव-दानव संघर्ष पर रचना न लिखें,बल्कि इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए। नाट्यकारों को त्रैलोक्य के विषयों को अपने लेखन का आधार बनाना चाहिए। असल में देव-दानव संघर्ष पर जब नाटककार लिखता था तो वह स्वयं तो देवताओं का पक्षधर होता ही था ,दर्शकों को भी देवताओं का पक्षधर बनाता था।आम जनता में इसे लेकर गंभीर प्रतिक्रिया हुई। इस तनाव को दूर करने के लिहाज से भरत ने त्रैलोक्य को अभिव्यक्ति का आधार बनाने पर जोर दिया।पहले नाटककार देवताओं का पक्षधर था इससे जनता रुष्ट थी। जनता की नाराजगी को दूर करने के लिए त्रैलोक्य के विषयों पर लिखने की अपील की गयी। इससे जनता और रंगमंच के नए रिश्ते की शुरुआत हुई। भरत ने लिखा नाटककार को विभिन्न वर्गों के शुभ-अशुभ कर्मों का रुपायन करना चाहिए। जनता के उत्तम-मध्यम और अधम स्वभावों को भी नाट्यकला की परिधि में रखना चाहिए।इससे रंगकर्म का ही नहीं बल्कि साहित्य का भी दायरा बढ़ा। इससे कला और समाज के अन्तस्संबंध की शुरुआत हुई। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे कि संस्कृत काव्यशास्त्र के उदय के पीछे ठोस भौतिक परिस्थितियां सक्रिय थीं।दूसरी बात यह कि संस्कृत काव्यशास्त्र का प्रेरक कोई ‘विचार’ या ‘भगवान’ नहीं है।बल्कि सामाजिक उत्प्रेरणा के गर्भ से ही इसका जन्म हुआ।आमतौर पर संस्कृत काव्यशास्त्र पर जब भी चर्चा होती है तो उसे समाज से काटकर पेश किया जाता है। समाज और आलोचना के बीच की अन्तर्क्रियाओं पर हमने कभी गंभीरता से विचार ही नहीं किया।

संस्कृत काव्यशास्त्र और लिंगदृष्टि-

संस्कृत काव्यशास्त्र वस्तुतःपुंस साहित्यशास्त्र है, इसमें स्त्री हाशिए पर है।आलोचना पुंसत्व के आधार पर देखने की परंपरा पहले नहीं थी,पहलीबार पुंसत्व के आधार पर आलोचना का श्रीगणेश होता है। काव्यशास्त्र में पुंसत्व का संबंध तत्कालीन पशुपालक अवस्था से है।पशुपालक समाजों में रचितशास्त्र में पुंसवाद का प्रभुत्व सहज और स्वाभाविक लगता है। पशुपालन और युद्ध ये दो महत्वपूर्ण काम थे जिनकी धुरी पुंसवाद है,इनके साथ अंतर्क्रियाएं करते हुए नाट्यकर्म से लेकर काव्यशास्त्र तक का समूचा आलोचना ढ़ांचा पुंसवादी पैमानों के आधार पर खड़ा किया गया,यह उस समय की व्यवस्था की संगति में सबसे बेहतर विकल्प था। आलोचना के पुंसवादी चरित्र के विकास में कालान्तर में जाति और वंश पर आधारित संरचनाओं ने भी मदद की।

कबीलाई सरदारतंत्र वस्तुतःअसमान तंत्र था।इस तंत्र की धुरी है राजन् । राजन् यानी चमकने वाला। राजन् को ही उस समय समस्त उपहार आदि दिए जाते थे।समाज में श्रम-विभाजन का विकास हुआ,लेकिन राजन् की सत्ता अक्षुण्ण रही। संस्कृत काव्यशास्त्र के विकास का लोहे के विकास की प्रक्रिया से भी संबंध बनता है। लोहे की तकनीक इस दौर में विकसित हुई और लोहे से बने तमाम नए उपकरणों का उदय हुआ। लोहे के उपकरणों के जन्म और संस्कृतकाव्यशास्त्र के रिश्ते पर हम कभी गौर करें कि संस्कृत काव्यशास्त्र उस दौर में ज्यादा जनप्रिय और प्रासंगिक रहा है जब समाज पूरी तरह लोहे के यंत्रों पर निर्भर था,अन्य धातुओं के उदय के बाद जो उपकरण सामने आए उन्होंने धीरे-धीरे संस्कृत काव्यशास्त्र को हाशिए पर ठेला। इसने संस्कृत काव्यशास्त्र को ही नहीं बल्कि व्याकरण को भी प्रभावित किया। पाणिनी का व्याकरण वैचारिकतौर पर पुंसवाद के वर्चस्वशाली दृष्टिकोण का आदर्श नमूना है। इसी तरह रस के प्रसंग में जितनी भी बहस है कहने को नव रस हैं,लेकिन अधिकांश संस्कृत साहित्य श्रृंगार रस केन्द्रित है ,जिसमें पुंसवादी विचारधारा का वर्चस्व है ।

रस के पुंसवादी चरित्र का मूलाधार है रस-निष्पत्ति में लिंग की अनुपस्थिति,खासकर स्त्री लिंग की अनुपस्थिति खासतौर पर उल्लेखनीय है।भरत जब रस को लिंगरहित बनाकर पेश कर रहे थे तो वस्तुतःस्त्री को अदृश्य बना रहे थे।मजेदार बात यह है रस की भरत की अवधारणा को लेकर सभी आलोचक एकमत हैं। भरत ने लिखा ‘ न रसाद् ऋते कश्चिदर्थःप्रवर्त्तते’, यानी रस से रहित कोई काव्यार्थ नहीं होता। लेकिन रस का आस्वाद लिंगाधारित है,वह इकसार नहीं है। पुरुष को जिस चीज में रस आता है स्त्री को उसमें रस नहीं आता। यदि रस का आधार लिंग-निरपेक्ष मानकर चलेंगे तो इससे स्त्री की अनुभूतियों का मूल्यांकन नहीं हो पाएगा। भरत ने कहा , ‘रस्यते(आस्वाद्यते)इति रसः’ यानी जो आस्वाद का विषय हो,वह रस है।काव्य में स्थायी भाव ही आस्वाद्य होता है,अतःवही रस है।

भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में संरचनात्मक तौर पर जिस रंगमंच संरचना और रस संरचना को अपने ग्रंथ का मूलाधार बनाया उसमें दो चीजों पर विचार करने की जरुरत है,पहली समस्या यह है कि रस और रंगमंच के लिए किस तरह के मॉडल को वैचारिक तौर पर आधार बनाया जाय ? समाज में सम्प्रेषण के दो तरह के मॉडल हैं एक तरफ माध्यम केन्द्रित मॉडल है तो दूसरा समाजकेन्द्रित मॉडल है। भरत ने कला संचार के लिए माध्यमकेन्द्रित मॉडल को चुना और समाजकेन्द्रित मॉडल को छोड़ दिया। माध्यमकेन्द्रित मॉडल चुनते हुए नाटक को आधार बनाया गया और उसमें ही विभिन्न स्तरों पर संरचनात्मक परिवर्तनों की खोज की। रंगमंचके नए उपकरणों की खोज पर जोर दिया। कालान्तर में इससे जो काव्यशास्त्र पैदा हुआ वह भी काव्य के आंतरिक तत्वों ,शैली,रुपतत्व और बाह्य उपकरणों के विकल्पों की खोज में व्यस्त हो गया । इसका परिणाम यह निकलला कि समूचा काव्यशास्त्र रुपतत्वों की खोज का पुंज बनकर रह गया।

सवाल उठता है कि संस्कृत काव्यशास्त्र के रुपवादी चिन्तन की पद्धति क्या है ? इसमें आलोचक –लेखक के स्वतःस्फूर्त्त चिन्तन के लिए कोई जगह नहीं है।यहां ‘शिल्पी’ या ‘गढ़िया’ रुप की प्रतिष्ठा पर जोर है। कवि या आलोचक की स्वतःस्फूर्त्तता का यह विरोध करता है। यहां अलंकार और भाषायी चमत्कारों को दिखाने पर जोर है। यही वजह है आरंभ में नाट्यशास्त्र में 4अलंकार थे जो बढ़ते बढ़ते 300 से ऊपर हो गए। दूसरी बात यह कि संस्कृत का लेखक –आलोचक अपने भावों को व्यक्त करने के लिए वास्तविक घटनाओं ,अभिव्यक्ति रुपों और विषयों की मदद नहीं लेता ,वास्तविक घटनाओं से प्रेरित होकर रचना नहीं करता। वह तो भावहीन शिल्प साधना को श्रेष्ठतम उपलब्धि मानता है। सवाल उठता है कि रस के क्षेत्र में स्थायी भाव को आधार बनाकर जो शास्त्र रचा गया उसके पीछे मंशा क्या है ? क्या जीवन और साहित्य में स्थायीभाव जैसी कोई चीज होती है ? स्थायी भाव के आधार पर ही शाश्वत साहित्य,शाश्वत चिन्तन,शाश्वत विचार,शाश्वत धर्म,शाश्वत राजा के विचार का प्रतिपादन किया गया। शाश्वत को सामान्य ,स्वाभाविक और अपरिवर्तनीय बनाकर पेश किया गया। यहां शास्त्र निर्माण का जो तरीका चुना गया वह अपने आपमें विलक्षण और रोचक है। पहलीबार बारीकी से ‘विचार’ से ‘विचार’, ‘शैली’ के गर्भ से ‘शैली’ का जन्म होता है। विचार या शैली की हूबहू नकल करने और उसके ही विभिन्न विकल्पों की सृष्टि पर जोर दिया गया।प्रिफॉर्मेंश के यांत्रिक रुपों की काव्यशास्त्र में एक तरह से बाढ़ पैदा कर दी। नाटक में शास्त्र बनाते समय इस बात जोर दिया गया कि ‘टिपिकल’(प्रतिनिधि पात्र) और ‘यूनीवर्सल’(सार्वभौम) पात्र का निर्माण किया जाय़ । मसलन्, राजा को राजा की ही तरह बोलना चाहिए,दिखना चाहिए। उसी तरह कृपण को कृपण की तरह ही दिखना चाहिए। इसी का लगातार अनुसरण करते हुए महान साहित्य के सृजन की कल्पना की गयी। रंगमंच में सार्वभौम प्रकृति का बार बार अनुकरण करने का यह दुष्परिणाम निकला कि चरित्र स्टीरियोटाइप होते चले गए,विचार और प्रस्तुतियां रुढ़िबद्ध होती चली गयीं। “सार्वभौम” को स्थापित करने के पीछे यह धारणा काम कर रही थी कि “सार्वभौम” तो सब समय और सभी तरह के समाजों में अच्छा होता है। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि रचना से यथार्थ ओझल होता चला गया। “सार्वभौम” को चित्रित करने क्रम में यह भी संकट पैदा हुआ कि जो सामाजिक यथार्थ , युग की संगति में न आए उसे खारिज करो। इससे मनुष्य की भिन्न स्थिति,भिन्न विचार,भिन्न अनुभूति आदि की प्रस्तुतियों का लोप होता चला गया। साहित्य से विविधता का लोप होता चला गया।कहने के लिए साहित्य में नौ रस हैं ,लेकिन अधिकांश रचनाएं श्रृंगार रस पर ही लिखी गयीं, कहने के लिए वायदा किया गया था कि त्रैलोक्य के विषयों पर लिखा जाएगा लेकिन अंततःलेखकों ने देव-दानव संघर्ष पर ही अधिकांश रचनाएं लिखीं। रचनाओं में विषयों का वैविध्य गायब हो गया।“सार्वभौम” और “प्रातिनिधिकता” की धारणा का आदर्शीकरण किया गया और इसने साहित्यिक रुढ़ियों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इसी क्रम में प्राकृतिक न्याय,प्राकृतिक अधिकार,प्राकृतिक अध्यात्म आदि धारणाएं सामने आईं जिनके कारण मनुष्य की ‘अन्य स्थिति’ की उपेक्षा हुई। साथ ही कला-साहित्य का नैतिक मूल्यों से संबंध भी कट गया। यही वह प्रस्थान बिन्दु है जहां पर पितृसत्ता का कलाओं में वर्चस्व स्थापित हुआ और “अन्या” की उपेक्षा हुई। साहित्य में “सार्वभौम” की स्थापना का अर्थ है स्त्री की उपेक्षा। साहित्य में आदर्श रुपों की स्थापना का अर्थ है वैविध्य का अस्वीकार,बनाव -श्रृंगार पर जोर और स्त्री का अदृश्य हो जाना।नैतिक और सामाजिक मूल्यों से आलोचना और साहित्य को परे ले जाना। आलोचक और रचनाकार का इस प्रक्रिया के दौरान समाज में घट रहे परिवर्तनों,ज्ञान-विज्ञान, राजनीति, अर्थनीति आदि से संबंध पूरी तरह कट गया।

रसशास्त्रियों से लेकर काव्यशास्त्रियों तक सभी ने “सामान्य मानवीय प्रकृति” को सम्बोधित करने की पद्धति के तहत मनुष्य को एक तरह अमूर्त्त बना दिया। इस मनुष्य को “सार्वभौम” मनुष्य न समझा जाय। यहां जिस मनुष्य को लेखक सम्बोधित करता है वह तो लेखक का पसंदीदा व्यक्ति है, वह तो एक तरह से स्वयं है। इसमें बहुसंख्यक जनता के वैविध्य की अनदेखी की गयी है। रंगकर्म में अभिरुचि के आधार पर चित्रण करने और सम्बोधित करने की जो प्रक्रिया शुरु हुई उसने नए किस्म के निर्वैयक्तिक सौंदर्यबोध को पैदा किया।

सहृदय या लक्ष्यीभूत श्रोता-

भरत ने ‘लक्ष्यीभूत श्रोता’ की अवधारणा पेश की जो इन दिनों प्रचलित ‘क्रिटिकल ऑडिएंस’ की अवधारणा से मिलती –जुलती है। सामान्य तौर पर उसे ‘सहृदय’ कहते हैं। इस श्रोता को भाषा,शिल्प,कला,छंदशास्त्र, शब्दशास्त्र आदि का ज्ञान होना चाहिए और इसकी इन्द्रियां दुरुस्त हों। भरत यह भी मानते थे कि सभी में ये गुण नहीं होते,इसमें फर्क होता है,रुचिभेद भी होता है,पर इनमें से अधिक से अधिक गुण श्रोता-दर्शक में होने चाहिए। ‘नाट्यशास्त्र‘ रुचिभेद स्वीकार करता है और आशा करता है कि प्रेक्षक इतना सहृदय होगा कि अभिनय के अनुकूल अपने को रसग्राही बना सकेगा।फिर भी एक बात साफ है कि ‘नाट्यशास्त्र‘ सुशिक्षित-प्रबुद्ध को ही लक्ष्यीभूत श्रोता मानता है।

‘लक्ष्यीभूत श्रोता’ की अवधारणा के विकास की प्रक्रिया को रेखांकित करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सही रेखांकित किया है कि सन् ईसवी की चौथी-पांचवीं शताब्दी तक के संस्कृत काव्यों के अध्ययन से यह बात जाहिर होती है कि कविगण अपनी कविता के लक्ष्यीभूत श्रोता के ‘समझदार’ होने की बात तो करते थे लेकिन उसके पंडित या शास्त्रज्ञ होने का दावा किसी ने पेश नहीं किया। लेकिन कालाम्तर में मध्यकालीन कवियों में पाठक के शास्त्र निष्णात होने का दावा उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया।जिस सहृदय की परिकल्पना भरत या कालिदास ने की थी उसे ‘समग्रानरलक्ष्मी’ के नाम से सम्बोधित किया गया।यानी भारवि तक ‘समग्र मनुष्य’ की धारणा आलोचना के केन्द्र में थी।लेकिन बाद के वर्षों में यह धारणा निरंतर खंडित होती चली गयी।अब ‘समग्र मनुष्य’ की बजाय ‘खण्डित मनुष्य’ का रस के साथ विवेचन होने लगा। उल्लेखनीय है कि रस विवेचन में जिन दो महत्वपूर्ण धारणाओं की केन्द्रीय भूमिका थी उन पर हमने कम विचार किया ,ये हैं,कामदेवता और सहृदय। दिलचस्प बात यह है भरत द्वारा प्रतिपादित सहृदय की अवधारणा को वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ ने अपदस्थ कर दिया। इन धारणाओं का श्रृंगार रस संबंधी विमर्श में बहुत बड़ा योगदान है।

भारवि के बाद परवर्त्ती काव्यों में लक्ष्यीभूत श्रोता वह सहृदय है जिसे छंदों और अलंकारों का अच्छा ज्ञान हो,वात्स्यायन की बताई विधियों की जानकारी हो,नागरिक जीवन का ठीक-ठीक ज्ञान हो,रामायण और महाभारत के आदर्शों की ग्राहकता हो,साथ ही उसकी रुचियां परिष्कृत हों।

भरत के यहां जो ‘सहृदय’ है ,कालिदास के यहां वो ‘सचेता’है।‘सहृदय’ बहुत अधिक संवेदनशील तो था ,साथ ही रुप,वर्ण,प्रभा,आभिजात्य,विलासिता,माल्य,वस्त्र,उपलेपन आदि का निपुण जानकार भी होता था।सबसे बड़ी बात यह कि इसमें अधिकांश रसिक युवावर्ग होता था,इसके कारण ही साहित्य में श्रृंगार रस पर केन्द्रित सबसे ज्यादा रचनाएं लिखी गयीं।यही समुदाय श्रृंगार रचनाओं का मुख्य सामाजिक आधार है। राममूर्ति त्रिपाठी ने अभिनवगुप्त के यहां सहृदय की अवधारणा का विवेचन करते हुए लिखा है परात्रींशिका या परात्रिशिंका में अभिनवगुप्त ने कहा है कि ‘वीर्यविक्षोभात्मा हि सहृदयता’, शुक्र शरीर के स्तर पर मूल शक्ति का ही सार है-काव्यानन्द की अभिव्यक्ति उसके निष्क्रिय होने में नहीं,उत्तेजित होने में नहीं,अपितु’चल’ (स्पन्दित) होने में है।यह स्थिति संयम से ही संभव है। सवाल यह है संयम का उपदेश किस वर्ग को दिया जा रहा है ?

संस्कृतकाव्य के संदर्भ में एक पहलू गुलामों की भूमिका से भी जुड़ा है। मध्यकाल में गुलाम न होते तो संस्कृत और संस्कृति महान वैभव निर्मित न होता।दासों के श्रम और शोषण की इस संस्कृति के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका है। आमतौर पर कवियों-लेखकों-विचारकों-दार्शनिकों के योगदान की बात की जाती है लेकिन मध्यकाल में गुलामों की भूमिका की अनदेखी हुई हुई है। यह समूची प्रक्रिया यूनान के सांस्कृतिक वैभव से काफी हद तक मिलती -जुलती है।

फ्रेडरिक एंगेल्स ने ‘ड्यूहरिंग मत-खंडन’ में लिखा है ‘दासप्रथा न होती तो यूनानी राज्य,कला और विज्ञान भी न होते।दासप्रथा न होती तो रोमन साम्राज्य कभी अस्तित्व में न आता।और यदि यूनानी कला तथा रोमन साम्राज्य उसकी नींव न डालते तो आधुनिक यूरोप भी न होता। हमें यह भी कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा समस्त आर्थिक, राजनीतिक और बौद्धिक विकास एक सी अवस्था की नींव पर खड़ा हुआ है,जिसमें दास प्रथा उतनी ही आवश्यक थी,जितनी उसे सार्वत्रिक मान्यता प्राप्त थी।इसी अर्थ में हमें यह कहने का भी अधिकार है कि प्राचीन काल में दासप्रथा न होती तो आधुनिक काल में समाजवाद भी न होता।’

हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘मध्यकालीन बोध का स्वरुप’ में रेखांकित किया है कि नाट्य में वस्तु,नेता और रस को नाटक का आवश्यक अंग माना है, इसमें रस को ही प्रधानता दी गयी है। रस सिद्धि के लिए ही वस्तु और नेता की योजना की जाती है। रस आकाश में टिका नहीं रहता।उसके लिए ठोस आधार चाहिए।विभाव,अनुभाव और संचारी के संयोग से नेता या नायक के चित्त में रस का संचार होता है।बाद में अनेक आचार्यों ने इस बात पर विचार किया है कि रस की स्थिति वस्तुतः कहाँ होती है-कथा नायक में,अभिनेता में या दर्शक में। इस क्रम में उठी आलोचनाओं में यह मान लिया गया कि रसानुभूति में पाठक या श्रोता आवश्यक उपादान है।जोकि पहले नहीं था।

राममूर्ति त्रिपाठी के अनुसार भरत ने यह भी कहा कि नाट्यानुभूति का कोई स्वायत्त संसार नहीं होता।पर,अभिनवगुप्त ने ‘नाट्यानुभूति या काव्यानुभूति को सर्वथा स्वायत्त सिद्ध किया। सवाल यह है कि ऐसा परिवर्तन क्यों घटित हुआ ? इसकी प्रक्रिया क्या थी ? राममूर्ति त्रिपाठी ने लिखा है ‘काव्य या नाटक अपनी प्रस्तुति प्रक्रिया और परिणति में सर्वत्र,अर्जन,विसर्जन,प्रवण व्यावहारिक अनुभूति से सर्वथा भिन्न है।उनको व्यवहार तथा शास्त्रसिद्ध किसी भी अनुभूति के खाने में नहीं रखा जा सकता।भरत ने जहाँ रस को ‘आस्वाद्य’कहकर वस्तुगत कहा था,वहां अभिनव ने ‘आस्वादनात्मानुभवःरसःकाव्यार्थ इष्यते’ कहकर उसे आत्मगत बताया। सवाल उठता है जो वस्तुगत धारणा थी वह आत्मगत धारणा में रुपान्तरित कैसे हो गयी ? इसके पीछे कौन सा दार्शनिक मतवाद था,जो प्रेरक के रुप में काम कर रहा था।अभिनवगुप्त आदर्शवादी दार्शनिक नजरिए में विश्वास करते थे तथा कश्मीरी शैवागम के अद्वैतवादी प्रत्यभिज्ञा प्रस्थान के आचार्य थे।त्रिपाठी के अनुसार उन्होंने ‘वस्तुसत्ता एवं आत्मसत्ता में पृथकत्व को नहीं माना।’

श्रृंगार ही सर्वस्व है-

छठी शताब्दी के आसपास जब देश में सामंतवाद का आरंभ होता है तो उसके समानान्तर संस्कृत काव्यशास्त्र का भी उदय होता है।जिस समय इस आलोचना का जन्म होता है वह वस्तुतःसंस्कृत साहित्य का ह्रासकाल है।सामंतवाद के पहले चरण(300-650ईस्वी) की सामाजिक स्थिति का इतिहासकार रामशरण शर्मा ने ‘सामंतवाद’ में रेखांकित किया है , ‘सामंतवाद की कुछ मोटी-मोटी विशेषताएं गुप्तकाल और विशेषकर गुप्तोत्तर काल में दिखाई देने लगी थीं।वे विशेषताएँ इस प्रकार थीं-परती और आबाद दोनों ही तरह की जमीनें अनुदान में देना,अनुदान में दी गई भूमि के साथ-साथ किसानों का हस्तान्तरण,बेगारी प्रथा का प्रसार,किसानों,शिल्पियों और व्यापारियों के अपनी इच्छानुसार जहां चाहें वहाँ जाकर बसने पर रोक लगाना,मुद्रा का अभाव,व्यापार का ह्रास,राजस्व व्यवस्था तथा दंड प्रशासन का धार्मिक अनुदान भोगियों के हाथों सौंप दिया जाना,अधिकारियों को वेतन स्वरुप अलग क्षेत्रों के राजस्व सौंप देने की प्रवृत्ति का प्रारंभ,और सामंती दायित्वों का विकास।’ सामंतवाद के बाद के दौर में (750-1000ईस्वी) में इन सब बातों के अलावा जो चीजें सामने आती हैं वह है राजाओं और राज कर्मचारियों की उपाधियों का सामंतीकरण,राजधानियों में बहुधा परिवर्तन,पुराने गांवों का राजपूत परिवारो के बीच विभाजन आदि।

रामशरण शर्मा के अनुसार पूर्व-मध्यकालीन अर्थव्यवस्था में चार प्रमुख विशेषताएं दिखाई देती हैं। प्रथम,भूमि पर राजकीय तथा सामुदायिक स्वामित्व का ह्रास,व्यक्तिगत स्वामित्व का विकास,दूसरा,उपसामंतीकरण,बेदखली,नए-नए करों का आरोपण तथा बेगार के कारण किसानों की दशा का दासवत् होते जाना,तीसरे,व्यापार और शिल्प कारीगरी आदि से होने वाली आमदनी से कुछ लोगों की जागीर का बनना।चौथा,आत्मनिर्भर आर्थिक जीवन। यानी ग्रामीण लोगों के भूमि विषयक तथा सामुदायिक अधिकारों का ह्रास और उसके परिणाम स्वरुप निजी अधिकारों का विकास,शिल्प उद्योग तथा व्यापार का सामंतीकरण और मुद्रा का अभाव आदि।

राममूर्ति त्रिपाठी ने सवाल उठाया है कि कालिदास के कवित्व का उत्कर्ष श्रृंगार में है या करुण में ? फिर उन्होंने इस सवाल का जवाब भी दिया है और लिखा है कि वे श्रृंगार रस के रचयिता हैं। साथ ही उन्होंने बताया है कि ‘रस’ शब्द बिना किसी विशेषण की अपेक्षा रखे,सहज ही कोई अर्थ देता है तो वह है श्रृंगार। सवाल यह है कि आखिरकार श्रृंगार को ही रस का पर्याय क्यों बनाया गया ? इसके पीछे प्रमुख कारण तो ‘सहृदय युवक का रसिक और श्रृंगार प्रिय होना है’,प्रत्येक कवि अपनी वाणी को सरस बनाने के लिए ऐसे प्रयोगों की ओर अभिमुख हुआ जो श्रृंगार के द्योतक थे। दूसरा सवाल यह है कि श्रृंगार क्या है ? हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस सवाल के जवाब में ‘मध्यकालीन बोध का स्वरुप’ में लिखा है कि श्रृंग का अर्थ है मन्मथोद्भेद अर्थात् कामदेव नामक अशरीरी देवता का सक्रिय होना। श्रृंगार उस देवता की प्रभावशाली शक्ति को व्यक्त करने वाला रस ही है। भारतीय परंपरा में कामदेवताके दो रुप मिलते हैं एक रुप वैरागी का है तो दूसरा रुप भोगी का है,कालिदास के यहाँ दोनों रुप हैं, लेकिन उनको भोगी रुप ज्यादा पसंद है।कामदेवता के रुपायन के दो वैचारिक आयाम हैं,पहला है,सामाजिक, इस रस के अधिकांश भोक्ता वे हैं जो उस युग के अभिजन हुआ करते थे। श्रृंगार का भोगी रुप इन अभिजनो को ही सम्बोधित है।दूसरा, इसमें सामाजिक नियमों के अवहेलना की भावना भी निहित है। इसके विपरीत रस को लेकर दूसरी परंपरा वह है जिसे जनकवियो ने बनाया। इन कवियों ने ऱस और सरसता को हरि स्मरण के बहाने भगवान की ओर मोड़ दिया। दरबारी सभ्यता के असर के कारण साहित्य में लंबे समय तक पहले श्रृंगार रस प्रमुख रहा बाद में उसके अंग के रुप में वीर रस ने अपना प्रसार किया। अपभ्रंश और परवर्त्ती लोकभाषाओं की कविताओं में वीर रस की दर्पोक्तियां प्रायःप्रेमिका या वीर पत्नियों द्वारा करायी गयी हैं या फिर वीर रस की योजना अनूढ़ा रुपवती कन्याओं के हरण के लिए की गयी है।पृथ्वीराज रासो की अधिकतर लड़ाईयों के मूल में यही प्रेम है। इसके कारण संस्कृत साहित्य और समाज,संस्कृत रचनाकार और समाज,संस्कृत आलोचना और समाज के बीच में क्रमशः दूरी बढ़ती चली गयी। यही वजह है संस्कृत साहित्य से लेकर संस्कृत आलोचना तक कहीं पर सम-सामयिक ज्वलंत सामाजिक समस्याओं का कोई जिक्र नहीं मिलता।इससे साहित्य में रुपवादी दृष्टिकोण का पल्लवन हुआ।

राममूर्ति त्रिपाठी ने श्रृंगार बनाम करण रस की बहस में जो तर्क रखे वे बड़े ही दिलचस्प और एकांगी हैं। खासकर बाल्मीकि के संदर्भ में वे एकांगी हैं और समस्या के मूल सिरे से काफी दूर हैं। त्रिपाठी का मानना है आदिकाव्य ‘रामायण’ करुण रस की अपेक्षा क्रोध से सीधे उत्पन्न हुआ था। इस समूचे प्रसंग में पहली बात यह कि बाल्मीकि की रचना के उद्देश्य को नैतिकतावादी नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए और नहीं उसे रस विशेष के खाने में रखकर देखा जाना चाहिए। बाल्मीकि कृत ‘रामायण’ को लिखने के पीछे महत्तर साहित्यिक उद्देश्य था ,यह उद्देश्य क्या था ? इस सवाल का सही जवाब हजारीप्रसाद द्विवेदी ने खोजा है। ‘मध्यकालीन बोधका स्वरुप’ में द्विवेदीजी के अनुसार बाल्मीकि ने प्रथम अध्याय में नारद से पूछे गए प्रश्न में उन्होंने कहा कि वे महान और उदात्त चरित्र को अपनी रचना का विषय बनाना चाहते थे,वे किसी आदर्श व्यक्तित्व की तलाश में थे,जिसमें ‘समग्रालक्ष्मी‘ (संपूर्ण मनुष्य) का निवास हो।वे पूरे मनुष्य का चित्रण करना चाहते थे।ऐसा उदात्त व्यक्तित्व संपन्न मनुष्य जो विपत्ति में म्लान न हो,संपत्ति में इतरा न उठे,विजय दर्प में क्षमा करना न भूल जाय,शक्ति पाने पर विनम्र होने में न चूके,और जीवन के उपरले तल की सफलताओं से अभिभूत होकर जीवन के अतल गांभीर्य में बहने वाली चरितार्थता की धारा की उपेक्षा न कर बैठे।यही वह मूल उद्देश्य था। न कि करुण या वीर या श्रृंगार इत्यादि रस से प्रेरित होकर लिखना।अगर हम यदि करुण या क्रोध को बाल्मीकि की ‘रामायण’ का मूल प्रेरक तत्व मानेंगे तो नैतिकतावादी दृष्टिकोण के शिकार होकर रह जाएंगे।

हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार बाल्मीकि ने रस संचार को जीवन से जोड़ा,नायक की खोज की।नायक उनके यहाँ ‘नरचन्द्रमा’ है जिसमें मनुष्य की ‘समग्रालक्ष्मी‘ निवास करती है।बाल्मीकि पहले लेखक हैं जो नायक की खोज करते हैं।यही उनका प्रेरक है।संस्कृत साहित्य में छठवीं शताब्दी के बाद इस ‘संपूर्ण मनुष्य’ का लोप हो जाता है।रचना के स्तर पर ह्रासशील प्रवृत्तियों की शुरुआत होती है।आलोचना में रुपवादी अवधारणाओं की बाढ़ आ जाती है। संस्कृत साहित्य में मनुष्य के प्रति उपेक्षा भाव के कारण समाजरहित रस और आनंद की सृष्टि का जो सिलसिला आरंभ हुआ उसने नए किस्म के समाजरहित साहित्य, साहित्यबोध और आलोचनात्मक विवेक को जन्म दिया।फलतःसंस्कृत साहित्य का सामाजिक आधार संकुचित होने लगा। संस्कृत भाषा उच्चवर्ग की भाषा बनकर रह गयी।इसे शिक्षित लोग ही समझ पाते थे।इस भाषा में दी जाने वाली शिक्षा पर ब्राह्मणों का ही अधिकार था।इस भाषा में लिखे ग्रंथों के आधार पर उच्चवर्ग –उच्चवर्ण के लोगों में सांस्कृतिक एकीकरण की प्रक्रिया को संचालित करने में मदद मिली।इससे वर्गभेद और वर्ग-व्यवस्था को बनाए रखने में मदद मिली।आदिवासियों के संस्कृति,पूजा,व्रत-उपवास आदि के तौर-तरीकों से सवर्णों और अभिजनवर्ग को दूर रखने में मदद मिली।समाज और साहित्य में वर्ग संरचनाओं और वर्गभेद का तेजी से विकास हुआ।

बाल्मीकि के यहां मनुष्य की ‘समग्रालक्ष्मी’ और प्रकृति की ‘समग्रालक्ष्मी’ का सम्मिश्रित रुप देखने को मिलता है।इसी के गर्भ से नए रस का जन्म हुआ। इसके पहले एक ही रस की चर्चा मिलती है।लेखक जब एक ही रस को केन्द्र में रखकर लिखते थे तब रचना के केन्द्र में संपूर्ण मनुष्य नहीं था।द्विवेदीजी के अनुसार यह समग्र मनुष्य का ऐसा उद्बोध नहीं है जो उदात्त रुप में समाज का प्रतिनिधित्व करता हो और उसका उन्नयन करता हो।उसमें मनुष्य द्वारा उद्भावित शास्त्रज्ञान प्रमुख स्थान ग्रहण करता चला गया और ‘भावविशेष’ की प्रबलता जीवन के विविध क्षेत्रों को अभिभूत कर लेती है।यद्यपि इस भाव विशेष की पुष्टि को ब्रह्मानंद सहोदर कहा गया।पर,परब्रह्म के उस रुप की जो प्रकृति और जगत के अनेक तत्वों में अद्वय तत्व खोजने की धारणा को जिससे रस बनता है,भुला दिया गया।कालिदास तक यह भुलाया नहीं गया था,पर बाद में भुला दिया गया।कालान्तर में ‘ब्रह्म’ ही प्रमुख हो गया तथा मनुष्य उपेक्षित। साहित्य के क्षेत्र में मनुष्य के प्रति उपेक्षा भाव ने एक ऐसे साहित्य के जन्म को संभव बनाया ,जिसमें जीवन की समस्याओं एवं स्पन्दन की गूंज दिखाई नहीं देती,पर,मानवीय जीवन के उदात्त मूल्यों का रुपायन मिलता है।समाज से बेखबर संस्कृत कारचनाकार लगातार अपनी रचनाओं में आनंद एवं रस की सृष्टि करता रहा,पर,इस सृष्टि का अभिजात्यवर्गीय सौन्दर्याभिरुचि के साथ संबंध था। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें संस्कृत काव्यशास्त्र का आरंभ हुआ। इसी प्रसंग ये सवाल भी उठे हैं कि रचनाकार और आलोचक किस तरह के मनुष्य को सम्बोधित करके लिख रहा है ? तथा साहित्य में किस तरह के मनुष्य की स्थापना करना चाहता है ? रचनाकार का लक्ष्य क्या है ? अपने अभीप्सित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए रचनाकार कहीं समाज से दूर तो नहीं जा रहा ? भरत की धारणाओं और छठवीं शताब्दी से आए संस्कृत काव्यशास्त्र की धारणाओं में रस क्या है ? ‘समग्रालक्ष्मी’ का ह्रास क्यों और कैसे हुआ? आदि सवालों के उत्तर हमें खोजने चाहिए।













1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और दादा साहेब फाल्के में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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