जुनैद मारा जाए या अखलाक मारा जाए,एक वर्ग ऐसा है जो इन सब हत्याओं से बेखबर-निश्चिंत है।उनके तर्क सुनेंगे तो गुस्सा आने लगेगा।वहीं दूसरी ओर आरएसएस वालों के तर्क सुनेंगे तो वे पलटकर कहेंगे आप इस समय बोल रहे हैं, मुसलमान मारे जा रहे हैं तब क्यों नहीं बोल रहे थे, फलां-फलां समय फलां –फलां मारा गया तब आप चुप क्यों थे, आपने हल्ला क्यों नहीं किया।आप उनको कहेंगे कि देखिए यह पैटर्न है हत्या का ,और अब तक 22 मुसलमान मौत के घाट उतारे जा चुके हैं, तो वे कहेंगे हम इसमें क्या करें,हत्या हुई है तो कानून अपना काम करेगा,कानून को काम करने दें।कानूनी तंत्र जो कहे और जो करे उसकी मानें।आप ज्यादा बोलेंगे तो वे एक लंबी फेहरिश्त बताने लगते हैं और कहते हैं सैंकड़ों सालों से मुसलमानों ने हिन्दुओं को मारा है उस समय के बारे में कुछ क्यों नहीं बोलते।
कहने का आशय यह कि साम्प्रदायिक हिंसा की जब भी कोई घटना होती है और आप संवाद करना चाहें तो साम्प्रदायिक लोग बहस को अतीत में ले जाते हैं, गैर-जरूरी ,अप्रासंगिक मसलों की ओर ले जाते हैं।इस क्रम में वे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं,बार-बार वैज्ञानिक समझ और नजरिए को निशाना बनाते हैं,कम्युनिस्टों पर हमले करते हैं।
असल में साम्प्रदायिकता की बुनियादी लड़ाई मुसलमान या ईसाईयों से नहीं है बल्कि प्रगति की अवधारणा से है। वे प्रगति को सहन नहीं कर पाते। विचारों से लेकर जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रगति को वे सहन नहीं कर पाते। यह सच है विगत 70साल में देश में प्रगति हुई है। अनेक कमियों के बावजूद प्रगति हुई है और यही प्रगति असल में आरएसएस जैसे साम्प्रदायिक संगठनों के निशाने पर है।
हममें से अधिकतर लोग हिन्दुत्व की विचारधारा को शाकाहारी विचारधारा के रुप में देखते हैं। लेकिन व्यवहार में साम्प्रदायिकता या हिंदुत्व एकदम नॉनवेज विचारधारा नहीं है,बिना हिंसा के इसे चैन नहीं मिलता।सतह पर हिन्दुत्ववादी विचार बड़ा भोला-सीधा लगता है लेकिन आचरण में पूरी तरह अविवेकवादी है।समाज में अविवेकवादी होना पशुता की निशानी है लेकिन हमने कभी इस रुप में देखने की कोशिश ही नहीं की।
दिलचस्प बात यह है कि कारपोरेट घरानों या बुर्जुआजीके प्रति आम जनता में जितना गुस्सा बढ़ता है ठीक उसके समानांतर आरएसएस जैसे संगठन आक्रामक रुप में खड़े हो जाते हैं।बुर्जुआजी जब बेचैन,निराश और पराजय के दौर से गुजरता है तब ही आरएसएस जैसे संगठन प्रगतिशील विचारों,मजदूरों-किसानों के हितों पर हमला बोलते हैं,इसी अर्थ में मैंने कहा था कि संघ को प्रगति से नफरत है। वे मुसलमान से नफरत नहीं करते वे प्रगति और प्रगतिशील विचारधारा और प्रगतिशील वर्गों से नफरत करते हैं और कारपोरेट घरानों की वैचारिक-राजनीतिक सेवा करते हैं।
नव्य आर्थिक उदारीकरण के खिलाफ सारे देश में जिस समय सबसे ज्यादा गुस्सा था,मनमोहन सिंह के खिलाफ देश में आंधी चल रही थी,कारपोरेट घराने और उनके विचारक जनता में अलग-थलग पड़ चुके थे ठीक उसी समय सांड की तरह आरएसएस सामने आता है और सभी किस्म के प्रगतिशील विचारों को पहला और आखिरी निशाना बनाता है और यही वह चीज है जो गंभीरता से समझने की जरूरत है।सवाल यह है आरएसएस इतना ताकतवर क्यों बना ॽ उसके कामकाज और राजनैतिक एक्शन किसकी वैचारिक मदद करते हैं ॽ
हम सब लगातार समाज में विवेकवाद का प्रचार प्रसार कर रहे हैं और चाहते हैं कि विवेकवाद को आम जनता के आम-फहम विचार की तरह पेश किया जाए,यह चीज बुर्जुआजी को नापसंद है और यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां पर आरएसएस हमला करता है,आरएसएस के हमलों की धुरी है अविवेकवाद। इस तथ्य की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। आरएसएस को यदि किसी चीज की जरूरत है तो वह है अविवेकवाद।वे अपनी सांगठनिक और वैचारिक क्षमता के विकास और विस्तार के लिए अविवेकवाद का बहुआयामी इस्तेमाल करते हैं।आज देश के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि देश को अविवेकवाद की आंधी से कैसे बचाएं।
कहने का आशय यह कि साम्प्रदायिक हिंसा की जब भी कोई घटना होती है और आप संवाद करना चाहें तो साम्प्रदायिक लोग बहस को अतीत में ले जाते हैं, गैर-जरूरी ,अप्रासंगिक मसलों की ओर ले जाते हैं।इस क्रम में वे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं,बार-बार वैज्ञानिक समझ और नजरिए को निशाना बनाते हैं,कम्युनिस्टों पर हमले करते हैं।
असल में साम्प्रदायिकता की बुनियादी लड़ाई मुसलमान या ईसाईयों से नहीं है बल्कि प्रगति की अवधारणा से है। वे प्रगति को सहन नहीं कर पाते। विचारों से लेकर जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रगति को वे सहन नहीं कर पाते। यह सच है विगत 70साल में देश में प्रगति हुई है। अनेक कमियों के बावजूद प्रगति हुई है और यही प्रगति असल में आरएसएस जैसे साम्प्रदायिक संगठनों के निशाने पर है।
हममें से अधिकतर लोग हिन्दुत्व की विचारधारा को शाकाहारी विचारधारा के रुप में देखते हैं। लेकिन व्यवहार में साम्प्रदायिकता या हिंदुत्व एकदम नॉनवेज विचारधारा नहीं है,बिना हिंसा के इसे चैन नहीं मिलता।सतह पर हिन्दुत्ववादी विचार बड़ा भोला-सीधा लगता है लेकिन आचरण में पूरी तरह अविवेकवादी है।समाज में अविवेकवादी होना पशुता की निशानी है लेकिन हमने कभी इस रुप में देखने की कोशिश ही नहीं की।
दिलचस्प बात यह है कि कारपोरेट घरानों या बुर्जुआजीके प्रति आम जनता में जितना गुस्सा बढ़ता है ठीक उसके समानांतर आरएसएस जैसे संगठन आक्रामक रुप में खड़े हो जाते हैं।बुर्जुआजी जब बेचैन,निराश और पराजय के दौर से गुजरता है तब ही आरएसएस जैसे संगठन प्रगतिशील विचारों,मजदूरों-किसानों के हितों पर हमला बोलते हैं,इसी अर्थ में मैंने कहा था कि संघ को प्रगति से नफरत है। वे मुसलमान से नफरत नहीं करते वे प्रगति और प्रगतिशील विचारधारा और प्रगतिशील वर्गों से नफरत करते हैं और कारपोरेट घरानों की वैचारिक-राजनीतिक सेवा करते हैं।
नव्य आर्थिक उदारीकरण के खिलाफ सारे देश में जिस समय सबसे ज्यादा गुस्सा था,मनमोहन सिंह के खिलाफ देश में आंधी चल रही थी,कारपोरेट घराने और उनके विचारक जनता में अलग-थलग पड़ चुके थे ठीक उसी समय सांड की तरह आरएसएस सामने आता है और सभी किस्म के प्रगतिशील विचारों को पहला और आखिरी निशाना बनाता है और यही वह चीज है जो गंभीरता से समझने की जरूरत है।सवाल यह है आरएसएस इतना ताकतवर क्यों बना ॽ उसके कामकाज और राजनैतिक एक्शन किसकी वैचारिक मदद करते हैं ॽ
हम सब लगातार समाज में विवेकवाद का प्रचार प्रसार कर रहे हैं और चाहते हैं कि विवेकवाद को आम जनता के आम-फहम विचार की तरह पेश किया जाए,यह चीज बुर्जुआजी को नापसंद है और यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां पर आरएसएस हमला करता है,आरएसएस के हमलों की धुरी है अविवेकवाद। इस तथ्य की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। आरएसएस को यदि किसी चीज की जरूरत है तो वह है अविवेकवाद।वे अपनी सांगठनिक और वैचारिक क्षमता के विकास और विस्तार के लिए अविवेकवाद का बहुआयामी इस्तेमाल करते हैं।आज देश के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि देश को अविवेकवाद की आंधी से कैसे बचाएं।
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