गांधीजी के ‘सत्याग्रह’ का उनके व्यक्तित्व
विकास और सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रियाओं के साथ गहरा संबंध है। ‘सत्याग्रह’ का
विचार अचानक पैदा नहीं हुआ,बल्कि उसके पीछे सुचिंतित आंदोलन और सही राजनीतिक
परिप्रेक्ष्य है। दक्षिण अफ्रीका में ‘सत्याग्रह’ की नींव पड़ी, गांधीजी 18जुलाई
1914 तक अफ्रीका में विभिन्न आंदोलनों का नेतृत्व करते हैं और वहां रहने वाले
भारतीय व्यापारियों ,गिरमिटिया मजदूरों और खान मजदूरों को एकजुट करते हैं,उनके
हकों और नस्लवादी भेदभाव के खिलाफ संघर्ष करते हैं।
उल्लेखनीय है
गांधीजी का जन्म प्रतिष्ठित कुलीन परिवार में हुआ था। पारिवारिक परिवेश पूरी तरह
परंपरागत हिन्दू परिवारों की तरह था। परिवार की तमाम बुराईयों से लड़ते हुए
उन्होंने पिता की सत्यनिष्ठा और न्यायप्रियता और माँ की व्रतनिष्ठा को अपने जीवन
का सबसे बड़ा अस्त्र बनाया। गांधीजी के पिता कबा गांधी थे,उन्होंने अपनी आत्मकथा
में लिखा है ‘‘कबा गांधी के भी एक के बाद एक यों चार विवाह हुए थे। पहले दो से दो
कन्याएँ थीं; अंतिम पत्नी पुतलीबाई से एक कन्या
और तीन पुत्र थे। उनमें से अंतिम मैं हूँ।
पिता
कुटुंब-प्रेमी, सत्यप्रिय, शूर, उदार किंतु क्रोधी थे। थोड़े
विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका आखिरी ब्याह चालीसवें साल के बाद हुआ था। हमारे
परिवार में और बाहर भी उनके विषय में यह धारणा थी कि वे रिश्वतखोरी से दूर भागते
हैं और इसलिए शुद्ध न्याय करते है। राज्य के प्रति वे वफादार थे।’’
गाँधीजी की माँ का नाम पुतलीबाई था। उनके बारे में गांधीजी
ने लिखा है, ‘‘मेरे मन पर यह छाप रही है कि माता
साध्वी स्त्री थीं। वे बहुत श्रद्धालु थीं। बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न करतीं।
हमेशा हवेली (वैष्णव-मंदिर) जातीं। जब से मैंने होश सँभाला तब से मुझे याद नहीं
पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास का व्रत तोड़ा हो। वे कठिन से कठिन व्रत शुरू
करतीं और उन्हें निर्विघ्न पूरा करतीं। लिए हुए व्रतों को बीमार होने पर भी कभी न
छोड़तीं।’’[i]
सामान्यतौर पर
किसी भी व्यक्ति के वैचारिक स्वरूप को जानने के लिए उसके बचपन को जानना बेहद जरूरी
है।बचपन में वह जिन लोगों के इर्दगिर्द रहता है,जिस तरह के परिवारीजनों के बीच में
बच्चा बड़ा होता है उसके मन और मूल्यों की कच्ची सामग्री उसी परिवेश में से ही
चुनता है।गांधीजी ने सत्य,न्यायप्रियता और व्रत ये तीनों चीजें अपने माता-पिता से
ग्रहण कीं और उनको अपने जीवन-संग्राम का प्रमुख अस्त्र बनाया।दूसरी एक अन्य
महत्वपूर्ण बात यह कि उनके व्यक्तित्व में पारदर्शिता और आलोचनात्मक दृष्टि
है। वे चीजों को छिपाते नहीं थे, जो महसूस
करते थे उसको बेधड़क बोलते हैं। इन चीजों को आत्मकथा में साफतौर पर देखा जा सकता
है।उनके पूरे नजरिए की धुरी है सत्य,वे हर चीज,घटना,विवाद,वैचारिक संघर्ष को सत्य
की कसौटी पर कसते हैं और सत्य को किताबों में व्यक्त विचारों में नहीं खोजते बल्कि
सामाजिक जीवन के अनुभवों में जाकर खोजते हैं। गांधीजी के लिए सत्य के अलावा जो चीज
सबसे मूल्यवान है वह जीवनानुभव। जीवनानुभव में जो चीज खरी है वही सत्य है, जीवनानुभव
बदलते गए फलतः उनका सत्य और विचार भी बदलते गए। फलतः उनका अपने जीवन,सत्ता,राजनीति
और अतीत के प्रति भी नजरिया बदलता गया। इसके अलावा गांधीजी के यहां ‘संवाद’ प्रमुख
है।
गांधीजी जब लिखते हैं,पत्राचार करते हैं,बोलते हैं,प्रवचन
देते हैं, भाषण देते हैं उसमें ‘जीवनानुभव’ और ‘संवाद’ इन दो तत्वों का केन्द्रीय
उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। ये
दोनों पूरी तरह भारतीय तत्व हैं जिनको वे अपने तरीके से अफ्रीका में भारतीयों के
हकों की रक्षा के संघर्ष,आधुनिक भारत के निर्माण के सपनों के साथ अंतर्गृथित करके
पेश करते हैं।
गांधीजी के
विचारों का फलक बहुत बड़ा है,वे जितने व्यापक फलक पर रखकर देखते हैं, उनको पढ़ने
के लिए उसी तरह के व्यापक फलक और इतिहासबोध की जरूरत है। सतह पर उनके विचारों
टुकड़ों में व्यक्त हुए हैं, उन्होंने सुव्यवस्थित तौर पर बहुत कम किताबें लिखी
हैं लेकिन जितने वायापक स्तर पर उन्होंने ‘संवाद’ किया है वह अपने आपमें बेहद
मूल्यवान है।सतह पर उसमें सुंसगतता और अंतर्विरोध भी ढूंढकर निकाले जा सकते हैं,इस
तरहकी पद्धति से गांधी कभी समझ में नहीं आ सकते,गांधीजी के नजरिए को समझने के लिए ‘समग्रता’
या टोटेलिटी की धारणा को लागू करने की जरूरत है। उनको समग्रदृष्टिबोध के बिना सही
परिप्रेक्ष्य में पढ़ा ही नहीं जा सकता।जीवतराम भगवानदास कृपलानी ने लिखा है ‘‘
गाँधीजी मानव-जीवन को उसके अलग-अलग पहलुओं में देखने की बजाय उसके समग्र रूप में
लेते थे,क्योंकि उनका विश्वास था कि वह विभक्त नहीं अखण्ड है। उनकी मान्यता के
अनुसार उसे धार्मिक,राजनीतिक, आर्थिक,सामाजिक,व्यक्तिगत और सामूहिक इस तरह के
बिलकुल अलग-अलग दीखनेवाले ये रूप मानव-जीवन के अलग-अलग पहलुओं के सिवा और कुछ नहीं
हैं।’’[ii]
गांधी अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए दूसरों के उदाहरण देने की बजाय
अपने निजी उदाहरण ज्यादा देते हैं।चूँकि वे अपने अनुभव की रोशनी में चीजों देखते
हैं फलतः उनकी समस्त चिन्ताओं और विचारों में आसानी से अन्तर्विरोध मिल जाते हैं
लेकिन यदि गांधीजी के समग्र विचारधारात्मक नजरिए और उनके बुनियादी जीवन लक्ष्यों
को केन्द्र में रखें तो बोगस अंतर्विरोधों से बचा जा सकता है।
कृपलानी ने लिखा
‘‘गांधीजी ने तर्क और गणित के आधार पर तैयार किया गया ऐसा कोई सिद्धान्त प्रस्तुत
नहीं किया... गांधीजी इतनी द्रुतगति से विचार करते थे कि तर्क को श्रृंखलाबद्ध करनेवाली
बीच की नेक कड़ियों को जोड़ने का उन्हें ध्यान ही नहीं रहता था। इन कड़ियो को उनकी
जगह बिठाने का काम तो उन विचारों को कार्यान्वित करनेवाले कार्यकर्ताओं या उनका
सैद्धांतिक अध्ययन-विवेचन करने वाले व्यक्तियों को ही करना पड़ता था,जो अपनी बुद्
तथा अपने पर्यवेक्षण और अनुभव से ऐसा करते थे।’’[iii]
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