गांधीजी के विचारों के उस ऐतिहासिक संदर्भ को भी ध्यान में
रखना जरूरी है जिसमें उनके विचारों का जन्म और विकास हुआ।यह भी जानना जरूरी है कि
उस ऐतिहासिक दौर के प्रमुख सामाजिक-वैचारिक फिनोमिना कौन से थे जिनसे मुठभेड़ करते
हुए उनके विचारों का जन्म हुआ। यह वह दौर है जिसमें औपनिवेशिख शोषण चरम पर था,
इसके कारण दो-दो विश्वयुद्ध हुए, विभिन्न देशों में फासिस्ट शासक पैदा हुए ,अंत
में सारी दुनिया पर फासिज्म का खतरा छा गया। इस दौर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें व्यापक
स्तर पर तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया,थोथी और अर्थहीन वक्तृत्वकला का विकास हुआ,सत्य
और तथ्यों को बड़े पैमाने पर विकृत किया गया। हर स्तर पर शासकों और उनके पक्षधरों
ने वैज्ञानिक और सत्यनिष्ठ नजरिए की जमकर मुखालफत की।प्रगति के देशज रूपों को
अस्वीकार करते हुए पूंजीवादी विकास के विध्वंसक और एकाधिकारवादी मार्ग का अनुसरण
किया।साथ ही बड़े पर पैमाने पर अविवेकवादी
दर्शन और अविवेकवादी सांस्कृतिक-राजनीतिक विचारों के प्रचार-प्रसार और उत्पादन पर
जोर दिया । भारत की परंपरा,इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन,साहित्य आदि के बारे में
अविवेकवादी विचारों और प्रचार की बाढ़ आ गयी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उनके
थिंकरों ने जहां एक ओर अविवेकवाद पर जोर दिया वहीं भारत की एकदम विकृत इमेज सारी
दुनिया के सामने पेश की। अविवेकवाद और विकृत भारत की इमेज के अनुरूप
अंतर्वस्तु,फॉर्म,मैथड,स्वर और भाषा का निर्माण किया।इसके आधार पर बड़े पैमाने पर
विभिन्न स्तरों पर भारत का विभाजन किया,इसमें उनको काफी हद तक सफलता मिली। मसलन्,
भाषा और साहित्य को धर्म से जोड़कर पेश किया, जातियों और धर्मों में भेद और विभाजन
पर जोर दिया गया।इसने नए किस्म के सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनीतिक अंतर्विरोधों को
जन्म दिया। इस काम में जहां एक ओर प्राच्यविदों ने भूमिका अदा की वहीं दूसरी ओर
फोर्ड विलियम कॉलेज से लेकर हरेक जिले के कलेक्टर ने भूमिका अदा की। फलतः19वीं और
बीसवीं सदी में अविवेकवाद का एक बड़े फिनोमिना के रूप में प्रचार-प्रसार हुआ। उससे बड़े पैमाने पर नवोदित मध्यवर्ग प्रभावित
हुआ। उनमें जाति,नस्ल,धर्म आदि के आधार पर श्रेष्ठता के सिद्धांतों का प्रचार किया
गया। कहने का आशय यह कि अविवेकवाद इस दौर का सबसे बड़ा फिनोमिना है जिसने समाज के
हरेक स्तर के लोगों को प्रभावित किया। दूसरा बड़ा फिनोमिना है,असत्य , असत्य का
जितने बड़े पैमाने पर उत्पादन और पुनर्रूत्पादन इस दौर में हुआ वैसा भारत के
इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया। इस काम में सत्ता से जुड़े लोगों,शिक्षा और
प्रेस ने बड़ी भूमिका अदा की ।असल में यही लोग ब्रिटिश शासन के पक्ष में राय बनाने
वाले ओपिनियन मेकर भी हैं। यही वह विशेष संदर्भ है जिसमें महात्मा गांधी का भारत
की राजनीति में सन् 1917 में चम्पारण में प्रवेश होता है।इसके अलावा अंग्रेजों ने
भारत के लोगों को ‘ बर्बर’ और ‘ जंगली’ की पहचान दी। इसका प्रत्युत्तर देते हुए
भारत को सत्य और अहिंसा के प्रतीक राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया।
महात्मा गांधी पर
तीन लेखकों का गहरा असर था। सितंबर1928 में तोलस्तोय शताब्दी समारोह के अवसर पर
स्वयं गांधीजी ने इन तीन लेखकों के प्रभाव को स्वीकार किया। ये तीन लेखक थे
गुजराती के वैष्णव कवि राजचंद्र,जो गांधीजी के समकालीन थे।दूसरे तोलस्तोय और तीसरे
अंग्रेजी लेखक रस्किन।[i]
सत्याग्रह –
गांधीजी के ‘सत्याग्रह’ की खूबी है कि वह
घटनाक्रम के रूप में सामने आता है,वह मात्र विचार के रूप में सामने नहीं
आता.प्रसिद्ध मार्क्सवादी दार्शनिक एलेन बोदिओ के नजरिए से इसे ‘ सत्य-घटनाक्रम’
कहना समीचीन होगा। सारी दुनिया में जिस तरह सत्याग्रह के लिए महात्मा गांधी का नाम
लिया जाता है वैसे ही ‘सत्य-घटनाक्रम’ की सैद्धान्तिकी के लिए एलेन बोदिओ का नाम
लिया जाता है। ‘सत्याग्रह’ में एक ओर व्यक्ति है और दूसरी ओर घटनाक्रम है,इन दोनों
के बीच अंतराल है,इस अंतराल को अनुभवों के आधार पर भरने की कोशिश की जाती है। यहां
व्यक्ति को व्यक्ति की तरह देखने पर मुख्य जोर है। व्यक्ति से इतर उसकी
जाति,धर्म,सम्प्रदाय,नस्ल,गोत्र आदिकी पहचान को गांधी नहीं मानते। गांधीजी जिस
व्यक्ति की परिकल्पना पेश करते हैं वह सकारात्मक सोच और बोध वाला व्यक्ति है, यह
ऐसा व्यक्ति है जो अधिक से अधिक त्रानार्जन करना चाहता हैंहै। गांधी अपने अनुभवों को हमेशा वर्तमान के
संदर्भ में पेश करते हैं। वर्तमान उनके लिए प्राथमिक है,महत्वपूर्ण है। विभिन्न
जनांदोलनों और स्वाधीनता आंदोलनों के दौरान अपनी समस्त अभिव्यक्तियों के केन्द्र
में जनता को रखते हैं, वे यह भी विश्वास करते हैं कि वे जनता के सत्य को जानते
हैं। वे अपनी राजनीतिक पहलकदमी और हस्तक्षेप के जरिए आम आदमी को अपने सत्य के
दायरे में आकर्षित करने में सफल होते हैं। वे सत्य की कोई सुसंगत सैद्धांतिकी या
प्रणाली प्रस्तुत नहीं करते,बल्कि वे सारे विश्व को संबोधित करते हुए बोलते हैं।
वे जब अफ्रीका या भारत में आंदोलन करते हैं तो उनके सम्बोधन के केन्द्र में
स्थानीय जनता नहीं होती बल्कि विश्व जनमत को सम्बोधित करते हैं। यही वजह है कि वे
सत्याग्रह और उससे जुड़े विभिन्न आंदोलनों के प्रति सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित
करने में सफल हो जाते हैं।गांधीजी अपनी अभिव्यक्ति के क्रम में स्वयं से और विश्व
से संवाद करते हैं और इस क्रम में स्वयं में और सम्बोधित जगत में परिवर्तन के बीज
बोने में सफल हो जाते हैं।
गांधीजी के ‘सत्याग्रह’
की केन्द्रीय विशेषता है कि वे किसी घटना विशेष पर केन्द्रित सत्याग्रह आंदोलन के
जरिए सिर्फ एक अर्थ की सृष्टि नहीं करते बल्कि एकाधिक अर्थ की सृष्टि करते हैं।
गांधी इन एकाधिक अर्थों की एभी तक हमने मीमांसा नहीं की है। गांधीजी जब किसी घटना
या विषय को केन्द्र में रखकर आंदोलन शुरू करते हैं तो उसके अनुकूल ‘परिस्थितियों’
को बी निर्मित करते हैं। दिलचस्प है कि उनको कहीं पर ‘ परिस्थितियां’ बनी बनायी
नहीं मिलतीं,दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक उन्होंने सत्याग्रह के नाम पर जितने
भी आंदोलन आरंभ किए उनकी‘ परिस्थितियों को भी गांधीजी ने बनाया। मसलन् , वे जब किसी
आंदोलन के लिए‘ परिस्थिति’ बनाते हैं तो उनको ‘ एक विचार विशेष’ में बांधकरपेश करते हैं।
मसलन्,
दक्षिण अफ्रीका में वे जब सत्याग्रह आरंभ करते हैं तो उसके लिए पहले परिस्थितियां
बनाते हैं उसके बाद उसे ‘ नस्लवादी भेदभाव’
के विचार के परिप्रेक्ष्य में रखकर पेश करते हैं। इस क्रम में जनता के विभिन्न
स्थानीय समूहों और वर्गों को प्रतीत्मक तौर पर उभारते हैं। ये समूह ही व्यक्तियों
के रूप में सामने आते हैं।इस क्रम में ‘ व्यक्ति’ और जनता के समूह की दोहरी इमेज
सृजित करते हैं। वे अपने आंदोलन के लिए स्थानीय परिस्थितियां पैदा करने के साथ ही
साथ उसे सत्याग्रह और राजनीतिक स्वतंत्रता की महा-राजनीति से जोड़ते हैं। ऊपरसे यह
सब एक ही प्रतीत होते हैं। उनके आदोलन के केन्द्र में ‘राजसत्ता’ रहती है या फिर ‘
राजसत्ता की चीजें’ रहती हैं। जब वे ‘ राजसत्ता’ को आंदोलन का अंग बनाते हैं तो
फिर राजसत्ता के नजरिए से समाज को भी देखते हैं,उन तमाम चीजों,वस्तुओं और घटनाओं
को देखते हैं जिनका राजसत्ता से संबंध है । मसलन् वे जब दक्षिण अफ्रीका में आंदोलन
करते हैं तो वहां के समाज को दक्षिण अफ्रीकाके रंगभेदीय शासन के प्रतिबिम्ब के रूप
में देखते हैं, यही स्थिति उनके नजरिए में भारत में अभिव्यक्त होती है। फलतः वे
परिस्थितियों,समाज,आंदोलन और राजसत्ता को एक ही धागे में पिरोने में सफल हो जाते
हैं। वे राजसत्ता की परिस्थितियों के आईने में सब चीजों को पेश करने में सफल हो
जाते हैं। इस तरह वे संरचना के साथ महा-संरचना की सृष्टि करने में सफल हो जाते
हैं। गांधी के समाज में फलतः दो तरह के समाज अंतर्गृथित भाव से चले आते हैं, एक
समाज वह है जो राजसत्ता से प्रभावित है और दूसरा समाज वह है जो राजसत्ता से
प्रभावित है और उसके खिलाफ संघर्ष कर रहा है। कहने के लिए राजसत्ता का चरित्र समाज
में प्रतिबिम्बित नजर आता है लेकिन जब गांधीजी आंदोलन के जरिए हस्तक्षेप करते
हैं,सत्याग्रह करते हैं तो एक नए आंदोलनकारी समाज के दर्शन होते हैं।
गांधीजी के
सत्याग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी उसने साधारण जनता में प्रतिवाद की चेतना
पैदा की, भारत जैसे पिछड़े समाज में व्यापक स्तर पर साधारण जनता में प्रतिवादी
चेतना पैदा करना, साधारणजनों को आंदोलन की महत्ता और अर्थवत्ता समझाना साधारण बात
नहीं है। उस दौर में भारतीय जनता की मनोदशा प्रतिवाद की नहीं थी। प्रतिवाद के रूप
थोड़े से मध्यवर्ग के शिक्षित लोगों तक ही सीमित थे। आम जनता प्रतिवाद करे, हिंसा
न करें।धैर्य के साथ आंदोलन करे,यह नई चेतना थी। इसने जहां एक ओर आम जनता को संगठन
बनाने और सामूहिकतौर पर मांगपत्र देने और अपनी मांगों के लिए प्रचार करके दवाब
पैदा करने की चेतना दी वहीं दूसरी ओर सामाजिक परिवर्तन संभव है,यह विवेक भी पैदा
किया। समाज शाश्वत है, अपरिवर्तनीय,ईश्वर की अचल सृष्टि है, आदि मिथों के बाहर
निकालने में मदद की। इस प्रक्रिया में आम जनता में सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनोंको
लेकर जागरूकता आई,ज्ञान पाने कीललक पैदा हुई।
गांधी के
सत्याग्रह की केन्द्रीय विशेषता यह है कि वह हमेशा दमित सत्य को बाहर लाता है। वह
उन परिस्थितियों को सामने लाता है जिनका पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है। गांधीजी
जब भी कोई आंदोलन करते हैं तो शासकवर्ग हमेशा सत्य को छिपाता या दबाता नजर आता है।
इसके अलावा ’सत्य’ हमेशा स्थानीय रूप में सामने आता है।इसलिए सत्य और स्थानीयता का
नया अन्तस्संबंध विकसित होता है। सत्य
हमेशा घटना के साथ विशिष्ट परिस्थितियों के साथ दाखिल होता है। इसके विपरीत
शासकवर्ग हमेशा असत्य का सहारा लेते हैं,असत्य के जरिए आंदोलन का दमन करने की
कोशिश करते हैं। इसके विपरीत गांधीजी सत्याग्रह के बहाने सत्य को अटल बनाए रखते
हैं। गांधीजी के सत्याग्रह की मुश्किल यह थी कि यह पूरी तरह गांधीजी के मूड़ और
इच्छाशक्ति पर निर्भर था, वे जिस रूप में और जब तक चाहते आंदोलन करते थे।वे अपनी
सब्जेक्टिव अनुभूतियों से अनेकबार आंदोलन की दिशा और दशा भी तय करते हैं। लेकिन
सत्य की मुश्किल यह है कि वह किसी व्यक्ति या आंदोलन विशेष तक सीमित नहीं रहता, वह
किसी व्यक्ति के मूड पर आश्रित नहीं है बल्कि सत्य में तो रूपान्तरण की प्रवृत्ति
होती है। वह हमेशा परिवर्तन के रूप में काम करता है। सत्य-घटनाक्रम की सैद्धांतिकी
की रोशनी में यददि गांधीजीके सत्याग्रह आंदोलनों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि वे
जबभी किसी मुद्दे को उठाते हैं तो सतह पर स्थानीय लगता है ,छोटी सी परेशानी का
कारक लगता है लेकिन वास्तव रूप में वह राष्ट्रीय घटना बन जाता है। गांधीबोध को
राष्ट्रीयबोध में रूपान्तरित करता है। सत्याग्रह आंदोलनों के जरिए गांधीजी सतह पर
स्थानीय समस्या के लिए संघ्ष करते नजर आते हैं लेकिन असल में वे राष्ट्रीय
स्वाधीनता और राजनीतिक स्वाधीनता का महा-आख्यान रचते नजर आते हैं। फलतःउनके सत्य
में से एकाधिक सत्य व्यक्त होते हैं। यह भीकह सकते हैं कि गांधीजी सत्याग्रहको
राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्ति के संघर्ष के संसाधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
इस प्रसंग में यह रेखांकितकरना जरूरी है कि गांधीजी के लिए सत्य का प्रभाव
महत्वपूर्ण नहीं था ,उनके महत्वपूर्ण था सत्य का संसाधन और राजनीतिक शक्ति के रूप
में विकास।वे सत्याग्रह आंदोलनों के जरिएसामाजिक परिस्थितियों,राजनीतिक माहौल और
आम जनता की चेतना को बदलने का काम करते हैं लेकिन यह सब संसाधन हैं उनके राजनीतिक
स्वाधीनता संग्राम के।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें