पहला सवाल यह उठता है कि गांधीजी को ‘सत्याग्रह’ की जरूरत क्यों पड़ी ॽ दूसरा
सवाल यह कि क्या मौजूदा दौर में ‘ सत्याग्रह’ प्रासंगिक है ॽ क्या सत्याग्रह का
मौजूदा दौर में मानवाधिकारों की रक्षा और विस्तार के संघर्ष के साथ कोई संबंध है ॽ
गांधीजी के ‘ सत्याग्रह’ का ऐतिहासिक संदर्भ साम्राज्यवाद -नस्लवाद विरोध और स्वाधीनता संग्राम है। इसकी
शुरूआत दक्षिण अफ्रीका में नस्लवादी भेदभाव के खिलाफ संघर्ष से हुई,लेकिन इसने
राजनीतिक ऊँचाई भारत के स्वाधीनता संग्राम में अर्जित की। गांधीजी के आंदोलनों के
कारण दक्षिण अफ्रीका और भारत में खासतौर पर आम जनता में मानवाधिकार चेतना पैदा
करने में मदद मिली। मानवाधिकार चेतना के सवाल नागरिकचेतना और लोकतांत्रिक मनुष्य
के निर्माण की प्रक्रियाओं से जुड़े हुए हैं। मानवाधिकारों के सवाल मात्र कानूनी
और संवैधानिक सवाल नहीं हैं। मानवाधिकारों के पक्ष में कानून बनाना,संविधान संशोधन
करना भी जरूरीहै लेकिन मानवाधिकार चेतना इससे स्वतः हासिल नहीं होती। आधुनिककाल
में मानवाधिकारों के विकास का पूरा दारोमदार लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मनुष्य के
विकास की प्रक्रियाओं पर निर्भर है।इसी तरह लोकतंत्र का विकास स्वतंत्रता का सभी
क्षेत्रों में विकास पर निर्भर है।इन सबके लिए लोकतांत्रिक
संवैधानिक,सांस्कृतिक,राजनीतिक संरचनाओं के निर्माण की जरूरत है।लोकतांत्रिक
संरचनाओं के बिना मानवाधिकारों का विकास संभव ही नहीं है।इस परिप्रेक्ष्य में
देखें तो भारत में मानवाधिकारों की यथार्थ स्थिति का मूल्यांकन करने में मदद
मिलेगी।भारत में लोकतंत्र है, आधी-अधूरी लोकतांत्रिक औरसंवैधानिक संरचनाएं भी हैं
लेकिन लोकतांत्रिक मनुष्य पूरी तरह गायब है। सवाल यह है कि लोकतांत्रिक मनुष्य का
निर्माण क्यों नहीं कर पाए ॽ वे कौन से कारक हैं जिनके गर्भ से लोकतांत्रिक मनुष्य
पैदा हो सकता है ॽ
लोकतांत्रिक
मनुष्य के निर्माण के दो बड़े क्षेत्र हैं, पहला है, परिवार और दूसरा है शिक्षा
व्यवस्था।इन दोनों का विकास लोकतांत्रिक मूल्यों की संगति में होना चाहिए।हमने
गलती यह की कि लोकतंत्र को परिवार से अलग रखा, परिवार को परंपराओं के हवाले कर
दिया और शिक्षा को रोजगार और कैरियर के हवाले कर दिया। इसका दुष्परिणाम यह निकला
कि हमारे यहां शिक्षितों में भी अधिकांश लोगों में लोकतांत्रिक मनुष्य के दर्शन
नहीं होते। शिक्षा और परिवार के सवालों को लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों की
संगति में लाए बिना भारत में मानवाधिकारों की चेतना का संभव नहीं है। इस
परिप्रेक्ष्य में हमें पूरे प्रसंग पर विचार करने की जरूरत है। चूंकि आपने गांधी
और सत्याग्रह के साथ सारे सवालों को जोड़कर पेश किया है,इसलिए पहले नए सिरे से
महात्मा गांधी को पढ़ने की जरूरत है।भारत के आम शिक्षितों में महात्मा गांधी को सही
परिप्रेक्ष्य में नहीं पढ़ा गया, शिक्षितों में वे सबसे उपेक्षित रहे हैं।जिस देश
में शिक्षितों में जब गांधी उपेक्षित हैं, गलत-सलत ढ़ंग से पढे और पढाए जाते हों
वहां गांधीचेतना पैदा हो ही नहीं सकती।हमारे देश में गांधी को अंततः लोग नाम और उनके प्रतीकात्मक
नारों से अधिक नहीं जानते। गांधीजी के बारे में अधिकतर सार्वजनिक बहसें कॉमनसेंस
और पल्लवग्राही नजरिए के आधार पर चलती रही हैं। गांधीजी के बारे में राजनेताओं और
राजनीतिक दलों का उत्सवधर्मी और राजनैतिक उपयोगितावादी प्रतीकात्मक रवैय्या रहा
है। इसके कारण गांधीजी अब चंद गांधीवादियों तक सीमित होकर रह गए हैं। गांधी एक
समग्र लोकतांत्रिक विचारधारा हैं। लोकतंत्र,भ्रातृत्व और स्वाधीनता के मर्म को
समझने में गांधीजी की विचारधारा महत्वपूर्ण स्थान रखती है।खासकर आंदोलन के
परिप्रेक्ष्य में वस्तुओं,घटनाओं और मानव जीवन की असंगतियों को समझने का जो नजरिया
गांधीजी ने दिया वह आधुनिक भारत की सबसे बड़ी सामाजिक पूंजी है।
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