गांधीजी के
नजरिए की मूल विशेषता यह है कि उन्होंने पहले से समाज में प्रचलित विचारों और
धारणाओं का अपने विवेक और समन्वय के आधार पर इस्तेमाल किया,इसके कारण उनको समाज
में वैचारिक संघर्ष कम चलाना पड़ा। मसलन्, यदि वे परंपरा में उपलब्ध विचारों की
बजाय किसी नए विचार का प्रतिपादन करते तो आम जनता को उसके साथ गोलबंद करने में
बहुत असुविधा होती। दूसरी बड़ी बात यह कि वे पहले से उपलब्ध विचारों को विश्लेषण
करके पेश नहीं करते, विश्लेषण का कम से कम इस्तेमाल करते हैं। वे विश्लेषण और
पृथक्करण की बजाय विचारों के समन्वय पर जोर देते हैं। समन्वय पर जोर देने की
पद्धति शुद्ध भारतीय जनता की मनोदशा या उसकी कॉमनसेंस चेतना से सीधे जुड़ने में
मदद करती है।
‘‘ समन्वयात्मक विचार में तार्किक असंगतियां खोज निकालना
आसान है। समन्वय का मतलब ही यह है कि उसमें शुद्ध तर्क की दृष्टि से परस्पर विरोधी
लगनेवाले विचारों या प्रस्थापनाओं का संगम होता है।’’[i]
समन्वयात्मक
चिन्तनदृष्टि को किसी एक विचार प्रणाली में नहीं बांध सकते बल्कि उसके लिए
अंतर्विषयवर्ती पद्धति के उपकरणों का उपयोग करना चाहिए। गांधीजी के राजनीतिक
स्वतंत्रता और आर्थिक समानता केन्द्रीय लक्ष्य थे, उनके नैतिक और आध्यात्मिक विचार
गौण हैं। ‘‘ उनकी दलील थी कि नैतिकता की वेदी पर जनता के आर्थिक और राजनीतिक हितों
को बलिदान कर देने का किसी को अधिकार नहीं है,क्योंकि राष्ट्र या जनता के भाग्य के
साथ इस तरह खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।नैतिक हित सिद्ध करने के लिए अपने हितों के
बलिदान का व्यक्तियों को तो शायद अधिकार हो,और किन्हीं परिस्थितियों में ऐसा करना
उनका कर्त्तव्य भी हो सकता है,परन्तु राष्ट्रों को यह अधिकार नहीं है कि अपने
भौतिक हितों को नैतिकता की वेदी पर उत्सर्ग कर दें।’’[ii] गांधीजीके विचार सतह पर पराने दिखते हैं लेकिन
उनके पीछे कार्यरत मंशा और जीवनदृष्टि एकदम आधुनिक है। किसी भी विचारको परखते समय
सिर्फ विचारधारा को ही आधार नहीं बनाया जाना चाहिए,बल्कि विचारों के पीछे कार्यरत
मंशा का भी विश्लेषण करना चाहिए। सच्चाई यह है कि पुराने विचारों का जब कोई
इस्तेमाल करता है तो उसके पीछे सक्रिय मंशा का मूल्यांकन करना चाहिए। आमतौर
राजनीति में मंशा की अवधारणा का समाजविज्ञानी इस्तेमाल नहीं करते। मसलन् ‘‘गांधीजी
ने अपने लेखों में यदि ‘ सत्य और अहिंसा’ की जगह, जिनका नैतिकता और धर्म से
सम्बन्ध है और जिन्हें आम लोग आसानी से समझ सकते हैं, ‘ निःशस्त्रीकरण ’ और ‘ खुली
कूटनीति’ जैसे शब्द प्रयुक्त किये होते तो आधुनिक व्यक्तियों द्वारा उनकी बात कहीं
अच्छी तरह समझी जाने की पूरी संभावना थी। ’’
‘‘ इसी तरह गांधीजी ने लोगों की समझ में आ जाने
वाले गृह और ग्राम उद्योगों का प्रयोग न कर पारिभाषिक शब्दावली का सहारा ले ‘
उद्योगों के विकेन्द्रीकरण’ की बात कही होती तो शिक्षित लोगों को उनकी बात शायद
ज्यादा अच्छी तरह समझ में आ जाती।शिक्षा की उनकी नई योजना को अगरर रूस की तरह
शिक्षा में दस्तकारियों का समावेश या शिक्षा का तकनीकीकरण कहा जाता तो शिक्षित लोग
शायद उसका स्वागत ही करते। ‘ रामराज्य’ की जो बात करते थे उसकी जगह भी यदि
लोकतंत्र शब्द का प्रयोग करते तो भारत का शिक्षितवर्ग उनकी बात कहीं अच्छी तरह समझ
लेता। कहते हैं कि ‘‘ शब्द बुद्धिमानों के बिल्ले होते हैं जबकि मूर्ख उन्हें
सिक्के समझते हैं।’’ लेकिन भारत में तो सभी बौद्धिक व्यवहार नकली सिक्कों के
द्वारा ही चलाया जाता,जिनकी वस्तुतःकोई कीमत नहीं होती।’’[iii]
कृपलानी ने सही
रेखांकित किया है ‘‘ आधुनिक मस्तिष्क गांधीजी के विचारों को समझकर उनकी कद्र तभी
कर सकता है जबकि पहले वह अपने को इस शब्दजाल की दासता से मुक्त कर ले।’’[iv]
कईबार गांधीजी को पढ़ते समय उनके विचारों में
असंगतियां नजर आती हैं,इन असंगतियों का उत्तर स्वयं गांधीजी ने दिया है, उनका कहना
है ‘‘ किसी विषय पर लिखते समय इस बात का मैं कभी विचार नहीं करता कि इस बारे में
पहले क्या लिख चुका हूँ। किसी विषय पर अपनी पिछली बातों से चिपके रहने की मेरी आदत
नहीं है,बल्कि जिस समय जिस रूप में मुझे सत्य के दर्शन हों उससे संगत रहना ही उस
समय मेरा लक्ष्य रहता है। इसी का यह नतीजा है कि मुझे एक सत्य से दूसरे सत्य का
पता लगता रहता है; मेरी स्मरण-शक्ति व्यर्थ की तबालत से बची है और इससे भी बड़ी
बात यह है कि जब भी कभी मुझे अपने पचास वर्ष पुराने लेखों तक की अपने ताजा-से-ताजा
लेखों से तुलना करनी पड़ी है तो उसमें मुझे कोई असंगति नहीं मिली। परन्तु जिन
मित्रों को मेरे लेखों में असंगतियां दिखाई पड़ें उनके लिए यही ठीक होगा कि वे उसी
अर्थ को स्वीकार करें जो मेरे नवीनतम लेखों में उन्हें मिले-बशर्ते कि वे पुराने
अर्थ से ही चिपके रहना पसन्द न करते हों। लेकिन ऐसा चुनाव करने से पहले उन्हें यह
देखने की कोशिश जरूर करनी चाहिए कि ऊपर से दीखने वाली दो असंगतियों के मूल में कोई
स्थायी सुसंगति अथवा तालमेल है या नहीं।’’[v]
गांधीजी के
विचारों को व्यवस्थित करने में एक अन्य कठिनाई यह सामने आती है कि वे ऐसा कोई भेद
नहीं करते थे कि सैद्धांतिक रूप में क्या संभव है और व्यावहारिक रूप में क्या ।[vi] इसके अलावा उनके विचारों में ‘आदर्श’
और ‘संभव’ में घालमेल नहीं करना चाहिए, उन दोनों में स्पष्ट भेद करना जरूरी है।
वैसे गांधीजी सिद्धांत और व्यवहार में भेद नहीं मानते थे,फिर भी ‘आदर्श’ और ‘संभव’
के भेद को मानना चाहिए। इसके अलावा गांधीजी के विचार महत्वपूर्ण हैं,उनकी दलीलें
गौण हैं,इसलइ उनको विचारों के गुणावगुणों पर ध्यान देना चाहिए। उनकी भाषा,
शब्द-प्रयोग और दलीलों या शैली पर जोर नहीं देना चाहिए ।कईबार उनकी दलीलों से
ज्यादा महत्वपूर्ण उनका आचरण होता था ।
कृपलानी ने लिखा
है ‘‘ उनके बारे में अध्ययन करते समय उनके द्वारा कथित या लिखित शब्दों पर ही
ध्यान रखना पर्याप्त नहीं है,बल्कि उनके जीवन पर भी विचार करना आवश्यक है।यह देखना
चाहिए उनका जीवन-व्यवहार कैसा रहा,विषम परिस्थितियों का उन्होंने किस तरह सामना
किया,संस्थानों का वे कैसे संगठन करते थे और मित्रों और विरोधियों के साथ किस तरह
का व्यवहार करते थे। उनका सार्वजनिक और निजी जीवन तो खी हुई किताब की तरह था,जिससे
उनके लेखों का अध्ययन उनके जीवन के अध्ययन के साथ-साथ करना चाहिए। उनके व्यक्तिगत
और सामाजिक-दर्शन का अर्थ केवल लेखों के अध्ययन से शायद पूरी तरह स्पष्ट न भी हो।
इसके अलावा अध्ययनकर्ताओं को एक बात का और ध्यान रखना होगा। वह यह कि गांधीजी के
विचारों, उनकी नीतियों और उनके कार्यक्रमों को ठीक तरह समझने के लिए उन्हें स्वयं
अपनी ही बुद्धि और अपने ही ज्ञान तथा अनुभव पर निर्भर करना चाहिए।’’[vii]
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