ममता बनर्जी के नेतृत्व में नई सरकार 20 मई को शपथ लेगी। वाम मोर्चे का इसबार के विधानसभा चुनाव में हारना कई मायनों में महत्वपूर्ण है। ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठबंधन की जीत का पहला संदेश है कि लोकतंत्र में अकल्पनीय शक्ति है। लोकतंत्र को पार्टीतंत्र के नाम पर बंदी बनाकर रखने की राजनीति पराजित हुई है। पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि कम्युनिस्ट अपने पुराने सोच से बाहर नहीं निकलते तो उनको जनता खारिज कर देगी। यह भविष्यवाणी सही साबित हुई है। वाम मोर्चा और खासकर माकपा ने अपनी विचारधारा में युगानुरूप परिवर्तन नहीं किया। पार्टी के अंदर लोकतंत्र की संगति में परिवर्तन नहीं किए । इसके कारण ही पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की अभूतपूर्व पराजय हुई है। वाम की पराजय पहला कारण है वाम मोर्चे और माकपा का सरकारी दल में रूपान्तरण। माकपा ने 1977 में सत्ता संभालने के बाद वाम मोर्चे ने भूमि सुधार आंदोलन के अलावा कोई भी बड़ा आंदोलन नहीं किया। खासकर अपनी सरकार के खिलाफ कोई संघर्ष नहीं किया। माकपा के नेतृत्व वाले जनसंगठनों की भूमिका जनप्रबंधक की होकर रह गयी। जनसंगठनों को जनप्रबंधन संगठन बनाकर उन्हें जनता को नियंत्रित और शासित करने के काम में लगा दिया गया। साथ ही राज्य सरकार की अनेक बड़ी कमियों और जनविरोधी नीतियों के प्रति आँखें बंद कर लीं । इसके कारण आम जनता के साथ वाम मोर्चे का अलगाव बढ़ता चला गया और उसने ही ममता बनर्जी को राजनीतिक हीरो बनाया है। ममता बनर्जी को मिला जन समर्थन सकारात्मक है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। वाम मोर्चे के जनता से अलगाव का दूसरा बड़ा कारण है मंत्रियों की निकम्मी फौज। वाम मोर्चे ने विगत 35 सालों में कभी खुलकर किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री के कामकाज की आलोचनात्मक समीक्षा प्रकाशित नहीं की। निकम्मेपन के कारण किसी भी मंत्री को पदमुक्त नहीं किया । इससे प्रशासनिक स्तर पर निकम्मेपन को बढ़ावा मिला। आम जनता की तकलीफें इससे बढ़ गयीं। पश्चिम बंगाल के इतिहास में पहलीबार हिंसारहित मतदान हुआ है। इक्का-दुक्का हिंसा की घटनाओं को छोड़कर शांतिपूर्ण और निर्भय होकर मतदान करने के कारण आम जनता की वास्तविक भावनाओं को हम सामने देख रहे हैं। वाम मोर्चा लाख दावे करता रहे लेकिन वो चुनावों को हिंसारहित नहीं बना पाया।
ममता बनर्जी की महत्ता को कभी वामनेता नहीं मानते थे। वे कभी ममता बनर्जी को सम्मान के साथ ममताजी कहकर नहीं बुलाते थे। इससे उनके अंदर छिपे असभ्यभावों को समझा जा सकता है। वाम मोर्चे ने ममता बनर्जी को नेता के रूप में सम्मानित करने की बजाय बार-बार अपमानित किया। इस तरह की घटनाएं विगत 12 सालों में आम रही हैं। यह वामदलों में सभ्यता के क्षय का संकेत है। वामदल यह देख नहीं पाए हैं कि ममता बनर्जी ने अपनी संघर्षशील-जुझारू नेता की इमेज विकसित करके आम जनता में वाममोर्चे और खासकर माकपा के जनविरोधी कामों और आतंक के वातावरण को नष्ट करने का ऐतिहासिक काम किया है। ममता बनर्जी का राजनीतिक वर्गचरित्र कुछ भी हो लेकिन उसके जुझारू तेवरों ने माकपा के खिलाफ आम जनता को गोलबंद करने और गांधीवादी ढ़ंग से शांति से चुनाव जीतने का शानदार रिकार्ड बनाया है। ममता बनर्जी के प्रचार ने माकपा के 34 सालों के शासन को समग्रता में निशाना बनाया और खासकर उन बातों की तीखी आलोचना की जहां पर मानवाधिकारों का माकपा द्वारा हनन किया गया। पार्टीतंत्र बनाम लोकतंत्र में से चुनने पर जोर दिया।
ममता बनर्जी की जीत में राज्य कर्मचारियों की बड़ी भूमिका रही है। वाम मोर्चे की मजदूर विरोधी कार्यप्रणाली और नीतिगत फैसलों से राज्य कर्मचारी लंबे समय से नाराज चल रहे हैं ,ममता को इसका राजनीतिक लाभ मिला है। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले मोर्चे के मतों में वृद्धि हुई है। ममता बनर्जी के नेतृत्व में जो नई सरकार आ रही है उसके सामने तात्कालिक तौर पर निम्न कार्यभार हैं- 1. राज्य में राजनीतिक हिंसा की बजाय राजनीतिक भाईचारे का माहौल बनाया जाए। 2.राज्य कर्मचारियों को मंहगाई भत्ते की बकाया समस्त राशि का तत्काल भुगतान किया जाए। वेतन संबंधी अनियमितताएं खत्म की जाएं। कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षकों की अवकाश प्राप्ति की उम्र को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सिफारिशों के अनुसार 60 से बढ़ाकर 65 साल किया जाए। 3. जेल में बंद सभी राजनीतिक बंदियों की तुरंत रिहाई की जाए और राजनीतिक हिंसा और धौंसपट्टी के खिलाफ पुलिस सक्रियता बढ़ायी जाए। 4. मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों पर संवेदनशील ढ़ंग से प्रशासन काम करे। 5. राज्य में सूचना अधिकार कानून को पारदर्शिता और सख्ती के साथ लागू किया जाए। 6. भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए राज्य में लोकायुक्त का गठन किया जाए,जिससे विभिन्न भ्रष्टाचार के मामलों की सही ढ़ंग से प्रभावी जांच हो सके। विभिन्न स्तर पर खाली पड़े जजों और न्यायिक प्राधिकरणों के जजों के रिक्त पदों को तुरंत भरा जाए। 7. शिक्षा क्षेत्र में प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर चल रहे पार्टीतंत्र को तुरंत खत्म करके राज्य में व्यापक पारदर्शिता वाले 'राज्य शिक्षा पुनर्गठन आयोग' का निर्माण किया जाए ,अशोक मित्रा कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित की जाए। 'राज्य शिक्षा पुनर्गठन आयोग' बताए कि नई परिस्थितियों में क्या करें? नई प्रभावी संरचनाएं कैसे हों ? किस तरह के बुनियादी सुधारों की जरूरत है ? शिक्षा व्यवस्था के मौजूदा प्रबंधन को तत्काल खत्म करके नयी लोकतांत्रिक-पेशेवर-अनुभवसंपन्न प्रशासनिक प्रणाली लागू की जाए। राज्य में सक्रिय विभिन्न शिक्षा आयोगों और संस्थाओं के ढ़ांचे को तुरंत बदला जाए। 8.गांवों में पंचायतों के स्तर पर नरेगा आदि योजनाओं को बिना किसी भेदभाव के तुरंत लागू किया जाए। 9.राज्य अर्थव्यवस्था को सही मार्ग पर लाने के लिए कर वसूली के काम को गंभीरता से किया जाए और आर्थिक कुप्रबंधन पर एक श्वेतपत्र जारी किया जाए।
पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनावों में वाम मोर्चे की हुई अप्रत्याशित पराजय पर आपके लेख का इंतज़ार कर रहा था! यही कहूँगा कि लेख पढ़ कर थोड़ी मायूसी अवश्य हुई, क्योंकि आपसे और अधिक सशक्त एवं ज्ञानवर्धक लेख की आशा थी! यह बात सही हैं कि वामपंथी नेताओं और कार्यकर्ताओं का आम जनता एवं ज़मीनी वास्तविकता से कटाव इस भीषण पराजय का प्रमुख कारण रहा! कुछ विचारकों कि यह बात भी उपयुक्त हैं कि जनता का वोट ममता बनर्जी के प्रति विश्वास व्यक्त करने का कम बल्कि वामपंथियों को उनके अहम का करारा जवाब देना अधिक हैं! वर्ना क्या कारण हैं कि २००६ में संपन्न हुए चुनावों में जहाँ वाम-मोर्चे को अप्रत्याशित जीत मिली वहीँ सिंगुर एवं नंदीग्राम में हुई हिंसक घटनाओं ने कहीं न कहीं जनता के बीच में वाममोर्चे कि यह छवि बनायीं की अब वह सर्वहारा समाज की बात नहीं बल्कि धनाड्य पूंजीपतियों की बात कर रहे हैं! मैं ममता बनर्जी को कोई बुद्धिजीवी, उचित दृष्टिकोण वाला नेत्री नहीं मानता! यह अवश्य हैं की उन्होंने पूंजीपतियों के खिलाफ आवाज़ उठाकर जिस तरह से अपनी छवि किसान वर्ग के बीच में बनायीं, भले ही वह अब उस पर अमल न करे, जैसे की रतन टाटा को तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में फिर से अपना उद्योग स्थापित करने के लिए प्रस्तावना भेजी हैं! अब देखते हैं जिस टाटा को ममता ने बंगाल से विदा किया था अब उसी उद्योगपति को ममता और उनकी पार्टी बंगाल में अपना उद्योग स्थापित करने के लिए कहाँ से भूमि आवंटित करेंगी! यह सोचना की ममता बनर्जी बंगाल को तरक्की की ओर ले जाएँगी पूर्ण रूप से एक खतरनाक गलती हैं! केन्द्रीय मंत्री-मंडल में रेल मंत्री के रूप में उनका काम-काज कैसा रहा हैं, यह सब जानते हैं! रेल-मंत्री नई दिल्ली स्थित रेल-मंत्रालय भवन में न हो कर कोलकाता में विराजमान हुआ करती थी! उनके कार्यकाल में रेलवे में सबसे अधिक दुर्घटनाएं हुई जिसमे ७०० से अधिक यात्रियों को अपनी जान गंवानी पड़ी एवं रेलवे को सबसे अधिक आर्थिक क्षति उठानी पड़ी! जब
जवाब देंहटाएंबुद्धदेब भट्टाचार्य जी का कथन की वामपंथियों को अपनी पुरानी (?) मानसिकता को त्याग कर बाहर आना चाहिए, उसमे न बुद्धदेब भट्टाचार्य जी ने कुछ समझाया न आपने! पुरानी मानसिकता को त्यागना का अर्थ क्या दूसरे शब्दों में "संशोधनवादी" बनाना हैं जो आज का चीन गणराज्य हैं, जो पूर्ण रूप से मार्क्स-लेनिन-माओ के मार्ग को त्याग कर बाजारवादी व्यवस्था को अपना चुका? बुद्धदेब जी ने अपने इसी तथाकथित "पुरानी" मानसिकता को त्यागते हुए पूँजीवाद के अनुकूल बंगाल में वातावरण बनाने की कोशिश और इस प्रयोग में वह पूर्ण रूप से असफल साबित हुए! वाम-मोर्चा का आधार न तो श्रमिक वर्ग रहा और नाही शहरों में रहने वाला माध्यम-वर्गीय समाज! भले ही बुद्धिजीवी, पत्रकार एवं आम जन इसे वाम-मोर्चे के प्रति जनता के क्रोध का इज़हार मान रहे हो पर जो हानि बुद्धदेब के "नयी" सोच के कारण हुई हैं, उससे वामपंथी विचारधारा को जो नुकसान हुआ हैं उसकी क्षतिपूर्ति शायद ही कभी हो! आशा करता हूँ की निराशा के बादल छटेंगे और श्रमिक वर्ग पुनः वामपंथ की ओर अग्रसर होगा!